मंगलवार, 22 जनवरी 2013

सामयिक वार्ता ,जनवरी २०१३ के अंक में प्रकाशित दो कविताएं -

थोड़ी-सी जगह


थोड़ी सी जगह जरुरी है
किसी और के लिए
चाहे वह ईश्वर हो या फिर कोंई और
थोडा सा भोजन उसके लिए
जो अभी नहीं आया है
लेकिन जो आ सकता है कभी भी

थोडा सा धैर्य -जो दुःख में हैं
उनकी नाराजगी और क्रोध के लिए
थोडा सा बोझ दूसरो की विपत्ति को 
बाँट लेने और बचा लेने के लिए

थोड़ी सी सम्भावनाये बची रहनी चाहिए
नए आविष्कारो के लिए भी
और थोड़ी सी ऊब नए प्रश्नो के लिए
थोडा सा मन नैराश्य के अंतिम क्षणों के विरुद्ध
थोड़ी सी चुप्पी और थोडा सा संवाद
एक संवेदनशील मन और सुरक्षित जीवन के लिए---


सुख का आधार

सारा सुख आदमी के ऊपर ही टिका हुआ है
हर सुखी आदमी किसी दुखते कंधे वाले
आदमी के सर पर चढ़ा हुआ है
कोई जानबूझकर तो कोई अनजाने ही
किसी  के पैरो तले पड़ा हुआ है

जेब काटने से लेकर जीने तक आदमी के लिए
आदमी ही है कच्चा माल
मानसिक विकलांगो और पराश्रितों की एक बड़ी भीड़
जो कुछ भी नया रचना और स्वयं कमाना नहीं जानती
उनकी दुनिया का एकमात्र सच यही है कि
आदमी से छीन कर ही आदमी का भाग्योदय और भला हुआ है !



