रविवार, 10 फ़रवरी 2013

भारतीय आध्यात्मिकता ,ईश्वर और लोकतन्त्र

               ( सत्ता का संस्कृति विमर्श )         


अधिकांश लोग ईश्वर की अवधारणा को सर्वकालिक और सर्वशक्तिमान सत्ता की उपस्थिति के रूप में स्वीकार करते हुए उसके सामाजिक स्रोत,सामाजिक भूमिका और मानवीय परिणामों को अनदेखा करते हैं .वे यह भूल जाते हैं कि भारतियों की अधिकांश सांस्कृतिक अवधारणाओं का विकास एक जाति विशेष ने किया है .अपने पेशेगत कारणों से इस जाति विशेष नें जो अपने लिए भी चरित्र ,नीति और मर्यादाएं निर्धारित की ,वे राजतंत्र व्यवस्था की निष्ठां के कारण ,इस सीमा तक राजनीतिक महत्वाकांक्षा से हीन विकसित किया गया है कि वह पूरी भारतीय संस्कृति को एक आज्ञाकारी शासित संस्कृति में बदल देता है .
               सबसे पहले तो पुनर्जन्म ,भाग्यवाद और कर्मवाद की अवधारणा के कारण यह राजा को ईश्वर की इच्छा ,प्रारब्ध एवं नियति के अनुसार राजप्रप्ति के रूप में पहले से ही विशिष्ट मानव घोषित करती है .इसमें संदेह नहीं कि इन विश्वासों नें अंतर्समुदायिक विश्वासघात ,नेतृत्व की अराजकता और महत्वकांक्षी प्रतिस्पर्धा को रोका है .दरअसल यह पूरी संस्कृति और धार्मिक आचार-संहिता वंशानुगत उत्तराधिकार को केंद्र में रखकर रची गई थी .इसमें निःसंतान होनें तक कोई भी राजतंत्र कई पीढ़ियों तक चलता रह सकता था .
                यद्यपि कई बार तो मंत्री और सेनापति का पद भी आनुवांशिक था लेकिन राजा को यह अधिकार था की वह जाती-विशेष से ही किसी अन्य योग्य ब्राह्मण को भी मंत्री के रूप में चुन सकता था .यद्यपि साचा तो यही है कि हर परिवार के अपने वंशानुगत पुरोहित परिवार होते थे .उसी तरह मंत्री के परिवार से ही कोई मंत्री बन सकता था .इस व्यावस्था नें मंत्री बनाने की कूटनीतिक साज़िशों और प्रतिस्पर्धा को रोका .
                   दरअसल यह एक स्थाई कृषि-आधारित समाज की सांस्कृतिक व्यवस्था थी ,जिसमें किसान का कृषि -क्षेत्र और उपज सामर्थ्य तक सुनिश्चितथी .कृषि-आधारित स्थाई संस्कृति ने ये सारे सामाजिक-सांस्कृतिक चरित्र और भूमिकाएँ निर्धारित की थीं .इसी के अनुरूप जातीय चरित्र और उसका संस्कारगत प्रशिक्षण -तंत्र भी विकसित किया था .
                      ब्राह्मण-वर्ण का जातीय चरित्र उसके राजनीतिक उसके राजनीतिक व्यवस्था से महत्वाकांक्षा -शुन्य रहने की मांग करता था .समाज में राजा के बाद की पद व्यवस्था के कारण यह जाती जिस धर्मं-व्यवस्था और संस्कृति की अचेतन प्रस्तावना कराती है वह किसी और के नेतृत्व का समर्थनकारी व्यक्तित्व रचता है .वह शासक को सम्मान से देखने की संस्कृति का प्रस्तावक है .आपनी इस मानसिक व्यवस्था के कारण ब्राह्मण-जाति और उसके द्वारा प्रस्तावित संस्कृति किसी भी शासक के लिए अनुकूल और समर्थन की भूमिका में रही है .
                      क्योंकि भारतीयों की अधिकांश धार्मिकता और संस्कृति के केंद्र में ब्राह्मण-दृष्टि और मानसिकता की ही केन्द्रीय भूमिका है ,इस लिए इनकी मानसिकता के अनुरूप भारतीयों का धर्मं और ईश्वर भी शासक-समर्थक मानसिकता को पोषित करता है .वह दरअसल राजतन्त्र और वंशानुगत उत्तराधिकार की संरक्षक अवधारणा और विश्वास के तन्त्र के रूप में है .
                      इसका नियतिवाद क्योंकि कृषि -सभ्यता का स्थायित्व वाद ही है ,इसी लिए इसकी ईश्वर और धर्मं सम्बन्धी सभी सांस्कृतिक अवधारणायें यथास्थितिवाद की पोषक तथा बेहतर नेतृत्व की दृष्टि से प्रतियोगिता एवं प्रतिस्पर्धा की निषेधी हैं .यह संस्कृति भारतीयों में व्यापक लोकतांत्रिक उदासीनता को जन्मा देती है .इसका दूसरा दुष्परिणाम भारतीय राजनीति में परिवारवाद की स्वीकृति और व्यापक जनसमर्थन है .इससे भारत में लोकतान्त्रिक सत्ता कुछ ही परिवारों में सिमट कर रह गई है .अच्छा या बुरा जो कुछ भी हो रहा है ,उन्ही के माध्यम से हो रहा है .क्योंकि भारतीयों की दार्शनिक,धार्मिक और सांस्कृतिक अवधारणाएं बहुत कुछ चारण जाती की भूमिका वाली पुरोहित जाति नें रची है,इसलिए यह शासक -वर्ग को चुनौतियों से परे  का  सत्ता का स्वर्ग -लोक प्रदान करता है .