ललित निबन्धों का प्रगतिशील आधुनिक पाठ
रामप्रकाश कुशवाहा
"चौपाल "-जुलाई -दिसंबर २०१४ के अंक में प्रकाशित
संपादक -कामेश्वर प्रसाद सिंह
ISSN2348-3466
कोठी नं .6 ,अरुणा नगर एटा
जिला-एटा 207001
मो० ९४१००६८९८४
ईमेल-kameshwarprasadsingh60@gmail.com
कोई साहित्यिक विधा ही यदि
चुप होने लगती है तो सोचना पड़ता है कि ऐसा किन कारणों से हो रहा है . इसमें संदेह
नहीं कि वैचारिक निबंध और लेख –आलेख तो लिखे जा रहे हैं ,लेकिन ललित निबंध लिखने
वालों की कमी हुई हो ,लेकिन ललित निबंध लेखकों की कमी हुई है .शीर्ष और स्थापित
नाम तो गिने –चुने ही हैं .
हिंदी में आचार्य महावीर प्रसाद
द्विवेद्वी और रामचंद्र शुक्ल के नीरस वैचारिक गद्य के बाद मनोरम कल्क्पना एवं
रोचक बिम्बों –द्र्श्यवालियों की छटा
प्रस्तुत करती काव्यात्मक गद्य-संरचना वाली भाषा स्वयं आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेद्वी तो बाण भट्ट की कादम्बरी और कालिदास साहित्य के पाठकीय अनुभवों से
प्रेरित होकर हिंदी में लाये थे . ललित शब्द को उन्होंने कालिदास से लेकर लावण्य
और माधुर्य जैसे आस्वादधर्मी विशेषणों की तर्ज पर आँखों को सुन्दर लगने वाले
कल्पनाशील सोंदार्यात्मक वर्णन वाले गद्य के लिए प्रचलित किया था .इस तरह लालित्य चाक्षुष सौन्देया का प्रतिमान-बोधक
शब्द है .क्योंकि मधुर और लावन की तरह आँखों को लाल रंग आकर्षित करता है .इस दृष्टि से उनके कुटज और देवदारु जैसे
प्रसिद्ध निबंध आज भी व्यक्तिव्यंजक निबंधों एवं ललित गद्य के प्रतिमान बने हुए
हैं..
आरम्भ से ही ललित निबंध के विधाकारों नें लोक – संस्कृति को बढावा दिया है .
ऐसे में जाने-अनजाने ललित निबंधों को लेकर यह धारणा बनी है कि ललित निबंध प्रायः
संस्कृति-विमर्शपरक होते हैं .उनके व्यक्तित्व्व्यन्जक होने की धारणा भी है .लेकिन
यह भी सच है कि हिंदी के ललित निबंध सिर्फ व्यक्तिव्यंजक निबंध ही नहीं हैं ,बल्कि
वे काव्यात्मक एवं लाक्षणिक एक
विशिष्ट गद्य-संरचना भी हैं .हिंदी में ललित निबंधकारों की विरल किन्तु भव्य
परंपरा में उमेश प्रसाद सिंह सबसे युवतम रोचक एवं समर्थ गद्यकार हैं .उनके निबंध
ललित निबंधों की परंपरा में जो नया और मौलिक जोड़ते हैं ,वह उनके ललित चिन्तक या
ललित विमर्शकार के रूप में अधिक स्पष्ट
,पारदर्शी एवं प्रत्यक्ष युग-बोध की विचारपूर्ण अभिव्यंजना के चलते है .इसी कारण
उमेश प्रसाद सिंह एक मधुर लयात्मक एवं मनोरम सौन्दर्य से परिपूर्ण अभिव्यक्ति वाले
विचारक के रूप में सामने आते हैं .
