शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

स्त्री-आत्मकथाएं : विमर्श के वृत्त एवं परिधि

संवेद  54  जुलार्इ 2012
सम्पादक-किशन कालजयी
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आज के समाजशास्त्रीय आलोचना के दौर में आत्मकथा की विधा आलोचकों और पाठको दोनों के लिए ही महत्वपूर्ण हो गयी है । र्इमानदारी से लिखी गर्इ आत्मकथाएं सामाजिक व्यवहार के अनेक ऐसे तथ्य और ब्यौरे उपलब्ध कराती हैं ,जिनका अध्ययन साहित्य के साथ-साथ समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के लिए भी किया जा सकता है । आत्मकथा लेखक या लेखिका से यधपि तटस्थ आत्मविश्लेषण की अतिरिक्त योग्यता के साथ अपने जीवन में घटी घटनाओं और आए व्यकितयों को पक्षपातरहित ढंग से व्यक्त करने की अपेक्षा की जाती है ,लेकिन जैसाकि मानवीय स्वभाव की दुर्बलता है कि वह अपने पक्ष को तो संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करता है ,दूसरों के पक्ष को नहीं । दूसरों का पक्ष प्राय: अनुमान के लिए छोड़ दिया जाता है । अधिकांश आत्मकथाओं में स्वाभाविक है कि यह दूसरा पक्ष पुरुष-पक्ष ही होगा । स्त्री के अविवाहित जीवन-काल में यह प्राय: भार्इ या पिता के रूप में पहरेदार की भूमिका निभाता पाया जाता है और विवाह के बाद पति के रूप में ।
      हिन्दी की अधिकांश स्त्री आत्मकथाएं कथाकारों द्वरा ही लिखी गयी हैं । इसलिए शिल्प की दृषिट से इन आत्मकथाओं में उपन्यास की विधा का कथात्मक शिल्प देखा जा सकता है । चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की 'पिंजरे की मैना,मन्नू भंडारी की एक कहानी यह भी , प्रभा खेतान की 'छिन्नमस्ता और मैत्रेयी पुष्पा की -कस्तूरी कुण्डल बसै और गुडि़या भीतर गुडि़या -सभी औपन्यासिक शिल्प वाली आत्मकथाएं ही हैं । संभवत: इसीलिए इन सभी आत्मकथाओं में पठनीयता की दृषिट से अदभुुत आकर्षण है । अनुभव-जगत की भिन्नता तथा सीमित जीवन-अवसरों को गहरार्इ कहें या फिर लम्बे समय तक जीने की बाध्यता या विवशता उनके लेखन में निरीक्षण की ऐसी सूक्ष्मता का निवेश करती है ,जिसकी कल्पना भारतीय पुरुष साहित्यकारों केलेखन में तो नहीं ही की जा सकती । इन आत्मकथाओं से स्त्री-मन की वह दुनिया सामनें आती है,जिसे बहिमर्ुखी और सामाजिक होने के कारण पुरुष-मन प्राय: सोच और देख ही नहीं पाता । उनके आत्मकथाओं की यह दुनिया जीवन के छोटे-छोटे संवेदनात्मक प्रसंगों ,विवरणों,वृत्तान्तों और प्राय: उपेक्षणीय समझे जाने वाले मानवीय सम्बन्धों और रिश्तों की भावपूर्ण दुनिया है । बाहरी संसार से बचता और बचाता,कर्इ-कर्इ दृश्य-अदृश्य मोचोर्ं पर एक साथ जूझता ,घरेलू वास्तविकताओं और समस्याओं का एक अलग प्रबन्धन इतिहास लिए-जो पारिवारिक और वैयकितक होते हुए भी समाज को सही समय पर सही ढंग से कुछ महत्वपूर्ण प्रदान करनें की सृजनात्मक क्षमता भी रखता है ।
       भारतीय सामाजिक यथार्थ को देखते हुए हिन्दी की आत्मकथाओं की नायिकाओं यानि लेखिकाओं को सामाजिक(परम्परागत) दाम्पत्य वाली महिलाओं और असामाजिक(स्वैचिछक या क्रानितकारी) दाम्पत्य वाली महिलाओं में बांटा जा सकता है । दोनो ही प्रकार के दाम्पत्य में पुरुष-सत्ता और प्रकृति का भिन्न रूप उभरता है । दोनों में से कौन सही है या गलत यह प्रश्न बेमतलब है । महत्वपूर्ण यह है कि दोनों में ही मानव-जीवन में लैंगिक व्यवहार के भिन्न प्रारूप और रिश्ते सामने आते हैं । अपरम्परागत ,क्रानितकारी अथवा असामाजिक दाम्पत्य में मन्नू भण्डारी की आत्मकथा 'एक कहानी यह भी तथा प्रभा खेतान की आत्मकथा छिन्नमस्ता को रखा जा सकता है । यहां यह भी बता देना उचित होगा कि बंगाल में छिन्नमस्ता देवी का एक प्रसिद्ध मनिदर भी है । प्रभा खेतान को शीर्षक रखने की प्रेरणा इसी देवी के नाम से ही मिली होगी ,लेकिन पूरी आत्मकथा को पढ़ने के बाद मेरे पाठक मन के एकान्त में जो प्रभाव-जन्य भाष्य उभरा था वह परम्परा से अलग हटकर (यौन-)मस्ता नायिका का था । परम्परा से अलग हटकर यौन-व्यवहार का सहचर चुनने की जिद मन्नू भण्डारी और प्रभा खेतान दोनों में ही है । इस पथ के चुनाव में कहीं न कहीं जुनूनी आदर्शवाद मन्नू भण्डारी में रहा ही होगा ,ळयोंकि वे एक स्वतंत्रता सेनानी की बेटी रही हैं । सीमोन द बउआर जैसी जीवन की आकांक्षा वाली प्रभा खेतान नें अपना स्वदेशी सात्र्र एक गैर-विचारक विवाहित डाक्टर के रूप में ढूंढ़ निकाला और अपने उस महाप्रयोग की गाथा छिन्नमस्ता के रूप में हिन्दी जगत को दी । इन दोनों महिलाओं की आत्मकथा को मैं विवाह की अनिच्छुक महिलाओं की दाम्पत्य-त्रासदी के रूप में देखता हूं । इन दोनों विदुषी महिलाओं नें संभवत: रचनात्मक स्वतंत्रता की खोज में परम्परागत शतोर्ं में परम्परागत पुरुष की अधीनता स्वीकार नहीं की । दोनों ही एक सीमा तक बार्इ-पास दाम्पत्य को ही जीती रहीं । चन्द्रकिरण सौनरिक्सा की आत्मकथा पिंजरे की मैना तथा मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा गुडि़या भीतर गुडि़या परम्परागत दाम्पत्य का स्त्री-विमर्श तथा पुरुष-पुराण प्रस्तुत करती हैं ।        हिन्दी की स्त्री-आत्मकथाओं को पढ़ते हुए एक बार फिर इस बात की पुषिट हो जाती है कि भारत में जाति व्यवस्था की सामाजिक अभियानित्रकी में मुख्य आधार प्रतिबनिधत स्त्री जीवन ही रहा है । अविवाहित जीवन-पर्यन्त तक उसका मुख्य कर्तव्य भावी पति ,परिवार और जाति के सम्मान के लिए अपने कौमार्य ,चारित्रिक शुद्धता और पवित्रता की रक्षा करना है । विवाह के बाद भी उसके संयम में पति की सामाजिक प्रतिष्ठा जुड़ाी है । 
         अब तक सामने आयी हिन्दी की महिला आत्मकथाओं में पुरुष-बन्धन के प्रति विद्रोह और प्रतिशोध का अचेतन परिणाम वह पर-पुरुषगामिता का आयाम नहीं जुड़ पाया है ,जो समाज में प्राय: देखने-सुनने को मिलता है । बहुत-सी कुलटा और छिनाल मानी जानी वाली सित्रयों की पृष्ठभूमि का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो कुछ रोचक सच्चाइयां सामनें आती हैं। सिर्फ यौन शुचिता ही नहीं बलिक सच्चार्इ ,र्इमानदारी, वफादारी आदि अनेक नैतिक-मूल्यों का विकास पूंजीवादी सभ्यता नें सम्पतित के उत्तराधिकार की समस्या से निपटनें के लिए ही किया है । पुरुष अपने श्रम से अर्जित सम्पतित को अपने वास्तविक जैविक उत्तराधिकारी  को ही सौंपना चाहता था । इसीलिए यौन-संयमी एवं सच्चरित्र सित्रयों का महिमामंडन बढ़ता गया और भारत में सती-प्रथा तक जा पहुंचा । यह दूसरी बात है कि एक पौराणिक चरित्र की स्मृति में विकसित सती और जौहर-प्रथा भारतीय शासक-वर्ग की सित्रयों में ही मध्ययुग में प्रचलित रही । पुरुष-प्रधान कबीलार्इ युग के सांस्कृतिक स्मृति-अवशेषों के कारण स्त्री का दर्जा पुरुष की सम्पतित का ही रहा । प्राचीन काल से ही स्त्री लूटी और कमार्इ जा सकती थी । जाति-निर्धारण में यधपि स्त्री की कोर्इ भूमिका नहीं थी ,लेकिन किसी पुरुष की निजी सम्पतित होनें के कारण उस पुरुष के मान-मर्दन के लिए परार्इ सित्रयों पर यौन-निष्ठा से विचलित करने वाले हमले जारी रहे । इस तरह सित्रयां मर्दानगी की दृषिट से जीत-हार का भी माध्यम रही हैं । नियनित्रत करने की सबसे आम प्रविधि डांट और भय ही रही है। विवाह पुरुष को अधिकार देता रहा है स्त्री पर शासन के लिए; लेकिन ऐसा तभी हुआ है जब सित्रयों को बाल्य-काल से ही शासित होनें का संस्कार भी मिला हो ।
