एक विधा के
जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
रविवार, 17 नवंबर 2019
केदारनाथ सिंह कि कविता
रामप्रकाश कुशवाहा
केदारनाथ सिंह तीसरा सप्तक के कवि हैं । अज्ञेय द्वारा 1966 मे प्रकाशित तीसरा सप्तक के कवियों मे सम्मिलित किए जाने से पहले केदारनाथ सिंह का पहला काव्य-संग्रह ' अभी, बिल्कुल अभी' (1960) प्रकाशित हो चुका था । इसलिए उनके कवि की निर्मित को समझने के लिए यह संकलन महत्वपूर्ण है ।
तीसरा सप्तक की अनागत, नए पर्व के प्रति, कमरे का दानव,दीपदान,दिग्विजय का अश्व, बादल ओ ! तथा 'निराकार की पुकार ' आदि कविताएं उनके पहले काव्य-संग्रह 'अभी बिल्कुल अभी ' में भी है । इन कविताओं के अध्ययन से पता चलता है कि आम धारणा से अलग केदारनाथ सिंह मात्र बिम्बों के कवि नहीं हैं । यदि यह कहा जाय कि अपनी प्रारम्भिक यात्रा मे उनका महत्वाकांक्षी और युवा कवि अपनी कविताओं के शिल्प और स्वरूप को लेकर उनका किया गया आत्मसंघर्ष अपने समय तक हिन्दी-कविता के समस्त प्रयोगों और ध्रुवान्तों को लेकर किया गया है । उनका काव्य सौष्ठव और कविताओं में मिलने वाली मितभाषिता अज्ञेय को आदर्श बनाने की सूचना देती है तो उनकी कविताओं की आत्मा मे लोक के प्रति प्रेम, सम्मान तथा उसके जिए गए क्षणों की स्मृतियाँ और आख्यान छिपे हैं ।
केदारनाथ नाथ सिंह की कई कविताएं अज्ञेय की काव्य-भाषा की याद दिलाती हैं ।फ़र्क बस इतना ही है कि अज्ञेय की कविताओं का पारगमन ।'आंगन के पार द्वारा और ' देहरी को बाहर से घर के भीतर देखने की है तो केदारनाथ सिंह आंगन के भीतर से आंगन के पार द्वारे स्थित लोक के द्रष्टा हैं ।
कहने का तात्पर्य यह है कि कवि केदारनाथ सिंह की लोकोन्मुखता ही उन्हें दूसरा अज्ञेय बन जाने से रोकती है । संवेदना और कथ्य के धरातल पर केदारनाथ सिंह लोक के यायावर कवि हैं । वे लोकजीवी आस्वाद धर्मिता के कवि हैं । अज्ञेय के सागर-मुद्रा शब्द से उधार लेते हुए कहें तो कवि केदारनाथ सिंह लोकमुद्रा के कवि हैं लेकिन अज्ञेय से अचेतन प्रतिस्पर्धा और होड़ उन्हे आभिजात्यवर्गीय काव्यभाषा से जोड़े भी रहता है ।
'जो रोज दिखते हैं सड़क पर ' कविता जीवन के सामान्य अनुभव और दिनचर्या को भी एक महत्वपूर्ण घटना के रूप मे देखे जाने का विनम्र आग्रह करती है-
' कौन हैं ये लोग/जिनसे दूर-दूर तक/मेरा कोई रिश्ता नहीं/पर जिनके बिना/पृथ्वी पर हो जाऊंगाॅधी सबसे दरिद्र (उत्तर कबीर पृष्ठ 95)
आन्तरिक विस्थापन की स्मृतियाँ, संवेदनात्मक रिश्तों की पडताल एवं उनका विमर्शात्मक प्रत्यक्षीकरण केदारनाथ सिंह की अधिकांश रचनाओं का केन्द्रीय रचना-सूत्र है ।
उनकी लोरी कविता के पाठ मे उनके कवि की रचना-प्रक्रिया खा रहस्य खुलता है ।वे एक मूड,एक प्रसंग, एक संवेदनात्मक काव्य-वस्तु उठाते हैं और यथार्थ के ऊपर प्रत्याशित संभावनाओ के कल्पना-सृजित चौहान से या धुन्ध मे छिपा देते हैं । प्रायः वे अनुभवों और विचार की श्रंखला प्रस्तुत करते हुए अपने पाठकों को काव्यात्मक साक्षात्कार के एक ऐसी यात्रा पर ले जाते हैं जिसे पर्यटन या भ्रमण न कहकर टहलना कहना अधिक उचित होगा ।
तीसरा सप्तक की अनागत, नए पर्व के प्रति, कमरे का दानव,दीपदान,दिग्विजय का अश्व, बादल ओ ! तथा 'निराकार की पुकार ' आदि कविताएं उनके पहले काव्य-संग्रह 'अभी बिल्कुल अभी ' में भी है । इन कविताओं के अध्ययन से पता चलता है कि आम धारणा से अलग केदारनाथ सिंह मात्र बिम्बों के कवि नहीं हैं । यदि यह कहा जाय कि अपनी प्रारम्भिक यात्रा मे उनका महत्वाकांक्षी और युवा कवि अपनी कविताओं के शिल्प और स्वरूप को लेकर उनका किया गया आत्मसंघर्ष अपने समय तक हिन्दी-कविता के समस्त प्रयोगों और ध्रुवान्तों को लेकर किया गया है । उनका काव्य सौष्ठव और कविताओं में मिलने वाली मितभाषिता अज्ञेय को आदर्श बनाने की सूचना देती है तो उनकी कविताओं की आत्मा मे लोक के प्रति प्रेम, सम्मान तथा उसके जिए गए क्षणों की स्मृतियाँ और आख्यान छिपे हैं ।
