गुरुवार, 30 मई 2024

ईश्वर -1



किसी अलग वाले ईश्वर का होना  मानने में एक दार्शनिक-मनोवैज्ञानिक किस्म की बाधा मुझे दिखती है । ईश्वर की (एकेश्वरवादी ) अवधारणा में सह- अस्तित्व की गुंजाइश नहीं है । जैसे ही आप ईश्वर के होने को स्वीकार करेंगे अपने होने की गौणता को भी स्वीकार करना पड़ेगा  । यही कारण है कि अस्तित्व का चरमोत्कर्ष  या तो नास्तिक तानाशाहों में दीख पड़ता है या फिर ऐसे आस्तिकों में जो स्वयं को ही ईश्वर समझते रहे । ध्यान से देखें तो राम कृष्ण और बुद्ध किसी को भी किसी दूसरे  ईश्वर की आराधना करते नहीं  दिखाया गया है । दरअसल शत-प्रतिशत जिम्मेदारी या आत्मनिर्भरता पूर्ण स्वावलंबन के बिना आ ही नहीं सकती । यह स्थिति किसी नास्तिक में हो सकती है या फिर  किसी नास्तिक सदृश आस्तिक में ।
       अब इस टिप्पणी पर सरल रूप में विचार करते हैं । भारतीय धार्मिक संस्कृति में बहुदेशीय, अद्वैतवाद, अनेकांतवाद  तथा प्रकृति पूजा  जो वेद काल से ही देखने को मिलती है - लोक परम्परा और धार्मिक पर्वों में गुंथे हुए से हैं । वर्ण -विभाजन , कार्य तथा कर्तव्य-विभाजन के कारण व्यवहार में धार्मिकता के  अलग-अलग स्वरूप  सामने आते हैं । सबसे अधिक मानने वाले  अनुयायी  मानसिकता को जीने वाले भक्ति संप्रदाय के हैं ।पुरोहितों  की पूजा-पद्धति इसी समर्पणवादी आस्था  का नेतृत्व करती है । यहां मैने सजग रूपसे पुरोहितों के लिए  ब्राह्मण  शब्द का प्रयोग नहीं किया है । ब्रह्म  और ब्राह्मण की अवधारणा का संबंध औपनिषदिक दर्शन से है ।  योग  और आध्यात्म  सहित उन्नत जीवन पद्धति को लेकर सुव्यवस्थित चिंतन भी इसके पास है । श्रमण संस्कृति से लेकर बौद्ध ,जैन और सांख्य  सभी के पास अपनी आध्यात्मिक जीवन और विचार की सैद्धांतिकी है । इसमें मध्यकाल के संत मत आन्दोलन को भी शामिल किया जा सकता है । 
      पुरोहित धर्म कर्म के स्थान पर याचना, प्रार्थना , स्तुति,प्रशंसा  ,कृपा, और  करुणा  आदि को महत्व  देते हैं ।  एक अनुशासित विनम्र नागरिक समाज  के प्रवृत्ति-निर्माण और पोषण में इस आराधना पद्धति का भी महत्व है । यह विरोध के स्थान पर  सहयोग,अनुकूलन और सामंजस्य  पर आधारित सांस्कृतिक समाज निर्मित कलता है । इस संस्कृति का नकारात्मक पक्ष यह है कि यह एक रीढविहीन समाज का निर्माण करता है । इसी संस्कृति के कारण भारत हजार वर्ष से गुलाम रहा ।  यह समाज परिस्थितियों को ईश्वर की इच्छा मानकर उसे बदलने का प्रयास नहीं करता । पुरोहित धार्मिक संस्कारों के प्रबल -प्रभाव के कारण ही भारतीय धार्मिक संस्कृति स्वाभिमान विरोधी और समर्पणवादी अनुयायी अर्थात प्रजा का निर्माण करती है । समाज और परिस्थितियां जैसी हैं उसे वैसे ही स्वीकार करने को कहती हैं । कंप्यूटर की भाषा में कहें तो यह एक नकारात्मक एवं हानिप्रद सांस्कृतिक साफ्टवेयर  से संचालित सभ्यता का निर्माण करती है ।  धर्म  और ईश्वर से रिश्ते के ऐसे ही  बदलावों की संस्तुति है -"मैने अपना ईश्वर बदल दिया है "कृति । इस विनम्र स्वीकार के साथ  कि हमारी धार्मिक अपर्याप्तता पर बहुत से प्रश्न आधुनिकता और विज्ञान नें लगाए हैं तो शिक्षा के व्यापक प्रसार के कारण  लोकतंत्र का मूल आधार समानतापूरण व्यवहार की मांग करती राजनीतिक चेतना नें भी । जब दास्य भाव की भक्ति और उसकी अपरिहार्य हीनता ग्रन्थि अनावश्यक लगने लगी है ।
           पुरोहिताई परम्परा में सिर्फ क्रोधी ॠषि परशुराम का स्वभाव  ही इसका अपवाद है -वह भी इसलिए कि वे सामंती शासकों के उत्पीड़न को न्याय की प्रतीक्षा में ईश्वर के हवाले नहीं कर सकते थे । उनमें प्रतिशोध का जो स्वावलंबन है वही उन्हें अवतार कोटि में प्रतिष्ठित कराता है ।

      वैसे दूसरी ओर देखें तो जीन के स्तर पर सबको संरचनात्मक निजता,मौलिकता और विशिष्टता प्राप्त है । ईश्वर की भूमिका वाला यानी उत्पादक-स्रष्टा ईश्वर का होना भी किसी दूसरे के होने की तरह ही होगा । यद्यपि वह भी इसी प्रकृति के पूर्व में बीत चुके भिन्न सृजन-काल में घटा है । जैसे हम अपने बचपन को इसी देह में वापस नहीं पा सकते वैसे ही प्रकृति के शैशवकाल को भी । यदि प्रयोगशाला में मनुष्य न दुहरा पाया तो । हम भी तो सृष्टि के उत्पाद ही ठहरे । वैसे सैद्धांतिक सुविधा के लिए उसे एक ऐसे अति बुद्धिमान मस्तिष्क के रूप में देखा जा सकता है  जिससे हम मिले न हों लेकिन वह कहीं हो सकता है । 
       


सोमवार, 15 अप्रैल 2024

'हे राम !' : (रामकथा का एक बचा हुआ समकालिक पाठ....)

 'हे राम !' :

(रामकथा का एक बचा हुआ समकालिक पाठ....)

मनुष्य का वास्तविक आत्म बहुत घटिया है
जो वह है और जो वह होना चाहता है
जो उसे होना चाहिए
और जो वह हो सकता है
और परिस्थितिजन्य समीकरणों के बीच
जो उसे होने दिया गया
बहुत सोच प्रस्तर-स्तर उसके होने का चक्रव्यूह रचते हैं

दर्द की एक तेज लहर है -
हे राम !
एक सार्वकालिक सांत्वना है
कि तुमसे भी बुरा जीकर
इस धरती से चला गया है कोई!

कि जो कुछ भी तुम्हारे साथ घटा
वह तो कुछ भी नहीं है भाई !
कि जो सारी दुनिया को अपना मानकर चाहता हो
उसको भी न चाहने वाले
उसके घर में ही बैठे मिल सकते हैं ।

उसे दिया गया था देश-निकाला
चौदह वर्ष तक सारी बस्तियां छोड़कर
जनशून्य वन-कान्तारों में रहने और भटकने की सजा
या फिर कोई साजिश भी हो सकती थी-
कैकेय नरेश की
रावण के साथ की गयी गुपचुप दुरभिसंधि
अपने भांजे भरत को
निष्कंटक अयोध्या का सिंहासन उपलब्ध कराने के यक्ष में

कि समय के सारे चरित्र छलिया और कपटी हैं
जो हैं , जैसा दिखते हैं और जैसा दिखाया जाता है
वैसा कुछ भी सच नहीं !
जनता भोली और: निरक्षर है
बात-बात में ताली बजाने के लिए तैयार

कि सब संदिग्ध हैं
यहां तक कि सीता पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता
पंचवटी में किसी अज्ञात प्रदेश से आकर
सीता से एकांत मिलन कर रही वह युवती भी
मेरे दुर्दिन में सीता के अपहरण का
कोई अवसर तलाशने वाले
किसी मनबढ सामन्त की
कोई दूती भी तो हो सकती है !
कुछ भी नहीं कहा जा सकता
किसी के भी बेरोजगारी के दिन
बहुत ही त्रासद और निरीह हुआ करते हैं
क्यों कोई अभिशप्त रहना चाहेगा !
सिर्फ कहने के लिए शस्त्र धारी है
इतना सज्जन है तो धनुष-बाण ही क्यों धारण किया !
सिर्फ दिखाने के लिए....

क्या ही मूर्खतापूर्ण है !
किसी स्त्री के लिए
उसके यौवन के चौदह वर्ष ही महत्वपूर्ण हुआ करते हैं
और तुम्हारी तरह सभी महात्मा बनते फहराने लगें तो
कैसे चलेगी सृष्टि!
कैसे बढेगा वंश !

क्या पता विचलित ही हो गयी हो
सीता का धैर्य
अपने वैचारिक सहमति के साध ही
लक्ष्मण को बलात् दूर भेजकर
चक्रवर्ती रावण के प्रणय-निवेदन पर
सुनहरे अवसर की तलाश में निकल भागी हो
अपनी ही इच्छा से निकल भागी हो सीता
अपनें समय के चक्रवर्ती रावण के साथ !
(जैसा की राजेन्द्र यादव भी कह कर चले गए हैं )

जाने से पहले लक्ष्मण ने सीता से
अंदर से अर्गला बंद रखने को कहा था
उसके बावजूद सीता का बाहर आना
सीता के चरित्र को भी संदिग्ध तो बनाता ही हैं
अपहर्ता रावण सीता को ढाल बनाकर
रावण की आंखों के सामने ही भाग निकला होगा पंचवटी से
झाड़ियों की ओट से किंकर्तव्यविमूढ़
देखते ही रह गए होगे राम !
क्या पता !

कुछ तो अविश्वास का प्रत्यक्ष आधार रहा होगा
जिसके कारण सीता की अग्निपरीक्षा लेकर भी
विश्वास नहीं कर पाते राम !

राम एक चतुर्दिक साजिशों से घिरे
ऐसे उदात्त नायक का नाम है
अपार रहा होगा जिसका एकान्त दुःख और अपमान
किसी से भी न साझा किए जानें योग्य!
जिसके दु:सह बोझ से ही वह चरित्र
सरयू की लहरों में डूब गया होगा !?

सच-सच बतलाओ!
तुम क्या कुछ जीकर चले गए हो राम !
कुछ तो हुआ ही है तुम्हारे साथ
कुछ ऐसा अनचाहा,अभद्र अकल्पनीय और अघटनीय
जिसे सिर्फ तुम ही जानते होगे
हे रहस्यमय चुप्पी वाले दुखभोगी महानायक
जिसे कोई भी दूसरा नहीं जानता !

#मोक्ष और #मुक्ति

 यह जिज्ञासा मुझे युवावस्था से ही परेशान करती रही है कि भारतीय परम्परा में ही मोक्ष और मुक्ति का इतना घनघोर लक्ष्य क्यों है ?

जीवन का पुरुषार्थ चतुष्टय या यह कहें कि लक्ष्य-विभाजन- धर्म ,अर्थ,काम और मोक्ष में मोक्ष को अंतिम लक्ष्य घोषित करने का मनोवैज्ञानिक औचित्य तो समझ में आता है -यदि उसे मृत्यु ,विसर्जन और अंतत: सर्वस्व त्याग कर इस दुनिया से चले जाने के पूर्वाभ्यास या मानसिक तैयारी के रूप में देखें । इस रूप में मोक्ष या मुक्ति को खुशी-खुशी मरने की मानसिक तैयारी या यह कहें कि मरने से पहले मनसा सब कुछ छोड़ देने का बौद्धिक प्रयास भी कह सकते हैं । यदि मोक्ष और मुक्ति की अवधारणा इसी रूप में है तो फिर आपत्ति की कोई बात नहीं ।
लेकिन भारतीय धर्म-ग्रन्थों में मोक्ष और मुक्ति का जिस तरह महिमामंडन हुआ है और उसको जिस प्रकार गूढ़ और गंभीर दार्शनिक अवधारणा के रूप में विकसित किया गया है । उसकी ऐसी अवधारणात्मक दुरूहता और रहस्यमयता के पीछे उसका पुनर्जन्म की अवधारणा से जोड़ दिया जाना , इस दुनिया को भर्त्सना योग्य,माया के रूप में मिथ्या और त्याज्य घोषित करना यानी की नकारात्मक-निषेधात्मक जीवन-दृष्टि को आदर्श घोषित करना । नकारात्मकता को ही जीवन के काम्य लक्ष्य के रूप में महिमामंडित किया गया है-जिसकी प्राप्ति के लिए सन्यासियों की पूरी सेना ही लगी हुई है । जिसे देखो वही सन्यासी बना घूम रहा है । यह सब एक गम्भीर रूप तब ले लेता है जब बाह्य जगत के प्रति आसक्ति यानी कि माया के विरुद्ध मुक्ति का आत्म-संघर्ष इच्छाओं को ही बंधन का मूल कारण घोषित कर देता है । इच्छाएं करना ही पाप का आधार बन जाता है । इसमें सबसे गंभीर बात यह है कि हमारी इच्छाओं का संबध हमारी कर्मेन्द्रियों के लक्ष्य यानी परिचालन के उद्देश्य से है । हमारे सृजन से है । कह सकते हैं कि इच्छाएं ही हमारे द्वारा किए जाने वाले कार्यों एवं होने वाले सभी प्रकार के सृजन का मूल,आधार या भ्रूण हैं । दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक प्रश्न यह है कि साधना के लिए इस इच्छाओं की भ्रूण-हत्या को इतना अधिक महिमामंडित क्यों किया गया है ! इससे किसको फायदा है ? होने की स्थिति में किसी ईश्वर को मनुष्य की इच्छाओं से क्या आपत्ति हो सकती है ! यदि जरूरी है तो इस इच्छा-हत्या से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसको लाभ होने वाला है ? यदि किसी ईश्वर को तो किस प्रकार ? यदि साधक मनुष्य को तो वह भी किस प्रकार ? या यह जरूरी ही है तो किस प्रकार भारतीय मनुष्य के लिए जरूरी है ? या यह कहीं भी जन्में हुए दुनिया के किसी भी मनुष्य के लिए भी जरूरी है ?
ऐसा मुझे नहीं लगता कि इससे मिलते-जुलते प्रश्न प्राचीन भारतीय मनीषियों के मन में नहीं आए होंगे । न आए होते तो वे प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग की कल्पना ही न कर पाते । साफ देखा जा सकता है कि तत्कालीन सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के कारण ही प्राचीन भारतीय मनीषियों ने मुक्ति के विचार को सामाजिक दबाव और व्यवस्था जनित आवश्यकताओं के रूप में पहचानने और परिभाषित करनें से रोका ।
भारतीय दार्शनिकों की मुक्ति की अवधारणा को भारतीय जीवन और समाज से जोड़कर देखते यानी मुक्ति-विचार के औचित्य की परीक्षा करते चलें तो मुक्ति के सत्य तक पहुँचने में आसानी होगी । जैसे कि यही कि प्राचीन भारतीयों के लिए मुक्ति की यह साधना क्यों और किस प्रकार जरूरी थी ! इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि मुक्ति की साधना करना हमारे भारतीय पूर्वजों की क्या मजबूरी थी ?
(1-जारी और अपूर्ण )

बंजार


जब तक बीमार नहीं पड़ते है
दवा की दुकाने
बेमतलब की खुली दिखती हैं
जब तक जल्दी पहुंचनें की गर्ज न हो
गुस्सा ही दिलाते हैं
ट्रैफिक जाम कराने वाले
मनबढ, गतिवाधी आवारा वाहन
कौन कहता है कि वह तुम ही हो !
जिसके लिए जो कुछ भी है
जैसा भी लिखा गया होगा. ....
उसे अपने पाठकों का इंतजार है
जबकि तुम्हें कुछ और पढना है
आगे अभी बढ़ना है
इधर रुकना बेकार है
तुम्हें तो दूसरी गली के बाद बांएं मुड़ना है
तुम बाजार में हो
बाजार सिर्फ गिने-चुने से नहीं बनता
सबकी अपनी-अपनी जरूरतें है
अपनी-अपनी तलाश है
उसे मैने चिढ़-चिढ़ कर सिर धुनते
समय गिनते देखा है
जिसकी शिकायत है कि
कोई उसे नहीं चुनता !