      इस दृषिट यानि मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के लिए मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा गुडि़या भीतर गुडि़या दिलचस्प तथ्य उपलब्ध कराती है । डाक्टर पति पुरुष-वर्चस्व की परम्परागत भूमिका में है ,इस बात से अनभिज्ञ कि जो विवाह उसनें किया है ,वह बचपन से ही पिता से वंचित युवती से है । पुरुष-नियन्त्रण से पूरी तरह मुक्त एक स्वाधीन स्त्री-प्रधान परिवार । मैत्रेयी को माता-पिता द्वारा पुरुष-प्रधान समाज के पति-पत्नी के रिश्ते की कोर्इ स्मृति ही नहीं है । पति अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण उसी रिश्ते को पाना और जीना चाहता है । लेखिका इस पति को समझनें के लिए मनोवैज्ञानक रूप से अयोग्य है । फलत: असुरक्षा का शिकार पति उसे नियन्त्रण में बनाए रखने के लिए हाफता और थकता रहता है । पूरी आत्मकथा में मैत्रेयी के लिए पति और दाम्पत्य एक दमनकारी कुणिठत कर देने वाली सत्ता की पराधीनता के रूप में सामने आता है । उनका अचेतन विद्रोह और प्रतिशोध की उस सीमा तक पहुंचते-पहुंचते ठिठक कर रह जाता है ,जहां सित्रयां प्रेम और मुकित के नाम पर अपने तानाशाह पति से बदला लेने के लिए दूसरे पुरुष की बाहों में समा जाती हैं । अपनी ही देह को दूसरों को सौंप कर कि मैं इसकी सम्पतित दूसरे पुरुष को सौंपकर उसे वंचित कर रही हूं । मैत्रेयी पुष्पा की प्रसिद्ध कहानी 'गोमा हंसती है के चरित्रों और कथावस्तु में तो नहीं बलिक लेखकीय दृषिट की पृष्ठभूमि में यह आक्रोश और प्रतिशोध का अचेतन झांकता हुआ देखा जा सकता है । इसतरह कुछ महिला साहित्यकारों की आत्मकथाएं असामान्य मनोविज्ञान की विश्लेषण सीमा में आने के कारण इस दृषिट-विशेष से भी महत्वपूर्ण हैं ।
          हिन्दी की स्त्री आत्मकथाओं में चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की आत्मकथा 'पिंजरे की मैना कथावस्तु के बहुस्तरीय एवं बहुकालिक यथार्थ के कारण जीवन के विविध रंगों को अपने में समेटे हुए है । जिन विशेषताओं के कारण बेबी हालदार की 'आलो-आंधारि सराही जाती है ,उनमें सहज मासूम और र्इमानदार अभिव्यकित वाला गुण चन्द्रकिरण के यहां भी है । वह करुणा भी जो पुरुष-प्रधान समाज की ज्यादतियों को चुपचाप स्वीकार करते जाने के कारण पाठक के भीतर क्षोभ उत्पन्न करती जाती है -चन्द्रकिरण की आत्मकथा को एक अन्तहीन अनुत्तरित संभावना और संवेदनात्मक विस्तार देती है । इस सच के बावजूद कि उनके यहां बेबी हालदार वाला निम्नवर्गीय यथार्थ अवश्य नहीं है ,लेकिन एक अन्तहीन आर्थिक तंगी और उससे जूझते हुए जीतते रहना इस कृति को भारतीय मध्यवर्गीय जीवन की महाकाव्यात्मक एवं औपन्यासिक स्त्री-आत्मकथा में बदल देता है । चन्द्रकिरण सौनरिक्सा की आत्मकथा के वृत्त की परिधि मन्नू भंडारी और मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथाओं की परिधि से विस्तृत है । उसमें जीवन के त्रासद परिसिथतियों की मार तो है ही ,आधुनिकता का प्रभाव ,जाति का अतिक्रमण, पारिवारिक कुलीनता की सृषिट तथा आर्थिक वर्ग बदलने के साथ-साथ नारी की प्रसिथति में अन्तर सभी कुछ एक साथ देखने को मिलता है । चन्द्रकिरण की आत्मकथा झांसी के पतन और उसमें किए गए अंग्रेजों के कत्लेआम से शुरू होती है । उनके प्रपितामह अं्रग्रज सैनिकों की लूट-मार में मार दिए जाते हैं । भयभीत महिलाएं बच्चों को लेकर पलायन कर जाती हैं । यहां तक कि अपने-अपने पति के मरनें की पुषिट भी नहीं कर पातीं । एक शरणार्थी बच्चे की जिजीविषा और संघर्ष को पूरे कथात्मक वृत्तान्त के साथ प्रस्तुत करती चन्द्रकिरण सौनरिक्सा की यह आत्मकथा , अप्रत्याशित घटनाशीलता की दृषिट से सबसे रोचक और पठनीय आत्मकथा है-कम से कम इसका पूर्वाद्र्ध ।
       इसप्रकार चन्द्रकिरण सौनरेक्सा के वैयकितक जीवन को केन्द्र में रखकर लिखी गयी 'पिंजरे की मैना की परिधि समाज और इतिहास के चरम छोर को भी छूती चलती है । आत्मकथा को वंशावली के बहानें 1857 के विद्रोह में झांसी के पतन के बाद अंग्रज सेना द्वारा की गयी बर्बर लूट में मारे गए पड़बाबा के वृत्तान्त से आरम्भ करने के कारण उनकी यह आत्मकथा एक पारिवारिक एवं आत्मकथात्मक उपन्यास की रोचकता तो लिए हुए है ही ,इसमें महाकाव्यात्मक विस्तार ,संवेदनात्मक द्वन्द्व एवं गहरार्इ क अनेक अवसर एवं प्रसंग भी हैं । पात्रों का जीवन आर्थिक और सामाजिक विभीषिका में बार-बार दिशाहीन होता है,ठहरता है ,नर्इ संभावनाओं की तलाश करता है और सहानुभूति में डूबा हुआ पाठक का मन भी । मात्र सात और नौ वर्ष के दो बालक और आठ वर्ष की एक बालिका लिए जनसंहार में अपने-अपने पति के शव को लावारिस छोड़कर भागते शरणर्थी समूह के साथ अपनी जान बचाकर भागी दो विधवा सित्रयों की नियति और निर्णय के भविष्य में जन्म लेने वाली लेखिका का अतीत छिपा हुआ था । अपने मूल जन्मस्थान की दिशा (राजस्थान का नारनौल) छोड़कर आजीविका के लिए लाहौर पहुंचा परिवार आर्थिक सुरक्षा तो पा लेता है लेकिन अपने जातीय समाज की सुरक्षा खो बैठता है ।
       चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की आत्मकथा अज्ञात नियति की ओर बढ़ रहे एक प्रवासी और शरणार्थी परिवार के र्इमानदार संघर्ष की ,मध्यवर्गीय जीवन की महागाथा है । आत्मकथा विप्लव में मारे गए बनिया के आठ वर्षीय बेटे गणेशीलाल के आर्थिक सुरक्षा के लिए र्इमानदार जीवन-संघर्ष और उनके लाहौर के प्रतिषिठत जमीदार परिवार बन जाने की विजयिनी जीवनगाथा से होती हुर्इ अनेक पारिवारिक उत्थान-पतन के सोपानों से गुजरती अंग्रेजी सेना में स्टोरकीपर पिता रामफल तक पहुंचती है । पिता रामफल की पहली विवाहिता ,जो जाति से ब्राहमणी थीं और उनकी मृत्यु के बाद दूसरी विवाहिता जो जाति से यादव-कन्या थीं और लेखिका चन्द्रकिरण की मां भी । इस आत्मकथा का भावी घटना-क्रम अपनी विशेष शरणार्थी या प्रवासी पृष्ठभूमि के कारण अन्तर्जातीय विवाहों की नियति की ओर मुड़ता जाता है । ऐसे सारे पात्र जो रूढि़वादी परम्पराओं की दृषिट से सामाजिक मृत्यु को प्राप्त कर चुके हैं ,ऐसे ही निर्णयों द्वारा अपने अभिशप्त जीवन से मुकित का रास्ता खोजते हैं । कोर्इ भयानक गरीबी और दहेजप्रथा से मुकित के लिए तो कोर्इ बालविधवा हो जाने के अभिशाप से मुकित के लिए ।  आर्थिक दबाव या फिर आर्थिक सुरक्षा का आकर्षण विवाह के लिए जाति-बन्धन को शिथिल करते हैं । सिर्फ कुछ बेहतर घट जाने की संभावनाओं की आस्था के भरोसे यह आत्मकथा और उसके पात्र जीवन की अगली यात्रा जारी रखते हैं तो पुरुष के आधार पर जाति का निर्धारण करनें की परम्परा उन्हें फिर अपनी जाति में समाहित भी कर लेती है । स्वयं वैश्य परिवार की लेखिका का विवाह भी कायस्थ-पति कानितचन्द्र सौनरेक्सा से हुआ । आत्मकथा का यह पक्ष 'पिंजरे की मैना आत्मकथा को समाजशास्त्रीय अध्ययन की दृषिट से भी महत्वपूर्ण बना देता है । लेखिका के कथाकार बनने के पीछे उसकी पढ़ाकू-वृतित के साथ-साथ वंश की समृद्ध एवं अप्रत्याशित स्मृतियां भी निर्णायक भूमिका में हैं ।
         अपनी गौरवपूर्ण किन्तु असामान्य विशेष पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण ही एक निष्पक्ष एवं क्रानितकारी लेखकीय विवके तथा सामाजिक अन्तदर्ृषिट चन्द्रकिरण सौनरेक्सा केलेखन की विशेषता है । जाति-निरपेक्षता की पारिवारिक स्मृतियां ,आजीविका के लिए बि्रटिश नौकरशाही का जीवन-स्तर, लड़के-लड़कियों को समान रूप से शिक्षा प्रदान करने पर बल तथा सुधारवादी आर्यसमाजी संस्कार लेखिका के चेतन-अचेतन प्रारमिभक व्यकितत्व-निर्माण की दृषिट से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की यह पृष्ठभूमि ही उनकी आत्मकथा को दूसरी अन्य स्त्री आत्मकथाओं से अलग और विशिष्ट करती है । यधपि एक आम भारतीय मध्यवर्गीय स्त्री से अलग होनें का लेखकीय दावा वे कहीं नहीं करतीं । उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि वैसे भी अगर कोर्इ मेरी जीवन-यात्रा को समेटना चाहे तो वह घर-नौकरी-घर के चक्र में ही समाप्त हो जाएगी -क्योंकि तीन-तीन लड़कियों को घ्यान के साथ-साथ बड़ी गृहस्ती ,पूरे संयुक्त परिवार की बड़ी बहू का उत्तरदायित्व निभाने का बीड़ा उठाये चलाना बच्चों का खेल नहीं था ।(पिंजरे की मैना,पृ0380) उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ''आत्मकथा को यदि प्रतिदिन का रोजनामचा बना लिया जाये तो उसके विस्तार का कोर्इ अन्त नहीं रहेगा और मैंने विस्तार को किसी साहितियक-कृति की महानता का मानदण्ड नहीं माना । हमेशा की तरह बिना किसी लाग-लपेट के ,सीधी-सच्ची ,दिल से निकली बात को दिल तक पहुंचाने की कोशिश की है । बस इतना-सा अंतर मेरी कृतियों और इस आत्मकथा में है  किवे जगबीते थीं और यह आपबीतीं हैं ।(पिंजरे की मैना,पृ0 415)'आत्मकथा का केवल एक उददेश्य होता है अपनी जीवन-यात्रा का ,निष्पक्ष दर्शक की तरह पुनरावलोकन करना । 'पिंजरे की मैना उसी का फल है ।(वही,पृ0 415)
      पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वाह और कर्तव्य भावना से भरी चन्द्रकिरण की आत्मकथा जीवन की उथल-पुथल ,राग-द्वेष और यश-अपयश से रची-बुनी है । उसमें अपने बेवफा पति के लिए भी ममत्व एवं करुणा है । उससे यह बात भी उभर कर आती है कि परिवार जीवन की एक अपरिहार्य मूलभूत संस्था है ,वह अपने सदस्यों के असितत्व के लिए प्रेम के साथ या फिर प्रेम के बिना भी समर्पण एवं निष्ठा की मांग करती है । पिंजरे की मैना की तरह ही परिवार को बचाने के पक्ष में दाम्पत्य सम्बन्धों में स्वैचिछक यातना के वरण के प्रसंग मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा 'गुडि़या भीतर गुडि़या तथा मन्नू भंडारी की आत्मकथा 'एक कहानी यह भी को भी महत्वपूर्ण बनाते हैं ।
         मेरी सीमा यह है कि मैं यौन-आसकित की मानसिकता जीने वाले लेखन का एक अच्छा और र्इमानदार पाठक कभी नहीं रहा हूं । यधपि यौन-हारमोनों से आच्छादित मन-मसितष्क आयु-विशेष की एक अपरिहार्य सच्चार्इ है । पुरुष-मन तो अपनी देह-प्रकृति के कारण देर तक लम्पट बना रहता है लेकिन स्त्री-शरीर के समयबद्ध कार्यक्रम के कारण एक आयु के बाद दुष्चरित्र सित्रयां भी शान्त और शालीन लगनें लगती हैं । एक और तथ्य का साझाा करना उचित होगा कि पाठयक्रम में समिमलित मैत्रेयी पुष्पा की प्रसिद्ध कहानी 'गोमा हंसती है को मैं ठीक से पढ़-पढ़ा नहीं पाया । वे एक ऐसे परिवार और परिवेश से आयी हैं ,जो कि्रयाओं ,वर्जनाओं ,चर्चाओं और मानसिकता में पूरी तरह यौनिकताजीवी ही रहा है । पता नहीं यह कृष्ण का प्रभाव है या मुगल सभ्यता के केन्प्द्र आगरे के समीपवर्ती होने का या कि डकैतों के उत्पादन के लिए मशहूर बुन्देलखण्ड का कि मैत्रेयी पुष्पा के स्मृतियों वाले गावों मेंं ग्रामीण समाज में पायी जानें वाली वह धार्मिकता कम दिखती है जो कर्इ अ्रचलों में ग्रामीण परिवेश को सेक्स और अपराध से विरत रखती है । मैत्रेयी का लेखन सूक्ष्म निरीक्षण शकित, आंचलिक मौलिकता और गहरी संवेदनात्मकता के साथ साहसिक होनें के कारण निश्चय ही ध्यान आकर्षित करता है लेकिन यह भी सच है कि रुचि के स्तर पर जब तक उनका मन भर नहीं जाता या फिर उनकी यौन-स्मृतियों का खजाना खत्म नहीं हो जाता ; तब तक उनका एक-एक शब्द यौन-अतृपित और सेक्स हारमोन से लिथड़ा-लिथड़ा लगता है । यौनजीवी रुचि और मानसिकता के कारण कुछ-कुछ ऐसी ही अनुभूति मुझे काशीनाथ सिंह की भी कुछ कहानियां पढ़कर होती है । (यह लिखते हुए मैं हिन्दी आलोचना में किसी लेखक की रुचि के प्रश्न को भी मूल्यांकित करने की प्रस्तावना कर रहा हूं । यथार्थ और शोषण के चिन्तन के नाम पर यौनिकताजीवी चित्रण राहुल सांकृत्यायन से लेकर स्त्री विमर्शवादी कुछ महिला साहित्यकारों तक भी देखे जा सकते हैं । साहित्य-लेखन एक सचेतन क्रिया है । दुर्घटनात्मक,अवांछित और आपराधिक स्मृति का सच के नाम पर भारी मात्रा में निवेश यदि भावी समाज की चिन्ता से मुक्त रहकर किया जा रहा हो तो ऐसे लेखन को साहितियक अपराध मानकर उसका आलोचनात्मक प्रतिरोध करना ही होगा । ) उनकी 'महुआचरित कहानी पढ़ते समय भी कुछ-कुछ वैसा-वैसा ही महसूस करता रहा । यधपि इसमें सन्देह नहीं कि महुआचरित एक बहुत ही अच्छी कहानी है । उच्च्स्तरीय अभिव्यकित-क्षमता के बावजूद मैत्रेयी का काफी लेखन मुझे यौनजीवी मानसिकता के उत्पाद लगते हैं । उनका लेखन यौन-सरोकारों और चिन्तन से बाहर निकल ही नहीं पाता । 
