बुधवार, 30 जनवरी 2019

ईश्वर विमर्श

ईश्वर-विमर्श  : यह एक असाहित्यिक कृति इस अर्थ मे है कि इस कृति के सृजन के पीछे  साहित्यकार बनने की आकांक्षा नहीं है । मुझे तो विद्यार्थी जीवन मे ही धर्मयुग हंंस  वर्तमान साहित्य और  जनसत्ता आदि मे प्रकाशित होने का अवसर प्राप्त हुआ था। दरअसल मै अपने लिए भी धर्म, सम्प्रदाय, नास्तिकता- आस्तिकता ,प्रकृति और ईश्वर जैसे प्रत्ययो के अर्थ ,औचित्य और भूमिका के  प्रति जिज्ञासु रहा हूँ  । लम्बे चिन्तन ने मुझे इस निष्कर्ष पर पहुंचाया है कि भारत की हजार वर्ष लम्बी गुलामी और वर्तमान लोकतंत्र को भी सहयोगपूर्ण सांस्कृतिक पर्यावरण न मिलने की वजह उसकी जीवन,जन्म और स्त्री मात्र को ही हिकारत से देखने वाली  दार्शनिकी है ।का रहस इधर बीच दलित चेतना के उभार और असन्तोष  ने भी उसकी संकीर्णता को गम्भीरता से प्रश्नांकित किया है ।  बौद्ध धर्म चित्त-सौन्दर्य पर बल देता है लेकिन अंधविश्वासों के बावजूद जो जीवन-पद्धति के क्रमिक विकास की साभ्यतिक समझदारी है वह सनातन धर्म  की   अव्याख्यायित परम्पराओं और ऊल-जलूल रीतिरिवाजों में छिपी है । आधुनिक वैज्ञानिक विचारधारा के आलोक मे इनकी समाजशास्त्रीय भूमिका तथा  स्वीकार- अस्वीकार किए जाने का योग्यता- परीक्षण भी अभी नहीं हुआ है । भाषा और साहित्य के विकास के कारण कर्मकाण्ड से लेकर मूर्तिपूजा तक हिन्दू धर्म प्रतीकात्मक। होता चला गया ।
       कुछ अपर्याप्तंताएं तो स्पष्ट है जैसे कि हिन्दू धर्म के पास जो जातीय पाठ है,उसका चरित्र लोकतांत्रिक समानता का विरोधी है और विषमता तथा दुर्भाग्य को भाग्यवाद- नियतिवाद से जोड़ने के कारण गीता के कर्मवाद  को भी नेपथ्य मे डालने और उपेक्षित करने का प्रयास करता है । धार्मिक कथाओं की मानवीय व्याख्या का विरोधी तथा एक सीमा तक अक्षम भी है ।यह श्रद्धा कै नाम पर अतार्किकता को प्रोत्साहित करती है । मनुष्य को दीन-हीन बताने की मनोवैज्ञानिक साजिश करता है । सबसे खराब बात यह है कि इसके सांस्कृतिक साफ्टवेयर मे सुरक्षात्मक आशंका और प्रतिरोध का विधान ही नही किया गया है । दूसरे शब्दों मे भारत मे प्रश्न करने की संसकृति ही नही है । इससे नयी पीढी मे मौलिक चिन्तक और वैज्ञानिक उत्पन्न करने की संभावनाएं अत्यन्त कम हो गयी हैं। 
          अन्तिम बात यह है कि नयी सभ्यता विज्ञान पर आधारित है । क़ायदे से हमे जहाँ विज्ञान ले जाए वहाँ जाना चाहिए। कुछ लोग विज्ञान और ईश्वर दोनो को एक साथ जीना चाहते हैं।  कुछ लोग विज्ञान को पूरी तरह छोड़ कर अब भी ईश्वर के पास रहना चाहते हैं।  इस कृति के सर्जक का यह प्रयास रहा है कि ईश्वर को केन्द्र मे रखकर मनुष्य के वैयक्तिक- सामाजिक व्यवहार और लाभ- हानि का भी सम्यक् अध्ययन होना चाहिए । जिससे यदि धर्म और ईश्वर पर अपनी निर्भरता कम भी करना चाहें तो एक समानान्तर आदर्शों का कोई लोक हो हमारे पास । निष्कर्षात्मक सूत्र यह है कि एक समर्थ विचारशील,  बुद्धिमान और महान व्यक्ति ही ईश्वर की जरूरत को न्यूनतर कर सकता है  । क्योंकि समाज ईश्वर की तरह व्यवहार करता है ।बिना एक सुरक्षित समाज और व्यवस्था की रचना किए हम ईश्वर को सेवानिवृत्त या अप्रासंगिक  होने  की घोषणा भी नहीं कर सकते ।