निष्क्रमण

 

आत्मा से लेकर परमात्मा तक

सारा महिमामंडन एक तरफ
और मेरा होना दूसरी तरफ....
क्यों मैं ऐसा करूं कि
कुछ शब्द बचा कर रखूं और
कुछ शब्दों का जीवन भर विरोध करता रहूं
उनका खंडन करता रहूं
कुछ को मैं झूठ घोषित कर दूं और कुछ को
मैं सच की तरह विज्ञापित करूं
जबकि सारे महिमामंडन
सारे शब्द अस्तित्व के अनुवर्ती हैं
एक ही टकसाल से निकले हुए .....
भले ही वे अलग-अलग समय में
अलग-अलग मनुष्य द्वारा ईजाद किए गए....
हमें सच की खोज में एक दिन
भाषा तंत्र से भी बाहर निकलना
सीखना और पहचानना ही होगा -
अपना होना सही-सही जीने और जानने के लिए ....
कि हम तब भी होते हैं
जब हम कुछ भी नहीं बोलते
हम तब भी होते हैं
जब हम कुछ भी नहीं जानते
हम तब भी होते हैं
जब हम जान रहे होते हैं कि
क्या कुछ और किस तरह जान रहे हैं हम
और इस ज्ञान से बाहर निकलना क्यों जरूरी है !
कि आखिरी बंधन ज्ञान ही है
जिससे मुक्त होने तक
कोई स्वयं को
सुखी घोषित कैसे कर सकता है !
कि सारी छवियां सिर्फ एक श्रृंगार है
और व्यक्तित्व-
उपयोगी भूमिकाओं में बदले हुए संज्ञापद शब्द !
वह जो अपने होने से ही अभिभूत था
चमत्कृत था अपने होने के आश्चर्य को लेकर
अब जो चला भी गया है अपना सोचना छोड़कर
सिर्फ इतना ही पता चलता है कि
एक बूढ़ा ईश्वर भी
जो लगभग थक ही गया होगा
अपनें अस्तित्व और अपनी ईश्वरता को लेकर...
उसके समर्पण और संबोधन के केन्द्र में रहा है !
जैसे एक पुराना ईश्वर
जो हर कीमत पर आश्वस्त होना चाहता हो कि
कहीं कुछ भी बदलने नहीं जा रहा
और पूरी तरह अपनें प्रभुत्व की निरंतरता के साथ
सुरक्षित रहने के लिए आश्वस्त हो वह !
कुछ इसी तरह का संघर्ष चल रहा है
उसके पुरानें तन और नये तन के बीच !

वक्त का वक्तव्य !

 वक्त का वक्तव्य!


कभी मैं भी

ज्ञान प्राप्त करने की खुशी को
सभी से साझा करना चाहता था
कि मैने पाया
सबके दिमाग के कैसेट-सीडी
पहले से ही भरे हुए हैं
कि सत्य हर मस्तिष्क की समझदारी के
सापेक्ष हुआ करता है
कि सत्य शैशवकाल की अबोधता से
वयस्क जीवन की बोधता के बीच
की गयी जीवन की यात्रा है
और वह हर मस्तिष्क के बोध के सापेक्ष हुआ करता है
मेरा मस्तिष्क जितना और जैसा सोच पाता है
लगभग वैसा ही और उतना ही हो सकता है
मेरे द्वारा जिया गया सत्य !
और यह भी कि
मानव जाति का तथाकथित सत्य
स्मृति और बोध के सांस्थानिक उपस्थित के रूप में ही
प्राय:होता है-मानवीय समय और विकास के सापेक्ष !
प्राय: बंद समूहों की साझी एवं प्रतिस्पर्धी
समझदारी के रूप में
मै ज्ञान की शाश्वतता में नहीं
उसकी जीवन-केन्द्रित उपयोगिता में विश्वास करता हूॅ
यद्यपि जीवन के धरातल पर
सभी का अनुभव लगभग एक जैसा ही था कि
सारे ज्ञान कन्फ्यूजियाते हैं
उनसे जितना पाते हैं
उससे अधिक गंवाते और उलझाते हैं ..
यह भी कि लोग थक और ऊब चुके हैं
लाखों टन विरासत में मिले
ज्ञान के कचरे से ...
शायद यही वे कारण भी है कि
मैं अपनें ज्ञान को ज्ञान घोषित करनें में
सतत संकोचशील रहा हूँ
इसके बावजूद कि
मैने कचरे से बाहर निकलने की
सरल युक्ति वास्तव में पा ली थी !
आज की तारीख में
मैं ज्ञान को पाने की गर्व भरी खुशी और
उसे बांटने की दिलचस्पी
लगभग पूरी तरह खो चुका हूॅ
एक ऐसे दौर से गुजरते हुए
जिसमें चुप रह जाना भी
सुखी हो जाना है -
मैं ऐसा सुखी हो गया हूँ
यद्यपि मैं सभी को
अपनें-अपनें दिमाग से बाहर निकलकर
साथ-साथ हँसते-बोलते,घूमते-फिरते
कुछ सामूहिक-सा करते देखना चाहता हूँ
कि अब सिर्फ बोलते रहने का नहीं
कुछ करने का भी वक्त आ गया है ।

बुधवार, 28 फ़रवरी 2024

हत्यारे और आग

 हत्यारे और आग

हत्यारे नींद मे हैं
हत्यारों को नींद में हत्या करने की बीमारी है
हत्यारों के पास हत्या करने के सपने हैं
हत्यारों के पास हत्याओं की अभिशप्त स्मृतियाँ है
हत्यारों के पास हत्या करने की विचारधारा है
हत्यारों के पास हत्या करने को कर्तव्य बताने वाले धर्म हैं
हत्यारों के पास हत्या करने के गीत है
हत्यारों के पास हत्या करने के साहित्य और संगीत है
हत्यारों के पास हत्या करने का आवेश और उन्माद है
हत्यारों के पास हत्या करने के हथियार हैं
अधिकार हैं
हत्यारे आग की तरह होते हैं
हत्यारों पर आग के सारे नियम लागू होते हैं
जिस दिशा की ओर बह रही होती है हवा
उसी दिशा की ओर भागती हैं आग की लपटें
और हत्यारों का समूह
हत्यारों और आग की दिशा में न जाएँ
उनके विपरीत दिशा में जाएँ
जो जल चुके हैं उनसे अलग
जो अभी नहीं जले हैं लेकिन जल सकते हैं कभी भी
उन्हें बचाना सीखें
हत्यारों और आग को ईधन न दें
उन्हे भूखा रखकर
उन्हें अपनी ही आग में जल-बुझने दें
यदि फिर भी नहीं बुझती है जंगल की आग
जागते नहीं हत्यारे
किसी सुरक्षित स्थान पर शरण लेकर
बारिश के मौसम
और हत्यारों की नींद के टूटने तथा
उनके होश मे आने का इन्तजार करें ।
रामप्रकाश कुशवाहा
29/02/2020

बुधवार, 6 दिसंबर 2023

 ईश्वर


मेरे लिए ईश्वर
मेरी सभ्यता का सांस्कृतिक अवचेतन है
सृष्टि और समाज की अवधारणा का
आदिम बीज है
ईश्वर की भिन्न-भिन्न परिकल्पना में
मूझे दिखती हैं भूतपूर्व मनुष्यों के जीवन-काल की
भिन्न-भिन्न परिस्थितिकी
उनके जिन्दा रहने की समझदारियो
और विफलताकारी मूढ़ताओं का भी रहस्य भी
खुलता जाता है

पश्चिम के असुरक्षित, प्रतिस्पर्धी और जोखिमपूर्ण जीवनानुभवो वाले पूर्वजों ने
ईश्वर पर पूरा विश्वास नहीं किया
सब कुछ ईश्वर और प्रकृति के भरोसे नहीं छोड़ा
हितैषी ईश्वर के साथ - साथ
सबका बुरा चाहने वाले
शैतान की भी परिकल्पना की
प्रकृति के विपरीत बुरे व्यवहार का भी साक्षात्कार किया
जबकि उपजाऊ सुरक्षित पर्यावरण पाकर
आलसी भारतीय पूर्वजों ने
असंदिग्ध चरित्र वाले अनुकूल ईश्वर की
अवधारणा विकसित की
और अपने असावधान चित्त के कारण
बार-बार चले गए ..

हर अवधारणा के विकास का इतिहास होता है
ईश्वर की अवधारणा का भी है
जिसकी मानवीय निर्मित को
साफ़ - साफ पहचाना जा सकता है
जिसका ईश्वर जैसी किसी वास्तविक सत्ता के होने
या बिल्कुल ही न होने से कोई संबंध नहीं

एक अवधारणा के रूप में भारतीय ईश्वर
एक सुरक्षित , लयात्मक और आत्मीय
पर्यावरण के निर्माण और होने की
प्रागैतिहासिक विज्ञप्ति है

नए युग की अवधारणा की दृष्टि से
पहली समस्या ईश्वर को पुनर्परिभाषित करने की है
यद्यपि ईश्वर प्रागैतिहासिक कालीन काव्यात्मक अवधारणा है लेकिन बाद में विकसित सामन्तकालीन व्यवस्था
और पेशेवर पुरोहितवाद ने
उसका आदर्श चेहरा बिगाड़ दिया है
इसीलिए नए सिरे से
उसके निर्दोष स्वरूप की अवधारणा करनी होगी।

ईश्वर वस्तुत: वृहत्तर अस्तित्व का
जीवन और चेतना धर्मी साक्षात्कार है
सहजीवन की जटिलतम पारस्परिकता का
मानवोचित साकार है

इसलिए
सिर्फ नास्तिक होने मात्र से ही
ईश्वर के होने या न होने का प्रश्न समाप्त नहीं हो जाता
इस दुनिया को एक सतत-सक्रिय और विवेकपूर्ण ईश्वर की अनवरत अस्तित्वपर्यंत जरूरत है
चाहे वह अलंघनीय नियमों की
माननीय सत्ता के रूप में ही क्यों न हो.....

इसलिए ईश्वर कहीं नहीं है
यह कहना ही काफी नहीं
यदि ईश्वर एक रिक्ति है
तब तो और भी जरूरी हो जाता है कि
जिनके भी पास ईश्वर होने की सामर्थ्य है
वे आगे आएं
जिनके भी ईश्वर होने की संभावना है
वे आगे आएं

मेरे लिए ईश्वर
स्वत: स्फूर्त परिष्करण की क्षमता वाली
आदर्श एवं पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति के लक्ष्य वाली
व्यवस्था की खोज है

सबसे अंत में मेरे लिए
किसी वास्तविक ईश्वर का होना
प्रकृति में व्याप्त चेतना और समझदारी के अतिरिक्त
भौतिक जगत में जीवन के अस्तित्व की
बीज रूप में प्रकृति की स्मृति में बने रहने की
किसी सृजनात्मक व्यवस्था के
होने की पुष्टिकारी आस्था है

सोमवार, 4 दिसंबर 2023

भारतीय संस्कृति का पक्ष

संस्कृत जैसी व्यवस्थित भाषा का विकास करने मे सक्षम भारतीय धर्म तथा संस्कृति(मूर्ति, मन्दिर एवं पूजा पद्धति आदि ) अपनी प्रकृति मे प्रतीकात्मक तथा चारित्रिक आख्यान के रूप मे होने से प्रायः साहित्यिक प्रकृति के हैं । इसीलिए मै इन्हे कबीलाई धर्मों की तरह विशुद्ध अन्धविश्वास की तरह ही नहीं देख पाता । भाषावैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक आधारो पर मै मिथकीय प्रतीकों के कूट अर्थ को तोडने का प्रयास करता रहता हूँ । ऐसा करने की प्रेरणा मुझे उन कबाडियो से मिलती है जो निष्प्रयोज्य के विसर्जन से पहले उनमें से धातुओं को निकाल लेते हैं । मैं यह नहीं भूलता कि बुद्ध काल तक हमारा अतीत विचारपूर्ण बहसों का था। साधना का लक्ष्य जीवन का परिष्कार था और कपिल , चार्वाक और वृहस्पति जैसे अनीश्वरवादी चिन्तक भी हुए हैं ।