       मैत्रेयी पुष्पा के स्त्री-विमर्श में घुसनें से पहले मैं अपनी समझदारी के एक अन्तरंग पक्ष को साझाा करना चाहूंगा । पहली यह कि आपराधिक जीन स्त्री और पुरुष दोनों को समान रूप से मिलते हैं । हां ,स्त्री के अपराध करने का तरीका भिन्न हो सकता है ,लेकिन मानव-जाति में गुण्डा-गुण्डी दोनों ही समान रूप् से जन्म लेते हैं । पुरुषों की तरह कर्इ प्रेम-शिकारी वृतित वाली महिलाओं को भी देखा है । अपने दवंग व्यकितत्व के कारण ऐसी महिलाएं पहले अपने पिता या पति को हठपूर्वक जीतती और पराजित करती हैं और फिर दूसरों या पूरे समाज को जीतने या पराजित करने निकल पड़ती हैं । फिर तो वे एक व्यसन के रूप में पुरुषों को जीतने के लिए निकल पड़ती हैं ,ऐसे ही कुछ पुरुष भी दूसरों के वैवाहिक जीवन को दूषित कर चारित्रिक आक्रामकता में ही अपनी मर्दानगी का प्रमाणपत्र बटोरते रहते हैं । यह असितत्व की सार्थकता,स्वीकृति और उसके परीक्षण का मामला है । एक प्रतिस्पद्र्धी और हिंसक मन अगल-बगल तांक-झांक करता रहता है । कुछ लोगों का परिवार बिखरता है ,कुछ टूटते-फूटते हैं , कुछ शराब पीने लगते हैं और कुछ आत्महत्या कर लेते हैं । जैसे पुरुष स्त्री जीवन और मर्म को नहीं समझ पाता ,वैसे ही स्त्री पुरुष-मन के उस अन्तद्र्वन्द्व को कहां समझ पाती है । कुछ दिनों पूर्व एम्स में ही कार्यरत एक सुन्दर महिला डाक्टर केाक्टर पति नें आत्महत्या कर ली थी । स्वाभाविक है कि सुन्दर पत्नी अपनी सुन्दरता की सामाजिक -सार्वजनिक प्रतिष्ठा भी चाहेगी । सहकर्मी देवरों में उसके मन को जीतने की होड़ लग गयी होगी । समीप की ऐसी उपसिथतियां एवरेस्ट शिखर बन जाती हैं । अगर पति सामाजिक रूप् से अधिक सज्जन हुआ या अपने मित्रों से उसके रिश्ते अधिक अन्तरंग और जटिल हुए कि वह खुल कर मित्रों को मना न कर सके तो वह पत्नी से ही अपेक्षा करेगा कि यह कार्य वही कर दे । मैं देखता हूं कि मैत्रेयी से भी उसके पति नें ऐसी ही अपेक्षा की होगी । इसीलिए बच गए । अन्यथा एम्स के ही इस दूसरे केस में कम संवेदनशील डाक्टर पत्नी के कारण उसके डाक्टर पति ने ंतो आत्महत्या ही कर ली थी ।
     स्त्री-विमर्श वाले दौर में प्राय: यह देखता हूं कि सांस्कृतिक-सामाजिक या फिर कानूनी रूप् से स्थापित मान्यता-प्राप्त अधिकारों के प्रति जब विद्रोह शुरू होता है तो सारे हमले उस पति-पुरुष पर होने लगते हैं ,जो उन मूल्यों का प्रतिनिधि और प्रतीक मात्र ही होता है । मैत्रेयी की आत्मकथा पढ़ते समय मैं बार-बार ऐसा सोचता रहा कि मुकाबला बराबरी का नहीं चल रहा है । लेखिका पत्नी का पक्ष तो पाठक के सामनें है ,लेकिन जैसे वास्तविक जीवन में मैत्रेयी पत्नी के रूप में समाज से छिपी रहीं, एम्स के डाक्टर पति की गुमनाम पत्नी की तरह ही पाठकों के लिए उनके डाक्टर पति का पक्ष भी अनुपसिथत है । यहां वे भी एक गुमनाम आम पति हैं । जब मैत्रेयी अपने पति के मित्र डा0 सिद्धार्थ के साथ अन्तरंग समर्पण प्रदर्शित करने चाला नृत्य कर रही थीं तो हो सकतेा है कि यह किसी भाभी का अपने कुंवारे धर्म-देवर के प्रति करुणा ही रही हो । क्योंकि आत्मकथा यह नहीं बताती कि डा0सिद्धार्थ को पत्नी भी थी या नहीं । अपनी पत्नी को परपुरुष के साथ उत्तेजक नृत्य करते देख सामाजिक और मानसिक दृषिट से यह पाठकीय जिज्ञासा भी उठती है कि  इसी समय मैत्रेयी के पति भी सिद्धार्थ की पत्नी के साथ नृत्य कर लेते तो स्वस्थ हो जाते । जीवन और आत्मकथा में ऐसे मोड़ आने पर ही यह स्पष्ट हो पाता कि धर्म-देवर डा0 सिद्धार्थ उस सीमा तक खुलकर मित्र की पत्नी के साथ जा पाते या नहीं या फिर अपने मित्र की पत्नी के साथ अपने डाक्टर पति को भी नाचते देखकर स्वयं भावी लेखिका मैत्रेयी पुष्पा को कैसा लगता ? इसतर इस आत्मकथा रूपी तराजू में सिर्फ एक ही पलड़ा है जिस पर स्वयं लेखिका बैठी हुर्इ है । पति वाले पलड़े की रस्सी ही टूटी हुर्इ है और वह परिदृश्य से पूरी तरह गायब या अनुपसिथत है ।
     मैत्रेयी को भी पढ़ते समय पाठक-मन को सबसे अधिक असुविधा वहां होगी जहां एक पक्ष तो संयम और निष्ठा प्रदर्शित कर रहा है और उसके आधार पर वैसा ही संयम और निष्ठा अपने वैवाहिक साझेदार से भी मांगता है । पत्नी के प्रति अपने समर्पण और संयम के कारण ही मैत्रेयी के पति किसी स्त्री-विमर्श के काल्पनिक पुरुष-पात्र की तरह पुरुष-उत्पीड़न के आदर्श प्रतीक नहीं बन पाते , न ही उन पर कोर्इ गम्भीर आरोप ही बनते दीखता है । उनका पति एक ऐसा मासूम अपराधी डाक्टर पति है जो एम्स में व्यस्त नौकरी करता हुआ ,मरीजों की दुनिया में अपनी आजीविका के लिए खोया सिर्फ इतने से ही आश्वस्त है कि वह अपनी पत्नी और बेटियों के लिए ही नौकरी कर रहा है । संभवत: अपने इसी समर्पण के कारण ही मैत्रेयी अपनी मां जैसी जिन्दगी जीने का सपना छोड़ देती हैं । वे विद्रोह नहीं कर पातीं । लेकिन उनके पास कुछ ऐसा अतिरिक्त प्रतिभा के रूप में है , जिसे बेटियां जिनमें उनका अपना भी जीन है ,जान और पहचान लेती हैं लेकिन उनके पति नहीं जान पाते । वे उनकी प्रतिभा पर एक बड़े अभिभावक पत्थर की तरह पड़े रहते हैं । इस दृषिट से मैत्रेयी का अंकुरण बहुत मार्मिक है । उनकी आत्मकथा के माध्यम से सित्रयों के उपेक्षित मानसिक संसार का ऐसा लोक सामनें आता है ,जो उनके पति की ही भांति पुरुष-प्रधान व्यवस्था में पला-बढ़ा भारतीय पुरुष शायद ही सोच पाए । मेरा सुझाव तो यह भी है कि मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा गुडि़या भीतर गुडि़या को भारतीय पतियों के लिए एक अनिवार्य पायपुस्तक घोषित कर देना चाहिए और हो सके तो नव-विवाहित पतियों को उपहार स्वरूप् भेट देनी चाहिए । कहीं ऐसा न हो कि जिसे वे एक पत्नी वस्तु के रूप में जीने जा रहे हों , उसमें कोर्इ मैत्रेयी छुपी बैठी हो और जिसकी प्रतिभा से समाज वंचित रह जाए । समाज के लिए तो हम गौतम बुद्ध द्वारा यशोधरा को ,राम द्वारा सीता को, सुभाषचन्द्र बोस द्वारा अपनी पत्नी को छोड़ा जाना बर्दाश्त कर लेते हैं और उन्हें क्षमा कर देते है। महादेवी वर्मा का भी साहित्य-सृजन के लिए शिशु-सृजन से विरत रहना अलग से पाठकीय श्रद्धा की मांग करता है । फिर मैत्रेयी जैसी प्रतिभा के लिए ,यधपि उन्होंने महावीर स्वामी की तरह लम्बी प्रतीक्षा क बाद ,परिवार के दायित्वों से मुक्त होकर ही लेखन में कदम बढ़ाया ,काफी प्रशंसनीय है और उनके संघर्ष के प्रति सम्मान का भाव जगाता है ।
