अभिनव कदम - अंक २८
संपादक -जय प्रकाश धूमकेतु में प्रकाशित
संपादक -जय प्रकाश धूमकेतु में प्रकाशित
हिन्दी कविता में
किसान-जीवन और यथार्थ की उपसिथति-अनुपसिथति के बढ़ते-घटते ग्राफ को समझने के लिए
हमें साहित्य से पहले हिन्दी-क्षेत्र के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझना होगा
। यह एक दुखद सच्चार्इ है कि औधोगिककरण,शहरीकरण,बाजारवाद और भूमण्डलीकरण की दिशा में हुए देश
के विकास तथा सरकारी नीतियों नें एक पेशे के रूप में किसान जीवन को अप्रतिषिठत
किया है । इस सच्चार्इ का एक दूसरा पहलू यह है कि ह रित क्रानित के बाद आर्इ
खाधान्न की उपलब्धता से उपजी सुरक्षा और
निशिचंतता नें उदासीन करते हुए मीडिया और
साहित्य से किसान-चर्चा को बाहर कर दिया है । भारत में संयुक्त परिवार की समृद्ध
सांस्कृतिक विरासत के कारण परम्पराजीवी आम आदमी अब भी अपने पारिवारिक सदस्यों का नैतिक
रूप से आर्थिक और सामाजिक सहयोगी बना हुआ है । पशिचमी देशों से अलग बेरोजगारों , कुणिठतों और
पागलों तक का भरण-पोषण एवं चिकित्सा-व्यय भारत में सरकार नहीं बलिक परिवार संस्था
ही कर रही है । परिवार का कमाऊ सदस्य प्राय: अपने हिस्से की जमीन इसी नैतिक दबाव
के कारण ही परिवार के असफल एवं बेरोजगार सदस्यों के हवाले कर देते हैं । सिर्फ इतने पर ही सन्तोष कर लेते हैं कि जमीन
अब भी उनके नाम से सरकार के यहां दर्ज है । यह सांस्कृतिक पोषण ही किसान यथार्थ की
विभीषिका को कम करके दिखाती है । यही राजनीतिज्ञों की संवेदनशून्यता के भयावह
दुष्परिणामों को भी पूरी तरह फलित होने से देश को बचाए हुए है । प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष व्यकित को मिलने वाला यह
पारिवारिक संरक्षण असन्तोष और अवसाद को क्रानित की उस सीमा तक नहीं पहुंचने देता ,जिसकी प्रतीक्षा
देश की वामपन्थी पार्टियां लम्बे समय से करती आ रही हैं ।
किसान असन्तोष को कम करने वाला एक और
निर्णायक प्रभाव रामकथा का भी है । औधोगिककरण और बाजारीकरण के भारी दबाव के बावजूद
रामकथा अब भी एक प्रभावकारी सांस्कृतिक-सामाजिक प्रेरक शकित के रूप में पारिवारिक
व्यवहार और आर्थिक सम्बन्धों का संविधान रच रह ी है । इसीलिए हिन्दी कविता में किसानों
की सिथति का विश्लेषण तुलसी के राम से ही आरम्भ करना उचित होगा । तुलसी के राम
किसानी तो नहीं करते लेकिन उस बीज संस्कृति का निर्माण अवश्य करते हैं ,जिसपर भारतीय
किसान जीवन का पूरा अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र टिका हुआ है । रामकथा कृषिभूमि का
पारिवारिक विभाजन रोकती है । परिचार में सामूहिक खेती की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
तैयार करती है । कम भोगलिप्सा वाले सन्तोषी जीवन की प्रेरणा देती है । रामकथा के
बल पर ही भारतीय किसान कम जीवन-स्तर पर भी बिना असन्तुष्ट हुए जीता रहता है । इस
दृषिट से रामकथा भारतीय कृषि-सभ्यता के लिए अत्यन्त आवश्यक आधार-महाकाव्य है । उसी
के प्रभाव से ग्रामीण किसान जन-जीवन को संरक्षण सरकार से नहीं बलिक संयुक्त परिवार
के उन सामाजिक रि श्तों से मिलता रहा है ,जिसके कारण बाहर जाकर नौकरी या व्यवसाय से अधिक
अर्जन करने वाला परिवार का सदस्य किसानी में लगे अपने स्वजन के हवाले अपने खेत कर
ही देता है ,भले ही वह भरत को दिए गए खड़ाऊं की तरह धरोहर के रूप में ही क्यों न हो । रामकथा आज भी उन्हें परदेशी भार्इ के हिस्सों
को हड़पने से भरत की तरह रोकती है । बाहर कमाने के लिए हुए भारी संख्या में
निर्वासन या पलायन नें गांव में रहकर कृषि-कार्य में लगे हुए सदस्यों को कुछ राहत
तो दिया है । अब बाहर मुम्बर्इ या गुजरात कमाने गया पूर्वी उत्तर-प्रदेश या बिहार का कोर्इ व्यकित अपने घर से गेहूं तो
नहीं ही मंगाएगा । इस भारतीय संकोच नें ही किसानों की आर्थिक और सामाजिक
क्षतिपूर्ति की है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि वास्तविक किसान
समस्या है किस रूप में तो हमें समझना होगा कि सौ कुन्तल गेहूं उपजाने वाला किसान
भी,जिसे बड़ा
काश्तकार कहा जाएगा ,वर्ष में एक फसल लेने की सिथति में एक लाख से डेढ़ लाख रुपए तक की ही आय कर सकता है । यदि
वर्षा ऋतु की दूसरी फसल धान आदि की आय भी जोड़ दे ंतो यह बाजार-भाव के हिसाब से दो
से तीन लाख की आय ही होती है । इस आय को नौकरी से लिने वाले वेतन में बदलें तो
लागत घटाने के बाद उसकी आय चपरासी या क्लर्क को मिलने वाले वेतन के बराबर ही होगी
। उसकी मासिक आय पन्द्रह से लेकर तेर्इस हजार के आस-पास ही पहुंचेगी ।
यह सिथति तब है जब उसके पास पन्द्रह-बीस
एकड़ खेत की उपज हो । संभवत: यही कारण है
कि परिवार में सिर्फ बेरोजगार और असफल सदस्य ही किसान जीवन अपनाते हैं । आज की
तारीख में किसान बनना दूसरों की सहानुभूति का पात्र होना और कुणिठत होना है । ऐसी
सिथति में कोर्इ कवि,भले ह ीवह गांव से ही भागकर दिल्ली आया हो,किसान-जीवन का
कैसे भव्यीकरण करेगा ?