          हमारी बूढ़ी सभ्यता ने हमें एक अभियान्त्रिक उत्पाद मे बदल डाला है।अपनी अभियान्त्रिक निर्मिति को समझना और उससे मुक्त होना ही मोक्ष है । भीरु आस्तिको  की तरह अन्धविश्वास जीने और साहसिक  नास्तिको की तरह आँख मूँदकर  धर्म और ईश्वर को रिटायर करने के पहले मैने उसकी मनोवैज्ञानिक-सामाजिक भूमिकाओं  और पर्यावरण का गहरा अध्ययन किया । फिर अपने लिए उसका निजी संस्करण या पाठ निर्मित किया ।  विज्ञान- युग की आधुनिक पृष्ठभूमि के कारण इस पुनर्रचना और पुनःपाठ का  परम्परागत रूढियों और विश्वासों से सीधा सम्बन्ध नहीं है। मै अपनी इस कृति को कबीर की माॅ की तरह धूल और जमीन पर फेंक देना चाहता हूँ कि उसमे यदि दम हो तो पाठकों की तमाम परीक्षाओं से गुजरते हुए अपनी जगह बनाए । सिद्धान्ततः इस कृति को वाराणसी से ही प्रकाशित होना था ।  मेरे टाइपिस्ट मित्र श्री दिनकर यादव ने लेखक को मिलने वाला आई एस बी एन नम्बर इसके लिये प्राप्त कर लिया है। अन्तिम प्रूफ रीडिंग के साथ यह पुस्तक शीघ्र ही उपस्थित होगी । इस कृति का उद्देश्य एक जिम्मेदार बौद्धिक विमर्श का आवाहन करना है ,न कि मानवता को पुनविभाजित  करने वाला कोई नया सम्प्रदाय खडा करना ,इसलिए इसमें सभी धर्मों से सम्बन्धित विचार कविताएं हैं। क्योंकि यह मुक्त और आत्मसम्बोधित  प्रकार की कृति हैं ,इसीलिए इसका नाम मैने " मैंने अपना ईश्वर बदल दिया है " रखा है । यह कृति और उसका कृतिकार दूसरों पर अपनी विचारधारा थोपने पर विश्वास नहीं करता । हाॅ असहमति थी इसलिए अपना ईश्वर बदला,असंतुष्ट था इसलिए अपना नया और मौलिक ईश्वर चुन लिया। सिर्फ इतनी सी बात है । इन कविताओं का रचना काल पैतीस चालीस वर्ष तक फैला हुआ है ।कुछ महत्वपूर्ण और नयी जीवन-दृष्टिया इसके विमर्श को महत्वपूर्ण बनाती है ।
               लेकिन  बहुत से लोग ईश्वर और धर्म के नाम पर वास्तव  मे भ्रमो  और आदतों को ही जी रहे होते हैं  और उस विज्ञान  तक कभी नहीं पहुँच पाते जो उनके जीवन और इस दुनिया को सुखद और सुन्दर बना सकता है। अन्त मे यह कि यह शैक्षणिक निष्ठा औरृ दृष्टिकोण से की गयी वैचारिक प्रस्तुति है ।इसमें  गुण- दोष पक्ष- विपक्ष दोनों का सम्यक् विवेचन है । मेरे अधिकांश पूर्व स्थापित मित्र इस कृति की सूचना को लेकर अनावश्यक रूप से आशंकित और विचलित हैं।  विगत तीस- चालीस वर्षों से जिन भावों को अपने जीवन के एकान्त में जीता रहा हूँ। उसको सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराने का प्रयास मात्र है।