        मैत्रेयी की आत्मकथा पाठकों के सामनें भी यह प्रश्न रखती है कि उनके पति उनके भीतर के कुछ को क्यों नहीं पहचान पाए ! जो अनुमान मैं लगा पाता हूं वह यह कि वे मैत्रेयी से विवाह कर उपकृत करने के भाव और अहंकार को जीते रहे होंगे । एक पिता-विहीन ग्रामीण क्षेत्र की कन्या से विवाह ,वह भी बिना दहेज लिए ,सिर्फ उच्चशिक्षित होने के कारण ,यहां तक कि सौन्दर्य के धन से भी वंचित ,जिसकी हीनता ग्रनिथ को लेखिका भी बार-बार अनेक अवसरों पर व्यक्त करती है-एक सीमा तक उनके पति की प्रगतिशील छवि भी सामनें लाती है । उन्होंने अपने ढंग से मैत्रेयी पुष्पा को समय से पहले पहचाना ,भले ही अपनी पत्नी बनाने के लिए ही सही-इस चुनाव के लिए ही सही मैं मैत्रेयी पुष्पा से असहमत होते हुए ,मर्दवादी पक्षधरता के आरोप के खतरे के बावजूद उनके पति का प्रशंसक होना चाहूंगा । हां,मैं उनको एक तानाशाह दुनियादार तंग-दिल पति अभिभावक भी अवश्य कहना चाहूंगा । मैत्रेयी के प्र्रति एक सतर्क प्रेमी पति का रूप वहां दिखता है जहां वे दिल-दुर्बल मित्रों और पत्नी को चारित्रिक स्खलन की भावी दुर्घटना से बचानें के लिए चुपचाप हास्टल छोड़कर किराए का मकान तलाशने निकल पड़ते हैं । एक ऐसी पत्नी ,जिसकी मां सार्वजनिक सेवा में होने के कारण भांति-भांति के पुरुषों से पेशे की आवश्यकता के कारण सहज रूप से मिलती हो । मैत्रेयी की अबोधता भी समझ में आती है और यह भी कि पति के सहकर्मी सामाजिक देवर डा0 सिद्धार्थ के प्रति ही सही ,उनके विवाहेतर आकर्षण का उनके व्यकितत्व निर्माण में अत्यन्त महत्व रहा होगा । यह एक अचेतन विद्रोह के रूप में भी हुआ होगा । उनसे विवाह कर पति ने जो एहसान किया था ,उस घमण्ड को चुनौती देकर उसे सुरक्षात्मक मोड में ला देना फिर संयमित जीवन जीकर स्वयं अपने पति पर एहसान लाद देना कि 'देखो! मैं नहीं भागी न ? मैत्रेयी के इस विवाहेतर प्रभाव-प्रसंग ने उन्हें उस हीनता ग्रनिथ से भी मुकित दी होगी जो सजने-संवरने वाली सित्रयों से कम आकर्षक होने के बोध के रूप् में उनके व्यकितत्व को कुणिठत कर रही थी । यह उनके दाम्पत्य के लिए काफी सन्तुलनकारी रहा होगा । अन्तत: प्रेम किसी के असितत्व और व्यकितत्व के महत्व की अन्तरंग स्वीकृति ही तो है ।  अपने इस मनोवैज्ञानिक नजरिए के कारण मैत्रेयी पुष्पा और उनके पति से एक साथ सहमत होने के कारण संभव है कि मेरा विश्लेषण प्रचलित-प्रायोजित नारीवाद के अधिक समीप न हो , लेकिन मानवीय चरित्र की र्इमानदार विशेषज्ञता वाला अवश्य होगा ।  
           स्त्री-मुकित और विमर्श की दृषिट से मैत्रेयी की पूर्ववर्ती आत्मकथा'कस्तूरी कुण्डल बसै समाजशास्त्रीय विश्लेषण की दृषिट से भी अधिक महत्वपूर्ण है । उसमें भारतीय सामाजिक विकास की ऐतिहासिता भी सुरक्षित है । यह वह दौर है तब शिक्षित होने की कीमत अनेक सित्रयों को अविवाहित रहकर ही चुकानी पड़ी है । अपनी बेटियों को शिक्षित देखने वाले अभिभावक एक क्रानितकारी जोखिम से गुजरते थे । मैत्रेयी की मां कस्तूरी भी इसी जोखिम से जूझती रहती है । प्रतिबनिधत ,सशर्त या सीमित स्वतंत्रता ही भारतीय समाज आधुनिकता के बावजूद सित्रयों को दे पाया है । इसका बहुत कुछ श्रेय रामकथा के साथ-साथ मुसिलम समाज का भी है । पाश्र्व-प्रभाव के स्तर पर अन्य सम्प्रदायों की सित्रयां भी व्यकितत्व और अर्थ की स्वतंत्रता के बावजूद एक सीमा से अधिक छवि की स्तंत्रता को नहीं जी पातीं ।
         यह अजीब है कि आधुनिकता और माक्र्सवाद के प्रभाव से भारत में सबसे पहले जाति-विमर्श और स्त्री-विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य में ही दलित-विमर्श भी आना चाहिए था । कारण कि तीनों उतनें असम्बद्ध नहीं हैं जितनें प्रतीत होते हैं । भारत में सम्पतित से अधिक जाति संस्था की सुरक्षा के लिए ही स्त्री को प्रतिबनिधत किया गया है । पुराणों में उन्मुक्त सित्रयों के अनेक चरित्र मिलते हैं । सती ,पार्वती ,रूकिमणी, गंगा और आम्रपाली आदि अनेक चरित्र प्राचीन प्रेम विवाहों की स्मृतियां संजोए हैं । लेकिन बाद में जैसे-जैसे जाति-प्रथा जड़ जमाती गयी स्त्री-बन्धन वाले शास्त्र भी बढ़ते गए । जाति की शुद्धता और स्त्री की पवित्रता दोनों ही अवधारणाएं एक-दूसरे की पूरक और पर्याय बन गर्इं । संभवत: यही कारण है कि मैत्रेयी पुष्पा और दोहरा अभिशाप की दलित आत्मकथा लेखिका कौशल्या बैसंत्री की पीड़ा में कोर्इ विशेष अन्तर दिखार्इ नहीं देता । दोनों के ही आशय और निष्कर्ष की मनोभूमि प्राय: समान है- ''पुरुष-प्रधान समाज औरतों का खुलापन बरदाश्त नहीं करता । पति तो इस ताक में रहता है कि पत्नी पर अपने पक्ष को उजागर करनें के लिए चरित्रहीनता का ठप्पा लगा दे । पुत्र,भार्इ,पति सब मुझ पर नाराज हो सकते हैं ,परन्तु मुझे भी तो स्वतंत्रता चाहिए कि मैं अपनी बात समाज के सामनें रख सकूं । मेरे जैसे अनुभव और भी महिलाओं को हुए होंगे , परन्तु वे समाज और परिवार के भय से अपने अनुभव समाज के सामनें उजागर करनें से डरती और जीवन भर घुटन में जीती हैं । समाज केी आंखें खोलनें के लिए ऐसे अनुभव सामनें आनें की जरूरत है ।(दोहरा अभिशाप ,परमेश्वरी प्रकाशन,दिल्ली,1999,पृष्ठ 7)
         परम्परागत सामाजिक यथार्थ के रूप में देखें तो आर्थिक दबाव में परिवार चलाने के लिए महिला-श्रम की आवश्यकता के कारण दलित जातियों में पुरुष-नियन्त्रण प्राय: ढीला-ढाला ही रहा है । वे खेत में साथ-साथ काम करते और दूकान चलाते देखी जा सकती थीं । आजीविका के लिए पति पर अधिक निर्भर नहीं रहनें के कारण कर्इ बार कर्इ-कर्इ पति बदल लेती थीं । कुछ-कुछ वैसा ही जैसा आज कल आधुनिका योरोपीय सित्रयां करती दिखार्इ पड़ती हैं । उच्चशिक्षित और उच्च-पदस्थ होनें पर कौशल्या बैसंत्री के पति देवेन्द्रकुमार नें प्रसिथति परिवर्तन के बाद उच्च-वर्ण में मिलनें वाले पतित्व को जीना चाहा होगा ,जबकि कौशल्या बैसंत्री के संस्कार और स्मृति इसके विपरीत थी । यहां देखा जाए तो मैत्रेयी को जो स्वतंत्रता पितृविहीन होने के कारण स्वाभाविक रूप से मिल गयी थी ,कौशल्या बैसंत्री नें उसे दलित जाति में जन्म लेने के कारण सहज रूप में ही एक स्मृति और संस्कार के रूप में प्राप्त किया था । पुरुष-प्रधान समाज के अनुभव होने ंके कारण ही भारतीय स्त्री का यह यथार्थ आम लगता है जो कि तेलगु दलित नारीवादी कवयित्री शशि निर्मला नें अपनी कविता में की है-'कहते हैं कोर्इ मुझे बना कर पीढ़ाखींच-खींचकर बैठेगेंडालकर नकेलमुझे हाकेगे-नचाएंगे(आधुनिकता के आर्इनें में दलित,सं0अभय कुमार दुबे,पृ0240 पर उदधृत)। इस तरह विमर्श के केन्द्र में जाति-सत्ता और पुरुष-सत्ता का वर्चस्व ही है। पुरुष-तंत्र की असली चिन्ता यह है कि स्त्री स्वतंत्र होगी तो सिर्फ पुरुष की अधीनता को ही अस्वीकार नहीं करेगी बलिक जाति की अधीनता को भी अस्वीकार करेगी ।
     विमर्श को उत्तेजित करने की क्षमता के आधार पर देखें तो मन्नू भंडारी की आत्मकथा 'एक कहानी यह भी अधिक शिष्ट,संयमित और शालीनता से लिखी जाने के कारण कम उपयोगी है । फिर भी वह नर्इ कहानी युग के साहितियक परिवेश की ऐतिहासिक स्मृति को संरक्षित करने के कारण ,राजेन्द्र यादव ,मोहन ,राकेश ,कमलेश्वर और स्वयं मन्नू भंडारी के जीवन और संस्मरण को संरक्षित करने के कारण महत्वपूर्ण 
