यह जिज्ञासा मुझे युवावस्था से ही परेशान करती रही है कि भारतीय परम्परा में ही मोक्ष और मुक्ति का इतना घनघोर लक्ष्य क्यों है ?
जीवन का पुरुषार्थ चतुष्टय या यह कहें कि लक्ष्य-विभाजन- धर्म ,अर्थ,काम और मोक्ष में मोक्ष को अंतिम लक्ष्य घोषित करने का मनोवैज्ञानिक औचित्य तो समझ में आता है -यदि उसे मृत्यु ,विसर्जन और अंतत: सर्वस्व त्याग कर इस दुनिया से चले जाने के पूर्वाभ्यास या मानसिक तैयारी के रूप में देखें । इस रूप में मोक्ष या मुक्ति को खुशी-खुशी मरने की मानसिक तैयारी या यह कहें कि मरने से पहले मनसा सब कुछ छोड़ देने का बौद्धिक प्रयास भी कह सकते हैं । यदि मोक्ष और मुक्ति की अवधारणा इसी रूप में है तो फिर आपत्ति की कोई बात नहीं ।
लेकिन भारतीय धर्म-ग्रन्थों में मोक्ष और मुक्ति का जिस तरह महिमामंडन हुआ है और उसको जिस प्रकार गूढ़ और गंभीर दार्शनिक अवधारणा के रूप में विकसित किया गया है । उसकी ऐसी अवधारणात्मक दुरूहता और रहस्यमयता के पीछे उसका पुनर्जन्म की अवधारणा से जोड़ दिया जाना , इस दुनिया को भर्त्सना योग्य,माया के रूप में मिथ्या और त्याज्य घोषित करना यानी की नकारात्मक-निषेधात्मक जीवन-दृष्टि को आदर्श घोषित करना । नकारात्मकता को ही जीवन के काम्य लक्ष्य के रूप में महिमामंडित किया गया है-जिसकी प्राप्ति के लिए सन्यासियों की पूरी सेना ही लगी हुई है । जिसे देखो वही सन्यासी बना घूम रहा है । यह सब एक गम्भीर रूप तब ले लेता है जब बाह्य जगत के प्रति आसक्ति यानी कि माया के विरुद्ध मुक्ति का आत्म-संघर्ष इच्छाओं को ही बंधन का मूल कारण घोषित कर देता है । इच्छाएं करना ही पाप का आधार बन जाता है । इसमें सबसे गंभीर बात यह है कि हमारी इच्छाओं का संबध हमारी कर्मेन्द्रियों के लक्ष्य यानी परिचालन के उद्देश्य से है । हमारे सृजन से है । कह सकते हैं कि इच्छाएं ही हमारे द्वारा किए जाने वाले कार्यों एवं होने वाले सभी प्रकार के सृजन का मूल,आधार या भ्रूण हैं । दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक प्रश्न यह है कि साधना के लिए इस इच्छाओं की भ्रूण-हत्या को इतना अधिक महिमामंडित क्यों किया गया है ! इससे किसको फायदा है ? होने की स्थिति में किसी ईश्वर को मनुष्य की इच्छाओं से क्या आपत्ति हो सकती है ! यदि जरूरी है तो इस इच्छा-हत्या से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसको लाभ होने वाला है ? यदि किसी ईश्वर को तो किस प्रकार ? यदि साधक मनुष्य को तो वह भी किस प्रकार ? या यह जरूरी ही है तो किस प्रकार भारतीय मनुष्य के लिए जरूरी है ? या यह कहीं भी जन्में हुए दुनिया के किसी भी मनुष्य के लिए भी जरूरी है ?
ऐसा मुझे नहीं लगता कि इससे मिलते-जुलते प्रश्न प्राचीन भारतीय मनीषियों के मन में नहीं आए होंगे । न आए होते तो वे प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग की कल्पना ही न कर पाते । साफ देखा जा सकता है कि तत्कालीन सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के कारण ही प्राचीन भारतीय मनीषियों ने मुक्ति के विचार को सामाजिक दबाव और व्यवस्था जनित आवश्यकताओं के रूप में पहचानने और परिभाषित करनें से रोका ।
भारतीय दार्शनिकों की मुक्ति की अवधारणा को भारतीय जीवन और समाज से जोड़कर देखते यानी मुक्ति-विचार के औचित्य की परीक्षा करते चलें तो मुक्ति के सत्य तक पहुँचने में आसानी होगी । जैसे कि यही कि प्राचीन भारतीयों के लिए मुक्ति की यह साधना क्यों और किस प्रकार जरूरी थी ! इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि मुक्ति की साधना करना हमारे भारतीय पूर्वजों की क्या मजबूरी थी ?
(1-जारी और अपूर्ण )