गीता हो या पतंजलि के योग-सूत्र, महावीर हो या बुद्ध सभी की चिन्ता मानव-मन के नियमन की ही रही है । वे अपराध कितना कम कर पाए यह एक अलग प्रश्न है लेकिन उन्होने एक शिष्ट जीवन-पद्धति देकर जीवन एवं समाज का सामूहिक प्रबन्धन करने का प्रयत्न अवश्य किया । वे मस्तिष्क को इस सीमा तक प्रशिक्षित करने में तो सफल हुए ही कि अन्तःस्रावी ग्रन्थियाॅ के क्रिया-कलाप भी मानव-मस्तिष्क के विवेक की सीमा मे आ जाएँ । अकरणीय या वर्जनाओ से सम्बन्धित कुछ सांस्कृतिक युक्तियाँ भी आधुनिक मनोविज्ञान सम्मत हैं । जातीय एवं स्थानीय होते हुए भी उनकी काव्यात्मक भावोदात्तता एवं सामाजिक सार्थकता पर रीझने को मन करता है । जैसे ब्रह्मचर्य आश्रम के नाम पर पचीस वर्ष तक यौन हारमोनो का सिर्फ सामना करने के लिए देना आज की वयस्कता आयु-सीमा से भी अधिक है । भाई और बहन के बीच रक्षाबंधन जैसे त्यौहार, छोटे भाई की पत्नी का बडे भाई से विवाह की अनुमति न देना आदि ऐसी ही रेखांकित करने योग्य वर्जनाएं हैं । हर आता हुआ नया पुरुष अपनी ही देह के भीतर एक युद्ध लड़ता और जीतता हुआ आता है । अपने ही जीवन के वेगों को जीतने के लिए किया जाने वाला युद्ध ।
आधुनिक मनोविज्ञान भी इस तथ्य का समर्थन करता है कि इन्द्रियों द्वारा प्राप्त किसी संवेदना का प्रत्यक्षीकरण मस्तिष्क की धारणाओं, विश्वासों तथा व्याख्याओं के अनुरूप होता है । आध्यात्म के नाम पर अनेक सोद्देश्य किन्तु काल्पनिक और हास्यास्पद अवधारणाओं के बावजूद सांस्कृतिक नियामक झूठ बोलकर भी अनेक पशुओं, पक्षियों तथा वनस्पतियों सहित पर्यावरण को अधिकतम सीमा तक बचाने मे सफल रहे हैं । इस विधि से संरक्षित पर्यावरण में पितर घोषित कौओं से लेकर बन्दर, चूहे, सर्प,नीलकण्ठ,उल्लू,हाथी ,सिंह, और गाय-बैल ,नदियाँ सभी शामिल हैं ।
व्यवस्थित ढंग से संघ यानि संगठन बनाकर ,आज के शब्दों मे कहें तो संस्थागत रूप से लोगों तक अपने आदर्श के अनुरूप विचार पहुँचाने का कार्य गौतम बुद्ध ने किया था । उनके पहले लोक को उनकी भाषा मे ही संबोधित करने की चिन्ता और किसी मे नही दिखती ।उनके पूर्व के जननायकों के यश का आधार अभिजन या विशिष्ट वर्गीय स्वीकृति रही है । बुद्ध को लम्बा जीवन मिला था । लोक के लिए बोधगम्य दृष्टान्त कथाएं जिन्हे जातक कथाएं कहा गया खूब रची गयीं । भव्य व्यक्तित्व के कारण बुद्ध को ही प्रतिमान के रूप मे विज्ञापित किया गया । संगठन और संसथाओ की अपनी सामूहिकता होती है । पूरा जीवन समर्पित कर चुके बुद्ध के अनुयायियों के पास इतना जीवन-समय था कि वे 'अप्प दीपो भव 'की चिन्ता छोड़ कर बुद्ध की मूर्तियों की रचना मे लग गए । ऐसा लगता है कि विदेशों मे बहुत से ऐसे भी धर्म प्रचारक पहुँचे जो बुद्ध का दर्शन फैलाने के स्थान पर आजीविका के लिए मूर्ति स्थापित कर पूजा करवाने मे लग गए । अरब वगैरह तक पहुँचते-पहुँचते यही बुद्ध मात्र मूर्ति स्वरूप बुत हो गये । ऐसा लगता है कि मुहम्मद साहब ने इस्लाम प्रवर्तन के समय जिन बुतो को तुड़वाया होगा -व्हाॅ बौद्ध धर्म के दार्शनिक पक्ष से पूरी तरह अनभिज्ञ बुद्ध की मूर्तियों की सिर्फ पूजा करने वाले पुरोहित रहे होंगे । यह भी कि असली दार्शनिक बौद्ध धर्म विश्व के बहुत से हिस्सों में नहीं पहुँचा । या फिर पूर्व प्रचलित शिवलिंगो की पूजा की तर्ज पर बुद्ध यानि बुत पूजा भी सुदूरवर्ती क्षेत्रों में प्रचलित रही ।
साफ है कि भारत मे भी बौद्ध धर्म को पहले मूर्तिपूजा मे बदला गया और फिर उनको देखते हुए बुद्ध की तर्ज पर दूसरे पौराणिक नायकों की भी मूर्तियाँ बनने लगीं । मूर्तिपूजा से दिमाग को आराम मिला और चढावे की संस्कृति विकसित हुई । जैसा कि प्रायः देखने मे आता है कि पेशे विचार और दर्शन को भी बाजार की एक उपस्थिति मे बदल देते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्ध काल से पहले का प्राचीन भारत मूर्तियों और मन्दिरों का देश नहीं रहा है । उनके पास ग्रामीण एवं नागरिक समाज थे जिनमें वैचारिक बहसे चलती रहती थीं । ऐसा नहीं है कि उनके पास आस्धा की पथराई हुई शिलाएँ बिल्कुल नहीं थी । भोले माने जाने वाले सबसे सरल अनगढ़ पाषाण- देवता आदि शिव तब भी थे । स्त्री-पुरुष के सृजनांगो तथा ब्रह्माण्ड के अनगढ़ प्रतीक के रूप में । बुद्ध के पहले की आस्था का स्वरूप साहित्यिक आख्यानों और विमर्शो के रूप में रहा है । इसीलिए ऐतिहासिक यथार्थ को देखते हुए मुझे मूर्तियों और मन्दिरों वाला भारतीय धर्म कम बुद्धि के लोगों एवं बच्चों के लिए लगता है । इन मूर्तियों का वास्तविक रहस्य इनके साहित्यिक पाठ मे है । पौराणिक नायकों के प्रतीकार्थ और चारित्रिक आख्यानों मे है । सिर्फ उन अंशो को छोड़कर जिसे अपनी आजीविका और पेशेवर स्वार्थ के कारण पुरोहित वर्ग ने लोगों का भयादोहन कर अर्थार्जन के लिए रची हैं ।
इस दृष्टि से राम भी हमारी सभ्यता के बीज-पुरुष ही लगते है । वे एकल दाम्पत्य के आदि प्रतिमान हैं और किसान-सभ्यता की कौटुम्बिक संरचना का भी । इस दृष्टि से हर वह व्यक्ति जिसने अपने जीवन पर्यन्त किसी एक ही महिला से विवाह का संकल्प ले रखा हो -मुझे राम का प्रतिरूप ही लगता है । संभवतः तुलसीदास जी ने भी इसी दृष्टिकोण से ही 'सिया राम मय सब जग जानी ' कहा था । यह अकारण नही है कि आराम मे भी राम है और हराम मे 'हे राम' यानि शिकायत के रूप में है
इससे पता चलता है कि अरबी और फारसियो के पुरखे भी राम से प्रभावित देश रहे ही होंगे । एक विवाह करने वाले ईसाइयों और मुसलमानों को भी राम का अनुगामी तो माना ही जा सकता है । यद्यपि जो लोग होमर की कृतियों और ट्राय युद्ध से परिचित होंगे या सिकन्दर की लड़ाइयों से भी परिचित होगे , उन्हे रामकथा के अनेक अंश समानधर्मा लग सकते हैं । लेकिन इतने लम्बे काल तक चले कुलीनतंत्र मे सन्तानहीन होने के कारण किसी राजवंश का खतरे मे पडना और नियोगप्रथा द्वारा वंश चलाने का प्रयास असंभव नही लगता ।या फिर संभावित या सैद्धांतिक सच तो माना ही जा सकता है हमारी सभ्यता और संस्कृति का ।
यद्यपि आनुवांशिक सामन्तवादी व्यवस्था का वाहक होने के कारण उसने एक विषमतापूर्ण पक्षपाती समाज निर्मित किया लेकिन एक बहुलतावादी बहुजातीय -बहुभाषीय समाज मे जातीय रूप से ही सही दुभाषिये की भूमिका मे तो रहे ही संस्कृत के विद्वान । आज सनातन धर्म के कर्मकाण्ड का बहुत कुछ अन्धविश्वासपूर्ण और अतार्किक लगता है लेकिन उसकी पूजाविधियो मे प्राचीन शैशवकाल की रुढ़ियों के अभिनय छिपे हुए है । उसके कर्मकाण्ड मे संभव है कि कुछ काव्यात्मक अनुभव एवं व्यवहार भी हो-एक धार्मिक सांस्कृतिक मनोरंजन के पुरातात्विक व्यवहार के रूप में ।

रविवार, 3 दिसंबर 2023

मूर्ति-पूजा और भारतीय धर्म की प्रकृति

 

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संस्कृत जैसी व्यवस्थित भाषा का विकास करने मे सक्षम भारतीय धर्म तथा संस्कृति(मूर्ति, मन्दिर एवं पूजा पद्धति आदि ) अपनी प्रकृति मे प्रतीकात्मक तथा चारित्रिक आख्यान के रूप मे होने से प्रायः साहित्यिक प्रकृति के हैं । इसीलिए मै इन्हे कबीलाई धर्मों की तरह विशुद्ध अन्धविश्वास की तरह ही नहीं देख पाता । भाषावैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक आधारो पर मै मिथकीय प्रतीकों के कूट अर्थ को तोडने का प्रयास करता रहता हूँ । ऐसा करने की प्रेरणा मुझे उन कबाडियो से मिलती है जो निष्प्रयोज्य के विसर्जन से पहले उनमें से धातुओं को निकाल लेते हैं । मैं यह नहीं भूलता कि बुद्ध काल तक हमारा अतीत विचारपूर्ण बहसों का था। साधना का लक्ष्य जीवन का परिष्कार था और कपिल , चार्वाक और वृहस्पति जैसे अनीश्वरवादी चिन्तक भी हुए हैं ।
गीता हो या पतंजलि के योग-सूत्र, महावीर हो या बुद्ध सभी की चिन्ता मानव-मन के नियमन की ही रही है । वै अपराध कितना कम कर पाए यह एक अलग प्रश्न है लेकिन उन्होने एक शिष्ट जीवन-पद्धति देकर जीवन एवं समाज का सामूहिक प्रबन्धन करने का प्रयत्न अवश्य किया । वे मस्तिष्क को इस सीमा तक प्रशिक्षित करने में तो सफल हुए ही कि अन्तःस्रावी ग्रन्थियाॅ के क्रिया-कलाप भी मानव-मस्तिष्क के विवेक की सीमा मे आ जाएँ । अकरणीय या वर्जनाओ से सम्बन्धित कुछ सांस्कृतिक युक्तियाँ भी आधुनिक मनोविज्ञान सम्मत हैं । जातीय एवं स्थानीय होते हुए भी उनकी काव्यात्मक भावोदात्तता एवं सामाजिक सार्थकता पर रीझने को मन करता है । जैसे ब्रह्मचर्य आश्रम के नाम पर पचीस वर्ष तक यौन हारमोनो का सिर्फ सामना करने के लिए देना आज की वयस्कता आयु-सीमा से भी अधिक है । भाई और बहन के बीच रक्षाबंधन जैसे त्यौहार, छोटे भाई की पत्नी का बडे भाई से विवाह की अनुमति न देना आदि ऐसी ही रेखांकित करने योग्य वर्जनाएं हैं । हर आता हुआ नया पुरुष अपनी ही देह के भीतर एक युद्ध लड़ता और जीतता हुआ आता है । अपने ही जीवन के वेगों को जीतने के लिए किया जाने वाला युद्ध ।
आधुनिक मनोविज्ञान भी इस तथ्य का समर्थन करता है कि इन्द्रियों द्वारा प्राप्त किसी संवेदना का प्रत्यक्षीकरण मस्तिष्क की धारणाओं, विश्वासों तथा व्याख्याओं के अनुरूप होता है । आध्यात्म के नाम पर अनेक सोद्देश्य किन्तु काल्पनिक और हास्यास्पद अवधारणाओं के बावजूद सांस्कृतिक नियामक झूठ बोलकर भी अनेक पशुओं, पक्षियों तथा वनस्पतियों सहित पर्यावरण को अधिकतम सीमा तक बचाने मे सफल रहे हैं । इस विधि से संरक्षित पर्यावरण में पितर घोषित कौओं से लेकर बन्दर, चूहे, सर्प,नीलकण्ठ,उल्लू,हाथी ,सिंह, और गाय-बैल ,नदियाँ सभी शामिल हैं ।
व्यवस्थित ढंग से संघ यानि संगठन बनाकर ,आज के शब्दों मे कहें तो संस्थागत रूप से लोगों तक अपने आदर्श के अनुरूप विचार पहुँचाने का कार्य गौतम बुद्ध ने किया था । उनके पहले लोक को उनकी भाषा मे ही संबोधित करने की चिन्ता और किसी मे नही दिखती ।उनके पूर्व के जननायकों के यश का आधार अभिजन या विशिष्ट वर्गीय स्वीकृति रही है । बुद्ध को लम्बा जीवन मिला था । लोक के लिए बोधगम्य दृष्टान्त कथाएं जिन्हे जातक कथाएं कहा गया खूब रची गयीं । भव्य व्यक्तित्व के कारण बुद्ध को ही प्रतिमान के रूप मे विज्ञापित किया गया । संगठन और संसथाओ की अपनी सामूहिकता होती है । पूरा जीवन समर्पित कर चुके बुद्ध के अनुयायियों के पास इतना जीवन-समय था कि वे 'अप्प दीपो भव 'की चिन्ता छोड़ कर बुद्ध की मूर्तियों की रचना मे लग गए । ऐसा लगता है कि विदेशों मे बहुत से ऐसे भी धर्म प्रचारक पहुँचे जो बुद्ध का दर्शन फैलाने के स्थान पर आजीविका के लिए मूर्ति स्थापित कर पूजा करवाने मे लग गए । अरब वगैरह तक पहुँचते-पहुँचते यही बुद्ध मात्र मूर्ति स्वरूप बुत हो गये । ऐसा लगता है कि मुहम्मद साहब ने इस्लाम प्रवर्तन के समय जिन बुतो को तुड़वाया होगा -व्हाॅ बौद्ध धर्म के दार्शनिक पक्ष से पूरी तरह अनभिज्ञ बुद्ध की मूर्तियों की सिर्फ पूजा करने वाले पुरोहित रहे होंगे । यह भी कि असली दार्शनिक बौद्ध धर्म विश्व के बहुत से हिस्सों में नहीं पहुँचा । या फिर पूर्व प्रचलित शिवलिंगो की पूजा की तर्ज पर बुद्ध यानि बुत पूजा भी सुदूरवर्ती क्षेत्रों में प्रचलित रही ।
साफ है कि भारत मे भी बौद्ध धर्म को पहले मूर्तिपूजा मे बदला गया और फिर उनको देखते हुए बुद्ध की तर्ज पर दूसरे पौराणिक नायकों की भी मूर्तियाँ बनने लगीं । मूर्तिपूजा से दिमाग को आराम मिला और चढावे की संस्कृति विकसित हुई । जैसा कि प्रायः देखने मे आता है कि पेशे विचार और दर्शन को भी बाजार की एक उपस्थिति मे बदल देते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्ध काल से पहले का प्राचीन भारत मूर्तियों और मन्दिरों का देश नहीं रहा है । उनके पास ग्रामीण एवं नागरिक समाज थे जिनमें वैचारिक बहसे चलती रहती थीं । ऐसा नहीं है कि उनके पास आस्धा की पथराई हुई शिलाएँ बिल्कुल नहीं थी । भोले माने जाने वाले सबसे सरल अनगढ़ पाषाण- देवता आदि शिव तब भी थे । स्त्री-पुरुष के सृजनांगो तथा ब्रह्माण्ड के अनगढ़ प्रतीक के रूप में । बुद्ध के पहले की आस्था का स्वरूप साहित्यिक आख्यानों और विमर्शो के रूप में रहा है । इसीलिए ऐतिहासिक यथार्थ को देखते हुए मुझे मूर्तियों और मन्दिरों वाला भारतीय धर्म कम बुद्धि के लोगों एवं बच्चों के लिए लगता है । इन मूर्तियों का वास्तविक रहस्य इनके साहित्यिक पाठ मे है । पौराणिक नायकों के प्रतीकार्थ और चारित्रिक आख्यानों मे है । सिर्फ उन अंशो को छोड़कर जिसे अपनी आजीविका और पेशेवर स्वार्थ के कारण पुरोहित वर्ग ने लोगों का भयादोहन कर अर्थार्जन के लिए रची हैं ।
इस दृष्टि से राम भी हमारी सभ्यता के बीज-पुरुष ही लगते है । वे एकल दाम्पत्य के आदि प्रतिमान हैं और किसान-सभ्यता की कौटुम्बिक संरचना का भी । इस दृष्टि से हर वह व्यक्ति जिसने अपने जीवन पर्यन्त किसी एक ही महिला से विवाह का संकल्प ले रखा हो -मुझे राम का प्रतिरूप ही लगता है । संभवतः तुलसीदास जी ने भी इसी दृष्टिकोण से ही 'सिया राम मय सब जग जानी ' कहा था ।
यह अकारण नही है कि आराम मे भी राम है और हराम मे 'हे राम' यानि शिकायत के रूप में है इससे पता चलता है कि अरबी और फारसियो के पुरखे भी राम से प्रभावित देश रहे ही होंगे । एक विवाह करने वाले ईसाइयों और मुसलमानों को भी राम का अनुगामी तो माना ही जा सकता है ।
यद्यपि जो लोग होमर की कृतियों और ट्राय युद्ध से परिचित होंगे या सिकन्दर की लड़ाइयों से भी परिचित होगे , उन्हे रामकथा के अनेक अंश समानधर्मा लग सकते हैं । लेकिन इतने लम्बे काल तक चले कुलीनतंत्र मे सन्तानहीन होने के कारण किसी राजवंश का खतरे मे पडना और नियोगप्रथा द्वारा वंश चलाने का प्रयास असंभव नही लगता । मैने कुछ भिन्न आधारों पर भारतीय अतीत की पडताल की है । जिससे सम्बन्धित आलेख मेरी प्रकाशनाधीन पुस्तक-"सभ्यता का पुनःपाठ " मे है ।

