मंगलवार, 17 मई 2016

परशुराम

सामान्यतः परशुराम को सामंती अभिजन के विरुद्ध सामान्य आदमी के प्रतिरोध के रूप में देखा जाता है .कथा के अनुसार सहस्रार्जुन नामक राजा जमदग्नि ऋषि के आश्रम में भव्य आतिथ्य पाने के बाद उनकी गाय कामधेनु पर रीझ जाता है और उसे ऋषि से अपने लिए मांगता है .ऋषि द्वारा मना करने पर उनकी गाय को बलपूर्वक ले कर चल देता है .ऐसे ही प्रतिरोध के क्षण में परशुराम के आदर्श नायक रूप का उदय होता है .वे पीछे से जाते हैं और प्रत्याक्रमण कर राजा सहस्रार्जुन का उसके सैनिकों संग संहार करते हैं और अपनी गाय कामधेनु को वापस लाते हैं . वे जनसामान्य के विरुद्ध सामंती निरंकुशता के प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में ही पुरानों में विष्णु के आवेशावतार के रूप में समादृत हैं .विष्णु का चरित्र भारतीय संस्कृति में लोक-कल्याण के प्रति समर्पित जीवन और कार्यों का प्रतीक रहा है .कथा में वे दमित-शोषित वर्ग के सात्विक क्रोध के प्रतीक हैं .उनके क्रोध में एक स्पष्ट सन्देश निहित है . लेकिन तब आप क्या करेंगे जब वही परशुराम आपको एक नए अत्याचारी और हिंसक अभिजन का नया पाठ रचते दिखें .
            पौराणिक नायक होने से परशुराम जी को सांस्कृतिक नायक होने का गौरव प्राप्त है..रामकथा में राम से नहीं उलझकर और चुपचाप यानि क्रोध से चीखने-चिल्लाने के बाद उनका चले जाना राम को आशर्वाद देने वाला और उनकी महिमा बढ़ाने वाला ही माना जाता है,
जब मैं यह जानने का प्रयास करता हूँ कि वास्तव में वहां क्या हुआ होगा तो सबसे पहले यही लगता कि ऐसी कोई घटना घटी भी होगी तब आर्य कबीलों नें ऐसे स्थान पर प्रवास किया होगा जहाँ के राजा ब्राह्मणों को भी अबध्य नहीं मानते होंगे-यदि मानते भी होंगे तो सहस्रार्जुन द्वारा गाय छीनने के बाद परशुराम द्वारा राजा की हत्या कर देने पर उसके पुत्रों नें प्रतिशोध वश उनके पिता जमदग्नि की हत्या कर दी होगी.इस द्वंद्व में सांस्कृतिक संयम यावर्जनाएं टूट गयी होागी. दूसरा उनके आपराधिक स्तर के क्रोधी होने की बात भीसामने आती है. यह भी कि परशुराम वास्तव में अंधविश्वास युग के नायक हैं.उन दिनों ब्राह्मण अबध्य माना जाता था. स्पष्ट है कि वे सभी क्षत्रिय जो उनके हाथों मारे गए उनके परिजनों में से अधिकांश नें ब्रह्म-हत्या के डर से किसी नें भी बाण आदि से उन पर हमला नहीं किया.किसी का पुत्र यदि बदला भी लेता तो उस परिवार को ब्रह्म-हत्या का दोषी मान लिया जाता.. इस आधार पर मुझे उनकी वीरता संदिग्ध लगती है. मेरे पिताजी कहा करते थे कि मुझे कोई नहीं मारे तो मैं सारी दुनिया को मार सकता हूँ.. परशुराम नें कोई पुस्तक नहीं लिखी है शायद-लिखी हो तो मुझे इसकी जानकारी नहीं. हाँ वे प्रतिष्ठित ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे. पिता नें मा के चरित्र पर संदेह कर परशराम से उनकी हत्या करवा दी थी. क्योंकि हत्या नाबालिग अवस्था में की थी -इसलिए आज के क़ानून के अनुसार भी उन्हें फांसी की सजा नहीं हो पाती. फरसा एक ऐसा हथियार है जिससे हत्या बहुत ही समीप जाकर ही की जा सकती है . यह भी संभव है कि परशुराम जी नें अधिकांश क्षत्रिय राजाओं की हत्या पैर छूकर प्रणाम करते समय ही धोखे में की हो.आखिर वे ऋषि वेश धारी हत्यारे थे यदि उन्होंने. ऐसा किया होगा तो इसमें वीरता जैसी कोई बात नहीं दिखती