भारतीय किसान इसलिए पल जाता है कि वह बाजार
की मुद्रा के बल पर नहीं बलिक श्रम से अर्जित उपज से भोजन प्राप्त कर सकता है ।
विवाह आदि में दहेज जैसी कुरीतियों से निपटनें के लिए उसे या तो खेत बेचना होगा या
फिर अनाज । वह अपना जीवन-स्तर घटाकर ही सुरक्षित जीवन-यापन कर सकता है ।
किसान-यथार्थ के प्रति इस समझ को लेकर जब हम हिन्दी कविता की पड़ताल करते हैं तो
ऐतिहासिक दृषिट से यह साफ-साफ दिखार्इ देता है कि भारत के विकसित राष्æ बनने के साथ-साथ
बढ़ती उपज और खाधान्न सुरक्षा नें कविता से किसानों को क्रमश: निर्वासित ही किया
है । प्रगतिवाद के बाद प्रयोगवाद और फिर नर्इ कविता का आन्दोलन नएपन की खोज में
शहरी मध्यवर्गीय जीवन और अनुभूति की सामूहिक अभिव्यकित के रूप में सामने आता है ।
इस दौर में अपवादस्वरूप ही किसान जीवन से सम्बनिधत कविताएं मिलती हैं । कविता विषय
और शिल्प दोनों ही स्तरों पर मनोवैज्ञानिक और संशिलष्ट होती गयी है। धूमिल तक
आते-आते तो वह बिम्बात्मक चिन्तन की भाषा में व्यक्त होने लगती है । यह निरीक्षण महत्वपूर्ण है कि केदारनाथ सिंह की
बाघ कविता में बाघ किसान को æैक्टर चलाते बहुत
दूर से देखता है। यह एक यानित्रक दुनिया का किसान है और स्वाभाविक है कि कविता के
बाघ के साथ-साथ कवियों को भी उस प्राकृतिक राग से दूर कर देता है ,जो कुछ ही समय
पूर्व तक केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में पूरी उत्सवधर्मिता के साथ व्यक्त हुर्इ
है । अब वह एक लुप्त होती प्रजाति और विनाश के रूपक में ही कविता में लौट सकता है
और वह इसी त्रासद रूप में लौटा भी है ।
कहीं कालाहांंडी तो कहीं विदर्भ के रूप में ।
हिन्दी कविता में किसान की उपसिथति को
ऐतिहासिक सर्वेक्षण के रूप में देखें तो वह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों
में मिलता है । कहीं पूरे जीवन और परिदृश्य के साथ तो कहीं कविता के बिम्ब और भाषा
के शिल्प या माध्यम के रूप में । अप्रत्यक्ष उपसिथति वाली कविताएं किसान अनुभव और
संवेदना को किसी अन्य दार्शनिक संदेश या भावबोध में रूपान्तरित करती हैं । ऐसी
कविताएं सबसे अधिक संख्या में भवानीप्रसाद मिश्र के यहां मिलती हैं । हिन्दी कविता के इतिहास में जाने पर
किसान-यथार्थ की सबसे पहली तलाश स्वाभाविक है कि भारतेन्दु जी के यहां से ही शुरू
हो । भारतेन्दु जी किसान जीवन से उदासीन नहीं थे । वे किसानों की दीन दशा से
परिचित भी थे ,जैसा कि निम्न पंकितयों से पता चलता है-
''मरी बुलाऊं देस उजाड़ूं
मंहगा करके अन्न
सबके ऊपर टिकस लगाऊं धन मुझको धन्न
मुझे तुम सहज न जानो जी,मुझे राक्षस
मानों जी ।
ल्ेकिन आम धारणा
के विपरीत उत्सवधर्मी और मनमौजी प्रतिभा के धनी भारतेन्दु जी का ब्रजभाषा में रचा
गया काव्य-साहित्य कृष्ण जू और राधा जू के लीला गान से ही भरा पड़ा है । कल्पना की
जा सकती है कि ऐसा उन्होंनें अपने नए-नए पदों को शाम की गोष्ठी में साहितियक
अभिरुचि वाले नगर श्रेषिठयों को सुनाने और उनसे वाह-वाह सुनने के लिए ही किया होगा
। वे जिस व्यवसायी वर्ग से स्वयं भी आते थे ,वहां स्रोताओं की प्राथमिकता धार्मिक रचनाएं
सुनने की ही रही होगी । यह भी संभव है कि कहीं अचेतन में सूर से प्रतिस्पद्र्धा भी
रही हो-आखिर प्रतिभाशाली तो थे ही ।यह भी कि भारतेन्दं का युग सांस्कृतिक जीवनयापन
का युग था । किसान जीवन उनके युग का इतना सर्वव्सापी स्थूल सच था कि उसे व्यापक
रूप् से कविता का विषय बनाने के बारे में सोचना उनकी मनोवैज्ञानिक बनावट में ही
नहीं था । दरअसल वे नागरिक जीवन-बोध के
कवि थे । ऊपर की पंकितयों में भी संभवत: वाराणसी जैसे महानगर में रहने के कारण ही
कृषि-उपज के बाजार-मुल्य तथा किसानों के प्रति सहानुभूतिशील कृतज्ञता की भावना से
वे आगे नहीं जा सके हैं । इस सीमा के बावजूद किसानों की दीन-दशा का आभास देने वाली
कविता की मार्मिक पंकितयां भारतेन्दु जी के साथ-साथ उस काल के अन्य कवियों में भी
पूरी संवेदनशीलता के साथ मिलती है। बालमुकुन्द गुप्त नें किसान के कष्टों का विशद
वर्णन किया है-''जिनके कारण सब सुख पावें,जिनका बोया सब जन खांय,हाय-हाय उनके बालक नित भूखों के मारे चिल्लांय.......अहा
! बिवारे दु:ख के मारे निसि-दिन पच-पच मरें किसान।जब अनाज उत्पन्न होय तब सब उठवा
ले जांय लगान । किसानों की दीन दशा का चित्रण भारतेन्दु युग में बद्री नारायण
चौधरी 'प्रेमधन जी नें
भी किया है। उनके 'जीर्ण जनपद
शीर्षक प्रबन्ध-काव्य में किसानों के अभिशप्त जीवन की करुण झांकी मिलती है -''दीन कृषक जन औरहु
दया योग दरसावहीं ।जिनके तन पर स्वच्छ वस्त्र कहुं लखियत नाहीं ।मिहनत करत अधिक पर
अन्न बहुत कम पावत,जे निज भुजबल हल चलाय के जगत जियावत।
द्विवेद्वी युग देखें तो इस युग के कवियों
द्वारा किसान जीवन और यथार्थ को लेकर लिखी गर्इ कविताओं में सनेही द्वारा लिखित 'दुखिया किसान (
सरस्वती ,जनवरी 1912)तथा 'आत्र्त कृषक
(सरस्वती,अप्रैल 1914),मैथिलीशरण गुप्त
द्वारा लिखित'कृषक कथा(सरस्वती,जनवरी 1915)और भारतीय कृषक (सरस्वती, मर्इ 1916) किसानों की दयनीय दशा का परिचय देने के लिए
लिखे गए हैं । इस युग में कृषकों के प्रति शिक्षित जनता का ध्यान आकृष्ट करने के