है ।  मन्नू भंडारी की आत्मकथा 'एक कहानी यह भी नर्इ कहानी आन्दोलन के दौर के अति-महात्वाकांछी साहितियक परिवेश के साथ-सााथ मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव के समस्यात्मक दाम्पत्य के बीच मीता की त्रयी के माध्यम से सृजनात्मक महत्व के कर्इ खुलासे भी करती है । तनाव में ही सही मन्नू जी नें अपनी कर्इ खदानों के नाम-पते उजागर कर दिए हैं ,जहां की संवेदना रूपी पत्थरों से उन महान कृतियों की रचना हुर्इ है । यदि समय के साथ सारे प्रकरण खुलकर सामनें आते नही ंतो पता भी नहीं चलता कि मन्नू भंडारी अपने रचना-स्रोतों को छिपाने की कला में कितनी माहिर हैं । उनकी कहानी 'यही सच है को पढ़े और उनकी आत्मकथा को भी तो पता चलता है कि उस कहानी की नायिका तो उनकी आत्मकथा के नायक राजेन्द्र यादव ही हैं । सिर्फ लिंग और नाम का परिवर्तन किया गया है । इसी तरह उनकी बेटी को कलकत्ता भेजनें के प्रसंग से 'आपका बण्टी का सम्बन्ध देखा जा सकता है ।
    आत्मकथा में रेखांकित उनके समस्यात्मक दाम्पत्य जीवन को विश्लेषित करें तो मनोवैज्ञानिक तथा चारित्रिक दृषिट से प्रेम में माता और मीता को पानें का द्वन्द्व भी लगता है । मन्नू जी में राजेन्द्र यादव के प्रति करुणा ,वात्सल्य और मातृत्व भाव ज्यादा दिखता है । हंस में अपनी प्रसिद्धि का लक्ष्य पा लेने के पूर्व तक राजेन्द्र यादव की महत्वाकांक्षा के लिए मन्नू जी साहितियक प्रसिद्धि का सर्वोच्च लक्ष्य-शिखर रही हैं । राजेन्द्र यादव का यह प्रेम संरक्षण और सुरक्षा को तलाशने वाला प्रेम है । विवाह के पूर्व मन्नू जी राजेन्द्र यादव को बार-बार आश्चस्त भी करती रहती हैं । जाहिर है कि प्रसिद्धि के शिखर के स्तर पर मीता उनकी बराबरी नहीं कर सकती थी । मन्नू जी अपनी जीवन-कथा में इस बात के लिए सन्तोष कर सकती हैं कि राजेन्द्र यादव का पुरुष अहं कर्इ बार अपना वियर्जन करके उनके आगे-पीछे दुम हिलाता हुआ समर्पित हुआ । लेकिन अलग रहकर भी यदि क्षमा-भाव को ही जीना था तो बेहतर होता कि राजेन्द्र यादव के साथ ही रहतीं । उनकी आत्मकथा को पढंकर ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्घटना में विकलांग हो चुके राजेन्द्र यादव के लिए मन्नू भंडारी हमेशा वैसाखी की भूमिका में ही रही हैं । इन दिनों राजेन्द्र यादव की चल रही है और वे हंस के सहारे दौड़ ही नहीं रहे हैं बलिक उड़ रहे हैं लेकिन मन्नू भंडारी की वात्सल्यमयी प्रकृति को देखें तो यदि आज राजेन्द्र जी किसी प्रकार लडखड़ानें लगें तो वे तुरन्त सारे गिले-शिकवे भूलकर राजेन्द्र यादव के पास पहुंच जाएगीं । ऐसा मुझे लग रहा है । क्यों लग रहा है ,इसका कारण यह है कि बड़ी और संवेदनशील प्रतिभाएं प्राय: अकेली होनें के लिए अभिशप्त होती हैं और सिर्फ अपने अह ंके कवच में ही स्वस्थ रह पाती है। मुझे यह भी लगता है कि अभी के अलगाव का निर्णय मन्नू भण्डारी के साहितियक स्वाभिमान के विज्ञापन की आवश्यकता से भी उपजा है । यह भी कि अपने विचित्र वात्सल्यमयी प्रेम के कारण ही वे राजेन्द्र यादव को कुण्ठाओं से मुक्त जीवन जीनें देने के लिए या यह कहें कि खुलकर चरनें देनें के लिए उनके रास्ते से हट गयी हैं । इसके बावजूद मुझमें मन्नूजी के विवेक में ही भरोसा है । राजेन्द्र यादव ,मन्नू भंडारी और रहस्यमयी मीता का त्रिक प्रेम-सम्बन्ध कुछ अधिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की मांग करता है । मुझे उनकी मीता की जाति का पता नहीं है लेकिन यदि वे भी राजेन्द्र यादव जी की जाति से नहीं हैं तो जाति से बाहर प्रेम और सेक्स-सम्बन्ध ढूढ़ने ंके लिए उनका प्रगतिशील और क्रानितकारी प्रेमियों के रूप में अभिनन्दन किया जा सकता है । मन्नू भंडारी नें जब राजेन्द्र यादव के प्रणय-निवेदन के बाद उनसे विवाह का निर्णय लिया था तो वे कं्रानितकारी पिता से प्रेरित एक क्रानितकारी विवाह के निर्णय की आत्ममुग्धता को भी जी रही थीं । उच्चशिक्षित होने के कारण वे सहारा बन सकती थीं, दे सकती थीं ,सहारा लेना उनके स्वाभिमान की प्रकृति में नहीं हैं । अपनी आत्मकथा में भी वे एक शालीन महिला की तरह ही सामनें आती हैं । यदि वे आत्मनिरीक्षण करें तो एक असामान्य ग्रनिथ की सम्भावना उनमें हो सकती है । उनके चेतन और अचेतन मन के लिए जैसे परावलमिबत राजेन्द्र ही अधिक सुविधाजनक रहा है । यदि ऐसा है तो राजेन्द्र यादव एक अप्रकट अहंकार का दंश अवश्य झेलते रहे होंगे । एक बड़प्पन का प्रभामण्डल जिेसे वे अतिक्रानन्त नहीं कर पाये । समवत: इसीलिए राजेन्द्र यादव के सम्पूर्ण आत्मविश्वास एवं व्यकितत्व की मुकित के क्षण मन्नू भंडारी से अलगाव में ही घटित होते हैं । क्योंकि वे भी मनुष्य हैं इसलिए उनमें भी र्इष्र्या की गुंजाइश के रूप में देखा जा सकता है । इस सच के बावजूद मुझे साफ-साफ दिखता है कि अपने दाम्पत्य-जीवन की अधिकांश .त्रासदियों के लिए वे लगभग नहीं जिम्मेदार हैं । उन्होंने तो पूरे जोश में एक महान निर्णय के रूप में असुविधाओं से घिरे राजेन्द्र यादव से शादी की थी । फिर इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार कौन है ? राजेन्द्र यादव ? आत्मकथा बताती है कि त्रासदी मीता के विवाह से इन्कार कर देने और प्रेम पत्रों को वापस भेज देने से ही शुरू होती है । मीता की एक रहस्यमय आक्रामक प्रेम शैली । देखना यह है कि हमारा भी प्रिय साहितियक नायक फुटपाथ पर है । समय में सुन्दरता के मापदण्ड से प्रथम कोटि की पाठिकाएं-पें्रमिकाएं मोहन राकेश को गयी होंगी । क्योंकि वह समय उनकी ही प्रमुखता का था । हमारा नायक भविष्य का नायक है-कुछ-कुछ नेहरू के बाद के लालबहादुर शास्त्री जैसा । प्रेम के लिए भटकता नायक मीता तक प्रणय-निवेदन के साथ पहुंचता है। दो वरिष्ठ नायकों मोहन राकेश और कमलेश्वर की प्रतिस्पद्र्धा में मन्नू भंडारी का स्वावलम्बन से अर्जित यश और उनकी प्रापित ही हमारे साहितियक नायक को हीनता ग्रनिथ से उबार सकता था । संकोची व्यकितत्व के कारण आत्मकथा की नायिका अनारम्भी रही होगीं और प्रेम में पहल न करने वाली होने से संभवत: राजेन्द्र यादव को भी पहले विश्वास नहीं रहा होगा कि मन्नू एक दिन पूरे विश्वास के साथ उनसे विवाह का निर्णय कर लेंगी । इस असमंजस में नायक अपने प्रेम का वैकलिपक तलाश जारी रखता है । शायद मीता नें जब अपने मानवद्र्धन के लिए उनके प्रेम-पत्र लौटाए थे तो उसे लगा होगा कि मन्नू जी उसके अखाड़े में नहीं उतरेंगी । मन्नू जी की स्वीकृति की सूचना मात्र से तिरस्कृत नायक उसे अतिमहत्वपूर्ण लगने लगता है । वह पेम के अखाड.े में पुनर्वापसी का असफल प्रयास करती है । समय से जूझते नायक की लाटरी निकल चुकी है । वह एक ऐसा सहयात्री व्यकितत्व पा चुका है जिसकी उसे उम्मीद नहीं थीं । उसे छोड़नें का तो सवाल ही नहीं उठता जी ! 