उमेश प्रसाद सिंह में लोक संस्कृति के
सकारात्मक पक्षों की संरक्षण की चिंता और पहचान तो है लेकिन उनका सजग आधुनिकता बोध
ललित निबंधकारों की पूर्ववर्ती पीढ़ी को अतिक्रांत करता है .अन्यथा ललित निबंधकारों
की चुप्पी एवं उनकी परंपरा के सिमटने-चुकाने के कारणों की पड़ताल करें तो पता चलता
है कि प्रेरणा के स्तर पर संस्कृत भाषा एवं भारतीय लोक संस्कृति की संरक्षण की
चिंता , चिंतन की देशजता ,स्थानीयता एवं जातीयता के साथ अधिकांश ललित निबंधकार संस्कृति
विमर्शकार की ऐतिहासिक भूमिका में भी हैं .ललित निबंध लेखन में आये गतिरोध का एक
संभावित समाजशास्त्रीय कारण (दलित चिंतकों के नजरिए या तर्ज पर ) यह हो सकता है कि
अब तक के ललित निबंध एवं निबंधकार प्रायः ब्राह्मण जातीयता वाली भारतीयता के ही
सजग और सुचिंतित सांस्कृतिक पाठ प्रस्तुत करते रहे हैं .यह भी अनायास नहीं है कि
उस परंपरा नें अपना सर्वोत्तम और अधिकतम देनेके बाद एक मौन धारण कर लिया है .(इस
तथ्य को सामने रखते हुए कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेद्वी और विद्यानिवास मिश्र
तो अपनी ब्राहमण जातीयता के दाय के कारण तो भूमिहार ब्राह्मण जातीयता से कुबेरनाथ
राय और विवेकी राय का होना यदि निरा संयोग न माना जाय तो दलित उभार के इस दौर में
इस विधा के चुप हो जाने के निहितार्थ स्पष्ट ही हैं .) उमेश प्रसाद सिंह के
निबंधों की यह भी एक महत्वपूर्ण रेखांकित
करने योग्य विशेषता है कि उनके निबंध लोक
संस्कृति के पहली बार आधुनिक भारतीयता का परंपरा के प्रति मोह रहित ,गैर ब्राह्मणी
,तटस्थ एवं प्रगतिशील पाठ प्रस्तुत करते हैं .इस दृष्टि से विश्लेषण करने पर उमेश
प्रसाद सिंह ललित निबंध लेखन में आए गतिरोध को तोड़ने वाले ,एक नए प्रस्थान-बिंदु
की प्रस्तावना करने वाले ललित निबंधकार के रूप में सामने आते हैं .ये विशेषताएँ
उनके पूर्ववर्ती निबंध संग्रह “हवा कुछ कह रही है “ में भी दिखाई पड़ी थीं.उसके
प्रकाशन के साथ ही ललित निबंध विधा नें भी प्रगतिशीलता के आयाम प्राप्त कर लिए थे
.इस नए निबंध-संग्रह के माध्यम से उमेश
प्रसाद सिंह नें समकालीन यथार्थ को कई नए
अछूते आयामों में भी देखने-दिखने का प्रयास किया है .उनके निबन्ध उच्च नैतिक और
सात्विक जीवन-मूल्यों वाले मनुष्यों की विलुप्त होती जा रही दुर्लभ प्रजाति पर शोक
के अविस्मरणीय वैचारिक गद्यगीत हैं .इन निबंधों में व्याप्त आत्मीय लोक-चिंता ,
साहसिक असहमति , अविस्मरणीय रागपूर्ण
आंचलिकता ,तत्वंवेषी जिज्ञासा ,सजग निरिक्षण तथा सूक्ष्म विवेचन की शक्ति इन्हें
महत्वपूर्ण बनाती है .
नदी सूखने की सदी में ‘ संग्रह के पहले ही निबंध ‘ मैं इन्द्रधनुष से खेलूँगा
‘की कलात्मक संरचना को देखें तो अपनी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति , गहन संवेदनशीलता ,मनोरम
कल्पनाशीलता और संश्लिष्ट काव्यात्मक –कथात्मक
गद्यभाषा के चलते वे एक प्रौढ़ और सिद्ध ललित निबंधकार के रूप में सामने आते हैं .