लिए दो प्रबन्ध काव्य भी लिखे गए ।' कृषक क्रन्दन(1916 र्इ0)सनेही लिखित तथा गुप्त जी द्वारा लिखित 'किसान। दोनों ही
प्रबन्ध-काव्यों के नायक किसान हैं । कृषक क्रन्दन के नायक का परिवार सूदखोर महाजन,अत्याचारी बाबा
साहब और पुलिस के सिपाहियों के जुल्मों का शिकार बनता है । एक भरा-पुरा कृषक
परिवार एक-एक करके नष्ट हो जाता है । भूख से तड़पकर दम तोड़ने वाला नायक मरते समय
भगवान से यह प्रार्थना करता है कि' हे प्रभु ! अब इस क्रूर देश का मुंह न दिखाना....कुछ भी
रचना और किन्तु मत कृषक बनाना। गुप्त जी के किसान-नायक की प्रार्थना भी कुछ इसी
प्रकार की है ।
गुप्त जी ने भारत-भारती में कृषकों की अवस्था का
विश्लेषण करते हुए लिखा है कि 'सौ पर पचासी जन यहां निर्वाह कृषि पर कर रहे ।पाकर करोड़ों अद्र्ध
भोजन सर्द आहें भर रहे ।हा देव !क्या जीते हुए आजन्म मरना था इन्हें?भिक्षुक बनाते ,पर विधे !कर्षक न
करना था इन्हें ।
गुप्तजी के प्रसिद्ध महाकाव्य साकेत में भी
किसान जीवन रामकथा के बहाने ही स ही मानव-सभ्यता के महत्वपूर्ण आयाम के रूप में उपसिथति हुआ है । साकेत के अष्टम सर्ग
में बनवासी राम और सीता का आजीविका के लिए कृषि-कार्य में रत होना किसान जीवन को
भी एक गरिमा प्रदान करता है । अपने लगाए हुए पौधों को सींचते हुए सीता पूछती हैं
किअच्छा ,ये पौधे कहो
फलेंगे कब लौं ध राम उन्हें सही ढंग से कृषि की विधि बतलाते हैं-'' पौधे सींचो ही
नहीं,उन्हें गोड़ो भी,डालों को चाहो
जिधर,उधर मोड़ो भी, साकेत के नवम
सर्ग में गुप्त जी का ध्यान किसान कर्म और जीवन से हटकर किसान मन की ओर भी गया है
। पता नहीं साकेत की निम्नलिखित पंकितयों पर कभी किसी माक्र्सवादी आलोचक की दृषिट
पड़ी कि नहीं । किसान जीवन जो धरती से
जुड़ा है और मानव-जाति के असितत्व और उसके आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था का भी आधार है
। साकेत के निम्न गीत को उसका रूपक भी मान सकते हैं -'' मेरी ही पृथिवी का पानी, ले-लेकर यह
अन्तरिक्ष सखि,आज बना है दानी !मेरी ही धरती का धूम,बना आज आली,घन धूम।गरज रहा गज-सा झुक-झूम,ढाल रहा मद
मानी।मेरी ही पृथिवी का पानी । सारी अर्थव्यवस्था किसान-जीवन की रीढ़ पर टिकी
हुर्इ है । अहंकार में डूबी हुर्इ । उसे ही छोटा और दीन-हीन करती हुर्इ । बादलों
को देखकर कवि का किसान-मन पुकार उठता है-' व्यग्र उदग्र जगज्जननी के,अयि अग्रस्तन
बरसो।....चिन्मय बनें हमारे मृण्मय पुलकांकुर वन,बरसो । साकेत की सीता समाचार के नाम पर अपने
देवर लक्ष्मण से फसल के बारे में पूछ-ताछ करती हैं-' पूछी थी सुकाल-दशा मैंने आज देवर से-कैसी हुर्इ
उपज कपास,,र्इख,धान की?.....पूछा यही मैंने
एक ग्राम से तो कृषकों नें,अन्न,गुड़,गोरस की वृद्धि ही बखान की,।
छायावादी कवियों में निराला जी की कर्इ
कविताओं में किसान जीवन रूपायित हुआ है । उनकी प्रसिद्ध कविता 'बादल राग की
निम्नलिखित पंकितया ंतो किसानों को समर्पित हैं ही -'जीर्ण बाहु है शीर्ण शरीरतुझे बुलाता कृषक
अधीरऐ विप्लव के वीर !चूस लिया है उसका सारहाड़ मात्र ही है आधारऐ जीवन के पारावार
! इसी तरह उनकी दीन कविता के केन्द्र में भी केन्द ्रीय प्रतीति किसान जीवन की ही
है -'सह जाते
होउत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न,âदय तुम्हारा दुर्बल होता भग्न,...कह जाते हो-यहां
कभी मत आना,उत्पीड़न का राज्य दु:ख ही दु:खयहां है सदा उठाना।
उनकी विनय और
उत्साह शीर्षक कविताएं किसान मन से बादलों को संबोधित हैं । वे किसान की नर्इ बहू
की आंखें उसके निष्प्रभ यौवन का करुण शोक गीत ही हैं । उनकी पाचक शीर्षक कविता
किसानों की दुर्दशा को समझने ंके लिए कुछ सूत्र देती है -''आदमी हमारा तभी हारा है,दूसरे के हाथ जब
उतारा हैराह का लगान गैर नें दिया,यानि रास्ता हमारा बन्द कियामाल हाट में है और भाव नहीं,जैसे लड़ने को
खड़े, दांव नहीं ।
निराला जी की अन्य कविताओं में 'लू के झोकों...'काले-काले बादल छाए.... तथा''जल्द-जल्द पैर
बढ़ाओ... शीर्षक कविता तो भारतीय किसान समस्या के जातीय पक्ष और स्वरूप की ओर भी
ध्यान आकर्षित करती है -'' आज अमीरों की हवेलीकिसानों की होगी पाठशाला,धोबी,पासी,चमार,तेलीखोलेंगे
अंधेरे का ताला,एक पाठ पढ़ेंगे,टाट बिछाओ।
हिन्दी कविता में प्रगतिवाद का स्वागत करने
वाले सुमित्रानन्दन पंत की युगान्त,युगवाणी और ग्राम्या संकलन की कर्इ कविताओं में किसान जीवन
उपसिथत है । जैसा कि स्वयं पंत जी ने ही
माना था कि ग्राम्या की कविताएं ग्राम्य जीवन के प्रति बौद्धिक सहानुभूति की ही
कविताएं हैं-''यहां धरा का मुख कुरूप हैकुतिसत गर्हित जन का जीवन...जहां दैन्य जर्जर असंख्य
जनपशु जघन्य क्षण करते यापन(ग्रामकवि शीर्षक कविता)। पन्त की ग्राम्या एक
प्रगतिशील बुद्धिजीवी के पर्यटन-दृषिट से ही सही ग्राम्य जन-जीवन के बहुआयामी
यथार्थ की पड़ताल तो करती ही है । पन्त का किसान वर्णन उनके भोगे हुए यथार्थ पर
आधारित न होने की वजह से अथवा एक किसान जैसे आत्मीय रिश्ते की कमी से केदारनाथ
अग्रवाल की किसान मन और संवेदना से लिखी गर्इ कविताओं जैसी प्रभावी और विश्वसनीय
नहीं हो पातीं।
फिर भी इतना तो