           अब भी एक रहस्य बचा हुआ है कि त्रासदी कहां से शुरू होती है । मेरी दृषिट में रहस्यमयी मीता का आत्महन्ता देवदासी प्रेम ही वह प्रमुख कारक है जो हमारे साहितियक नायक को भीतर से विचलित करता रहता है । किसी के नाम पर विवाह न करना और बिना विवाह के रह जाना भी प्रतिशोध और सजा का एक आत्महन्ता तरीका है । हमारा नायक भीतरघाते खाता रहता है । सिर्फ पिता के रूप में ही उनकी आत्मकथा का नायक कुछ सामाजिक मर्यादाओं का पालन करता दीखता है । पूरी आत्मकथा अपनी पत्नी की शालीनता से आश्वस्त पति का चारित्रिक विचलन लगती है । इस तरह मन्नू भंडारी की आत्मकथा एक साहितियक नायक की छवि को खलनायक के छवि में रूपान्तरित करती है ।ं
      भारतीय समाज में स्.त्री होना ही असुरक्षित होना है । सिर्फ स्त्री होने के कारण ही आपकी हत्या हो सकती है । जन्म लेने से पहले भी और जन्म लेने के बाद भी । पर्स में एक भी रुपए न हों लेकिन राह चलते स्त्री होने के कारण ही अपहरण हो सकता है । हालात ऐसे हैं कि पालतू या घरेलू ही क्यों न हो कभी भी कोइ पुरुष रूपी कुत्ता पागल हो सकता है । सिर्फ सिथतियां अपराध कारित करने के अनुकूल सृजित होनी चाहिए । हमारे समाज की यह ऐसी भयावह सच्चार्इ है कि हम सब मनोरोगी हो गए हैं । समाचार पत्रों में जिस तरह की घटनाएं प्रकाशित होती हैं और कुछ न छपते हुए भी जिस तरह अगल-बगल के परिवेश से उभर कर कानों तक पहुंचती है । वह कर्इ बार अविश्वसनीय होते हुए भी सच होता है । ऐसा नहीं है कि यथार्थ का यह परिदृश्य इधर ही दो चार वषोर्ं में उभरा है ।
        आज से पचास -पचपन वर्ष पहले भी जब आजादी के आठ-दस वर्ष हुए होंगे ,मुझे याद है मां को एक नाविक घरानें की ग्रामीण स्त्री नें एक ऐसी बात बतार्इ थी ,जो आज भी मेरे मसितष्क में अनुत्तरित प्रश्न की तरह कौंधता रहता है । उन दिनों यातायात के साधन बसें आदि कम थीं । नदियों पर पुल नहीं थे । तैरनें वाले पीपे के पुलों के लिए ठीकेदार वसूली करते थे और नदियों में पानी बढ़ने पर सहसा ही पुल ढूढ जाते थे या फिर तोड़ देने पड़ते थे । वाराणसी में उच्च शिक्षा में अध्ययनरत युवती रही होगी । बस विलम्ब से आयी या उसनें पुल पार न कर पाने की सिथति में नदी के पार ही सवारियों को उतार दिया । नदी के दूसरी ओर वाली बस नहीं मिली होगी और प्रतीक्षा में अंधेरा हो गया होगा । यह सब मैं अपनी ओर से लिख रहा हूं क्योंकि बवपन में सुनी बात इतनी ही थी कि उस स्त्री नें सुना था कि कोर्इ प्रतीक्षा रत यात्री  युवती ठीकेदार से गिड़गिड़ा रही थी कि भैया छोड़ दीजिए । अब ठीकेदार नें छोड़ा या नहीं या जो किया उसके बाद हत्या कर नदी में ही फेंक देने का निर्णय तो नहीं ले लिया ? क्योंकि यह घटना वहीं घटित हुर्इ हो्रगी जहां लाशें जलार्इ या फेंकी जाती हैं ।तब नदियों में पानी बहुत था और डूबा हुआ सैंकड़ों किलोमीटर दूर बहकर जा सकता हैं । फिर गंगा जैसी नदियों में सांप आदि के काटे शवों को वैसे ही प्रवाहित कर देने की प्रथा है । सिर्फ कफन होने ं और कफन न होने के आधार पर सामान्य और असामान्य मृत्यु का अनुमान लगाया जा सकता है ।
       एक अन्य अविस्मरणीय प्रकरण विश्वविधालयीय शिक्षा-काल का है जब एक सहपाठी नें बिना पूछे ही बताया था कि अमुक नवागन्तुक छात्रा पहले अमुक विभाग में पड़ती थी । बोल्ड और सम्भ््रान्त घरानें की है । एक बार पिकनिक मनाने सहपाठियों के साथ गयी । संभवत: अन्य छात्राओं को अपने अभिभावकों से उस सैर-सपाटे की अनुमति नहीं मिली होगी । पहुंची तो अकेली छात्रा थी । पिकनिक में सहसा या फिर सुनियोजित सामूहिक पशुता जगी और सहपाठियों नें ही उसे मिल-जुलकर अपवित्र कर दिया । उसनें वह विभाग और वह विषय छोड़ दिया और क्योंकि दुनिया छोटी है ,इसलिए उसकी कीर्ति साथ-साथ ही पहुंच गयी होगी । अन्यथा उस सहपाठी को उसका गोपनीय अतीत कैसे मालूम होता । बहुत बाद में एक सेमिनार में वह मुझे फिर दिखी अध्यापिका के रूप में । उसनें अपनी प्रतिभा बचा ली थी लेकिन सिन्दूर से फिर भी वंचित रही वह । बिरादरी और अड़ोसी-पड़ोसी इसतरह की अपकीर्ति पर अपने ढंग से प्रतिशोध लेते हैं । संभवत: व्यावसायिक बिरादरी से थी । अनुमान लगा सकते हैं कि स्वजातियों ने किसप्रकार की टिप्पणियां की होंगीं । चली थी पढ़नें या फिर चले थे पढ़ानें ,और भुगतें ! इसतरह की एक भी दुर्घटना न पढ़नें -पढ़ाने वालों को सशक्त तर्क और औचित्य प्रदान करती है । या फिर दिल्ली में राह चलते फुटपाथ से वहशियों द्वारा किसी बड़ी कार में खींच ली गयी उस विवाहिता युवती को याद कीजिए ,जिस कार नें बिना ट्रैफिक सिगनल तोड़े समाज की सारी मर्यादाएं तोड़ दीं । ऐसे ही एक बार की यात्रा की याद है । भयानक कुहरे में जब सारी सवारियां पहले ही उतर गयीं और मैं भी उतरनें लगा तो उस प्राइवेट बस में बैठी हुर्इ आखिरी सवारी की चिन्ता नें मुझे भी विचलित कर दिया । कुछ ही दिनों पहले प्राइवेट बस में बारिश के दौरान यात्रा कर रही एक अकेली महिला यात्री से उसके ड्राइवर-कन्डक्टर द्वारा ही दुराचार की घटना अखबारों में छपी थी । उस समय मुझे यही सूझा था कि उस महिला का नाम-पता और बस नम्बर उन पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालनें के लिए नोट कर लिया जाय । 
       विधार्थी-जीवन में ही अधिक सामाजिक और लोकप्रिय होने के चक्कर में अपने ही सहपाठियों के बलात्कार की शिकार उस महिला ने कर्इ किताबें हिन्दी-विषय की अध्यापिका के रूप में लिखी थीं ; लेकिन वह आत्मकथा नहीं लिख सकती थी । उसनें उन दुराचारी सहपाठियों पर भी प्राथमिकी दर्ज नहीं करायी होगी । उसनें नयी स्मृति और नए कार्यक्षेत्र के लिए अपना विषय बदला । अपने दुखद और अपमानजनक अतीत को भुलानें के सृजनात्मक प्रयास में भिन्न क्षेत्र में सम्मान हासिल किया लेकिन उसनें आत्मकथा आज तक नहीं लिखी होगी । क्योंकि इसतरह की हिन्दी में किसी आत्मकथा की सूचना मेरे पास नहीं है ।
