मंगलवार, 31 मई 2016

शेयर और गुरु-मंत्र

सिर्फ मैं ही नहीं हूँ 
दूसरे भी हैं मेरे साथ
मेरे समय में .....
सब मेरे लिए नहीं हो सकता
न मैं सभी के लिए हो सकता हूँ
हमें जीना जानना और अधिकार
सभी कुछ बाटना होगा ....
हम सिर्फ इतना ही जान सके हैं अब तक
कि हवा अधिक दबाव से
कम दबाव के क्षेत्र की ओर बहती है
और जल प्रवाहित होता है
ऊपरी तल से निचले तल की ओर ...
लेकिन ज्ञान !
हम अपनी अज्ञानता पर शरमाते हुए भी
चुपके-चुपके दूसरों से सीखते और
स्वयं को सुधारते जाते हैं ,,,,
समस्या कुछ इस तरह है कि
हमारे कसबे में
ज्ञान की एक साथ खुल गयी हैं कई दूकाने
सडक के दोनों ओर
ज्ञान भिक्षुओं का इंतज़ार कर रहें हैं
प्रदाता कोच और उनकी कोचिंग ...
वहां बैठा हर ज्ञानी
पूरेआश्वासन के साथ
जीवन का पूरा सत्र मांगता है ....
सुना है ज्ञानी होना आसान है
लेकिन समझदार होना कठिन
बहुत पहले मेरे गुरु नें दी थी यह चेतावनी
यदि तुम सफलता चाहते हो तो
अपनी अतिरिक्त समझदारी को छिपाए रहो
कि अपने समय के औसत दिमाग से
अधिक समझदार होना खतरनाक है
कि सुकरात मारा गया था अपनी समझदारी
न छिपा पाने के अपराध में
और युधिष्ठिर सिर्फ नैतिक और मूल्यजीवी बने रहने के प्रयास में
पत्नी द्रौपदी से हाथ धो बैठा ....
गुरु नें कुछ ऐसी भी दी थी सीख
कि सिर्फ अपने अहंकार को ही नहीं
अपने स्वाभिमान की उगी हुई सींगों को भी
यत्नपूर्वक छिपाए रहो ..
लोग उनका खुलेआम दिखना बर्दाश्त नहीं करते
कि तन कर खड़े होने से
झुककर बैठना अधिक आरामदायक होता है ''
उनकी सारी सीखों के बाद भी
बार-बार कर जाता हूँ गलतियाँ
जहाँ चुप रहना चाहिए बोल जाता हूँ वहां
जहाँ रुक जाना चाहिए उसके बाद भी लिखता जाता हूँ अलेख्य
उन्होंने यह भी कहा था कि
सुनिश्चित सफलता के लिए-
किसी भी साक्षात्कार में वैसा कुछ भी नहीं बताना
जिसे तुम सच समझते हो और वह वास्तव में सही भी हो
या जो सही होते हुए भी हो इतना मौलिको कि लोग
उसका विश्वास ही न कर सकें
बताना सिर्फ वही और उतना और वैसा ही सच
जितना कि प्रश्न पूछने वाला सच के रूप में जानता हो
जैसा कि सामने वाला जानता हो
और तुमसे भी सुनना चाहता हो ...
गोया ऐसे कि तुम्हें सच को नहीं बल्कि
सच के बारे में पूछने वाले को बूझना है
कि मौकरी पाना है तो सच के दंभ को नहीं
विद्वानों की अज्ञानता के प्रति सम्मान-भाव जीना सीखो
उन्हें प्रभावित करते हुए भी उन्हें इसका पता ही न लगने दो
कि वे तुमसे कितना कम जानते हैं....
(मानों सबसे सफल और सच्चे ज्ञानी
सिर्फ अपने ज़माने की दुर्बलुाताओं से
कदमताल करने वाले लोग हैं )
हे गुरुवर ! तुम्हारी दी हुई सारी शिक्षाएं याद हैं मुझे
लेकिन मैं उनका अतिक्रमण करने का अपराध करता रहा हूँ
अब मैं भी आपकी तरह बूढ़ा और अनुभवी हो चला हूँ
लेकिन मुझे लगने लगा है कि
हमेशा सुरक्षित और अनुशासित जीवन जीना
मानव जाति के हित में नहीं होता
कि इस दुनिया को बदलने के लिए
कुछ रोमांचक और मौलिक मूर्खताएं भी घटित होती रहनी चाहिए
कभी-कभी निकलना ही चाहिए बुद्धं की तरह
महल और सुख की सारी चिंताएं छोड़ कर ...
चुनना चाहिए अपमानों और अपराधों का शिकार होने की
संभावनाओं वाला जोखिमपूर्ण वर्जित रास्ता
नए बेहतर रास्तों की खोज के लिए ....
बाहर के सारे रस्ते भीड़ से भरे हुए हैं
बेहतर क्या होगा किसी के भी लिए -
वह यात्रा स्थगित कर दे और घर से ही न निकले
निकले और वह भी डूब जाए भीड़ को चीरते-तैरते हुए अपने गंतव्य की ओर
भीड़ के छटने का और पथ के मुक्त होने का इंतजार करे
स्वयं रुका रहे दूसरों को रास्ता देने के नाम पर
या दूसरों के साथ चले ....
सच तो यह है कि इसमे से कुछ भी सोचनीय नहीं है
कि जनसँख्या-वृद्धि ( भीड़} मानव जाति के उत्तरधिकरियो
प्रतिनिधियों का वैकल्पिक उत्पादन है
कि हर व्यक्ति वैकल्पिक और फालतू रूप से पैदा हुआ है
मानव-जाति की सुरक्षा और अस्तित्व की निरंतरता के लिए
हर व्यक्ति अपनी ओर से कुछ बोलना चाहता है और शोर उत्पन्न कर रहा है
एक समय में कुछ लोगों के चुप होने की जरुरत है कि
कुछ अच्छा बोलते लोगों को साफ-साफ सुना जा सके
इस सच्चाई की परवाह किए बिना कि
कि एक समय में अधिकांश लोग
एक जैसा ही सोचते-समझते और बोलते हैं ..
शर्त सिर्फ इतनी ही है कि जो बोल चुके हैं
उनका चुप होकर बैठ जाना जारी रहना चाहिए
कुछ बोलते लोग एक ही बात दुहराए जा रहे हैं मंच पर
यद्यपि वे थक गए हैं
फिर भी बोलते हुए दिखना चाहते हैं देर तक
मेरे पास अपने बोलने का कोई वाजिब कारण नहीं है
सिर्फ इस चिढ़ के अतिरिक्त
कि जो बोला जा रहा है उससे मेरी असहमति बढ़ गयी है
तब जबकि मैं न भी बोलूँ
सभी को सुनते रहने के लिए अभिशप्त हूँ
अस्तित्व की आवृत्ति एवं बारम्बारता वाली दुनिया में
जबकि संगठित होकर अपराध करने वाले गलत्कारियों की संख्या बढ़ गयी है
हमें इस दुनिया को शेयर करते हुए ही जीना चाहिए
छोड़ कर बार-बार हटने की इच्छाओं के बावजूद
मैं अभी फेसबुक पर बना रहना चाहूँगा
शेयर करते हुए
जो जहाँ और जितना है
वहां और उतना उसके लिए उसके हिस्से की दुनिया छोड़कर ....
( श्रद्धेय गुरुवर स्वर्गीय विजय शंकर मल्ल जी की पावन स्मृति को समर्पित )

रामप्रकाश कुशवाहा
३१.०५.२०१६