.गीता प्रेस ,गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण के अवतार कथांक ,जनवरी २००७ ,वर्ष ८१ ,संख्या १ के पृष्ठ २२६ पर दिए गए विवरण को पढ़ा तो उनके नर-बलि में लिप्त होने के प्रबल संकेत भी मिले .कुछ अंश की अविकल प्रस्तुति इस प्रकार है – “भगवान् परशुराम नें पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से हीं कर दिया .वे क्षत्रियों को ढूँढ-ढूंढ कर एकत्र करते और कुरुक्षेत्र में ले जाकर उनका बध कर डालते .इस प्रकार परशराम जी नें क्षत्रियों के रक्त से पांच सरोवर भर दिए .वह स्थान ‘समन्तपंचक’ नाम से प्रसिद्ध है “ इस विवरण को जरा ध्यानपूर्वक पढ़ें .परशुराम जी नें यह नरसंहार कोई सेना बनाकर नहीं किया था .यह तो लिखा है कि वे जाति-विशेष के लोगों को एकत्र करते थे .अप्रत्यक्ष सूचना यह भी है कि तीर्थ के लिए ले जाते थे .कोई सामान्य बुद्धि वाला भी यह समझा सकता है कि लोगों को मारने के लिए डरा कर या बलपूर्वक हांक कर मरने के लिए नहीं ले जाया गया था .उन्हें अपना उद्देश्य छिपाकर तीर्थ-यात्रा के बहाने ले जाते थे और फिर उनकी हत्या कर देते थे .उनकी कार्य-शैली ब्रिटिशकालीन ठग-हत्यारों पिंडारियों जैसी ही थी . 
इसके बावजूद परशुराम की मूल पौराणिक कथा का केंद्रीय संवेदनात्मक पक्ष सामंत राजाओं के मनमानेपन का विरोध ही माना जाएगा .इस अर्थ में यह एक सार्थक कथा कही जा सकती है कि समाज नें किसी वर्ग को यदि कुछ विशेषाधिकार सौंपे हैं तो उस विशेषाधिकार का दुरुपयोग करने पर समाज को यह अधिकार है कि वह प्रदत्त विशेषाधिकार वापस ले ले या समाज भी उस वर्ग या समूह से वैसा ही व्यवहार करे जैसा कि वह वर्ग या समूह बाकी समाज के साथ कर रहा है .
परशुराम की कथा में सामंत शासक सहस्रार्जुन जमदग्नि की कामधेनु गाय को बलपूर्वक छीनने का प्रयास करता है.परशुराम अपने जातीय मर्यादाओं और अनुशासन को तोड़ डालते हैं क्यों कि दूसरा वर्ग इसे पहले ही तोड़ चूका है .उससे उसी के स्तर पर निपटा जा सकता है ..इसके बाद की कथा जैसे प्राचीन कालीन दो माफियाओं के खूनी युद्ध में बदल जाती है.ऐसा लगता है कि प्रतिशोध की आग में जल रहे परशुराम ने अपना शेष जीवन असामान्य मनोविज्ञान के एक केस की तरह क्रूर मनो-विक्षिप्त हत्यारे के रूप में बिताया था .वे शासक जाति के लोगों को तीर्थयात्रा के नाम पर ले जाते रहे और बीच में लोगों की हत्या कर देते रहे .पहले ज़माने के लोग क्योकि हर चरित्र ईश्वर की इच्छा से प्रेरित मानते थे इसलिए उनके हत्यारे रूप को भी ईश्वर की लीला के रूप में स्वीकार कर लिया गया . 