स्वीकार करना होगा कि महाकवि पन्त नें किसान जीवन और उसके यथार्थ को अत्यन्त
सम्मान एवं सहानुभूति की भावना से देखा है ।
छायावादोत्तर कवियों में किसान जीवन पर लिखी गयी
एक मार्मिक रिपोर्ताज कविता भगवती चरण वर्मा की भैंसा गाड़ी है -' उस ओर क्षितिज के
कुछ आगे,कुछ पांच कोस की
दूरी पर,भू की छाती पर
फोड़ों-से,हैं उठे हुए कुछ
कच्चे घर ।मैं कहता हूं खडहर उसको पर वे कहते हैं उसे ग्राम।जिसमें भर देती निज
धुंघलापन,असफलता की सुबह
शाम।पशुबन कर नर पिस रहे जहां,नारियां जन रही हैं गुलाम।पैदा होना फिर मर जाना,यह है लोगों का
एक काम ।......'चरमर चरमर-चूं-चरर-मररजा रही चली भैंसागाड़ी ! इस कविता में भैंसा गाड़ी का
बिम्ब असुविधाओं और कठिनाइयों से भरे किसान-जीवन-समय के धीरे-धीरे चलनें की जो
व्यंजना भेसे के रूप् में काले समय के साक्षात्कार के साथ करता है वह प्रशंसनीय है
।
छायावादोत्तर कवियों में यदि किसी नें सजग ,सुनियोजित और
पूरी वैचारिक तैयारी के साथ ं किसान जीवन और यथार्थ पर केनिद्रत कविताएं लिखी हैं
तो वे प्रसिद्ध आलोचक एवं कवि डा0रामविलास शर्मा ही हैं । स्वयं रामविलास शर्मा नें तारसप्तक
के दूसरे संस्करण में पुनश्च के अन्तर्गत न सिर्फ किसान यथार्थ के प्रति अपने निजी
आकर्षण को व्यक्त किया है बलिक उन कवियों
की प्रशंसात्मक चर्चा भी की है जिनकी कविताओं में उपसिथत किसान जीवन से वे
प्रभावित थे । उन्होंने लिखा है कि '' मेरा बचपन अवध
के गावों में बीता । उन संस्कारों के बल पर मैंने वहां के प्राकृतिक सौन्दर्य
और सामाजिक जीवन पर कुछ कविताएं लिखीं । 'निराला जी के रेखाचित्रों ,स्वर्गीय बलभद्र
दीक्षित'पढ़ीस की अवधी
कविताओं और (खड़ी बोली में लिखी हुर्इ)कहानियों,' सुमन, ,गिरिजाकुमार
माथुर और केदारनाथ अग्रवाल की अनेक कविताओं ,पन्त की ग्राम्या ,वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों ,इधर के आंचलिक
कथा-साहित्य में यह ग्राम-जीवन-सम्बन्धी प्रवृतित पल्लवित और पुषिपत होती रही है ।
उस परम्परा की एक कड़ी मेरी अवध-सम्बन्धी कविताएं भी हैं । यधपि हिन्दी कविता में सुविचारित रूप से किसान
जीवन और यथार्थ का चित्रण रामविलास शर्मा के अतिरिक्त प्रमुख प्रगतिवादी कवियों
केदारनाथ अग्रवाल,नागाजर्ुन और त्रिलोचन में भी मिलता है ; लेकिन अपने एकमात्र काव्य-संग्रह रूपतरंग और
तारसप्तक में प्रकाशित कम कविताओं में ही अधिकांश को किसान जीवन से सम्बनिधत करके
तथा अपने मित्र-कवि केदारनाथ अग्रवाल को इसी प्रवृतित के लिए लगातार प्रशंसित और
प्रेरित करके हिन्दी कविता के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है ।
रामविलास शर्मा नें अपनी कविताओं मे किसान जीवन
को एक वैचारिक के साथ क्रानितकारी परिप्रेक्ष्य देने का प्रयास किया है -धरती के
पुत्र की ,जोती है गहरी
दो-चार बार,दस बार,बोना महातिक्त वहां बीज असन्तोष का,काटनी है नये साल फगुन में फसल जो क्रानित की
।(कार्य क्षेत्र कविता) रामविलास शर्मा की तारसप्तक की प्रकाशित कविताओं में ही
चांदन ी,कतकी ,शारदीया ,सिलहार आदि किसान यथार्थ को लेकर लिखी गर्इ वैचारिक
सौन्दर्य की विशिष्ट कविताएं हैं । ये कविताएं अपने ढंग से एक बड़े अभाव की पूर्ति
करती हैं । आम धारणा से अलग इन कविताओं को ध्यान से देखा जाय तो संवेदना और
सांकेतिकता से भरपूर ये अंगेजी कविता का संस्कार लिए उच्चस्तरीय बिम्बधर्मी
कविताएं हैं -खेतों पर ओस-भरा कुहरा,कुहरे पर भीगी चांदनी;
आंखों में बादल से आंसू,हंसती है उन पर
चांदनी।('चांदनी कविता)
माक्र्सवादी विचारधारा के कवि नें चांदनी को अपनी कुछ टिप्पणियों और कुछ बिम्बों
के माध्यम से पूंजीवादी कविता के झूठे चकाचौंध और परजीवी शोषक वैभव का प्रतीक बना
दिया है -'यह चांद चुरा कर
लाया है सूरज से अपनी चांदनी । चांदनी का बिम्ब कतकी कविता में भी है लेकिन इस
कविता में उसका वास्तविक या प्रकृत रूप में स्वस्थ चित्रण मिलता है । शारदीया कविता में पकी हुर्इ फसल का
प्रत्यक्षीकरण सोने के रूप में किया गया है ।
दिवा स्वप्न कविता किसान प्रकृति
और किसान जीवन के सान्दर्य को स्वप्नलोक के समानान्तर चित्रित करती है । कहना न
होगा कि रामविलास शर्मा की किसान जीवन की पृष्ठभूमि पर लिखी गर्इ ये कविताएं
विचार-सौन्दर्य की दृषिट से हिन्दी की उत्कृष्ट कविताएं हैं । प्रथम द्रष्टया
अभिधा में लिखी गयी प्रतीत होने वाली ये कविताएं द्विवेद्वी युग या छायावादी युग
की कविताओं जैसी नहीं हैं ,उनकी तुलना
निराला या पन्त की कविताओं से भी नहीं की जा सकती । इन कविताओं का काव्यबोध आधुनिक
मनाविज्ञान,माक्र्सवाद तथा अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन से विकसित दृषिट का परिणाम हैं ।
एक प्रतिबद्ध माक्र्सवादी कवि होने के कारण
केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में उपसिथत किसान जीवन का सामाजिक यथार्थ दृषिट के स्तर
पर माक्र्सवादी विचारधारा से आच्छादित है । जनकवि केदारनाथ अग्रवाल का मन मूलत:
किसान जीवन की समस्याओं एवं किसान-प्रकृति के चित्रण में रमा है । अपनी प्रसिद्ध
कविताओं में तो केदारनाथ अग्रवाल नें प्रकृति का साक्षात्कार ही किसान के रूप में
किया है-'एक बीते के