अपनी प्रगीतात्मकता कमे साथ उनका पहला ही निबंध एक गद्य-प्रगीत है .’मैं
इन्द्रधनुष से खेलूंगा ‘ निबंध का इन्द्रधनुष जीवन की संभावनाओं तथा उसके सुखद
भविष्य के आकाश का इन्द्रधनुष है .लेखक नें इन्द्रधनुषको बेहतर जीवन के सपने देखने
,रचने और जीने की आजादी के विविध अर्थ –छवियों
में प्रयुक्त किया है .निबंधकार कल्पना को जीवन की सृजनात्मक उड़न के रूप में देखता
है . इन्द्रधनुष की तरह ये सपने विश्वास और बेहतर मानवीय संबंधों के सरस-सुरक्षित
वातावरण में ही देखे जा सकते हैं . उसकी दृष्टि में यथार्थ ( अपराधिक एवं भ्रष्ट )
की विभीषिका इस पक्षी की उड़ान को दबोच लेती है . उसकी दृष्टि नें समाधान की राह
सृजनशीलता की रह है-अपनी रह चलना सृजनशीलता की रह चलना है; तभी कुछ मिलेगा .इस
निबंध में घर ,धरती और रागात्मक रिश्तों को केंद्र में रखकर जीवन के बिगड़ते
पर्यावरण का काव्यात्मक रूपक प्रस्तुत किया गया है उमेश की दृष्टि में यह
इन्द्रधनुष स्वस्थ सामाजिकता और पारस्परिक विश्वास वाले वातावरण में ही संभव है
.लेखक का सुझाव है कि बिना किसी प्रत्याशा के अच्छाई के इन्द्रधनुष रचाने की दिशा
में सतत यत्नशील बने रहने से ही मानवता का भविष्य सवर सकता है -
रोशनी का रंग ‘ में उमेश प्रसाद सिंह लोकतंत्र की गरिमा और आदर्शों की महत्ता
के साथ उसे और गंभीर जीवन-बोध के साथ जीने की वकालत करते हैं –क्योंकि सिर्फ
एकमात्र यही व्यवस्था मनुष्य की स्वतंत्रता का सम्मान करती है .इसतरह यह निबंध
लोकतंत्र को जीवन के लिए आदर्श मूल्य ,पद्धति और पर्यावरण के रूप में गंभीरता से
देखने की प्रस्तावना करता है .निबंधकार का निष्कर्ष यह है कि ‘लोकतंत्र केवल शासन –प्रणाली
नहीं है , लोकतंत्र सर्वोत्तम जीवन-मूल्य भी है .बगैर जीवन-मूल्य के रूप में
लोकतंत्र को जीने के पहले उसे शासन-प्रणाली के रूप म एन सफल बनाना असंभव है .स्वयं
से भी घूस मांगे जाने से पीड़ित एक स्वाधीनता सेनानी के अनुभव को आधार बना कर लिखा
गया यह लेख वैचारिक होते हुए भी रिपोर्ताज और संस्मरण दोनों विधाओं की विशेषताएँ
समेटे हुए है .
‘ कुरुक्षेत्र कहाँ है ‘एक ऐसे बहादुर
देशभक्त सैनिक की जीवन-गाथा है जो उच्च नैतिक जीवन-मूल्यों को जीता हुआ अपनी
बहादुरी के लिए जीवित किम्वदंती बन जाता है लेकिन विडम्बना यह है कि देश के बाहरी
दुश्मनों को जीतने वाला यह सैनिक देश के आतंरिक मोर्चे पर ही शहीद हो जाता है .
‘ महाभारत के समय में क्या कर रहे होंगे
व्यास ‘ को सिर्फ इस संग्रह का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण हिंदी साहित्य का एक
अविस्मरणीय , अद्वितीय और प्रासंगिक लेख माना जा सकता है .यह निबंध राजनीतिक
इतिहास-निर्माण के दौर में साहित्य-सर्जकों के द्वारा इतिहास -निर्माण की
नियति,सार्थकता और उनकी ऐतिहासिक भूमिका जैसे प्रश्नों को समकालीन सन्दर्भों में
उठाता और उनकी गहन पड़ताल करता है .कुछ स्थल उद्धरणीय हैं –“मैं व्यास से पूछना
चाहता हूँ कि व्यास के होते हुए भी महाभारत का होना संभव कैसे हो सका .इतने बड़े कवि
की मौजूदगी में इतना भयानक संहार कितना आश्चर्यजनक है .मैं पूछना चाहता हूँ कि
क्या महाभारत के दौर में कविता व्यर्थ हो जाती है’(पृष्ठ 30) तथा अयोध्या –विवाद