रागात्मक विद्रोह


जनसत्ता 20 जनवरी, 2013: युवा कवि-कथाकार गौरव सोलंकी के कविता संग्रह सौ साल फिदा की कविताओं की दुनिया भविष्यकामी युवा जीवन का अपने सपनों के पीछे खुद को निश्शेष कर देने की आकांक्षाओं और भावनाओं की दुनिया है। 
उनकी कविताएं दरअसल, गुजरते जीवन और समय के गोपन रहस्यों को सहसा अनावृत्त कर देने की युवा कवि की विद्रोही मानसिकता से उपजी हैं।
गौरव की कविताएं विवरण की अस्पष्टता का इस्तेमाल कविता की तकनीक की तरह बहुअर्थी संभावनाओं के लिए करती हैं। दरअसल, वे जीवन की सृजनात्मक संभावनाओं के कवि हैं। उनकी दुनिया में कुछ भी निश्चित नहीं है। चीजें जीवन की तरह ही कभी भी कोई दिशा और रूप ले सकती हैं और उनकी कविताओं में व्यक्त अनुभव भी। उनकी ‘कि घर है’ कविता की ये पंक्तियां: ‘या कि तुम्हारे लगातार बेघर होने की प्रक्रिया में/ मैं घर हूं।’
गौरव की रचना-प्रक्रिया वास्तविक जीवनानुभवों के जाल को बोतलबंद पानी की तरह एक जटिल सृजनात्मक प्रक्रिया में ले जाने की है; जहां जल भी केवल जल न रह कर बिसलेरी बन जाता है। उनकी कविताओं में दृष्टांतों की एक पर्यटक मस्ती है, जो कभी भी चौंका सकती है- यह न सही तो यह सही की शैली में अर्थों और संकेतों का एक झूमता हुआ गतिशील और बेफिक्र कविता-संसार है। जहां सब कुछ कविता के एकांत में घटित होता है, सामाजिक वर्जनाओं की चिंता छू तक नहीं पाती। गौरव की कविताएं संप्रेषण की क्रीड़ा और कौतुक के शिल्प में रमती हैं। उनकी कविता में अर्थों और संकेतों की आंख-मिचौली है।
गौरव सोलंकी अप्रत्याशित सृजनशीलता के कवि हैं। अभिव्यक्ति के उपकरणों से छेड़छाड़ उनकी विशेषता है। ‘मैं ईश्वर’ कविता में ईश्वर होने की घोषणा एक ऐसी ही शरारती घोषणा है। पूरी कविता हालांकि दुख को सृजनात्मक स्वतंत्रता के साथ जीने की एक निषेधात्मक प्रस्तुति है: ‘मैं अपनी सघन कुंठाओं से/ तुम्हें बनाना और तोड़ देना चाहता हूं/ रात के तीसरे पहर में/ मैं ईश्वर हूं।’
‘डायल किया गया नंबर अभी व्यस्त है/ कृपया कुछ देर बाद डायल करें/ यह मेरे संसार का ब्रह्मवाक्य है, सुनो।’ यह कविता प्रेमजनित ईर्ष्या की दुनिया में ले जाती है। प्रकारांतर से यह भी युवा-जीवन की आशंकाओं और दुस्वप्नों की दुनिया है। गौरव अद्यतन जीवन-समय के व्याख्याता कवि हैं। जिसके कारण सामान्य दैनिक अनुभव से भी कविता फूट पड़ी है: ‘मैं नहीं हूं/ तो कोई और है वहां/ कुछ और कहता हुआ/ जिसके शब्दों के अर्थ भी आधी रात की तुम्हारी हंसी में/ खुशी से उलझ कर खुदकुशी करते हैं।’
‘हेमंत करकरे नाम का एक आदमी मर गया था’ शीर्षक कविता मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में मारे गए आम लोगों की स्मृति, घटित मानवीय त्रासदियों और एक जिम्मेदार पुलिस अधिकारी की शहादत के साथ-साथ बढ़ती संवेदनहीनता और मीडिया की कमजोर स्मृति का भी रेखांकन करती है। यह कविता आतंकवादियों की बर्बर स्मृति और आम आदमी की दिनचर्या के जीवंत बिंबों से गुजरती हुई इस महत्त्वपूर्ण टिप्पणी के साथ समाप्त होती है कि ‘कमजोर याददाश्त और महेंद्र सिंह धोनी के इस समय में/ यह हर सुबह गला फाड़ कर उठती हुई हूक/ और बहुत साधारण लोगों को बचा कर रख लेने की/ एक नितांत स्वार्थी कोशिश है/ इसे कविता न कहा जाए।’
‘रात में फ्रिज’ कविता यांत्रिक सुविधाओं की निर्भरता को समकालीन जीवन के रागात्मक विस्तार 
के रूप में प्रस्तुत करती है। यह पालतू पशुओं के प्रति रागात्मक संबंध वाली पीढ़ी से आगे की दुनिया है, जो इन यंत्रों की भी उपस्थिति और विस्तार को एक मानवीय अर्थवत्ता देती है: ‘फिर भी रात में फ्रिज खोलो तो/ सूरज दिखता है/ मरते-मरते भी लगेगा/ कि जन्मा हूं अभी/ और मां है सुबह-सुबह।’ गौरव खिलंदड़े और शरारती अहसासों के कवि हैं। वे जीवन के लिए अपरिहार्य यांत्रिक वातावरण से भी पुराने मानवीय रिश्ते ढूंढ़ निकालते हैं। फ्रिज के भीतर लाल सूरज का दिखना और सुबह-सुबह ताजा रोटियों के लिए मां की याद और अहसास उनकी ऐसी ही पंक्तियां हैं।
गौरव सोलंकी नें कामुकता के खुले बाजार के विरुद्ध एक मानसिक प्रतिरोध रचने की कोशिश की है। उनकी ‘छलती हुई स्त्रियों के खिलाफ’ ऐसी ही कविता है। उनकी दृष्टि में प्रेम में या फिर प्रेम के लिए पुरुष का बचना भी एक प्रकृति-प्रदत्त मानवीय पर्यावरण का बचना है। उनकी कविताएं कला पर थोपी गई नैतिकता के विरुद्ध हैं। गौरव साहस के साथ अपने काव्य-संसार में समाज की दृष्टि से वर्जित और घृणास्पद समझे जाने वाले विषयों का भी निर्बाध प्रवेश कराते हैं।
उनके यहां युवा जीवन की मन:स्थिति और यौन-यातना के अनेक प्रसंग हैं: ‘उसकी लड़कियां/ कि उनसे नफरत करना चाहूं/ तो मर जाने का मन करता है/ प्यार करता रहूं तो पागल हो जाऊं।’ गौरव प्राय: चौंकाने वाले विषयांतर की तरह ही कविता के प्रमुख कथ्य की ओर लौटते हैं। इस कविता में एक सहेली की बेटी की विदाई के अवसर पर मां की मानसिक पीड़ा, रुलाई और पिता के माध्यम से एक सम्मानजनक पेशे में आजीविका के लिए कार्यरत स्वाभिमानी बुद्धिजीवी के अपमानजनक जीवनानुभवों का वर्णन है। व्यवस्था के घृणास्पद और अपमानजनक होने की स्थायी स्थिति इस कविता को महत्त्वपूर्ण बनाती है। कविता अपमानों के संस्मरणों को इन शब्दों में व्यक्त करती है: ‘पिताओं को नहीं रहना चाहिए इतना अमर/ बेइज्जती को इतना ताजा।’
ये कविताएं जीवन, दुख, अंधेरे और दुस्वप्नों के बीच अपनी बेबाक टिप्पणियों और अलग अंदाज के साथ बिल्कुल नया पाठकीय अनुभव प्रदान करती हैं। इनके निर्माण में   देखे, भोगे और जिए गए यथार्थ और कवि के निजी संस्मरणों और एकांत टिप्पणियों की बड़ी सृजनात्मक भूमिका है। इनका वैशिष्ट्य उनके वैश्विक बाजार युग की युवा मानसिकता और दृष्टि से लोक और समय का साक्षात्कार करने वाली कविताएं होने में है। ‘जब तुम पिक्चर देख रही थी’, ‘और उन लड़कियों से किया इश्क हमने’, ‘चार लड़कियां भी हैं अकेली लड़कियां’, ‘रेडियो, आइसक्रीम और लाल गुब्बारे’, ‘छूटी हुई लिपस्टिक’, ‘और चंद्रकला, ब्रेक के बीच तुम्हारा कत्ल’, ‘आसमान फाड़ डालेंगे किसी दिन’, ‘सौ साल फिदा’ और ‘कहीं और करेंगे हम अपने बच्चे पैदा’ आदि कविताएं न सिर्फ शीर्षक, विषय और संरचना में गौरव की अलग पहचान बनाती हैं, बल्कि जीवन के साक्षात्कार और परिकल्पना में भी। ‘तुम्हारी आंखों में तमंचे हैं’, ‘इतना निहत्था कि डर नहीं’ और ‘वैसे भी कब तक मारेंगे मेरी जान/ एक बार से ज्यादा नहीं मारा जा सकता एक आदमी को।’ जैसी अनेक अभिव्यक्तियां गौरव को अभूतपूर्व, साहसिक, समर्थ और अविस्मरणीय कवि बनाती हैं। शर्त बस यही होगी कि इन कविताओं को कवि से सहमत होते हुए नैतिकता संबंधी बिना किसी पूर्वग्रह के, जीवन के सच के रूप में पढ़ा जाए।
रामप्रकाश कुशवाहा
सौ साल फिदा: गौरव सोलंकी; भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली; 140 रुपए।