बराबरयह हरा ठिगना चनाबांधे मुरैठा शीश पर-छोटे गुलाबी फूल का,सज कर खड़ा
है।केदार की कर्इ कविताओं में व्याप्त काव्य-सौन्दर्य सिर्फ मानवीकरण अलंकार से
व्यक्त नहीं हो पाता,उसे किसानीकरण अलंकार का स्वतंत्र नाम दे देना चाहिए । केदार जी नें किसान श्रम और कर्म को जीवन्त रूप
में प्रतिबि मिबत करने वाले कर्इ गीत लिखे हैं जैसे 'कटुर्इ का गीत-'काटो काटो काटो करबी मारो मारो हंसिया.....पाटो
पाटो पाटो धरतीकाटो काटो काटो करबी।
केदार जी नें किसान संवेदना से प्रकृति का जो
साक्षात्कार किया है; वह कर्इ विशिष्टताओं के कारण पन्त के बाद हिन्दी कविता का
दूसरा महत्वपूर्ण प्रकृति-काव्य है । यह प्रकृति किसान के श्रम से
परिवर्तित-परिवद्र्धित है । यह हम केदार की आंखों से ही देख पाते हैं कि जो
प्रकृति हम देख रहे है उसका वसन्त भी किसान द्वारा बोर्इ गयी सरसों के पीले फूलों
के माध्यम से व्यक्त होता है । वह किसान के पसीनें से सिंचित है । क्ेदार के ग्रामीण जीवन के यथार्थ-बोध मेें
कर्इ स्तर,आयाम और दृषिटयां
है। प्रगतिशील साहित्य की अवधारणा के अनुरूप शोषित किसान के शोषण में सहायक
रीति-रिवाजों और परम्पराओं की भत्र्सना है तो किसान जीवन के प्रति आत्मीयता और
सम्मान भी । सच तो यह है कि केदार जी का सारा काव्य किसान और मजदूर संवेदना का
प्रतिनिधि काव्य है । किसान के बेटे की विरासत को लेकर लिखी गयी उनकी प्रसिद्ध
कविता की निम्न लिखित पंकितयां निराला की भिक्षुक और तोड़ती पत्थर कविता की
परम्परा को आगे बढ़ाती हैं-' जब बाप मरा तो यह पायाभूखे किसान के बेटे नें;घर का मलबा,टूटी खटियाकुछ
हाथ भूमि-वह भी परती...।. (पैतृक सम्पतित कविता ) क्ेदार जी के काव्य का यथार्थ
चित्रण उनकी संवेदनशीलता के कारण विशिष्ट बन पड़ा है । पन्त की तरह माक्र्सवाद
उनके यहां सैद्धानितक समझ के साथ उपसिथति नहीं होता बलिक वह गहरी संवेदना के साथ
उपसिथति होता है । इस दृषिट से उनकी कुछ कविताएं निराला जी की काव्य-परम्परा को
आगे बढ़ाती हैं । केदार जी एक समझदार और प्रौढ़ सभ्यता-समीक्षा भी प्रस्तुत करते
हैं। उनकी कविताओं में मानवीय प्रकृति का जो सूक्ष्म निरीक्षण मिलता है ; वह किसान जीवन
में प्रकृति के प्रति मिलने वाली आत्मीयता और राग दीर्घकालिक साहचर्य का ही परिणाम
है ।
नागाजर्ुन की कर्इ कविताओं में किसान यथार्थ ,जीवन के
महत्वपूर्ण अनुभव और स्मृति के परिदृश्य आकर्षण तथा जीवन-राग के रूप में सामने
आते है ं -याद आता मुझे अपना वह तरउनी
ग्रामयाद आती लीचियां औ आमयाद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भागयाद आते धान....।
अकाल और उसके बाद शीषर्क कविता अकाल के सन्दर्भ में ही सही किसान जीवन का पूरा परिदृश्य ही रच देती है -कर्इ दिनों तक
चूल्हा रोया,चक्की रही उदास कर्इ दिनों तक कानी कुतिया सोर्इ उसके पास.....दाने आए घर के
अन्दर कर्इ दिनों के बाद चमक उठी घर भर की आंखें कर्इ दिनों के बाद किसान जीवन से
सम्बनिधत नागाजर्ुन की कर्इ कविताएं किसान-मन की कविताएं हैं । इस दृषिट से उनकी 'बहुत दिनों बाद'मेरी भी आभा है
इसमें'फसल'सिके हुए दो
भुटटे और सोनिया समंदर देख्ी जा सकती है ।
'बहुत दिनो बादअब
की मैंने जी भर देखीपकी -सुनहली फसलों की मुस्कान-बहुत दिनों के बाद....... बहुत
दिनों के बाद अब की मैंने जी भर भोगे गन्ध-रूप-रस- शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भूपर
नागाजर्ुन की इन कवितओं में प्रकृति साहचर्य और साक्षात्कार का वह आत्मीय उल्लास
छिपा है जो सिर्फ किसान मन में ही संभव है । फसल कविता फसल के आदिम जादू को समझनें और समझाने का
प्रयास करती है- ''फसल क्या है ? और तो कुछ नहीं है वहनदियों के पानी का जादू है
वह हाथों के स्पर्श की महिमा है सिके हुए दो भुटटे की किसानी यधपि जेल के
भीतर वार्ड नंबर 10 के पीछे की क्यारियों में कैदी अखिलेश् द्वारा
की गर्इ है लेकिन यह कविता किसानी के सृजन-सुख को पूरी गम्भीरता से रेखांकित करती
है । सोनिया समंदर कविता गेहूं की लहराती पकी फसल के सौन्दर्य को इन शब्दों में
व्यक्त करती है- बिछा है मैदान मेंसोना ही सोनासोना ही सोनासोना ही सोना ।
नागाजर्ुन पकी फसल के दृश्य का प्रत्यक्षीकरण लहराते हुए सोनिया समंदर के रूप में
करते हैंं।
मुकितबोध की कविता में भी श्रमरत किसानों के
बिम्ब मिलते हैं। किसान मुकितबोध के लिए कठिन परिश्रम ,जीवन के आधार और संघर्ष के प्रतिनिधि नायक के
रूप में हैं । सुदूर खेतों में कठिन श्रम
के बाद विश्राम और खुले आसमान के नीचे अनौपचारिक ढंग से बने भोजन की सुगन्ध कवि के
कविता तक आ पहुंची है -'' रास्ते में एक ओर कण्डे की लाल आग टिक्कड़ लगी
सेंकनेबहुत-बहुत परेशान थके हुए हम भी हैंलेकिन सुगन्ध उस टिक्कड़ की खूब जो
किआत्मा में फैलती र्इमान की भाप बनकर...।
तारसप्तक में प्रकाशित प्रभाकर माचवे की गेहूं
की सोच कविता गेहूं की नियति के माध्यम से
किसानों की दुर्दशा और आर्थिक मजबूरियों का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करती है -''बहुत कुछ जायेगा
लगानकुछ जाएगी कर्ज-किश्तबाकी रह जाएगी-झोपडि़यों की उन भूखी अतंडि़यों के लिए
सूखी एक बेर रोटी-! यधपि इस कविता में कुछ जाएगी कर्ज-किश्त का कुछ खटकता है और