यद्यपि मूल चरित्र और वास्तविक घटना पर काफी लीपापोती की गयी है .ऐसे स्थलों को थोडा सा ही विचार कर पहचाना जा सकता है .बहुत पहले बचपन में पढ़ने के कारण स्मृति के आधार पर मैंने फेसबुक पर की गयी अपनी पोस्ट में उन्हें मात्र माँ का ही हत्यारा समझा था लेकिन गीता प्रेस ,गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण के अवतार कथांक ,जनवरी २००७ ,वर्ष ८१ ,संख्या १ के पृष्ठ २२६ पृष्ठ २२४ पर दिए गए विवरण के अनुसार उन्होंने माता सहित चार सगे भाईयों की भी हत्या कर दी थी .सामान्यतः इसे पितृ-–भक्ति का उदहारण माना जाता है. कथा में यह चमत्कारिक प्रसंग भी डाला गया है कि बाद में प्रसन्न होकर जमदग्नि ऋषि नें अपनी दिव्य शक्ति से परशुराम की माता और उनके मृत चरों भाइयों को पुनर्जीवित कर दिया था .लेकिन बाद के घटनाक्रम में जिस प्रकार भाई सदैव ही अनुपस्थित रहते हैं –उससे यह तथ्य स्वतः प्रमाणित होता है कि परशुराम सदैव के लिए अपने भाइयों को खो चुके थे .क्योंकि सहस्रार्जुन के पुत्रों द्वारा उनके पिता का सिर काटते समय पौराणिक कथाकार के अनुसार उनके भाई भी उनके साथ वन में दूर चले गए थे .
पौराणिक कथाओं में ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि मारे गए क्षत्रिय राजा उनसे लड़ने की इच्छा रखते थे. या उन्हें लूटने आए थे. हमला करने की सोच रहे थे. बस एक ही कारण समझ में आता है कि माता का हत्यारे जानकर उससमय के राजा भी उनका यथोचित सम्मान करने में कतराते होंगे. .अपमानित महसूस कर विद्वेष वश परशुराम नें उनकी हत्याएं कर दी होंगी.वे राम की हत्या क्षत्रिय होने के कारण इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि विष्णु का अवतार उन्हें ब्राह्मण जाति जन्म से पहले ही मान चुकी थी. विष्णु के रूप में राम को भी परशुराम की तरह किसी की भी हत्या करने का धार्मिक-सांस्कृतिक लाईसेन्स प्राप्त था. राम परशराम की भी हत्या कर सकते थे-स्वर्ग भेजने के नाम पर.परशराम स्वर्ग जानेसे बचने के लिए चुपचाप वहांसे खिसक लिए.सन्देश यह कि हमारे बहुत से पुरखे गलत भी हो सकते हैं..उन्हें बिना सोचे-समझे अपना गौरव बढ़ाने वाला जातीय नायक घोषित करने से बचें.आज के लोक तांत्रिक समय में ऐसे जातीय नायकों को अपना आदर्श मानना उचित नहीं है. 
यद्यपि मैं आज तक यह नहीं समझ पाता हूँ कि यदि पुराणकार यदि अतिचारी सामंत शासकों के विरुद्ध यदि एक प्रतिरोधी नायक गढ़ना चाहते थे तो उसमें माँ और भाइयों की हत्या करने का प्रसंग क्यों डाला ? यदि इस लिए डाला कि वास्तविक परशुराम नें किशोरावस्था के पूर्व पारिवारिक हत्याएं भी की थीं और पूरणकारों नें ईमानदारी से उसका अविकल वर्णन किया है तो यह पुराणकारों के पक्ष में तो प्रशासनीय ही कहा जाएगा . यहीं आधुनिक समाजशास्त्रीय विश्लेषण में यह स्त्री-स्वतंत्र्त्य विरोधी पुरुष-प्रधान समाज का निर्माता और प्रेरक चरित्र और पाठ लगता है .इस रूप में इसे स्त्रियों के लिए एक चेतावनी के रूप में भी देखा जा सकता है .
इन सबके बावजूद भारत के प्राचीन जातीय सामंतकाल के युग में, प्राचीन काल के उस कानून विहीन समय में एक दृष्टान्त के रूप में परशु राम की कथा नें तत्कालीन शासकों को निरंकुश न होने की चेतावनी दी होगी .यह भी कि सामान्य मनुष्य के अधिकारों का भी सम्मान करना चाहिए . उसके मानवीय रूप को और स्पष्टता के लिए विमर्श के दायरे में लाया जाय. आखिर यह भी तो परशुराम नें ही सिखाया है कि समाज-विरोधी होने पर किसी भी सत्ता और पाठ को ख़ारिज कर देना चाहिए