           प्रभाखेतान की आत्मकथा 'छिन्नमस्ता संभवत: अपवाद है और उसमें लेखिका नें अपनी अनभिज्ञ किशोर जीवन-काल की मूर्खताओं को भी बेबाक तटस्थता के साथ वाणी दी है । सृजनात्मक मुकित के अविस्मरणीय क्षण घटित करते हुए यह कृति लेखिका की आत्मा पर पड़े हुए अवसाद के पत्थर हटाती हुर्इ निखरती जाती है। प्रभाखेतान की आत्मकथाएं विरेचन का मनोवैज्ञानिक प्रयास लगती हैं । उनके जीवन में सामाजिक कम लेकिन व्यकितगत अधिक घटा है । वह पाठकों को अपने निजी जीवन के ऐसे वर्जित कोनों में ले जाती है जहां जो कुछ घट रहा है वह नितान्त वैयकितक है । पाठक यह भी नहीं सोच पाता कि वह इन लेखकीय अनुभवों का क्या करे ? वह किसी दूसरी दुनिया की कथा लगती है । लेखिका के परवर्ती बौद्धिक स्तर को देखते हुए आत्मकथा में प्रदर्शित भोलापन और अबोधता प्रायोजित एवं अविश्वसनीय लगती है । इसीलिए मैंने इसे परम्पराबत विवाह के लिए अनिच्छुक महिलाओं की दाम्पत्य-त्रासदी या फिर पाश्र्व-दाम्पत्य के रूप् में देखा है । स्वतंत्रता भी एक  सापेक्ष अवधारणा ही है । जातीयता में उपलब्ध पुरुष का असामान्य प्रतिभाशाली महिलाओं की दृषिट में पिछड़ा होनाविकास के एक विशेष काल-खण्ड में ऐतिहासिक सच्चार्इ भी है । प्रभा-खेतान की आत्मकथा इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अप्रत्याशित न होकर सुचिनितत और अपरिहार्य निर्णय के रूप् में सामने आती है । इस तरह की अधिकांश घटनाओं में यधपि भटकाव का भी एक साहसिक रोमांच होता है । कर्इ बार तो बचपन की बाल-सुलभ यौन-जिज्ञासा ही मानक चरित्र के राज-पथ से विचलित कर देती है ;लेकिन राहुल और अज्ञेय और राजेन्द्र यादव की तरह   ही इसे वरण की स्वतंत्रता की समस्या से जोछ़कर भी देखा जाना चाहिए ।
          बहुत पहले कृष्णा अगिनहोत्री की आत्मकथा के कुछ अंश एक पत्रिका में पढ़कर मैंने उनको पत्र भी लिखा था । उन्हे पढ़ते हुए मुझे लगा था कि बहुत से व्यवहार नितान्त वैयकितक भी होते हैं । कुछ लोगों के अनुभवों एवं संवेदनाओं का बहुत सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता । असामान्य मनोविज्ञान की सीमा में आने के कारण ही प्रभा खेतान और कृष्णा अगिनहोत्री की आत्मकथाएं जीवन की घटनाएं कम दुर्घटनाएं अधिक लगती हैं । व्यकितगत जिद और अहं,अलग रहने का निर्णय ,दूसरों को बर्दाश्त न कर पाने वाली असहिष्णुता जो कभी-कभी पति-पत्नी की एक-दूसरे से की गयी अधिक अपेक्षाओं का परिणाम भी होती है -कथापूर्ण होने के बावजूद बहुत अधिक पाठकीय सहानुभूति अर्जित नहीं कर पातीं । यधपि उनके साथ घटी दुर्घटना भी सामाजिक विकास और परिवर्तन की ऐतिहासिक त्रासदी की ही उपज है । वे एक आदर्श ,आधुनिक और उदार पुरुष की खोज में भटकती हैं । दरअसल आदर्श दाम्पत्य एक आदर्श सामाजिक अनुशासन में ही संभव है । असामाजिक-असम्बद्ध समर्पणविहीन दाम्पत्य की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती । आश्रित एवं अनुचर पुरुष-सहचर की खोज निर्भर,आश्रित या विकलांग दाम्पत्य में ही संभव है । व्यकितत्व की स्वंतंत्रता के साथ दाम्पत्य की खोज आज भी भारतीय समाज के स्त्री की प्रमुख समस्या है । क्योंकि दाम्पत्य एक सामाजिक अवधारणा है इसालिए स्त्री-विमर्श के नाम पर असामाजिक दाम्पत्य की परिकल्पना मैं नहीं कर पाता । हमें दाम्पत्य की सामाजिकता में ही सही स्त्री-विमर्श की तलाश करनी होगी ,यह दूसरी बात है कि सही स्त्री विमर्श सही सामाजिक विमर्श से ही संभव है । 
      ंहिन्दी में ऐसी बहुत कम स्त्री-आत्मकथाएं हैं जो पाठकों में अन्याय का संवेदनात्मक बोध और क्षोभ जगा पाती हैं । इस दृषिट से चन्द्रकिरण सौनरेक्सा, मैत्रेयी पुष्पा (कस्तूरी कुण्डल बसै के लिए ) मन्नू भेडारी और मैत्रेयी पुष्पा (गुडि़या भीतर गुडि़या के लिए ) की आत्मकथाएं क्रमश: उतरते क्रम में ठीक और प्रभावी लगीं । आंचलिक भाषा का पुट ,अभिव्यकित की मनोहारी सृजनात्मकता और आवेग की तीव्रता के आधार पर मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का जवाब नहीं है । उसे विवाहित पुरुषों को अनिवार्य पाठय-पुस्तक के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए ताकि वे दूल्हन के घूंघट में छिपी किसी मैत्रेयी पुष्पा को समय रहते ही पहचान सकें और समाज की अधिक क्षति न हो । हर जीवन वृहत्तर समाज की सम्पतित भी है ,उसे विवाह का लाइसेंस मिलते ही पुरुष अपनी निजी सम्पतित में बदलने लगता है । कभी-कभी ऐसा सुरक्षा एवं प्यार के नाम पर ही होता है , लेकिन भारतीय समाज में बार-बार विवाह करने के विकल्प पुरुष के लिए भी कम ही हैं ,कभी-कभी तो एक भी-सलमान खान और राहुल गांधी इसके प्रसिद्ध उदाहरण हैं । इसीलिए मेरे पाठकीय मन ने मैत्रेयी के डाक्टर पति का मरीजों को देखना छोड़कर अपनी पत्नी की जासूसी के लिए आवास पर असमय आ जाना क्षम्य लगा । रिश्ते बन जानेे के बाद रिश्तेदार को बचाना भी स्वयं को बचाने के समान ही हो जाता है । पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के लिए पुरुष की एक भूमिका सुरक्षा-डाग की भी है । क्यों कि पुरुष रूपी कुत्ता कभी भी पागल होकर किसी भी महिला को कभी भी काट सकता है । इस लिए मेरा व्यावहारिक सुझाव न चाहते हुए भी यह रहेगा कि स्त्री-विमर्श एवं परिवर्तनकारी जागरूकता अभियान चलता रहे लेकिन वास्तविक जीवन में आपराधिक संभावनाओं को देखते हुए स्वतंत्रता के जोखिमपूर्ण आत्मविश्वास से बचें क्योंकि आपराधिक जीन विवेक और विचार से नहीं संचालित होते ।
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