/2703/2020

धर्म और ईश्वर

 धर्म और ईश्वर : मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य

धर्म तो किसी न किसी रूप में मानव-जाति के बने रहने तक रहेगा ही । जरूरत निर्दोष धर्म के खोज की है और पूर्वजों से विरासत में प्राप्त होने के कारण ईश्वर की सही दार्शनिक अवधारणा के पुनर्शोध और पुनर्परीक्षा की भी । इसलिए भी कि केवल कूछ ही बुद्धिमान एवं साहसी लोगों को सुरक्षित पर्यावरण मे ही समय एवं स्थितियों के सापेक्ष नास्तिक बनाना संभव है । बचपन से लेकर युवावस्था तक माता और पिता से मिला अभिभावकत्व, संरक्षण और पालन-पोषण के बाद जैसा कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गीतांजलि की अपनी एक कविता मे व्यक्त किया है ईश्वर की अवधारणा भी हमारे मातृत्व,पितृत्व और नेतृत्व से सम्बन्धित जटिल अनुभवों का ही मनोविज्ञान सम्मत उदात्तीकरण है। एक सामाजिक प्राणी होने के कारण अकेले अस्तित्व का अपूर्णताबोध भी वह मनोवैज्ञानिक रिक्ति देता है जिसे आस्था से जुड़ी विभिन्न काल्पनिक-पौराणिक या मिथकीय किम्वदन्तियो एवं मनोनिर्मितियाॅ भरती हैं । इसी रिक्ति मे समाज, संविधान, नियम-कानून और राष्ट्र भी है । आस्था एवं प्रत्यक्षीकरण के अवलम्ब मूर्त और अमूर्त दोनो हो सकते हैं । मूर्त अवलम्ब बहिर्मुखी तथा सक्रिय व्यक्तित्व जीते है जबकि अमूर्त अवलम्ब अन्तर्मुखी एवं निष्क्रिय व्यक्तित्व वाली जनता जीती है । सिर्फ मानसिक प्रत्ययो-संकल्पनाओं मे जीवन और जगत को जी पाना असुविधाओ,अवसरों की कमी तथा संसाधनों पर स्वामित्व के अभाव के कारण एक बड़ी आबादी की जीवन-नियति रही है । भक्तों के भक्त बनने की प्रक्रियागत मनोवैज्ञानिक आवश्यकता और निरीहता को इसी परिप्रेक्ष्य मे ही सही-सही समझा जा सकता है और नेतृत्व के लिए सर्वश्रेष्ठ चुनने की संस्थागत और प्रजातीय अस्तित्व की अपरिहार्यता को भी ।
मै कुछ इस तरह से भी सोचता हूँ कि सृष्टि और जीवन की जिस जटिल विकास-यात्रा को समझने के लिए आज भी वैज्ञानिक बुद्धि लगा रहे हैं उस प्रकृति को सैद्धांतिक रूप से बुद्धिमान होने का दर्जा तो देना ही पड़ेगा । आखिर जिस सृष्टि ने सुचिन्तित होने और सजीवित होने का प्रमाण प्रस्तुत किया है उसे सचेतन होने की कल्पना कर उसका ईश्वर के रूप में चरम-परम मानवीकरण व प्रत्ययीकरण आदिम मनुष्य के ज्ञान एवं चिन्तन की संभवतः औचित्यपूर्ण आवश्यकता भी थी । पश्चिम के प्रकृति और ईश्वर की संकल्पना को सही-सही समझने के लिए उसे भौतिकवादी आध्यात्मिक मानना या आध्यात्मिक भौतिकवादी कहना अधिक उचित होगा । उनके पास बहिर्मुखी आध्यात्म है जो सृष्टि को देखकर उसके एक सृजनकर्ता के रूप में ईश्वर के होने की कल्पना करता है । हम भारतीयों के पास अन्तर्मुखी, जीवनोन्मुखी एवं जगत-निरपेक्ष आध्यात्म है । मुझे तो दोनों पूरक लगते है । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ही ईश्वर के मस्तिष्क की प्रज्ञा-कौंध से आच्छादित, आलोकित एवं निर्देशित मानना कहीं न कहीं बुद्धि एवं चेतनातत्व की सूक्ष्म, निर्णायक एवं प्रभावी भूमिका का ही स्वीकार है । भारतीय दर्शन की महत्ता ज्ञान के एक विभाग की तरह स्वयं मानव-अस्तित्व की आन्तरिक शक्तियों एवं संभावनाओं को समझने मे है । देखा जाय तो आदि शंकराचार्य का मायावाद जगत को समझने से इन्कार करना ही है । जगत को मिथ्या मानना भारतीय दार्शनिकों की जगत को समझने मे रुचि के अभाव और निषेध को भी व्यक्त करता है । भारतीय आध्यात्म की दो धाराएं वशिष्ठ और विश्वामित्र के पौराणिक आख्यानों से होते हुए उपनिषद काल और मध्यकाल में गोरखनाथ, कबीर और तुलसीदास तक साफ-साफ देखी जा सकती हैं । दोनों मे दो भिन्न जीवन-दृष्टियाॅ छिपी है । इसीलिये यह देखना भी रुचिकर होगा कि राम,कृष्ण और बुद्ध जैसे कर्मजीवी जातियों में जन्मे यहाँ तक कि परवर्ती आध्यात्मिक नायक गोरखनाथ और कबीरदास भी अपने चरित-आख्यानों के माध्यम से जो आध्यात्मिक दृष्टि सौंपते हैं, उसका ब्राह्मणजातीय संस्करण और पाठ कितना संकीर्ण, सीमित,अव्याप्तिकर एवं अकर्मण्य प्रकृति का है । ब्राह्मणजातीय दार्शनिकी एवं सांस्कृतिक अभियांत्रिकी की प्रतिगामिता एवं पिछड़ेपन को यदि ईमानदारी से स्वीकार नहीं किया गया तो उसे निर्दोष रूप में अप्रासंगिक नहीं बनाया जा सकेगा ।
निष्कर्ष यह भी कि विज्ञान की विषयगत एवं संस्थागत तथा वैज्ञानिकों की विवेकगत स्वायत्तता बनाए रखते हुए यदि प्रकृति को समझने मे लगे विज्ञान का मानवीकरण नहीं किया गया और एक जीव-प्रजाति को समर्पित मानवीकरण को सम्पूर्ण प्रकृति तक आत्मविस्तारित ईश्वरीकरण से न जोड़ा गया तो विध्वंसक और क्रूर विज्ञान एक शैतानी विज्ञान बनकर रह जाएगा । तब वह प्रकृति के आत्म मे समाहित और सम्मिलित एक आत्मीय और कल्याणकारी विज्ञान कभी नहीं बन पाएगा ।

(27/02/2020)
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रामकथा , तुलसीदास और विशिष्टाद्वैतवाद











राम चरित मानस को एक आध्यात्मिक आख्यान मानकर उसके रचनात्मक परिप्रेक्ष्य और उसमें उपस्थित रचनाकार के देश-काल को प्राय: अनावश्यक मानकर अनदेखा किया जाता है । रचनाओं की निर्मित को उसके देश और काल में रखकर देखना एक वैज्ञानिक एवं विश्वसनीय विश्लेषण पद्धति है । स्वयं मुक्तिबोध नें अपनी आलोचना पुस्तक-"कामायनी : एक पुनर्विचार '' में कामायनी को एक फैंटेसी और यूटोपिया मानकर उसे नए दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया था । उसी दृष्टिकोण से तुलसीदास कृत ''राम चरित मानस '' पर विचार करने पर कुछ भिन्न निष्कर्ष प्राप्त होते हैं - उनकी कविताओ के अंत:साक्ष्य भी उनका मध्ययुगीन जातीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का वाहक कवि होना प्रमाणित करते हैं । स्वयं उच्च वर्ग का होने के कारण वर्णव्यवस्था का विध्वंस या नकार उनके आदर्शवाद का हिस्सा नहीं है । ये निष्कर्ष यद्यपि उनके द्वारा प्रस्तुत रामकथा के पाठ को आज के समतामूलक लोकतांत्रिक समय और समाज के लिए पूरी तरह प्रासंगिक नहीं ठहराते फिर भी तुलसीदास के कृतित्व को सही-सही समझने के अतिरिक्त आलोचना की कसौटी के परिष्कार की दृष्टि से महत्वपूर्ण अवश्य है ।
इस विमर्श में उनकी मध्ययुगीन समाज में मिलने वाली वर्णाश्रमी मानसिकता शामिल नहीं है । पेशा और जाति की एकता के कारण कबीर दास, सूर दास ,रैदास आदि सभी के यहाँ जाति पर पेशे आधारित सामाजिक प्रस्थिति का आरोप मिलता है । राम चरित मानस में मध्य युग का बीत चुका समाज उपस्थित है । उसका पिछड़ते और अप्रासंगिक होते जाना ही भावी साहित्य और समाज के हित में है । नए साहित्य और साहित्यकारों की नयी रचनात्मक भूमिका के पक्ष में भी । निष्कर्ष यह कि इतिहास की विभूति मानकर ही उन्हें पढ़ना होगा ।
वैसे भी रामकथा कुटुंब व किसान सभ्यता का आदर्श थी । ऐसे आदर्श बहुस्तरीय आर्थिक स्रोतों वाले परिवार के सदस्यों के बीच के कलह का समाधान बाजारीकृत समाज में पहले की तरह नहीं कर सकते ।

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भारतीय मानवीय समय का एक छोर ब्राह्मणवाद के पास है तो दूसरा दलितवाद के पास .ब्राह्मणवाद के पास तरह-तरह के अंधविश्वासों को और जातीय संकीर्णताओं को सच कि तरह प्रसारित करने में महारत हासिल है तो दलितों के पास भी बिना किसी ईश्वर और मिथक के जीवन जीने का सदियों पुराना अनुभव है .नयी सभ्यता के निर्माण में दलित-जीवन और अनुभवों की दार्शनिक संभावनाओं का हिंदी में अभी उच्च स्तरीय सृजनात्मक दोहन नहीं हुआ है .जो कुछ भी है वह संसमरणात्मक ही है ,उसमें भविष्योन्मुख प्रगतिशीलता का अभाव है .हिंदी मे ईमानदार जाति-विमर्श अब भी शुरू नहीं हुआ है .शुरू में दलित विमर्श को भी मार्क्सवादी सरोकारों से बाहर ही माना गया था ,जाति-विमर्श को प्रगतिशीलता के दायरे में न लेने के कारण वह अभी प्रारंभिक दौर में ही है .इस संकोच से भारतीय समाज के आधुनिकीकरण और रूपांतरण में देर हो रही है .