इसके स्थान पर अधिक शब्द होना चाहिए था-लेकिन किसानों की चिन्ता तो है ही
प्रशंसनीय । माचवे की ही वसन्तागम कविता खेतों में धान पक जानें से वसन्त ऋतु के
आगमन का किसान जीवन में उल्लास का गीत प्रस्तुत करती है । इस कविता में भी एक
औचित्य दोष है जिसकी ओर घ्यान कवि और सम्पादक अज्ञेय दोनों का ही नहीं गया है ।
धान पकने के बाद शीत ऋतु आती है वसन्त नहीं ,वसन्त ऋृतु तो गेहूं पकने के बाद आती है ।
सहानुभूति के स्तर पर ही सही ,किसान जीवन के प्रति आकर्षण और चिन्ता 1943 के आस-पास शहरी
मध्य-वर्ग के बुद्धिजीवियों में भी बची हुर्इ थी ।
भवानीप्रसाद मिश्र के लिए तो किसान धरती
पर उल्लास और आनन्द के स्वर्गिक संगीत का सर्जक ही है -'और अटपठी एक तान किसी किसान कीबचे-खुचे
खालीपनधरती और आसमान के मन को भरती हुर्इदुनिया क्या हुर्इ वह तो स्वर्ग हो गया (
स्वर्गिक कविता,रचनावली,भाग-3 ) अपनी किसान का गीत शीर्षक कविता में तो वे किसान को सम्बोधित ही करते हैं-'भार्इ !कुदाली
चलाते चलोमिटटी को सोना बनाते चलो ।इसी तरह गांव शीर्षक कविता भी किसान-संकल्प की
कविता है-''जोतना है खेत,हल के साथ निकले।बीज बोना है,दल के साथ निकले....घूल,गोबर और कचरे में भरी सीदेवियां निकली कहां
जीवित मरी सी। (रचनावली-1,पृ040) मिश्र जी की 'मधुमास,यह वर्षा,'मेघ मानव,'बरसा कर ओस,'प्रकृति प्राण,'पहिला पानी तथा'वर्षारानी आदि कविताएं जहां किसान जीवन-बोध और
सरोकारों से ही सम्बनिधत कविताएं हैं; वहीं 'हम जो कुछ बनते हैं,'शरीर और फसलें'कविता और फूल'बंजर हैं हम-,'पता नहीं चलता,'माटी का अनुभव'हम बोते हैं,'मंगल वर्षा,'बूंद आर्इ,'सावन,और 'सिर उठा रहे सरसों के पीले फूलशीर्षक कविताएं
कहीं तो सीधे-सीधे किसान जीवन और प्रकृति का चित्रण करती हैं और कहीं किसान
अनुभवों और कर्म के बिम्ब का रूपक की तरह प्रयोग करती कविताएं हैं ।
शमशेर की कर्इ कविताओं में किसान यथार्थ का
चित्रण मिलता है, यधपि उनकी अपनी ही सांकेतिक प्रस्तुति और शैली
में-गाय-सानी।सन्ध्या।मुन्नी-मासी । दूध ! दूध ! चूल्हा ,आग,भूख । मांप्रेमरोटी।मृत्यु। इसी तरह कुंवर
नारायण कें काव्य में किसान जीवन प्राय: स्मृति-सन्दर्भ के रूप में बार-बार झांकता रहता है - जैसे यह
धूप हरे खेतों परअनायास दो पहर जिन्दगी उड़ेलती ठण्ड से ठिठुर रहे तलुओं को सेकतीजैसे वह नदी-नदी चली गर्इ
पगडण्डी ।
कुआनों नदी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक
लम्बी और चर्चित कविता है,जिसमें नदी की स्मृतियों के साथ गांव के किसानी जीवन की
स्मृतियां पूरी संवेदनशीलता के साथ कविता में उपसिथत हैं-'
आदमी और चौपाएखरवा से
घायल पैर की उंगलियांऔर खुर लिये लंगड़ाते चलते हैंसुअर लोटते हैं....पानी में
बैठी औरतें खाना पकाती हैं ।.......एक बंजर भूमि मेंबढ़े हुए नाखून लिये मैं खड़ा
हूंजैसे उनसे ही नयी फसलें उगा लूंगाजैसे उन्हीं के सहारे नहरें खींचतामैं उन
खेतों में ले जाऊंगाजहां कांसे की चूडि़यां खनकतीऔरतें मुंह अंधेरे में दौरियां
चलाती हैं । कविता की कुआनों नदी ग्रामीण जन और किसानों के दु:ख की महानदी बन जाती
है । सर्वेश्वर की सूखा कविता भी किसान जीवन की एक गम्भीर त्रासदी से सम्बनिधत है
। कवि एक साक्षी के रूप् में उसका चित्रण करता है-' अभ्यासवश ही मैं यहां हूंजलहीन कूपों की आंखों
में झांकताजलती धरती के माथे परठंढे हाथ रखता।(शायद कोर्इ अंकुर उगे!)
केदारनाथ सिंह की अनेक कविताओं में किसान जीवन
से लिए गए अप्रतिम काव्य-बिम्ब देखे जा सकते हैं-'सिर्फ उसके उठे हुए सींगसिवानों में चमकते रहते
हैंसूर्यास्त तक... अथवा ' सहसा बौछारों की ओट मेंदिख जाती है एक स्त्री उपले बटोरती
हुर्इ..... तथा 'वह जरा सा हूंफता हैउसके कान खड़े हो जाते हैंयह भूसे की खुशबू है । केदार नाथ
सिंह की बहुचर्चित लम्बी कविता बाघ के कर्इ अंश किसान जीवन से भी सन्दर्भित हैं ।
नयी कविता के अंक 5-6 में प्रकाशित शरद देवड़ा की 'बैरिन रात:अभागिन
नारी कविता की अभागिन नारी एक किसान की
स्त्री ही है, जो रसोंर्इ के घुटते घुएं में रोटियां सेकती है,चक्की पीसने से कड़ी हो आर्इ अपनी हथेलियों से
अपने कानों को ढकती है । इसी अंक में प्रकाशित प्रभाकर मिश्र की अलाव की आंच में
शीर्षक कविता में भी किसान जीवन की चर्या उपसिथत है तो जितेन्द्रनाथ पाठक की शरद
घन शीर्षक कविता में भी किसान जीवन बिमिबत हुआ है! क्विता फसल के पक जाने पर बिना
जरूरत के बरसने जा रहे बादलों को सम्बोधित है और उनसे न बरसने की प्रार्थना करती
है -' ओ शरद के अयाचित
घन!मत मुड़ो इस गांवविलसने दो पीत सरसों की हुलसती छातियों पर धूपरंभने दोगाय,बछड़े,भैंस,बैलों भरी चरनी
को निकल जाने दो नदी के वक्ष से उठती हुर्इ भाप...।
तीसरा सप्तक में प्रकाशित विजयदेवनारायण
साही की रात में गांव कविता किसान अनुभव
का ही बिम्बांकन है -' सो रहा है गांव।खेतियों की अनगिनत मेड़ेंकि धरती के दुलारे
वक्ष कोउंगलियों से पकड़बच्चों की सलोनी नींद में सुकुमारसो रहा है गांव! कीर्ति
चौधरी की फूल झर गये तथा लता-1,2,3 शीर्षक से लिखी गयी कविताएं भी किसानी अनुभव की कविताएं
हैं । किसान अनुभवों को अपनी काव्य-भाषा में पिरोने के लिए सोमदत्त की कविताएं भी