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यद्यपि  नश्वरताबोध  हमारे सांस्कृतिक चिन्तन की मूल  प्रेरणा है ।  प्रलय,कयामत,शून्य और अंधेरा आदि इस सृष्टि के पृष्ठभूमि स्तर के सच हैं इसके बावजूद सृष्टि सूर्य जीवन प्रकाश आदि उपस्थितियो का अपना महत्व है । विज्ञान भी प्रकृति के गुणधर्म और संभावनाओ का ही अध्ययन करता है । आविष्कार भी वही हो सकेंगे जिनकी प्रकृति अनुमति देगी ।रसायनों के यौगिक क्रिया-अभिक्रिया के रूप मे हमारी एक वैज्ञानिक इयत्ता भी है ।हम सभी का जीनकोड वैज्ञानिक दृष्टि से भी सुरक्षित और संरक्षित है ।हमारा होना उतना मिथ्या और काल्पनिक भी नहीं। है जितना धर्म और मायावादी बतलाते हैं  । ऐसा      सोचना ताजे  खिले फूल को इसलिए कोसने जैसा है कि वह एक दिन मुरझा जाएगा । हमे जीवन का सम्मान करना चाहिए ।

बुधवार, 23 जनवरी 2019

स्त्री मुक्ति का प्रश्न

भारतीय सभ्यता  ने जिस वैवाहिक तन्त्र को मान्यता दी थी  वह ठीक ठीक पुरुष प्रधान भी नहीं था ।  युवकों से ब्रह्मचर्य की अपेक्षा करने वाली इस सभ्यता ने युवको को प्रेम निवेदन और विवाह प्रस्ताव देने का अधिकार ही नहीं दिया । न ही युवकों के पिता को ही । लड़की पक्ष से प्रस्ताव आने पर  लड़के पक्ष द्वारा उसे स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार उसे अवश्य प्राप्त है । मिथको से लेकर आज तक की फिल्मों में भी ऐसे प्रेमियों को मन दुर्बल मानकर नारद और रावण जैसी खलनायक की भूमिका ही अधिक दी गयी है ।
        वादाखिलाफी के खतरों को देखते हुए मे आदर्श मुक्ति के लिए भी एक सभ्य समाज बनाना होग।   असामाजिक और अराजक मुक्ति मुझे अधिक ख़तरनाक लगती है । जंगल मे जैसे शिकारी शेर किसी भैंस का शिकार करने के पहले उसे झुंड से दूर ले जाता और अकेला करता है ( रामकथा मे सीता का हरण भी रावण इसी विधि से करता है ) देहबाजार के  शातिर देहदस्यु भी पहले झांसा देकर सामाजिक बन्धनो से दूर करते हैं,  त्रासदी यह घटती है कि उसका थका और अपमानित परम्परागत सामाजिक- पारिवारिक तन्त्र सज़ा देने की भावना से सहायता के क्षणों में दुर्दशा का दण्ड प्राप्त करने के लिए अकेला छोड़ देता है ।
       जब तक जन्म लेते ही  सभी की जीन मैपिग करा लेने की सामर्थ्य  सरकारों मे न आ जाए अवैध या धोखेबाज पुरुषो का आपराधिक भ्रूण क्योंकि स्त्री लैंगिकता मे ही पलना है सुरक्षात्मक निषेध  या सावधानियाँ मुझे स्त्री विरोधी नहीं लगती । यह संदिग्ध इसलिए भी लगता है कि लंपट चरित्र वाले स्त्री और पुरुष ही उपभोक्तावादी नजरिये से ही स्त्री की मुक्ति का प्रश्न अधिक उठाते हैं ।

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

धर्म और अधर्म

धर्म और अधर्म
सारी दिशाएं अपनी हैं
सारी धरती अपनी है
सारे लोग अपने हैं
और मै मनुष्य को
इतनी तरह से जीते हुए देखकर
आश्चर्य से भर गया हूँ
कितने रीतिरिवाजों
और कितनी प्रथाओं का सर्जक है आदमी
कितने शब्दों और कितने विश्वासों का रचनाकार!
कितने अन्धविश्वासों  और कितने झूठों का जीवनहार
और मै
उनके सारे कार्यों का अनुकरण करने मे समर्थ
मना किया गया कि क्या- क्या मुझे करना चाहिए
और क्या नहीं  !
इतनी शर्तो और
इतनी परतों में जी सकता है आदमी
जानने के बाद भी
वही-वही दुहराने की इच्छा
मेरी मर गयी है
ऊब गया हूँ मै
कर्मकाण्डो की दुरूहता
और बारम्बारता से
मै क्यो कुछ नया नहीं कर सकता ?
नहीं जी सकता नया 
और क्यो कुछ नया जीने की स्वतंत्रता
मुझे विधर्मी बना सकती है !
मै क्यों नहीं  बना सकता
सारी दुनिया की अच्छाइयों  का संग्रहालय  !
नहीं जी सकता अपनी समझ से चुना हुआ अच्छा
और क्यों- कोई तो मुझे बताए !
रामप्रकाश कुशवाहा
07/11/2018
"Maine  apana Ishwar  badal diya hai" is a  collection of philosophical  poems with modern  scientific and psychological aproch . These poems are  also create civilisationl descorse  on Indian God and religion