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राम का नायकत्व ,अवतारवाद और कबीर
राम के गुरू विश्वामित्र कहे जाते हैं विश्वामित्र यानी विश्व के मित्र; जिनका रचा गायत्री मन्त्र मनुष्य की आत्मा में ही ईश्वरत्व का आवाहन करता है । रामचन्द्र जी ने रावण का बध करने पर वाल्मीकि रामायण में कहा है कि मै दशरथ पुत्र राम स्वयं को मनुष्य मानता हूॅ । मैं कबीर की राम-दृष्टि को भी सही मानता हूँ क्योंकि सिर्फ पौराणिक राम की महत्ता स्वीकार करना तो एक आदर्श चरित नायक को ही स्वीकार करना हुआ । राम एक आदर्शवादी चरित्र है । राम के चरित्र में एक युग , सभ्यता और उसकी संसकृति के सामूहिक प्रतिमान छिपे हैं । रामकथा के इस आदर्श स्वरूप की पूर्णता राम के वनगमन और उससे आगे भरत को खडाऊं के साथ वापस अयोध्या भेज दिए जाने तक ही लोक के महत्व का है । उसके बाद वह परिवार और कुटुम्ब की कथा न रहकर राजन्य या शासक वर्ग के कूटनीतिक दांवपेंच, संघर्ष और युद्ध की कथा है । परवर्ती रामकथा राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए है ,साहित्य के विद्यार्थियों के लिए नहीं । स्वयं राम चरित मानस की रचना करने वाले तुलसीदास को भी इस सच का पता था कि राम का नायकत्व उनके आदर्श मानवीय चरित्र में है। जैसे वाल्मीकि रामायण के रचनाकार को पता था कि मर्यादा पुरुषोत्तम होने के कारण राम ही महाकाव्य के नायक हो सकते हैं ।
लेकिन भारत की कुटुम्ब व्यवस्था के आदर्श केन्द्रीय चरित्र राम को अन्तिम नायक घोषित कर देना मानव जाति और प्रकृति के भविष्यगामी जीवन-प्रवाह में उसके द्वारा और भी किसी श्रेष्ठ उच्चतर नायक को जन्म देने की क्षमता पर सन्देह करना होगा । इस दृष्टिकोण से सिर्फ पौराणिक राम वाली आध्यात्मिकता परवर्ती जन्म वाली आत्माओ से नायक बनने का अधिकार छीनने वाली एवं उनके भी ब्रह्म होने के विरुद्ध हीनताबोध फैलाती दीखती है । थोड़ा कबीर को भी पढकर सोचें तो यह साफ-साफ दिखता है कि कबीर अस्तित्वमान जीवन-प्रवाह की दिव्यता और ईश्वरता के पक्ष में हैं ।
साहित्य के मर्यादा पुरुषोत्तम चरित् नायक के रूप में राम के आचरण का बहुत कुछ सर्वकालिक तो रहेगा लेकिन पौराणिक राम को ही अन्तिम सत्य मानने पर वर्तमान और भविष्य में भी सतत अस्तित्वमान प्रकृति की दिव्यता यानी ईश्वरतत्व की अवहेलना होती है । इसी दृष्टि से कबीर का कहना सही है । वर्तमान और भविष्य की परिस्थितियों से जूझने के क्रम में नायक का चरित्र बदलता जाएगा । अवतारवाद भी राम को अन्तिम नहीं मानता । विष्णु के नए जन्म या अवतार के रूप में नए राम की आवश्यकता को सिद्धान्तत: स्वीकार करता है । अगर ब्रह्म सर्वत्र और सर्वकालिक है तो उसे कांशीराम में भी होना चाहिए, सिर्फ परशुराम में ही नहीं । मेरा सुझाव हे कि कुछ दोहे कवियों को पिछले रामों पर भी लिखना चाहिए ।









#रामकथा
#वाल्मीकीयरामायण
#तुलसीदास
#रामचरितमानस
रामकथा को लेकर आदरणीय चौथीराम यादव ji की रामकथा के पुरुष सत्तात्मक सामन्ती समाज का आख्यान होने वाली स्थापना से मैं अक्षरश: सहमत हूॅ । दूसरी ओर वाल्मीकीय रामायण का सीता के दृढ चरित के माध्यम से प्रस्तुत किया गया स्त्री-विमर्श का पक्ष भी सर्वकालिक है । जबकि शम्बूक-वध होने के कारण दलित विमर्श के पक्ष में उपयोग करने की उसकी संभावनाएं खत्म हो गयी है ।यह भी सच है कि तुलसीदास की रामकथा के सारे शील सामन्ती समाज की आचार व्यवस्था के शील हैं ।यही कारण है कि वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने की कामना करने वाले वर्णवादियों को मुगलकालीन तुलसीदास कृत रामकथा का अलोकतांत्रिक स्वरूप दिखाई नहीं देता । राम चरित मानस में इस्लाम में बादशाह को ईश्वर की ओर से उसके प्रतिनिधि के रूप में देखने वाली आंख भी है जो सामन्ती श्रेष्ठता और वैष्णवी अवतारवाद से घुल-मिल गयी है । लेकिन आधुनिक साहित्यिक दृष्टि से हमें यह भी देखना होगा कि रामकथा मध्ययुग की कोई यथार्थवादी कृति नहीं है कि उसमें यथावत मुगल काल का यथार्थ उपस्थित हो और वह यथार्थवादी कृति के रूप में उपयोगी हो ।तुलसीदास का 'राम चरित मानस ' वस्तुत: मुस्लिम जातीयता के सापेक्ष ब्राह्मण जातीयता की मुक्ति का स्वपनद्रष्टा काव्य है । ब्राह्मणवादियों की मानव जाति की समानता विरोधी भेदभावपूर्ण श्रेष्ठता ग्रन्थि को देखते हुए जो उसे इस लोकतांत्रिक समय के लिए खारिजकर रहे हैं उनका पक्ष सही है । लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि रामकथा का मूल आख्यान प्रागैतिहासिक भी है । उसमें परिवार संस्था की बीज-समस्याएं भी उकेरी गई हैं । उसे देखते हुए उसकी इकहरी व्याख्या उचित नहीं. । क्योंकि उसमें सामन्तयुगीन शासकों के आदर्श चरित्र को लेकर एक संतुलनधर्मी पूटोपिया भी है। मेरा मानना है कि वाल्मीकीय रामायण बौद्ध काल के बाद लिपिबद्ध हुई है और उसमें लव-कुश के माध्यम से राम का उचित प्रतिरोध भी है । बौद्ध धर्म का मध्यम मार्गीय जीवन दर्शन संस्कार रूप में राम के चरित्र से असहमति के रूप में मौजूद है । ऐसा होने के कारण ही राम के अतिरेकी आदर्शवाद का दुखान्त में उपसंहार किया गया है ।यद्यपि वाल्मीकीय रामायण शम्बूक-वध की कथा के लिए बदनाम है,; जबकि तुलसीदास की रामकथा सामन्ती +ब्राह्मणवादी अभिजन के पक्ष में होने के कारण आधुनिक लोकतांत्रिक समाज का आदर्श बनने के लिए अनुकूल नहीं है ।
इस तरह देखने पर रामकथा और तुलसीदास के राम चरित मानस का पाठ-विश्लेषण एक ही निष्कर्ष तक नहीं ले जाता है । रामकथा पुरुष प्रधान किसान सभ्यता के आदर्शों का प्रतिमानीकरण करने वाला महाकाव्य है । यह परिवार केन्द्रित सामूहिकता का सन्देश देने तथा आनुवंशिक उत्तराधिकार में सम्पत्ति-विभाजन को हतोत्साहित करने के कारण मिलकर खेती या व्यवसाय करने का सन्देश देता रहा है । इस आधार पर यह कुटुंब व्यवस्था का चारित्रिक संविधान प्रदान करने वाला महाकाव्य है ।
राम के बाद रामकथा के प्रमुख चरित्र हनुमान का सकारात्मक या प्रगतिशील पक्ष यह है कि वह आदर्श आज्ञाकारी निष्ठावान सेवक या अनुचर का आदर्श चरित्र प्रस्तुत करता है । रामकथा के माध्यम से फैलायी गयी यह निष्ठा मध्ययुगीन सामन्ती आर्थिक व्यवस्था की रीढ रही है । हनुमान के चरित्र की लोकप्रियता का यह भी एक रहस्य है । यह अन्य सामन्तयुगीन बुराइयों जैसे दशरथ के चरित्र के माध्यम से बहुपत्नी प्रथा के नकारात्मक पहलू भी सामने लाती है । अरस्तू के विरेचन सिद्धांत के आधार पर देखें तो पाठकों को इतना डरा देती है कि वे राम की तरह एक विवाह से अधिक करने की सोचें ही नही । राम कथा का सबसे समाज उपयोगी पक्ष परिवार के भीतर के आदर्श आचरण और व्यवहार का आदर्श उपस्थित करना है इस दृष्टिकोण से देखें तो लोक के दिल में बस जाने वाली असली रामकथा चित्रकूट के भरतमिलाप तक ही है । उसके आगे की रामकथा का सबक या सीख उसकी धार्मिक व्याख्या करने वाले बिगाड देते हैं । उदाहरण के लिए सीताहरण का प्रसंग आज भी परदेश गमन में आने वाली जोखिमों के प्रति आगाह करता है । अति आत्मविश्वास और जोखिमपूर्ण व्यवहार सुरक्षित नहीं है ,चाहे वह राम जैसा अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाला ही क्यों न हो । रावण द्वारा साधु के वेश में सीता का हरण तो भारत की स्त्रियों को सीधे-सीधे कठोर चेतावनी देने वाला प्रसंग है कि साधु वेष धारी पराए पुरुषों पर कभी विश्वास मत करो अन्यथा तुम्हारा भी वैवाहिक जीवन सीता की तरह तबाह हो सकता है । यह एक ऐसी चेतावनी है जिसे मध्य काल में कबीर ही दे पाते हैं -चली कुलबोरनी गंगा नहाया जैसी पंक्तियों के माध्यम से । उत्तरार्ध की रामकथा मध्यकालीन राजाओं के लिए कूटनीतिक दांव-पेंच का दृष्टांत उपस्थित करती है । इसी में धार्मिक पाठ और रघुकुल के जिद्दी राम के कारण दशरथ के हार्ट अटैक यानी ह्रदयाघात की ओर रामकथा के पाठकों और श्रोताओ का ध्यान ही नहीं जाता। । दशरथ की असामयिक मृत्यु उसके धार्मिक पाठ के महिमामंडन में राम प्रेम और विरह का चरम प्रतिमान मान ली जाती है ।दरअसल राम की चरित्र सर्जना एक अतिमानवीय दुस्साहसिक चरित्र और व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के रूप में की गयी है । उनके क्रूर आदर्शवाद में संवेदना गौण हो जाती है । यह क्रूरता सीता के निर्वासन में भी देखी जा सकती है और जो उनके प्रिय अनुज लक्ष्मण को एक दिन सरयू नदी में डूबकर आत्म हत्या करने तक ले जाती है और स्वयं उनको भी अपनी जलसमाधि यानी आत्महत्या तक भी । अपनी असह्य और अमानवीय आदर्शवादी क्रूरता का बोध होने पर वे स्वयं भी लक्ष्मण का अनुसरण कर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर लेते हैं । इसे चरमपंथी आदर्शवाद से राम के मोहभंग के रूप में ही देखा जाना चाहिए । इस दृष्टिकोण से देखें तो रामकथा एक दुखान्त आख्यान है । उसमें आए चरित्रों को अपरिवर्तनीय आदर्श मानकर देखना या अनुसरण करना आवश्यक या अपरिहार्य नहीं ।
इससे यह भी सन्देश मिलता है कि संवेदना का अतिक्रमण कर निष्ठुर होकर धर्म और कानून आदि आदर्शों का अनुपालन हमें अभिशप्त करने वाला तथा त्रासद स्मृतियों को जन्म देने वाला भी हो सकता है । महाभारत भी इसी कारण त्रासद अंत को प्राप्त होता है । ऐसी ही चरमपंथी हिंसा मार्क्सवाद को भी अभिशप्त कर चुकी है । यहूदियों और इस्लामियों को भी कर रही है । नही सजग हुए तो हिंदुओं को भी अभिशप्त कर जाएगी ।
इस तरह रामकथा में एक आदर्शवादी नायक राम के त्रासदीपूर्ण अंत को देखते हुए वाल्मीकीय रामायण के आख्यान का जो साहित्यिक पाठ बनना चाहिए वह अपने ही जिए और किए गए से असंतुष्ट और विमुख मनुष्य का बनता है । धार्मिक भाष्यकार रामकथा का साहित्यिक या मानवीय पाठ नहीं करते ।उसका आध्यात्मिक पाठ करने वाले क्रूर अमानवीय आदर्शवाद के नकारात्मक दुष्परिणामों की कहीं चर्चा ही नहीं करते ।
ब्राह्मणवादी पाठ की इस दृष्टिकोण से प्रशंसा की जा सकती है कि राम को मानवेतर घोषित कर वह किसी से राम जैसा व्यवहार करने की अपेक्षा ही नहीं करती । सब कुछ अनुकरणीय से परे और लीला घोषित कर देती है । तुलसीदास भी यही करते है । सच्चाई यह है कि धार्मिक रामकथाकार कथा के अंत में आत्महत्या करने वाले नायक राम की एकान्त-अव्यक्त वेदना तथा मानवीय जीवन-निष्कर्षों तक तक पहुँच ही नहीं पाते ।