पर यह सर्वाधिक दुर्लभ टिपण्णी कि ‘ कितना अजीब है कि जिस राम को तुलसी नें
अयोध्या से उठाकर इस धरती के कोने –कोने में प्रतिष्ठित किया है उसे हम सब और से
धकेल कर फिर अयोध्या में ले जाते हुए देखा रहे हैं .मंदिरों से निकलकर लाखों मानों
में समाए एक महान चरित्र को हम फिर मंदिर में बैठने के लिए एक और महाभारत का आवाहन
करते देख रहे हैं .”(पृष्ठ 32 )..”.जिस समय धरती का सबसे बड़ा युद्ध लड़ा जा रहा था
,उसी समय व्यास इतिहास की सबसे बड़ी कविता रच रहे थे .महाभारत में व्यास ,कविता में
उस शक्ति की सृष्टि कर रहे थे ,जिसे लेकर आदमी के भीतर घोर से घोर समर के संकट में
भी उतरने का साहस बना रहे .” (पृष्ठ 34)
उमेश प्रसाद सिंह समकालीन समाज के ज्वलंत
और संवेदनशील प्रश्नों को मुकम्मल तैयारी और लयात्मक कल्पनाशीलता के साथ उठाते हैं
.रूपक .कविता ,कथा,वृत्तांत ,लोकोक्तियाँ ,कहावतें ,धर्म,पूरण ,रीति-रिवाज
,साक्ष्य –दृष्टान्त आदि सभी शैलियों का निवेश उनके निबंधों को एक संश्लिष्ट कलात्मक
संरचना देता है .अभिव्यक्ति में एक
संवादधर्मी आत्मीयता जो उनके चित्त की सहजता से जन्म लेती है कलात्मक
संश्लिष्टता के बावजूद निबंधों का अत्यंत ही मोहक और मनोरम लोक रचते हैं .उनके
निबंध एक कलात्मक अंतर्जगत की सृष्टि करते हैं ,जो पूरी प्रमाणिकता के साथ वास्तविक
दुनिया के समान्तर विश्वसनीय . सार्थक एवं चयनधर्मिता की दृष्टि से नाटकीय हैं
.इलिएट के प्रसिद्ध वस्तु-साहचर्य या विभावन व्यापर की तरह वे अपने निबंधों में
भाव सम्बंधित पूरा वातावरण और पृष्ठभूमि प्रस्तुत करते चलते हैं . अभिव्यक्ति और
प्रस्तुति के कलात्मक नियोजन से निर्मित उनके निबंधों का कलात्मक सौन्दर्यलोक
लालित्य का ऐसा मोलिक प्रतिमान रचता चलता है कि वह पूर्ववर्ती ललित निबंधकारों से
न सिर्फ भिन्न है बल्कि उमेश प्रसाद सिंह की नितान्त अपनी है .
एक लेखक के रूप में उनका महत्त्व यह है
कि उमके पास एक प्रौढ़ –प्रांजल निजी विशेषताओं और व्यक्तित्व वाली गद्यभाषा है .एक
ऐसी निजी भाषा जो सौन्दर्य के उच्च स्तरीय
प्रतिमानों की स्पष्ट विज्ञप्ति करती चलती है –वैशिष्ट्य में इतनी अलग कि
किसी भी दुसरे हिंदी लेखक के पास नहीं है .यही कारण है कि उनके निबंध पढ़ते समय
किसी सिद्ध गायक की गायकी सुनने पर साधना या रियाज के अनुमान की तरह गद्यभाषा एवं
उसकी सर्जना की दीर्घकालीन साधना का पता देते हैं .आकर्षक किन्तु गंभीर विचारशीलता
एवं अनूठी कल्कात्मक अभिव्यंजना उनके निबंधकार को इस विधा के एक सक्षम एवं
महत्वपूर्ण उत्तराधिकारी के रूप में प्रतिष्ठित करती है .
उमेश प्रसाद सिंह के ललित निबंधों को
सिर्फ काव्यात्मक कहना ही उचित नहीं होगा ,दरअसल उनके अधिकांश निबंध एक दीर्घ
गद्य-प्रगीत हैं .प्रगीत की आत्माभिव्यक्ति एवं अन्विति जैसी सारी विशेषताएँ उनके
निबंधों में मिलाती हैं , कल्पना और संगीत की युगल आस्वद् धर्मिता उनके निबंधों को विलक्षण संरचना देती है तो
जीवन का गहनतर निरीक्षण जो प्रायः आत्मनिरीक्षण का परिणाम है उनके निबंधों को ,गहराई की ऊँचाई
वाले अर्थ में महिमा प्रदान करते हैं . उनके अधिकांश निबंध गुजरते जीवन-समय के
काव्यात्मक रूपक एवं वृत्तान्त हैं .