बुधवार, 9 जनवरी 2019

धार्मिक पाठ का सच


धार्मिक पाठ का सच

धर्माचार्यों और विचारधारावादियों का जीवन- बोध स्वस्थ नहीं होता । वे सच को छिपाकर एक काल्पनिक पाठ प्रस्तुत कर देते हैं  । राम-कथा को ही लें  तो उनका निरंकुश आदर्शवाद अमानवीय त्रसदियाॅ घटित करता जाता है ।
      राम मोहग्रस्त यानि आज के शब्दों मे अतिसंवेदनशील  पिता के स्पष्ट आदेश के वगैर वन को चल देते है और दशरथ की ह्रृदयगति बन्द होने से मृत्यु हो जाती है । आदर्शवाद की शुद्धता मे ही  पत्नी सीता का परित्याग करते हैं  । अन्त मे आदर्श के सैनिक अनुशासन मे ही भ्राता लक्ष्मण का परित्याग करते हैं  ।  लक्ष्मण आदर्श पर खरा न उतरने की आत्मग्लानि  लेकर सरयू में डूबकर आत्महत्या कर लेते है । स्वयं राम भी  पीड़ा न सह पाकर आत्महत्या  कर लेते है । रामकथा का साहित्यिक पाठ आदर्शवाद  के अतिरेक को क्रूर और अमानवीय बताता है जबकि धार्मिक पाठ बिना कोई सबक लिए स्वर्ग मे जाना घोषित करता है । इसी तरह सीताहरण  प्रसंग का साहित्यिक पाठ साधुओं पर विश्वास न करने का चेतावनीपूर्ण सन्देश देता है जबकि स्त्रियाँ इसे धार्मिक भक्ति भाव से पूरी श्रद्धा और विश्वास से सुनती हैं  ।

रविवार, 6 जनवरी 2019

साहित्य मे रुचि- दोष और चरित्र- वैविध्य

आचार्यों ने हर संचारी भाव को काव्य  मे रस-सृष्टि के लिए महत्वपूर्ण माना है ।अरस्तू ने भी विरेचन के उद्देश्य से हर भाव को महिमामंडित किया है ।  विवाह के अवसर पर स्त्रियाँ दोष निवारण और प्रेम बढ़ाने के लिए गाली गाती हैं  । इसीलिए साहित्य मे रुचि-दोष और स्वभाव दोष कभी  प्रश्नांकित नहीं किया जाता ।साहित्य का तो उद्देश्य ही मनुष्य जाति  के चरित्र वैविध्य को सामने लाना है । यदि वह खलत्व से परिचित कराता है तो टीकाकरण जैसा पूर्व सुचेतित करने की भूमिका में होता है ।जब आदर्श और उदात्त को जीता है तो वैसा ही मानसिक परिवेश सम्प्रेषित और निर्मित करता है । बहुत पहलें मैने रुचिदोष का प्रश्न उठाया था ,अब लगता है अनावश्यक था ।

गुरुवार, 3 जनवरी 2019

जिन्दगी की नाव

जनाकांक्षाओं की भीड़
अलग-अलग दिमागों मे कैद है
जिन्दगी की नाव
समय की नदी में
कर्म के पतवार से ही
गति और दिशा  हासिल करती है
सारा जादू
अंगूठे और उंगलियों मे छिपा हुआ है
कर्म हाथों का गुणधर्म है
और कर्मरहित मनुष्य
अपनी सारी बौद्धिक क्षमताओं के बावजूद
संभावनाहीनता और अक्षमता मे कैद
डॉल्फिन बनकर रह जाता है ।

रामप्रकाश कुशवाहा
31-12-2018

जीवन-बोध

नश्वरताबोध  हमारे सांस्कृतिक चिन्तन की मूल  प्रेरणा है ।  प्रलय,कयामत,शून्य और अंधेरा आदि इस सृष्टि के पृष्ठभूमि स्तर के सच हैं इसके बावजूद सृष्टि सूर्य जीवन प्रकाश आदि उपस्थितियो का अपना महत्व है । विज्ञान भी प्रकृति के गुणधर्म और संभावनाओ का ही अध्ययन करता है । आविष्कार भी वही हो सकेंगे जिनकी प्रकृति अनुमति देगी ।रसायनों के यौगिक क्रिया-अभिक्रिया के रूप मे हमारी एक वैज्ञानिक इयत्ता भी है ।हम सभी का जीनकोड वैज्ञानिक दृष्टि से भी सुरक्षित और संरक्षित है । हमारा होना उतना मिथ्या और काल्पनिक भी नहीं। है जितना धर्म और मायावादी बतलाते हैं  । ऐसा      सोचना ताजे  खिले फूल को इसलिए कोसने जैसा है कि वह एक दिन मुरझा जाएगा । हमे जीवन का सम्मान करना चाहिए।

विचारहीन

जो सुखी है
मूर्ख है
यानि मूर्ख सुखी है
संतुष्ट हैं
जिन्हें सिर्फ
खाते- जीते और
समय पास करते हुए
जीने के नाम पर
सिर्फ मृत्यु की प्रतीक्षा करनी है
उनके लिए कोई विचार नहीं
सब बेमतलब
और निरर्थक है ।

रामप्रकाश कुशवाहा