रविवार, 11 जून 2017

ब्राह्मणवाद :मार्क्सवादी दृष्टि से

हिन्दू-जातीय -ब्राह्मणवादी कर्मकांडों का एक बड़ा हिस्सा प्रतीकात्मक और काव्यात्मक होने के कारण साहित्यिक महत्त्व का भी है | पूजा-पद्धति में उदात्त भाव-समर्पण और भांति-भांति की सामग्री के माध्यम से प्रकृति से जुड़ने या उसकी और लौटने का भाव भी आकर्षित करता है | यह अभिव्यक्ति मैंने मार्क्सवाद सम्मत मानकर ही की थी | उसका परंपरागत स्वरूप सामन्ती पूंजीवादी युग से पूर्व का है और प्रागैतिहासिक आदिम मनुष्य तक भी पहुंचता है | इसीलिए इसके कुछ हिस्से से मुझे मार्क्सवाद का विरोध नहीं लगता | दान को महिमामंडित करने के कारण पूँजी-संग्रह का विरोध और वितरण को प्रोत्साहित करने के कारण भारतीय धार्मिकता में भी एक भिन्न किस्म का आर्थिक आदर्शवाद रहा है | लेकिन इसी ब्राह्मणवाद और पुरोहितवाद का एक गर्हित और निकृष्ट पक्ष भी सामने आता है जो इसका सामंतकालीन कुलीनतावादी वर्णवादी चेहरा है | इसमें आम जीवन के महत्त्व और दिव्यता का व्यापक निषेध मिलता है | ईश्वरता को कुछ कुलीन राजघरानों में ही सीमित कर दिया गया है | निर्धनता और हीनता को पूर्व जन्म के पाप से जोड़ दिया गया है | पूंजीपतियों एवं आभिजात्य वर्ग की शोषक श्रेष्ठता को भी आध्यात्मिक स्वीकृति प्रदान कर दी गयी है | वर्ण व्यवस्था के साथ दुर्भाग्य को नियति और प्रारब्ध से जोड़ दिया गया है |यहीं से ब्राह्मणवाद गर्हित हो जाता है और निंदनीय भी है; क्योंकि वह मध्ययुग में आकर यथास्थितिवादी ,अप्रतिरोधी एवं भेदभाव आदि को बढ़ावा देते हुए मानवताविरोधी हो जाता है | इन दोनों चेहरों को देखते हुए ही हमें अपनी सम्यक धारणा बनानी चाहिए |