मनुष्य एक सामुदायिक प्राणी है .वह अपनें अधिकांश में इस बात के लिए सजग रहता है कि वह विचारधारा के स्तर पर भी दूसरों से बहुत दूर न जाए .अनुरूपता और अनुकूलता कि यह कोशिश ही बड़े समुदायों की उस सामुदायिक तानाशाही को जन्म देती है जो छोटे और स्वायत्त समुदायों के लिए हिंसक और आपराधिक भी हो सकती है .ऐसी दैत्याकार समुहिकताए अकेली और असहमत बुद्धिजीवियों को निरीह बनती हैं .जनसामान्य दैत्याकार समूहों से उपजी तानाशाही को अपनी असमर्थता के कारण ईश्वर की इच्छा का परिणाम समझाने लगता है .अधिकांश राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक संस्थाए निर्णय एवं प्रभाव कि क्रूरताएँ रचती हैं .ऐसे बघ्याकारी प्रभावों का भी अध्ययन होना चाहिए .
जो नहीं है उसका होना संभव करने के लिए सृजनशील प्रतिरोध मनुष्य करता रहता है .अभावों को संभव करने का सृजनात्मक तनाव एक जरूरी एवं उपयोगी मानसिक तनाव है .इसे दुख के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए .इसकी सार्थकता इसे गोरव्शाली बनाती हैं..इसलिए अपना नजरिया बदलने कि जरुरत है क्योंकि हर परेशांन आदमी दुखी नहीं होता .हमें सृजनशील दुखी और कुंठित दुखी में अंतर करना आना चाहिए .सृजनशील दुखी प्रतिरोधी होता है जबकि कुंठित दुखी असफल .
जो नहीं है उसका होना संभव करने के लिए सृजनशील प्रतिरोध मनुष्य करता रहता है .अभावों को संभव करने का सृजनात्मक तनाव एक जरूरी एवं उपयोगी मानसिक तनाव है .इसे दुख के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए .इसकी सार्थकता इसे गोरव्शाली बनाती हैं..इसलिए अपना नजरिया बदलने कि जरुरत है क्योंकि हर परेशांन आदमी दुखी नहीं होता .हमें सृजनशील दुखी और कुंठित दुखी में अंतर करना आना चाहिए .सृजनशील दुखी प्रतिरोधी होता है जबकि कुंठित दुखी असफल .