रामायण,मनुस्मृति, पुराण और पुष्यमित्र शुंग


ऐसा माना जाता है कि आदि कवि वाल्मीकि कृत रामायण का गायन लव कुश द्वारा प्रारम्भ होकर लम्बे समय तक श्रुति परम्परा में ही एक पीढ़ी से दूसरी पीडीकोर स्थानांतरित होता रहा है । वाल्मीकीय रामायण की बहुत सी विशेषताएं हैं जैसे नारद द्वारा काव्य के विषय के रूप में राम को पुरुषोत्तम यानी आदर्श नायक बताए जाने के बावजूद वाल्मीकि राम के प्रशंसक हैं भक्त नहीं । सीता के परिष्कार बाद वे एक अभिभावक के रूप में सीता और उनके बच्चों का पक्ष चुनते हैं ,राम का नहीं । स्पष्ट है कि वे आचरण की कसौटी पर राम जैसे यशस्वी अभिजन के चरित्र को भी परखते हैं ।
मैं रामायण और मनुस्मृति दोनों में ही पुष्यमित्र शुंग की भूमिका लेखक की मानता हूॅ । मनोवैज्ञानिक समानता यह है कि वह अपने राजा का हत्यारा है तो वाल्मीकि भी पहले के डकैत और हत्यारे यानी नामी पापी रह चुके हैं । स्पष्ट है कि यह प्रायश्चित स्वरूप लिखा गया होगा । स्वयं हत्यारा होने के कारण अलोकप्रिय होने की आशंका को देखते हुए उसने रामायण को वाल्मीकि ऋषि के नाम से जारी किया और मनुस्मृति को मनु के नाम से । क्योंकि वह योग्यता और विद्वता के बल पर ही मौर्य साम्राज्य का सेनापति बना था-उसमें भयंकर महत्वाकांक्षा और प्रतिभा रही होगी -इससे इन्कार नहीं किया जा सकता ।
भाषावैज्ञानिक अध्ययन और विकास के आधार पर रामायण की भाषा पाणिनि के बाद की और व्याकरण सम्मत मानी जाती है । इसी आधार पर रामायण की रचना भी शुंगकालीन मानी जाती है । बौद्धों की जातक कथाओं की तर्ज पर होने के कारण पुराणों का रचनाकाल भी यही है। बौद्ध गुफाओं की तर्ज पर शिव को समर्पित एलीफेण्टा की गुफाएं तथा पहाड खोदकर बनवाए गए शिव मंदिर भी पुनर्जागरण की इसी असंतुष्ट विद्रोही चेतना के परिणाम हो सकते हैं ।
स्मृति, आस्था और ज्ञान संरक्षण की जातीय भूमिका को पीढ़ी दर पीढ़ी जीने की पूर्वाग्रही मानसिकता के कारण किसी ब्राह्मण विद्वान का पौराणिक स्मृतियों को पूरी तरह भुलाकर देरतक एकनिष्ठ बौद्ध दर्शन जीवी बने रह पाना मुश्किल हो गया होगा । इस मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो पुष्प मित्र शुंग अपने जमाने का मंगल पाण्डेय और पेशवा ही था ।
सच तो यह है कि यूनान से सम्पर्क के कारण तथा व्यवस्थित बौद्ध शिक्षा केन्द्रों से निकले होने के कारण। मौर्य काल के भारतीय विद्वान हमारे अनुमान से अधिक बहुशिक्षित थे । यदि यह सच है कि चन्द्र गुप्त की सिल्युकस की बेटी से रिश्ता हुआ था तो पाटलिपुत्र के रनिवास में भी होमर की कृतियाँ भी रही होंगी । इसी आधार पर मुझे रामायण की रामकथा भी बहुप्रभावित और बहुसंस्कारित लगती है । जैसे कि राम द्वारा समुद्र पर पुल बनवाने का प्रसंग-जैसाकि सिकंदर नें भी किया था । इसके बावजूद मैं रामकथा को पूर्ण कल्पित या निराधार कल्पना नहीं मानता । पुष्यमित्र शुंग ने संभव है कि वृहद्रथ वध को रावण वध के समतुल्य और स्वयं अपने राज्यारोहण को राम की विजय के सदृश ठहराने या विज्ञापित करने के लिए रामकथा का विस्तृत पुनर्लेखन कराया हो । वृहद्रथ को शूद्र तुल्य वध्य घोषित करने के लिए शम्बूक-वध का प्रसंग भी डलवाया हो । हत्यारे ब्राह्मण ऋषि परशुराम के होने की विज्ञप्ति भी पुष्यमित्र के हत्या परिमाण को कम दिखाने के लिए ही की गयी हो । रामकथा आर्य-अनार्य संघर्ष के भी पुरा - अस्तित्व में होने की सूचना देती है । रामकथा को काल्पनिक मानने के बाद शूद्र ग्रंथि का कोई स्मृति-साक्ष्य ही नहीं बचेगा । जो शूद्रों के एक साम्प्रदायिक समुदाय से वर्ण समुदाय में रूपान्तरण की पुष्टि कर सके । मैं रामकथा को सामन्त युग की भारतीय मूल्य चेतना का अधिकतम सृजनात्मक निवेश का परिणाम मानता हूं ।
दरअसल भारतीय जनता भांति-भांति के चरित्र प्रधान आख्यानों को सुनने-सुनाने वाली रही है । अपने संस्थागत चरित्र के कारण आधुनिक मार्क्सवादियों की तरह ही कट्टर शुद्धतावाद के चक्कर में बौद्धों ने भी कभी इस देश की बहुप्रचारित स्मृति को केवल बुद्ध के लिए समर्पित एकल बुद्ध चरितात्मक बनाना चाहा होगा ।
अतिवादी,असहिष्णु और वर्णवादी होने के बावजूद पुष्यमित्र शुंग का भी एक अपना देशकाल बोध और पक्ष हो सकता है । मध्यकाल में तुलसीदास भी पुष्यमित्र शुंग की असहिष्णु जातीय भूमिका के बौद्धिक अवतार ही हैं । उनकी इस प्रसिद्ध वर्जना को एक बार फिर ध्यान से पढ़ें-
'कीनहें प्राकृत जन गुण गाना
सिर धुनि गिरा लागि पछताना '
यह प्राकृत जन अकबर का दरबार ही तो है । ज्ञान की प्रबुद्ध आवारागर्दी हर युग के भारतीय को प्रिय रही है । इसीलिए वह केवल बौद्ध, केवल इस्लाम और केवल मार्क्सवाद स्वीकार करने से बचता रहा है । वह दीर्घकालीन स्मृतियों की लंबी विरासत को पसन्द करने वाला देश रहा है । बहुलता उसकी आजादी और स्वभाव है । अधिक और एकल का बांधना भी उसे असंतुष्ट कर सकता है ।
25/04/2023






तुलसी को लेकर मेरी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि तुलसीदास को ब्राह्मण घराने में नहीं पैदा होना चाहिए था । सिर्फ दो पंक्तियां प्रमाणित करने के लिए काफी हैं कि तुलसीदास को भक्त शिरोमणि कवि कहा जाना धोखा है । तुलसी तो घोर विद्रोही कवि हैं । वे अपने समय को शत-प्रतिशत नापसन्द करने वाले कवि हैं । वे ' नर का मनसबदार यानी दरबारी भी होना नहीं चाहते ', प्राकृत जन का गुणगान करना नहीं चाहते क्योंकि इससे उनकी वाणी यानी कविता-कर्म अप्रतिष्ठित-कलंकित हो जाएगा । संकेत स्पषट है कि यह प्राकृत जन समकालीन सामन्त और शासक हैं । जिनमें मुगल बादशाह भी शामिल है ।
तुलसीदास रहीम के मित्र थे तो दरबारी बनने और मनसबदारी पाने का प्रस्ताव जरूर आया होगा । तुलसीदास अपने समय के सबसे बड़े नास्तिक आलोचक कवि भी हैं । सारे कृष्ण साहित्य की आलोचना योगेश्वर श्रीकृष्ण के हाथ में सिर्फ मुरली पकड़ाने के कारण कर देते हैं । सुदर्शन चक्र लापता होने की स्थिति में धनुष-बाण हाथ में लेने की सलाह देते हैं । इतने स्वाभिमानी और ईश्वर को भी फटकार लगाने वाले आदमी को पंडित बिरादरी में नहीं पैदा होना चाहिए था । किसी लड़ाकू बिरादरी में पैदा हुए होते तो शिवाजी को पीछे छोड़ दिए होते । उनकी निरीहता को समझा जाना चाहिए। तुलसीदास जैसी प्रतिभा भी जातिप्रथा का शिकार होकर-गलत जाति में पैदा होने के कारण सिर्फ भीख मांगकर और कुछ किताबें लिखकर ही चली गयी । इसतरह वे भी भारतीय जातीय सामाजिक व्यवस्था के शिकार कवि के रूप में सामने आते हैं । इसीलिए मेरी उनके प्रति सहानुभूति है ।
तुलसीदास जिस जमाने में लिख रहे थे उस जमाने में सभी वैसा ही सोचते और जीते थे-वर्णाश्रमी और जातिवादी मानसिकता के साथ । यदि तुलसीदास आज के जमाने में होते तब भी अपनी बिरादरी की तरह सबसे पहले सबसे बढ़-चढ़कर मार्क्सवादी होते और जाहिर है वैसा कुछ भी न लिखते जैसा लिखने के कारण उनकी 'जग-फंसाई' हो रही है ।
हां उन्हें लेकर मेरी यह शिकायत जरूर है कि तुलसी नें गुरुनानक देव जी से क्यों नहीं सीखा ? उनकी तरह उदात्त क्यों नहीं हो सके ? एक ही कारण समझ में आता है कि उनपर अपने आश्रयदाता बूढे होते गुरु की चरण-वन्दना और सेवा का दायित्व जरूर रहा होगा । और वे पंजाब की ओर नहीं गए होंगे । तब तक औरंगजेब और गुरु गोविंद का प्रादुर्भाव भी नहीं हुआ था जो सिक्ख पंथ के परवर्ती संगठन के कारण और निवारण बनें ।
मेरे तुलसी के प्रति प्रारंभिक सम्मान का कारण उनका अपार शब्द-भंडार और चकित कर देने वाला काव्य-कौशल है । यह छिपाने की बात नहीं है कि चिन्हित कमियों के बावजूद मैं तुलसीदास का लोहा मानता हूँ। उनकी प्रसिद्धि से ईर्ष्या करता हूँ। कारण कि पूरे हिन्दी साहित्य में वे ही एक मात्र ऐसे कवि हैं जिनकी उपलब्धियों से मैं प्रतिस्पर्धा करना चाहता हूँ। यह प्रतिस्पर्धा हर साहित्यकार को करनी चाहिए। कालजयी कवि के रूप में तुलसीदास जी एक प्रतिमान हैं और प्रतिमान सदैव अनुकरण तथा प्रतिस्पर्धा यानी मैं भी उनके जैसा या उनके बराबर हो जाऊं-के लिए ही होते हैं । इस भावना में में बुराई नहीं है । ।यह प्रतिस्पर्धा तो सभी साहित्यकारों में होनी चाहिए कि मुझे भी कई सौ वर्षों तक पढा जाए । तुलसी का साहित्य ऐसी चुनौती और प्रेरणा दे पाता है । ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा वाले कथन का यह भाव है मेरा । यह बात मैंने ब्याज स्तुति शैली में कही है ।( संभव है कुछ लोग नहीं समझ पा रहे हों ।)
इतिहास-परिवेश के कारण कुछ गलतियां जरूर उनके प्रोत्साहन और वर्ग से भी हुई हैं । जैसे यही कि ढोल के साथ प्रताड़ित न होते तो गंवार और शूद्र धर्म परिवर्तन ही क्यों करते !
इसमें कोई सन्देह नही कि आज के लोकतांत्रिक भारत के धर्म निरपेक्ष संविधान तथा वैश्विक मानवतावादी दृष्टिकोण से मध्य कालीन महाकवि तुलसीदास एक जातीय कवि ही हैं । लेकिन तत्कालीन शासक धर्म की वैचारिक स्वतन्त्रता के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण देखते हुए तुलसी के पास समानान्तर जीवन और मुक्ति की कामना का मानवाधिकार था । इसके कारण उन्हें काल-सापेक्ष प्रगतिशील पक्षधरता का कवि मानना पड़ेगा ।




#विशिष्टाद्वैतवाद
#रामकथा
#राम
#विश्वामित्र

तुलसीदास विशिष्टाद्वैतवाद मत को मानने वाले थे । यह मत राजाओं के ऐश्वर्य और वैभव को सामान्य जनता से ऊपर और विशिष्ट बतलाने की जरूरत के कारण आया लगता है । दूसरे शब्दों में आत्मा और परमात्मा के बीच तात्विक समानता होते हुए भी परमात्मा के विशिष्ट होने की घोषणा कर राजा के भी दैवी रूप से सामान्य जन से विशिष्ट होने का वातावरण सृजित करता है । आदि शंकराचार्य ने सारी दुनिया और राजाओं के वैभव को भी माया घोषित कर उसे नि:सारता के खाते में डाल दिया था - ईश्वर के साथ-साथ लोक के पार्थिव ईश्वरों की महत्ता की स्वीकृति की वापसी विशिष्टाद्वैतवाद प्रकारान्तर से करता है । बुद्ध को आत्मसात कर अपना अद्वैत मत प्रस्तुत करने वाले आदि शंकराचार्य भी अपनी अधिकतम उदार करुणा से सन्यासी होने के कारण लोक को जो आध्यात्मिक समानता का उपहार दिया था, उसकी वापसी और संशोधन भी विशिष्टाद्वैतवाद के माध्यम से ही हुआ मुझे लगता है ।
इस दार्शनिक दृष्टिकोण के कारण ही तुलसी कृत रामकथा का पाठ सामान्य जन को राम की तुलना में हीन दिखाते हुए और अप्रतिष्ठित करते हुए चलता है । यह पौराणिक राम के विपरीत प्रतीत होता है । रामायण के अनुसार मानें तो राम विश्वामित्र के शिष्य थे । स्वयं को विश्व का मित्र बताने वाले ऋषि के शिष्य राम की आत्मा पौराणिक कथाओं के अनुसार मानें तो ईश्वर को मनुष्य की आत्मा में देखने की अवधारणा देने वाला विश्वामित्र के द्वारा सृजित गायत्री मंत्र से संस्कारित और परिष्कृत होनी चाहिए। विश्वामित्र यदि मार्क्स की भूमिका में हैं तो राम गायत्री मंत्र के अर्थ और संस्कार को अपने आचरण में उतारने वाले लेनिन की भूमिका में हैं । शायद राम को जन्म के पहले से ईश्वर मान ने वालों को गुरू विश्वामित्र और उनके गायत्री मंत्र के अर्थ-प्रभाव और संस्कार की याद दिलाना अच्छा न लगे ।
ध्यान देने की बात यह है कि गुरु वशिष्ठ अयोध्या के राजपुरोहित थे । राम और लक्ष्मण शिक्षा प्राप्त करने से लेकर विवाह तक विश्वामित्र के आश्रम में ही बताए गए हैं । विचारक ओर विचारों के सामाजिक व्यवहारकर्ता के रूप में उनका पारस्परिक सम्बंध मार्क्स और लेनिन जैसा था -
सिद्धांतकार और उसके प्रयोगकर्ता (प्रेरक-प्रेरित)सम्बन्ध ।
फिलहाल विचारणीय यह है कि यदि तुलसीदास पर
शंकराचार्य के अद्वैतवाद का प्रभाव रहा होता तो वे आज ब्रह्मांड के साथ-साथ परमाणु यानी लघु अस्तित्व की भी महत्ता स्थापित होने वाले लोकतांत्रिक युग में वे कुछ अधिक ही प्रासंगिक होते । यह एक तथ्य है विशिष्टाद्वैतवाद श्रेष्ठता के साथ सामान्यता की अवधारणा सैद्धांतिक सहमति देता है । इसीलिए मुझे लगता है कि विशिष्टाद्वैतवादी दर्शन की आंख नें तथा तुलसी के जीवन की दीन-हीन परिस्थितियों नें उन्हें वास्तविक राम द्वारा गायत्री मंत्र और विश्व मैत्री को अपने जीवन और आचरण में साकार करने वाले उदात्त व्यक्तित्व और अवधारणा तक न पहुँचने दिया । उल्लेखनीय है कि विश्वामित्र भी राजा का पद छोड़कर ऋषि बनते हैं तो राम भी राजा बनने का मोह छोड़कर वनवासी बनते हैं । पुराणों में ही बुद्ध की तरह भूखा होने पर बिना किसी भेदभाव के मांगकर मांसाहार करने का भी उल्लेख है ।
देखने की बात यह है कि गीताकार की तरह रामकथाकार प्रत्यक्ष रूप से राम के विचारक और उपदेशक रूप के वर्णन से बचे हैं । संभवत: इससे उनकी गम्भीरता वाली छवि न रह जाती । यह भी कारण हो सकता है कि रामायण और राम चरित मानस दोनों में राम का चरित्र अन्तर्मुखी किस्म का और बहुत कम बोलने वाला धीर-गम्भीर चरित्र है । वे गीता के श्रीकृष्ण की तरह उपदेश कहीं नहीं देते । रामचरितमानस में वे आचरण से जो सम्मान करते हैं और अयोध्या की जनता के अपार प्रेम को देखते हुए विश्वामित्र के गायत्री मंत्र के अर्थ और भाव-सौन्दर्य का ही राम के आचरण के माध्यम से लोक में उतरना-फैलना और प्रकाशित होना लगता है । राम सोलहो कला के अवतार भले ही न माने गए हों , उनमें उदात्त आचरण के सौन्दर्य की पूर्णिमा है । आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी नें इसे ही शील का सौन्दर्य कहा है । राम नें को भी युद्ध विस्तारवादी आकांक्षा से नहीं लड़ा । किष्किंधा और लःका को जीतकर भी नहीं जीता । उनकी लोक-व्याप्ति बताती है कि लोगों का दिल जीता ।
वाल्मीकि के राम तो रावण के वध और युद्ध की समाप्ति के बाद स्वयं को विष्णु का अवतार घोषित किए जाने से असहमति जताते हैं । ऐसा कहने वालों से यह कहते हुए मना करते हैं कि 'मैं दशरथ-पुत्र राम स्वयं को मनुष्य मानता हूं ।
विशिष्टाद्वैतवादी दृष्टिकोण से ही सभी को सम्मान देने वाले राम के जीवन-दर्शनको जिसे हर प्राणी को ईश्वर मानने 'वाले ऋषि का' विश्वामित्र दर्शन ' कहा जाए तो अधिक सही होगा । जो विभिन्न रामकथाओं के माध्यम से सही ढंग से व्यक्त नहीं हो पाया है । जबकि वह रहा जरूर होगा गायत्री मंत्र द्रष्टा ऋषि के मनोभावों,विचारों और शिक्षाओं के अनुरूप। राम के गुरू विश्वामित्र के गायत्री मंत्र का अर्थ भी प्रकारान्तर से अद्वैतवाद के आस-पास का ही है और मनुष्य की आत्मा में ब्रह्म और उसकी ईश्वरता के आवाहन के रूप में है । इसीलिए मुझे यह कहना उचित लगता है कि रामकथा की दार्शनिक निष्पत्ति अद्वैतवाद की ही है ।
रामकथा के पाठकों को राम के विचारों का उनके आचरण के आधार पर अनुमान लगाना पडता है ।'तुलसीदास कृत रामकथा भी , सभी के लिए (चारित्रिक व्यवहार के स्तर पर ) आत्मा और परमात्मा के अभेद और एकता की घोषणा या प्रचार नहीं करती । यद्यपि तुलसी के राम आम जन के रूप में ही जनता से मिल रहे होते हैं लेकिन जन सामान्य उन्हें अपने बीच का नहीं समझता । वे वल्कल वेश में भी धनुर्धर हैं । जन्म के पूर्व ही विष्णु घोषित कर दिए जाने से तिब्बतियों के शिशु दलाईलामा की भांति जन्म से ही अतिविशिष्टता उन्हें प्राप्त है । स्पष्ट है कि यदि वे विशिष्टाद्वैतवादी न होकर अद्वैतवादी रहे होते तो तुलसी की रामकथा उन प्रसंगों से बची रहती जिनके कारण प्रासंगिकता को लेकर उनका लिखा पुनविर्चार के दायरे में आ रहा है ।
यद्यपि यह भी सच है कि ज्ञानमार्गी अद्वैतवाद सिर्फ विद्वान सन्यासियों के लिए ही था ,क्योंकि जैसे भी हम स्वार्थ और हित-कामना में पडते हैं-निरीहता को जीने लगते हैं । तब कोई 'अहं ब्रहमास्मि ' कहने को सोच भी नहीं सकता ।
दार्शनिक दृष्टिकोण से विशिष्टाद्वैतवाद का महत्व इस दृष्टिकोण से स्वीकार योग्य लगता है कि उसमें अनित्यघर्मा देह में रहने वाले ब्रह्म को कम महत्व दिया गया है । संभवत: स्थायित्व या अनश्वरता की दृष्टि से ब्रह्माण्ड व्यापी परमात्मा के ही विशिष्ट होने की घोषणा है । महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों दार्शनिक दृष्टियां अलग-अलग सामाजिक मनोविज्ञान और व्यवहार की प्रवृत्ति को जन्म देती दिखती हैं।