नदी सुख रही है ‘ में संकलित उमेश प्रसाद सिंह के ये ललित वैचारिक निबंध
अपनी बहुआयामी संरचनात्मक रम्यता ,रागादीप्त कल्पनाशीलता तथा गहन विचारशीलता के कारण अत्यंत विशिष्ट बन
पड़े हैं .दरअसल उनके सारे निबन्ध दीर्घ गद्य कविताएँ हैं .अपने भावों ,विचारों और
मनस्थितियों के सम्प्रेषण के लिए उन्होंने मुहावरे ,प्रतीक ,उपमा और सांगरूपक आदि
का कुशल इश्तेमाल किया है .प्रथम द्रष्टया कल्पनाशील एवं भाव-प्रवण प्रतीत होते
हुए भी उनके सभी निबंध अपनी अन्तिम निष्पत्ति में वैचारिक ही हैं .ये निबन्ध जिस
बिम्बधर्मी काव्यात्मक रचाव वाली गद्यभाषा में सृजित हुए हैं ,उसमें देशज-आंचलिक
शब्दावली तथा लोकजीवन के पारंपरिक अनुभवों एवं सांस्कृतिक स्मृतियों कि महत्वपूर्ण
समृद्धिकारी भूमिका में है .
उमेश प्रसाद सिंह के निबंधों को
पढ़ना उनके काव्यात्मक गद्य ,लोक से प्राप्त अनुभवों की ऐन्द्रिक एवं सजीव
प्रस्तुति तथा अंतर्व्यापी गहन विचारशीलता के कारण किसी रंगीन चलचित्र को देखने से
कम नहीं है .इस अनुभव का रहस्य उनकी ऐन्द्रिक बिम्बों एवं दृश्यावलियों का
सम्प्रेषण करने में समर्थ उस गद्य भाषा में है जो लेखक के आशय ,रूचि –अरुचि तथा
मनःस्थिति को भी अत्यंत सूक्ष्मता एवं सामर्थ्य के साथ व्यंजित कर पाती है .पढ़ते
हुए ऐसा लगता है कि किसी लम्बी कविता की पंक्तियों को ही गद्य की शैली में रख दिया
गया है –“न किसी का मान है ,न कहीं ईमान है ,फिर भी गजब का इत्मीनान है .”(पृष्ठ
138) लोकसूक्तियों और सुभाषितों की तो लड़ी ही उनकी भाषा पिरोती चलती है –“हवा का
चारण हो जाना ,समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है .(व्ही ,पृष्ठ 138 ) लोक –अनुभवों का
सीधे बिम्बात्मक इश्तेमाल उमेश की गद्य-भाषा को विशिष्ट बनाता है –“किसी के आने से
आँखों में फुल खिल उठाते हैं ,मगर किसी का आना इस कदर होता है कि सांसों का सरगम
करह उठता है .रास रचाने में लीं जल-तरंगें विवर्ण हो जाती है .उल्लास की समूची फसल
असमय में ही पियारा कर पाक जाती है .दाने-दाने में छलकता हुआ रस सुखाकर सियारा
जाता है .पद-पद पर विहंसती हुई गंध बिला जाती है .”(पृष्ठ 136)
‘एक साँझ की ऊँचाई ‘ शीर्षक निबंध मिथकीय
,पौराणिक एवं सांस्कृतिक विश्वासों में पराधीनता एवं गुलामी के संस्कारों की खोज
बादलों के प्रतीक के माध्यम से करती है .बादलों का किसी इंद्रा के आधिपत्य में
होना लेखक को स्वीकार नहीं .वह लोकतान्त्रिक मुक्ति की चेतना के साथ उनके अस्तित्व
और अभिदान को महिमामंडित और पुनर्व्याख्यायित करना चाहता है .मार्क्स द्वारा रजा
के स्थान पर श्रमिकों को इतिहास-निर्माता के रूप में महिमामंडित करने की तरह .