केदारनाथ नाथ सिंह की कई कविताएं अज्ञेय की काव्य-भाषा की याद दिलाती हैं ।फ़र्क बस इतना ही है कि अज्ञेय की कविताओं का पारगमन ।'आंगन के पार द्वारा और ' देहरी को बाहर से घर के भीतर देखने की है तो केदारनाथ सिंह आंगन के भीतर से आंगन के पार द्वारे स्थित लोक के द्रष्टा हैं ।
कहने का तात्पर्य यह है कि कवि केदारनाथ सिंह की लोकोन्मुखता ही उन्हें दूसरा अज्ञेय बन जाने से रोकती है । संवेदना और कथ्य के धरातल पर केदारनाथ सिंह लोक के यायावर कवि हैं । वे लोकजीवी आस्वाद धर्मिता के कवि हैं । अज्ञेय के सागर-मुद्रा शब्द से उधार लेते हुए कहें तो कवि केदारनाथ सिंह लोकमुद्रा के कवि हैं लेकिन अज्ञेय से अचेतन प्रतिस्पर्धा और होड़ उन्हे आभिजात्यवर्गीय काव्यभाषा से जोड़े भी रहता है ।
'जो रोज दिखते हैं सड़क पर ' कविता जीवन के सामान्य अनुभव और दिनचर्या को भी एक महत्वपूर्ण घटना के रूप मे देखे जाने का विनम्र आग्रह करती है-
' कौन हैं ये लोग/जिनसे दूर-दूर तक/मेरा कोई रिश्ता नहीं/पर जिनके बिना/पृथ्वी पर हो जाऊंगाॅधी सबसे दरिद्र (उत्तर कबीर पृष्ठ 95)
आन्तरिक विस्थापन की स्मृतियाँ, संवेदनात्मक रिश्तों की पडताल एवं उनका विमर्शात्मक प्रत्यक्षीकरण केदारनाथ सिंह की अधिकांश रचनाओं का केन्द्रीय रचना-सूत्र है ।
उनकी लोरी कविता के पाठ मे उनके कवि की रचना-प्रक्रिया खा रहस्य खुलता है ।वे एक मूड,एक प्रसंग, एक संवेदनात्मक काव्य-वस्तु उठाते हैं और यथार्थ के ऊपर प्रत्याशित संभावनाओ के कल्पना-सृजित चौहान से या धुन्ध मे छिपा देते हैं । प्रायः वे अनुभवों और विचार की श्रंखला प्रस्तुत करते हुए अपने पाठकों को काव्यात्मक साक्षात्कार के एक ऐसी यात्रा पर ले जाते हैं जिसे पर्यटन या भ्रमण न कहकर टहलना कहना अधिक उचित होगा ।
" कि गूँजहीन शब्दों के इस घने अन्धकार में /मैं-/ अर्थ-परिवर्तन की /एक अबूझ प्रक्रिया हूँ "........जड़ें रोशनी में हैं /रोशनी गंध में ,/गंध विचारों में /विचार स्मृतियों में /स्मृतियाँ रंगों में "- अभी,बिलकुल अभी "संकलन की पहली ही कविता के पीछे एक सुचिंतित और गंभीर भाषा-विमर्श और ज्ञान उपस्थित है . दरअसल वास्तविकता यह है कि केदारनाथ सिंह की कविताएँ अनेक विषयों और अनुभूतियों पर संवेदनात्मक विमर्श से बनी हैं . वे घटित-संवेदित होने के क्षण-विशेष के गतिशील चित्र हैं .मनोविज्ञान की शब्दावली में इन्हें प्रत्यक्षीकरण का प्रयास और काव्यालोचना में काव्य-बिम्ब की सर्जना का प्रयास कहा जा सकता है .बाल-सुलभ एवं रहस्यात्मक उत्प्रेक्षण कवि केदारनाथ सिंह की सर्वाधिक प्रिय रचना-पद्धति है . वे घटनाविहीन समय में घटनाओं की आशंका और संभावना के चितेरे कवि हैं .
केदारनाथ सिंह की कविताएँ समकालीन राजनीतिक यथार्थ का अधिकतम सीमा तक बहिष्कार करती हैं .उनकी अनुपस्थिति सुनिश्चित कराती हुई विकल्प की खोज में भटकती हैं .एक सजग और सायास अन्देखापन है उनमें जिसे मुंह चुराना नहीं ,बल्कि मुंह फेरना कहना ही उचित होगा . यह उस विस्थापन और अनुपस्थिति का बदला है जिसे उनके समय कि गैजिम्मेदार राजनीति नें घटित किया है .
"अकाल में सारस "संग्रह की 'जिद ' कविता कवि के जीवन-a
केदारनाथ सिंह की कविताएँ समकालीन राजनीतिक यथार्थ का अधिकतम सीमा तक बहिष्कार करती हैं .उनकी अनुपस्थिति सुनिश्चित कराती हुई विकल्प की खोज में भटकती हैं .एक सजग और सायास अन्देखापन है उनमें जिसे मुंह चुराना नहीं ,बल्कि मुंह फेरना कहना ही उचित होगा . यह उस विस्थापन और अनुपस्थिति का बदला है जिसे उनके समय कि गैजिम्मेदार राजनीति नें घटित किया है .
"अकाल में सारस "संग्रह की 'जिद ' कविता कवि के जीवन-a
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