11/11/2023



हनुमान चालीसा प्रसंग

जब उतना अच्छा लिख सकता है तो उस कवि (तुलसीदास द्वितीय) की और भी रचनाएँ होनी ही चाहिए । ऐसा तो होना नहीं चाहिये कि सम्पुर्ण रामकथा की समाहार शक्ति का प्रदर्शन कराने वाली कृति हनुमान चालीसा लिख कर अद्भूत प्रदर्शन करने वाला कवि अपनी प्रतिभा से सहसा चालीसा लिख्कर निष्क्रिय भूमिगत और अदृश्य हो गया हो । यह निश्चय ही वाराणसी के संकट मोचन मन्दिर के उद्घाटन के अवसर पर प्रयोजन मूलक ढंग से पूजा गीत के रुप मे लिखा गया होगा जिसे स्वयं तुलसी दास द्वारा ही स्थापित माना जाता है । रामलीला और हनुमान मन्दिर के साथ बने अखाड़े तुलसीदास द्वारा रामकथा के चरित्रों के प्रचार-प्रसार के लिये आने जीवनकाल में चलाए गए लोक आन्दोलन के प्रमुख हिस्से रहे हैं । यादव बिरादरी के अखाड़ों से जुडकर ही रामकथा के मिथकीय चरित्र हनुमान की पूजा का लोक में बहुआयामी प्रसार तुलसी के जीवन्काल में ही सम्भव हुआ ।' राम चरित सुनबे को रसिया' यदि अवधी का प्रयोग नहीं है तो बनारसिया प्रयोग तो है ही काशिका के करबे,जइबे कहबे आदि के तर्ज पर सुनिबे का प्रयोग काशी के हनुमान भक्तों के लिये ही किया गया लगता है। इसे देखते हुए सिर्फ चालीस पंक्तियों की एक कविता लिखने के लिये अलग से तुलसीदास द्वितीय पैदा करने की क्या जरूरत!


तुलसीदास का आदर्श आनुवांशिक सामन्तवादी व्यवस्था और कृषक सभ्यता के लिए था । वर्तमान समय औद्योगिक पूंजीवाद का है जो अलगावबोध को जन्म देकर लोगों को असामाजिक और संवेदनहीन बनाता है । पूंजी आत्मनिर्भर तो करती है लेकिन संचय के साथ -साथ दूसरों की अवहेलना करने की प्रवृत्ति भी विकसित करती है । सामाजिक व्यवहार के अवसरों को सीमित करती है । दूसरों से भी कटकर एक असंवादी और एकान्त जीवन-यापन की भी सुविधा प्रदान करती है । बढती जनसंख्या के साथ घटते संसाधनों का तनाव भी है । इन सब कारणों से समाज में क्रूरता और अपराध बढ रहे है ।
इस गुजरते समय की विखण्डनवादी प्रभाव वाली
सामूहिक मानसिकता के लिए रामकथा के भावुक कौटुम्बिक व्यवस्था वाले चरित्र असुविधा भी उत्पन्न करते हैं । उसके पास परिवार के भीतर के सदस्यों की पूंजीगत विषमता के लिए त्याग और संतोष का जो समाधान है , वह अव्यवहारिक होने के कारण लोगों को स्वीकार नहीं है । यह भी एक कारण है कि आर्थिक-मनोवैज्ञानिक कारणों से उसकी प्रासंगिकता प्रश्नांकित होने लगी है ।





रामकथा का मानवतावादी पाठ


रामकथा और तुलसीदास के राम चरित मानस का पाठ-विश्लेषण एक ही निष्कर्ष तक नहीं ले जाता है । रामकथा पुरुष प्रधान किसान सभ्यता के आदर्शों का प्रतिमानीकरण करने वाला महाकाव्य है । यह परिवार केन्द्रित सामूहिकता का सन्देश देने तथा आनुवंशिक उत्तराधिकार में सम्पत्ति-विभाजन को हतोत्साहित करने के कारण मिलकर खेती या व्यवसाय करने का सन्देश देता रहा है । इस आधार पर यह कुटुंब व्यवस्था का चारित्रिक संविधान प्रदान करने वाला महाकाव्य है ।
राम के बाद रामकथा के प्रमुख चरित्र हनुमान का सकारात्मक या प्रगतिशील पक्ष यह है कि वह आदर्श आज्ञाकारी निष्ठावान सेवक या अनुचर का आदर्श चरित्र प्रस्तुत करता है । रामकथा के माध्यम से फैलायी गयी यह निष्ठा मध्ययुगीन सामन्ती आर्थिक व्यवस्था की रीढ रही है । हनुमान के चरित्र की लोकप्रियता का यह भी एक रहस्य है । यह अन्य सामन्तयुगीन बुराइयों जैसे दशरथ के चरित्र के माध्यम से बहुपत्नी प्रथा के नकारात्मक पहलू भी सामने लाती है । अरस्तू के विरेचन सिद्धांत के आधार पर देखें तो पाठकों को इतना डरा देती है कि वे राम की तरह एक विवाह से अधिक करने की सोचें ही नही । राम कथा का सबसे समाज उपयोगी पक्ष परिवार के भीतर के आदर्श आचरण और व्यवहार का आदर्श उपस्थित करना है इस दृष्टिकोण से देखें तो लोक के दिल में बस जाने वाली असली रामकथा चित्रकूट के भरतमिलाप तक ही है । उसके आगे की रामकथा का सबक या सीख उसकी धार्मिक व्याख्या करने वाले बिगाड देते हैं । उदाहरण के लिए सीताहरण का प्रसंग आज भी परदेश गमन में आने वाली जोखिमों के प्रति आगाह करता है । अति आत्मविश्वास और जोखिमपूर्ण व्यवहार सुरक्षित नहीं है ,चाहे वह राम जैसा अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाला ही क्यों न हो । रावण द्वारा साधु के वेश में सीता का हरण तो भारत की स्त्रियों को सीधे-सीधे कठोर चेतावनी देने वाला प्रसंग है कि साधु वेष धारी पराए पुरुषों पर कभी विश्वास मत करो अन्यथा तुम्हारा भी वैवाहिक जीवन सीता की तरह तबाह हो सकता है । यह एक ऐसी चेतावनी है जिसे मध्य काल में कबीर ही दे पाते हैं -चली कुलबोरनी गंगा नहाया जैसी पंक्तियों के माध्यम से । उत्तरार्ध की रामकथा मध्यकालीन राजाओं के लिए कूटनीतिक दांव-पेंच का दृष्टांत उपस्थित करती है । इसी में धार्मिक पाठ और रघुकुल के जिद्दी राम के कारण दशरथ के हार्ट अटैक यानी ह्रदयाघात की ओर रामकथा के पाठकों और श्रोताओ का ध्यान ही नहीं जाता। । दशरथ की असामयिक मृत्यु उसके धार्मिक पाठ के महिमामंडन में राम प्रेम और विरह का चरम प्रतिमान मान ली जाती है ।दरअसल राम की चरित्र सर्जना एक अतिमानवीय दुस्साहसिक चरित्र और व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के रूप में की गयी है । उनके क्रूर आदर्शवाद में संवेदना गौण हो जाती है । यह क्रूरता सीता के निर्वासन में भी देखी जा सकती है और जो उनके प्रिय अनुज लक्ष्मण को एक दिन सरयू नदी में डूबकर आत्म हत्या करने तक ले जाती है और स्वयं उनको भी अपनी जलसमाधि यानी आत्महत्या तक भी । अपनी असह्य और अमानवीय आदर्शवादी क्रूरता का बोध होने पर वे स्वयं भी लक्ष्मण का अनुसरण कर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर लेते हैं । इसे चरमपंथी आदर्शवाद से राम के मोहभंग के रूप में ही देखा जाना चाहिए । इस दृष्टिकोण से देखें तो रामकथा एक दुखान्त आख्यान है । उसमें आए चरित्रों को अपरिवर्तनीय आदर्श मानकर देखना या अनुसरण करना आवश्यक या अपरिहार्य नहीं ।
इससे यह भी सन्देश मिलता है कि संवेदना का अतिक्रमण कर निष्ठुर होकर धर्म और कानून आदि आदर्शों का अनुपालन हमें अभिशप्त करने वाला तथा त्रासद स्मृतियों को जन्म देने वाला भी हो सकता है । महाभारत भी इसी कारण त्रासद अंत को प्राप्त होता है । ऐसी ही चरमपंथी हिंसा मार्क्सवाद को भी अभिशप्त कर चुकी है । यहूदियों और इस्लामियों को भी कर रही है । नही सजग हुए तो हिंदुओं को भी अभिशप्त कर जाएगी ।
इस तरह रामकथा में एक आदर्शवादी नायक राम के त्रासदीपूर्ण अंत को देखते हुए वाल्मीकीय रामायण के आख्यान का जो साहित्यिक पाठ बनना चाहिए वह अपने ही जिए और किए गए से असंतुष्ट और विमुख मनुष्य का बनता है । धार्मिक भाष्यकार रामकथा का साहित्यिक या मानवीय पाठ नहीं करते ।उसका आध्यात्मिक पाठ करने वाले क्रूर अमानवीय आदर्शवाद के नकारात्मक दुष्परिणामों की कहीं चर्चा ही नहीं करते ।
ब्राह्मणवादी पाठ की इस दृष्टिकोण से प्रशंसा की जा सकती है कि राम को मानवेतर घोषित कर वह किसी से राम जैसा व्यवहार करने की अपेक्षा ही नहीं करती । सब कुछ अनुकरणीय से परे और लीला घोषित कर देती है । तुलसीदास भी यही करते है । सच्चाई यह है कि धार्मिक रामकथाकार कथा के अंत में आत्महत्या करने वाले नायक राम की एकान्त-अव्यक्त वेदना तथा मानवीय जीवन-निष्कर्षों तक तक पहुँच ही नहीं पाते ।

