मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

प्रतिरोध में ब्राह्मणवाद! और समय के कैंसर



प्रतिरोध में ब्राह्मणवाद ! 


अभी मैं आगरा-मथुरा के पर्यटन से लौटा हूँ
और हतप्रभ रह गया
ब्राह्मणवाद की ताकत प्रतिरोध और आजीविका की शैली देखकर
क्या अदा है ब्राह्मणवाद के चुपचाप दुनिया जीतने की
इनसे तो सीखना चाहिए मार्क्सवादियों को भी .....

वे एक पुराने राजा की प्रशंसात्मक स्मृति से
समय के राजा  को अप्रतिष्ठित कर देते हैं
अपने गगनचुम्बी किले में बैठा हुआ झींकता रहता है राजा
करता रहता है ईर्ष्या अतीत के सम्मानित राजा से
बीते ज़माने का राजा जो समय में न होते हुए भी
हर पल के मानवीय समय में है
उसे देता हुआ मानक श्रेष्ठता की चुनौतियां

गया राजा जिसने एक जातिके पुरखों को खुश कर दिया था
और जिसकी कृतज्ञता में
आज भी उसके गुणगान में लगे हैं जाति-विशेष के वंशज

समय के राजा का किला
अपने समय के आसमान को जीतने के बाद
अपने अभूतपूर्व होने के घमण्ड की मांग के बावजूद उपेक्षित खड़ा है
समय के दरबार के समानान्तर
जनस्वीकृति की शक्ति से खड़ा है एक और दरबार
स्मृतिलोक के अप्रतिम शासक के सम्मान में स्तुतिगान करता हुआ

एक सामूहिक जीवन-समय
अपनी रूचि पसंद और स्वीकार की कसौटी पर
समय की वास्तविक विजेता शक्तियों को
मनोवैज्ञानिक स्वतंत्रता के साथ अस्वीकार कर रहा है

यह एक अहँकार रहित होकर
भिक्षाटन से आजीविका अर्जित करने वाली
अपनी जातीय श्रेष्ठता की अभिमानी जाति का प्रतिरोध है
 जिसकी विजयों और युद्ध-नीति के बारे में
कितना कम जानते हैं हम और आप !

जो अपने समुदाय के अधिकृत योद्धाओं के पराजित होने के बाद भी
बिना हारे लड़ती और जीतती आई है
अहंकार रहित हारी हुई सी  दिखने के बावजूद
एक बड़े समुदाय के मानस-लोक पर
चुपचाप राज करती हुई

समय के नापसंद राजा के समानान्तर
अतीत से खोज कर लाती हुई
मनोलोक के राजा का चरित और सौन्दर्य .....

व्यभिचार की स्वतंत्रता के अराजक सामंती समय में
अपनी एक ही पत्नी के लिए कुण्ठित क्यों होते हो जन-भाई
समय के राजा के पास तो मात्र तीन-चार ही रानियाँ हैं
अनुकरण मत करो
क्योंकि अनुकरण किया ही नहीं जा सकता
मनोलोक के अतुलनीय एवं कालातीत लीलापुरुष का
उसके पास सोलह हजार रानियाँ हैं जो समय के राजा के बस की बात नहीं ....

एक पूरी जाति का गप्पी सृजन-तंत्र
समय की वास्तविकताओं के बहिष्कार और अस्वीकार में लगा हुआ है
लोक के स्मृतितंत्र पर सुनियोजित और संगठित वर्चस्व के साथ
गाते हुए समय को भजती और भाजती हुई  -राधे-राधे -राधे ....


समय के कैंसर 

जब हम एक जगह किसी मानवीय भूमिका में उपस्थिति होते हैं तो
उसी समय किसी अन्य मानवीय भूमिका के लिए
सामाजिक रूप से अनुपस्थित भी होते हैं
जब हम बन जाते हैं व्यवस्था के एक हिस्से के पुर्जे
दूसरे हिस्सों के लिए होते जाते हैं असंगत

कोई भी सर्वव्यापी नहीं हो सकता
एक व्यक्ति के रूप में
लेकिन प्रभाव के रूप में हो सकता है
उन संगठनो के कारण
जो एक व्यक्ति के विवेक कोसभी का विवेक बना देते हैं

होते हैं जिनके पास अपने ही समय के बंधुआ मस्तिष्क
और जो महानता की ओट में शर्मनाक ढंग से
दूसरों के लिए सोचते हैं
और बन जाते हैं समय के कैंसर


ज्ञान भी एक सम्पदा है 

सब कुछ बाँट देने के बाद भी
बचा रह जाएगा जिसे देकर भी दिया नहीं जा सकेगा
रह जाएगा अपने भीतर
अपनी निजी समझदारी के रूप में
जो एक भिन्न यात्रा से आई होगी और ले जाएगी अलग राह
जो एक अलग अनुभव की पृष्ठभूमि पर
पुष्पित और पल्लवित करेगी जीवन को...
यह ठीक है  किहम अपनी रुचियाँ और स्वभाव के लिए होते हैं जिम्मेदार स्वयं ही
और उसे किसी से भी साझा नहीं कर सकते

सब कुछ बराबर कर देने के बावजूद
रह जाएगा कुछ विषम -विसंगत
और यह सोचना कि
जो कुछ है अपने पास उसे दिया भी जाय या नही
ज्ञान जो परमाणु बम बनाने की प्राविधि के रूप में भी हो सकता है
और दुरुपर्योग किएजा सकने वाले अधिकार के रूप में भी

ज्ञान एक शक्ति है
इसी लिए सुरक्षा के लिए
स्वभाव और चरित्र मागती है