याद रखी जाएंगी-'अपनी मिटटी को जगाना थापुरखों के कोठार से बीज निकालकरउम्मीद का बिरवा लगाना
था । (पुरखों के कोठार से कविता )
कुछ वर्ष पहले
अब्दुल बिसिमल्लाह के दोहों का संकलन 'किसके हाथ गुलेल शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।
उसमें भी किसान
जीवन के यथार्थ पर टिप्पणी करते अनेक दोहे थे । यह संकलन दोहा छन्द को खड़ी बोली
में पुन:प्राप्त करने की दृषिठ से भी महत्वपूर्ण था -'' किसकी माटी किसकी खेती,किसका है खलिहानदाना ले जाय बनिया साराफांके
घूल किसान ।
नक्सलबाड़ी आन्दोलन से प्रेरणा लेकर हिन्दी
कविता में सक्रिय और स्थापित कवियों ज्ञानेन्द्रपति, अरुण कमल और आलोक धन्वा में से ज्ञानेन्द्रपति
और अरुण कमल दोनों के यहां किसान यथार्थ की कविताएं मिल जाती हैं । ज्ञानेन्द्रपति
के यहां किसान अनुभवों के अप्रत्यक्ष काव्यात्मक उपयोग और प्रत्यक्ष किसान-यथार्थ
के बोध वाली दोनों प्रकार की अच्छी कविताएं बड़ी संख्या में मिल जाती हैं । पहली
कोटि के उदाहरणस्वरूप उनके संशयात्मा संकलन की पहली ही कविता देखी जा सकती है-'' इस बीच जिससड़क
परतुम नहीं चले होसमय का बूढ़ा बैल चला हैछोड़ता खुरों के बराबर गडे......नित नर्इ
जिसके हल की फालखींचती सड़कों की रेख । इसी तरह ज्ञानेन्द्रपति की एक अन्य कविता' मिट गए मैदानों
वाला गांवकिसान जीवन के लिए महत्वपूर्ण, चरागाहों के मिटनें के माध्यम से गांवों का
शोक-चित्र ही प्रस्तुत करती है । इसी तरह एक आदिवासी गांव से गुजरती सड़क कविता भी
सभ्यता के उस शोषण-चक्र को समनें और समझाने का प्रयास करती है ,जो गांव तक जाती
भी है तो लूटने की नीयत से ही । ज्ञानेन्द्रपति की खेवली तक सड़क नहीं आती कविता
भी शहर केनिद्रत सभ्यता द्वारा किसान जीवन के शोषण-चक्र का अनावरण करती है-'' सड़क हो चाहे
नहींखिंचे आते हैं मुंह बन्द बोरों से भरे अनाजजैसे दुधगर बाल्टेऔर कामगार
लोग.........खेवली! जिसकी माटी मेंउपजते हैंकवि और किसानकि भारत के प्राण जहां
बसते हैं ! इसी तरह ज्ञानेन्द्रपति की उड़ती हैं पतितयां शीर्षक कविता भी
शहरों की ओर
पलायन करने वाले किसानों के बच्चों के विस्थापन का अत्यन्त प्रभावशाली रूपक
प्रस्तुत करती है-''पतितयां नहींराजधानी पहुंचती हैंमधुकूपक रसाल और रसगुल्लक
लीचियांæकों-टोकरियों में
और पहुंचते हैं कोमल कुम्हलाए बालकनौकरी की तलाश में।
अरुण कमल की भी कर्इ कविताएं काव्य शिल्प की
तलाश में किसान जीवन और यथार्थ के आस-पास जाती हैं । अनाज के बिम्ब तो उनकी
प्रसिद्ध कविता धार में भी है और गरीबी की त्रासदी को विडम्बना की सीमा तक चित्रित
करती उधर के चोर शीर्षक कविता में भी ।
किसान यथार्थ से सम्बनिधत प्रत्यक्ष संवेदना वाली जीवन्त कविताएं भी उनके
यहां हैं-'कभी-कभी बथान में
गौएं करवट बदलती हैंबैल जोर से छोड़ते हैं सांसअचानक दीवार पर मलकी टार्च की रोशनी
कोर्इ निकला है शायद खेत घूमने।(जीवधारा कविता ) ऋतुराज की एक कविता अपने घायल बैल
के लिए किसान के दु:ख और संवेदनशीलता को इस रूप में व्यक्त करती है-' हल कुछ ज्यादा
बड़ा था,मुझे तो चोट नहीं
लगीलेकिन बैल के घाव हो गया है ।उदभ्रान्त की कविता हांड़ी कालाहांड़ी की किसान
त्रासदी से सम्बनिधत है-
'मजे से पक रहा हैएक किनकी चावल काएक विराट हांड़ी मेंभूख के सुलगते चूल्हे
परखदबदखदबद। ।
नवगीतकारों में शम्भूनाथ सिंह के यहां किसान
प्रकृति के बिम्ब हैं तो गुलाब सिंह के 'धूल भरे पांवसंकलन के गीतों में किसान जीवन के
विविध चित्र हैं । उन्होंने किसानों के व्यकितवाचक संज्ञाओं का प्रयोग करते हुए
किसान जीवन के जीवन्त बिम्ब सृजित किए हैं । महत्वपूर्ण नवगीतकार उमाशेकर तिवारी
का'खेतों में आंसू
बोते हैं शीर्षक गीत भी किसान यथार्थ और संवेदना की मार्मिक प्रस्तुति करता है -' वे लोग जो कांधे
हल ढोतेखेतों में आंसू बोते हैं-उनका ही हक है फसलों परअब भी माने तोबेहतर है।
प्राय: गांव गया था गांव से लौटा जैसी चर्चित पंकितयों के लिए जाने जाने वाले
गीतकार कैलाश गौतम की रामदुलारे कविता एक किसान की आर्थिक सिथति और मनोदशा का
अच्छा चित्रण करती है-'भूखे-प्यासे टूटे-हारेखेत से लौटे रामदुलारेबनिया कहता
ब्याज चाहिएसौ का पत्ता आज चाहिएजहां देखिए आग लगी हैदिन भर भागम-भाग लगी है...।
आधुनिक दृषिट-सम्पन्न एक नए गीतकार ओम धीरज की 'खूंटे पर बंधे हुए शीर्षक कविता किसानों की यथासिथतिवादी नियति और जड़ता को
प्रभावी ढंग से व्यक्त करती है ।
समकालीन युवा कवियों में दिनेश कुशवाह की 'उस मां की कोख से जनमें बिना कविता में भी गरीब किसान स्त्री का दर्द ही
व्यक्त हुआ है-' जितना सहती है गरीब की बेटीक्या सहेगी धरती ! इसी प्रकार दिनेश की एक अन्य
कविता भी किसान कर्म के प्रति सम्मान और कृतज्ञता भाव ज्ञापित करती है-''मुंह में कौर
डालें तो सोचेंउस खेत के बारे मेंजहां से आता है अनाज। नए कवियों में केशव शरण की
एक हलवाहे का हल चलाना देखकर कविता भी उल्लेखनीय है ।
श्रीप्रकाश शुक्ल की अनेक कविताएं भी किसान जीवन
से लिए लुप्तप्राय शब्दों और स्मृतियों का बिम्बात्मक संरक्षण करती हैं । हड़परौली उनकी ऐसी ही कविता
है , जिसमें वर्षा न