16/10/2023




रामकथा का मानवतावादी पाठ
रामकथा और तुलसीदास के राम चरित मानस का पाठ-विश्लेषण एक ही निष्कर्ष तक नहीं ले जाता है । रामकथा पुरुष प्रधान किसान सभ्यता के आदर्शों का प्रतिमानीकरण करने वाला महाकाव्य है । यह परिवार केन्द्रित सामूहिकता का सन्देश देने तथा आनुवंशिक उत्तराधिकार में सम्पत्ति-विभाजन को हतोत्साहित करने के कारण मिलकर खेती या व्यवसाय करने का सन्देश देता रहा है । इस आधार पर यह कुटुंब व्यवस्था का चारित्रिक संविधान प्रदान करने वाला महाकाव्य है ।
राम के बाद रामकथा के प्रमुख चरित्र हनुमान का सकारात्मक या प्रगतिशील पक्ष यह है कि वह आदर्श आज्ञाकारी निष्ठावान सेवक या अनुचर का आदर्श चरित्र प्रस्तुत करता है । रामकथा के माध्यम से फैलायी गयी यह निष्ठा मध्ययुगीन सामन्ती आर्थिक व्यवस्था की रीढ रही है । हनुमान के चरित्र की लोकप्रियता का यह भी एक रहस्य है । यह अन्य सामन्तयुगीन बुराइयों जैसे दशरथ के चरित्र के माध्यम से बहुपत्नी प्रथा के नकारात्मक पहलू भी सामने लाती है । अरस्तू के विरेचन सिद्धांत के आधार पर देखें तो पाठकों को इतना डरा देती है कि वे राम की तरह एक विवाह से अधिक करने की सोचें ही नही । राम कथा का सबसे समाज उपयोगी पक्ष परिवार के भीतर के आदर्श आचरण और व्यवहार का आदर्श उपस्थित करना है इस दृष्टिकोण से देखें तो लोक के दिल में बस जाने वाली असली रामकथा चित्रकूट के भरतमिलाप तक ही है । उसके आगे की रामकथा का सबक या सीख उसकी धार्मिक व्याख्या करने वाले बिगाड देते हैं । उदाहरण के लिए सीताहरण का प्रसंग आज भी परदेश गमन में आने वाली जोखिमों के प्रति आगाह करता है । अति आत्मविश्वास और जोखिमपूर्ण व्यवहार सुरक्षित नहीं है ,चाहे वह राम जैसा अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाला ही क्यों न हो । रावण द्वारा साधु के वेश में सीता का हरण तो भारत की स्त्रियों को सीधे-सीधे कठोर चेतावनी देने वाला प्रसंग है कि साधु वेष धारी पराए पुरुषों पर कभी विश्वास मत करो अन्यथा तुम्हारा भी वैवाहिक जीवन सीता की तरह तबाह हो सकता है । यह एक ऐसी चेतावनी है जिसे मध्य काल में कबीर ही दे पाते हैं -चली कुलबोरनी गंगा नहाया जैसी पंक्तियों के माध्यम से । उत्तरार्ध की रामकथा मध्यकालीन राजाओं के लिए कूटनीतिक दांव-पेंच का दृष्टांत उपस्थित करती है । इसी में धार्मिक पाठ और रघुकुल के जिद्दी राम के कारण दशरथ के हार्ट अटैक यानी ह्रदयाघात की ओर रामकथा के पाठकों और श्रोताओ का ध्यान ही नहीं जाता। । दशरथ की असामयिक मृत्यु उसके धार्मिक पाठ के महिमामंडन में राम प्रेम और विरह का चरम प्रतिमान मान ली जाती है ।दरअसल राम की चरित्र सर्जना एक अतिमानवीय दुस्साहसिक चरित्र और व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के रूप में की गयी है । उनके क्रूर आदर्शवाद में संवेदना गौण हो जाती है । यह क्रूरता सीता के निर्वासन में भी देखी जा सकती है और जो उनके प्रिय अनुज लक्ष्मण को एक दिन सरयू नदी में डूबकर आत्म हत्या करने तक ले जाती है और स्वयं उनको भी अपनी जलसमाधि यानी आत्महत्या तक भी । अपनी असह्य और अमानवीय आदर्शवादी क्रूरता का बोध होने पर वे स्वयं भी लक्ष्मण का अनुसरण कर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर लेते हैं । इसे चरमपंथी आदर्शवाद से राम के मोहभंग के रूप में ही देखा जाना चाहिए । इस दृष्टिकोण से देखें तो रामकथा एक दुखान्त आख्यान है । उसमें आए चरित्रों को अपरिवर्तनीय आदर्श मानकर देखना या अनुसरण करना आवश्यक या अपरिहार्य नहीं ।
इससे यह भी सन्देश मिलता है कि संवेदना का अतिक्रमण कर निष्ठुर होकर धर्म और कानून आदि आदर्शों का अनुपालन हमें अभिशप्त करने वाला तथा त्रासद स्मृतियों को जन्म देने वाला भी हो सकता है । महाभारत भी इसी कारण त्रासद अंत को प्राप्त होता है । ऐसी ही चरमपंथी हिंसा मार्क्सवाद को भी अभिशप्त कर चुकी है । यहूदियों और इस्लामियों को भी कर रही है । नही सजग हुए तो हिंदुओं को भी अभिशप्त कर जाएगी ।
इस तरह रामकथा में एक आदर्शवादी नायक राम के त्रासदीपूर्ण अंत को देखते हुए वाल्मीकीय रामायण के आख्यान का जो साहित्यिक पाठ बनना चाहिए वह अपने ही जिए और किए गए से असंतुष्ट और विमुख मनुष्य का बनता है । धार्मिक भाष्यकार रामकथा का साहित्यिक या मानवीय पाठ नहीं करते ।उसका आध्यात्मिक पाठ करने वाले क्रूर अमानवीय आदर्शवाद के नकारात्मक दुष्परिणामों की कहीं चर्चा ही नहीं करते ।
ब्राह्मणवादी पाठ की इस दृष्टिकोण से प्रशंसा की जा सकती है कि राम को मानवेतर घोषित कर वह किसी से राम जैसा व्यवहार करने की अपेक्षा ही नहीं करती । सब कुछ अनुकरणीय से परे और लीला घोषित कर देती है । तुलसीदास भी यही करते है । सच्चाई यह है कि धार्मिक रामकथाकार कथा के अंत में आत्महत्या करने वाले नायक राम की एकान्त-अव्यक्त वेदना तथा मानवीय जीवन-निष्कर्षों तक तक पहुँच ही नहीं पाते ।





 तुलसीदास की पंक्तियां उनके काव्य-ग्रन्थ 'राम चरित मानस की व्यापक स्वीकृति और प्रसिद्धि के साथ स्वतंत्र सूक्तियों के रूप में इश्तेमाल होने लगी । इसलिए ऐसी सूक्तियां बाद की पाठक पीढियों के लिए भंयकर दुष्परिणाम लाने वाली हुई । तुलसी का काव्य-साहित्य धार्मिक संविधान की तरह पढा गया है और इसमें सन्देह नहीं कि उसका संदर्भित समुदायों को अपमानित करने के लिए भी दुरुपयोग होता रहा है। उत्पीड़न की घटिया मानसिकता का पोषण और विज्ञापन करता रहा है -वह भी प्रबन्ध काव्य की मंशा के विपरीत । क्योंकि प्रताड़ना की घोषणा बिना अपराध बताए सिर्फ लिंग और वर्ण की अयाचित-अपरिहार्य सदस्यता के आधार पर विवादित पंक्तियों में हुई है - इसीलिए अपनी अशील व्याप्ति में गंभीर और चिंतनीय भी है । वह कथा-काव्य में भले दृष्टांत रूप में सहज उपस्थित हो गया हो । उससे इतना तो सत्यापित होता ही है कि हमारा मध्ययुगीन समाज किस सीमा तक असभ्य, घटिया और अनैतिक रूप से भेद-भाव करने वाला पूर्वाग्रही तथा आपराधिक था । इसमें तुलसीदास की भूमिका एक कैमरामैन जैसी होने के बावजूद। जहां महाकवि के नियंत्रण के बाहर भारतीय समाज की कलुषित मानसिकता लोकोक्ति के माध्यम से ही व्यक्त हो गयी है ।


#तुलसीविमर्श

(रामकथा भारतीय जीवन-मूल्यों की जन्म स्थली है । वचन या कथन की सत्यनिष्ठा का उद्गम तो रघुकुल से ही जोड़ा जाता है । रामकथा कौटुम्बिक परम्परा वाले भारतीय समाज का सांस्कृतिक आधार ग्रन्थ है । यदि यह कहा जाए कि वह हमारे आचरण और व्यवहार का सांस्कृतिक संविधान रचती है तो अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा । रामकथा हमारी सांस्कृतिक-साहित्यिक धरोहर है । इसके विभिन्न पाठों को लेकर लगातार विवाद सामनें आ रहे हैं । सही पक्ष तक पहुँचने के लिए राम-कथा के अच्छे और बुरे दोनों प्रभावों के गम्भीरतापूर्वक विश्लेषण की जरूरत है ।)
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प्रताड़ित प्रताड़ना आदि जीवित शब्द 'ताड़न' ' के सही अर्थ-ग्रहण और बदलाव में बाधक हैं । भोजपुरी में 'ताड़ लेना' 'देख लेने' ,'बूझ लेने ' का मिला जुला अर्थ देता है और ऐसा ही अवधी में भी है । लेकिन शब्द-साहचर्य अथवा कुसंग-प्रभाव के कारण 'ताड़न ' शब्द की सारी पोल ढोल ही खोल दे रहा है कि ताड़ना का अर्थ श्लेष में निगरानी और प्रसंगानुसार गवार,शूद्र, पशु और नारी को पीटने सहित पीड़ा या दण्ड देने का भय बनाए रखना आदि भी है । यद्यपि पाठ-विश्लेषण में प्रसंग के अनुसार समुद्र एक असहयोग करने वाले खल का चरित्र और व्यवहार उपस्थित कर रहा है , इसे देखते हुए तुलसी सम्मत आशय पाने के लिए दुष्ट या खल चरित्र वाले गंवार, शूद्र,पशु और नारी के दण्डनीय होने का भाव निकालना ही प्रामाणिक होगा । इसे अकारण एवं निर्दोष सभी ग्रामीणों(अशिंक्षित-असभ्य के अर्थ में ),शूद्रों और स्त्रियों को पीटने का अर्थ ग्रहण करना कवि तुलसी के प्रति ज्रयादती होगी । कारण कि मध्य युग में आज की तरह की कानून व्यवस्था और पुलिस तो थी नहीं । सुधारने के लिए आस-पास घर-गाॅव.बिरादरी वाले ही मिलकर पीटते थे । इसमें शोषण के लिए पीटना भी निश्चय ही शामिल रहा होगा । इस तरह देखा जाए तो तुलसीदास वही लिख रहे थे जो उनके समय का सच और आम व्यवहार था । यह जरूर पूरा मध्यकालीन समाज प्रश्नों के कठघरे में आ गया है ,सिर्फ तुलसीदास का कवि ही नहीं ।। अपने राम को भगवान बनाने वाले राम और तुलसी अपनी मध्यकालीन पुरुषवादी,वर्ण भेदवादी सामंती सोच ,मानसिकता और पूर्वाग्रह के कारण ही मनुष्य के रूप में युग की कमियों के साथ पहचान लिए जा रहे हैं । पहचान लेने वाली जनता अधिक समझदार हो गयी है -यह भी इस विवाद नें सत्यापित किया । फिर भी अपने मध्यकालीन परिवेश के आधार पर उन्हें सन्देह का लाभ मिलना ही चाहिए ।इस सतर्कता के साथ कि गुणहीन विप्र पुजवाने की अपनी अपील के कारण समग्रता में तुलसीदास पक्षपातपूर्ण एवं वर्णाग्रही होने से जातीय एवं आज के लिए असंवैधानिक होने के अनुपात में अप्रासंगिक ठहरते हैं ।
क्योंकि राम.कथा कुटुंब व्यवस्था का आदर्श और प्रतिमान उपस्थित करने वाला आख्यान है इसलिए परिवार के भीतर का पूर्वार्द्ध वाला कथा-प्रसंग देर तक प्रासंगिक बना रहेगा । परिवार के भीतर त्याग और एकता का संदेश देने वाला आख्यान होने के कारण भी । परिवार से समाज में जाते ही आख्यान का कुछ ढांचा सामंती हो जाता है । लेकिन राम के वनवास काल में रामकथा श्रमण संस्कृति का भी आदर्श उपस्थित करती है । वनवासी राम शिकार वृत्ति पर जीवन यापन करते समय जनजातीय आजीविका पद्धति अपनाते हैं । राम का श्रमणों के बीच भ्रमण आधुनिक बुद्धिजीवियों के जीवन और व्यवहार के बहुत कुछ समान है । शम्बूक-वध का प्रसंग जो तुलसीदास के राम चरित मानस के भीतर नहीं है अन्य रामकथा को ब्राह्मणों के पक्ष में भीतर से गम्भीर क्षति पहुॅचाता है । कुछ ऐसा ही राम को सामंत की तरह चित्रित करने के कारण विप्रकुलीन तुलसीदास भी ।
इस स्थिति या यथार्थ को आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो यह भी दिखाई दे सकता है कि सारी पूंजी सामन्तों के यहाँ ही संचित और एकत्रित थी ।जनसामान्य उनके ऐश्वर्य पर रीझकर भी उनपर सम्मान का भाव रखता था ।जनसामान्य में श्रेष्ठ माना जाने वाले विप्र वर्ग का भक्ति-भाव जाने-अनजाने प्रारब्ध, नियति एवं ईश्वर की इच्छा जैसी अवधारणाओं के माध्यम से सामूहिक समर्पण और गुलामी के मनोभाव की सामूहिक सृष्टि करता रहा । इसे ही दास्य भाव की भक्ति कही गयी । इतिहास में विप्र वर्ग की भूमिका याचकों के नेतृत्वकर्ता की रही । वह स्वयं तो याचना या प्रार्थना द्वारा कुछ सुविधाएं प्राप्त कर सकता था लेकिन। अन्य वर्ण से आए लोग शास्त्रोक्त ढंग से भिक्षाटन के अधिकारी भी नहीं थे । उन्हें अपनी आजीविका श्रम एवं कर्म से ही चलानी थी ।
यहाँ से मैं रामकथा की समाजशास्त्रीय समीक्षा करना चाहूँगा। रामकथा के भीतर ही दो राम उपस्थित हैं । एक अपनें गुरु विश्वामित्र के आदर्शों के अनुरूप आचरण करने वाले राम और दूसरा अपने राजपुरोहित वशिष्ठ के परामर्श से कार्य करने वाले राम। यह मानना कठिन होगा कि शम्बूक-वध की तरह सीता के त्याग में ब्राह्मणों के ऊपर सही परामर्श देने की जिम्मेदारी नहीं रही होगी । यदि इन प्रसंगों को प्रक्षिप्त न माने तो !
राम चरित मानस की रामकथा के सन्दर्भ में दो तथ्य और महत्वपूर्ण हैं । मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो यह नायक के रूप में क्षत्रिय वर्ण और कथाकार कवि की ओर से ब्राह्मण या विप्र समुदाय की मानसिकता और आदर्श उपस्थित करता है । इसीलिए मानस की रामकथा एक तरह से रामकथा का विप्र संस्करण है । दार्शनिक दृष्टिकोण से देखें तो यह आदि शंकराचार्य के आत्मा और परमात्मा को अभेद और समान भाव से देखने-दिखाने वाले अद्वैतवाद के दर्शन से असहमत है । तुलसीदास का विशिष्टाद्वैतवादी दार्शनिक आधार आत्मा और परमात्मा की तात्विक समानता पर विश्वास नहीं करता । वह मान लेता है कि जो विशिष्ट है हमेशा ही विशिष्ट रहेगा और जो सामान्य है हमेशा ही सामान्य । यही उनके पूज्य भाव का आधार भी है । यद्यपि विकासवादी दृष्टिकोण भी स्तरभेद की विविधता से सहमत है । दरअसल विशिष्टाद्वैतवाद मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने पर प्रकारांतर से राजाओं की विशेष हैसियत और उनके दूसरों को अधीन करने वाले राजतंत्र का आध्यात्मिक तर्क द्वारा नैतिक समर्थन करता है । यह गणतंत्र के समानता जीने वाले समुदायों से निकले बौद्ध मत के जीवन-दर्शन के बिल्कुल विपरीत है जिसे उनसे शास्त्रार्थ कर आदि शंकराचार्य नें अत्यंत सोच-समझकर स्थिर किया था । निष्कर्ष यह है कि अद्वैतवाद और विशिष्टाद्वैत के भीतर गणतंत्र और राजतंत्र की बिल्कुल विरोधी आत्मा समाई हुई है । तुलसीदास और उनका विशिष्टाद्वैत मध्ययुग के सामन्ती राजतंत्र और कुलीनतंत्र को स्वीकार करते हुए उसके भीतर ही उसके आदर्श स्वरूप की खोज का परिणाम है ।