‘मुक्ति की मर्यादा ‘ शीर्षक निबंध आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेद्वी के साहित्यिक-सांस्क्रतिक अवदान का नई पीढ़ी के साहित्यकार
द्वारा किया गया सार्थक पुनर्मूल्यांकन है .लेखक नें उन्हें भयमुक्त करने वाले और
मानवमन की अदम्य जिजीविषा की आराधना के मंत्रस्रष्टा साहित्यकार के रूप में याद
किया है .साथ ही व्यवस्था से असहमति को सत्य के संधान तथा मानव सभ्यता के विकास की
दृष्टि से मूल्यवान मानने के लिए उनकी सराहना की है .क्योकि ‘जीवन के पक्ष में खड़ी
असहमति को ;विद्रोह को जब द्विवेद्वी जी अपना समर्थन देते हैं ‘विद्रोह भी एक
व्यवस्था बन जाता है (पृष्ठ 105)
‘मदारी की जबान में इतिहास
का पाठ’ शीर्षक निबंध लोकतान्त्रिक समय में अलोकतांत्रिक एवं निरंकुश सत्ता-चरित्र
पर लिखा एक काव्यात्मक एवं व्यंग्यात्मक भर्त्सना –पत्र ही है सारी बात बसंत
.ग्रीष्म .हवा और पेड़ के रूपक के माध्यम से की गयी है .आदमी के कद से उसकी परछाई
का बड़ी दिखने की मारक टिपण्णी जहाँ विज्ञापित सच और वास्तविक सच के अंतर के प्रति
सजग करती है तो न्याय नैतिकता और सत्य जैसे मूल्यों के बाजारवादी हश्र को .सूरज को
खरीद लेने ‘ के मुहावरे के माध्यम से चोट की गयी है .स्वस्थ आस्था की गहरी जड़ें ही
पेड़ों की तरह मनुष्य को भी सूखने से बचा सकती हैं –ऐसा लेखक का मत है
‘मेरे अवगुण चित न धरो ‘.निबंध में उपभोक्ता
सेवा युग के आदुनिक दुनियादार गुरुओं की मूल्यहीनता और चरित्रहीनता का
व्यंग्यात्मक पुनर्पाठ प्रस्तुत किया गया है .इस निबंध में एक सफल आचार्य के
व्याख्यान के शिल्प में शाश्वत मूल्य वाले पाठ्यक्रम और पाठ से अलग ,जीवन में
सफलता के अनैतिक व्यवहार –सूत्रों का अत्यंत सूक्षमता एवं परिहास के साथ
विडंबनात्मक अंकन है –‘कुछ भी करना है करो प्रभु को खुश करके .हमारे आजाद देश की
खुशामदी संस्कृति का स्रोत भक्ति –काव्य से ही फूटता है इसके लिए हमारा राष्ट्र
भक्त कवियों का ऋणी है.
कंचन-मृग में निबंधकार नें विविध मानवीय जीवनानुभवों एवं हरसंभव आयामों में रामकथा के पौराणिक सीता-हरण प्रसंग को रखकर देखा है .यह निबंध मनुष्य की सर्वकालिक अर्थाग्रस्त मानसिकता को मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दोनों ही स्टारों पर विश्लेषित करने का प्रयास करता है .वह कभी उकता कथा-प्रसंगा का स्वाभाविक विश्लेषण करता है-सीता का मन होता तो ...(पृष्ठ १५५ ) तो कभी वर्त्तमान समय के मारीचों के आर्थिक व्यवहार को समझाने-समझंने के लिए नाटकीय काव्यरूपक में बदल देता है . इस तरह यह निबंध आर्थिक आसक्ति से लेकर अतिक्रमण तक कंचन-मृग का साहित्यिक-सामाजिक -मनोवैज्ञानिक निरूपण प्रस्तुत करता है .लेखक का यह निष्कर्ष महत्वपूर्ण है कि 'जो न होते हुए भी होने जैसा बहस होता है ,शायद वह ही कंचन-मृग होता है .
कंचन-मृग में निबंधकार नें विविध मानवीय जीवनानुभवों एवं हरसंभव आयामों में रामकथा के पौराणिक सीता-हरण प्रसंग को रखकर देखा है .यह निबंध मनुष्य की सर्वकालिक अर्थाग्रस्त मानसिकता को मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दोनों ही स्टारों पर विश्लेषित करने का प्रयास करता है .वह कभी उकता कथा-प्रसंगा का स्वाभाविक विश्लेषण करता है-सीता का मन होता तो ...(पृष्ठ १५५ ) तो कभी वर्त्तमान समय के मारीचों के आर्थिक व्यवहार को समझाने-समझंने के लिए नाटकीय काव्यरूपक में बदल देता है . इस तरह यह निबंध आर्थिक आसक्ति से लेकर अतिक्रमण तक कंचन-मृग का साहित्यिक-सामाजिक -मनोवैज्ञानिक निरूपण प्रस्तुत करता है .लेखक का यह निष्कर्ष महत्वपूर्ण है कि 'जो न होते हुए भी होने जैसा बहस होता है ,शायद वह ही कंचन-मृग होता है .
समीक्षित पुस्तक –नदी सूखने
की सदी में
लेखक – उमेश प्रसाद सिंह
प्रकाशक – बैनियन ट्री
पब्लिशर्स ,1376 कश्मीरी गेट ,नईदिल्ली
-110006