होने की सिथति में सित्रयों द्वारा अंघेरी रात में इन्द्र को रिझाने के लिए नग्न
होकर सामूहिक रूप से हल चलाने की प्रथा को आधार बनाया गया है । श्रीप्रकाश की
अधिकांश ऐसी कविताएं एक भाषाविद रीझ की उपज हैं । किसी पुरातातिवक भाषाविद की तरह
उनकी चिन्ता किसान जीवन से सम्बनिधत लुप्तप्राय शब्दों को बचा लेने की है । किसान
जीवन के पर्याय के रूप में पिछड़ते गांव का चित्र उनकी अपना गांव कविता इसप्रकार
प्रस्तुत करती है- 'बादलों की आवाजाही के बीचपगुरी करताअपनी ही पीठ के भार से
द्रवित अपना यह गांवशहर के ठीक सामनेंलयनहा बरधा की तरहताकता रहता है ।
इधर प्रकाशित रामाज्ञा शशिधर के 'बुरे समय में
नींद संकलन की एक कविता विदर्भ विदर्भ के किसानों की त्रासदी को गम्भीर सांकेतिकता
के साथ प्रस्तुत करती है । कपास की खेती करनें वाले किसानों के शोषण और
आत्महत्याओं की त्रासदी तथा उनके यथार्थ की भयावहता को रामाज्ञा नें अपनी विदर्भ
कविता में जिसप्रकार रूपाान्तरित किया है वह उनकी रचना-सामथ्र्य का तो मानक है ही ,एक नए समर्थ कवि
की प्रापित के रूप में हिन्दी कविता के लिए भी महत्वपूर्ण है - संसार का सबसे बड़ा
श्मशानधूसर सलेटी कालासंसार का सबसे बड़ा कफनमुलायम सफेद आरामदेहमणिकर्णिकेतुमनें विदर्भ नहीं
देखा है कविता विदर्भ के सफेद कपास की
खेती को कफन की संज्ञा देकर और मणिकर्णिका से सन्दर्भित कर शोषण के कारण हो रही
मौतों के बारे में सीधे-सीधे न कहते हुए भी बहुत कुछ कह देती है । निलय उपाध्याय की कुछ कविताएं भूमण्डलीकरण
के दौर के किसानों की सिथति को प्रामाणिक रूप् में रेखांकित करती है । जैसे
लड़कियों को आवारा लम्पट पुरुषों का घूरना चुभता है; जैसे कोर्इ कसार्इ किसी स्वस्थ गाय के मांस के
मूल्य को ललचयी दृषिट से आंकता है ,कुछ वैसा ही अहसास निलय
उपाध्याय की मोटांजा कविता के नायक
किसान मनबोध बाबू का भी है-' मनबोधबाबूमहीनों हो गए खेत घूमते-घूमतेघर-घर पूछते और महसूस
करतेउनके खेत घिर गए हैंसिक्कों और स्वार्थ से।युवतर पीढ़ी के कवि राकेश रंजन की
कविता चेत भर्इ चेत किसानी से पलायन की समस्या की ओर गम्भीर चेतावनी के स्वर में
घ्यान आकर्षित करती है-' कल था जो हरा-भरालहराता खेतआज हुआ बंजरकल होगा वह रेतचेत
भर्इ चेत ।
इधर हिन्दी की एक लोकप्रिय और अधिक
सम्प्रेषणीय विधा के रूप हिन्दी गजल नें भी सभी का ध्यान आकर्षित किया है । गजल की
संवादी ,संवेदी और गेय
प्रकृति उसे किसान यथार्थ की अभिव्यकित के लिए भी अधिक प्रभावी और उपयुक्त विधा
बनाती है । जिन गजलकारों नें किसानों की पीड़ा को अपनी गजलों के माध्यम से व्यक्त
करने के लिए अधिक ख्याति अर्जित की है ,उनमें बल्ली सिंह चीमा,अदम गोंडवी और कमल किशोर श्रमिक विशेष
उल्लेखनीय हैं । कुछ अच्छे प्रयोग दुष्यन्त के यहां भी मिलते हैं - तेरे गहनों सी
खनखनाती थीबाजरे की फसल रही होगी । किसान यथार्थ के लिए बल्ली सिंह चीमा की निम्न
पंकितयों को देखा जा सकता है-''खेत प्यासे रह गए धान हुए बीमारटा-टा करके उड़ गयी सावन में
बरसात (जमीन से उठती आवाज,पृ066) तथा '' सांड़ खेतों में चरता हो जैसे कोर्इयूं हमारे घरों में
अंधेरा फिरे । (तय करो किस ओर हो) जैसी पंकितयां किसान जीवन के अनुभपों से कविता
को गूंथकर ही बनार्इ गयी हैं । अदम गोंडवी की गजलें तो किसान यथार्थ को सम्प्रेषित
करने के लिए कला का रंचमात्र भी झीना परदा नहीं रहने देती । उनकी गजलों को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है
जैसे वास्तविक जीवन ही गजल के रूप में उतार दिया गया हो -'
बूढ़ा बरगद साक्षी है,किस तरह से खो
गर्इरमसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल मेंखेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो
गएहमको पटटे की सनद मिलती भी है तो ताल में ।
आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं किसान और उसके
पर्यावरण को या तो सरकार बचा सकती है या फिर बाजार । विडम्बना यह है कि जो राजनीति
उसे बचा सकती है ,वही पूंजीपतियों से मिलकर उसके विरुद्ध साजिश रचाही है । बाजार किसान की तभी सहायता कर सकता है जब वह
किसान के उत्पादों को मंहगा करके बेचे ,जबकि सरकार उसे अपने स्वार्थ के कारण ऐसा करने
नहीं देती । जनता को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने के प्रयास में मारा और हार जाता है
किसान ही क्योंकि सरकार विदेश से गेहूं मंगाकर दाम गिराने के लिए अपने यहां के
बाजारों में बेच देती है। इस तरह किसान के हर उत्पाद बाजार में सरकार के बन्धक हैं
। क्षतिपूर्ति के लिए सरकार चाहे तो ऐसा भी कर सकती है कि वह किसानों का पंजीकरण
करे और उन्हें मुआवजा के रूप मेेेेेेेेेेंं कुछ क्षतिपूर्ति राशि या वेतन नियमित
रूप से दे । किसानों के लिए शीघ्र ही कुछ निर्णायक रूप् में किया जाना चाहिए ।
चाहे सरकार उनके यहां से मंहगा खरीद कर अनाज को सस्ते मूल्य पर ही क्यों न
बेचे । करे कोर्इ भी ,कुछ भी लेकिन
शीघ्र ! किसानों को वास्तविक जीवन और कविता दोनों में ही बचाने और संरक्षण देने की
जरूरत है ।
सम्पर्क- रामप्रकाश कुशवाहा
बी-1,श्री सांर्इ अपार्टमेण्ट,
करौंदी (टंडि़या)सुन्दरपुर,वाराणसी(उ0प्र0)पिन-221005
मोबाइल-09451342730