कल मेरे मित्र श्री कान्त पाण्डेय ने ईश्वर के बारे में मेरे एकांत व्यक्तिगत विचार जनने की जिज्ञासा व्यक्त की .एक विचारक के रूप में ऐसे प्रश्नों का संक्षिप्त-सीधा उत्तर देने में मुझे कठिनाई का अनुभव होता है .समस्या ईश्वर के होने न होने को लेकर नहीं है .समस्या किसी अवधारणा की जटिल साभ्यातिक -सांस्कृतिक निर्मित को लेकर है .एक मानवीय पर्यावरण के रूप में ये चीजें एक-दुसरे से इतनी सम्बद्ध और अंतर्ग्रथित हैं कि जन्म से ही सम्बद्ध किसी जुड़वे बच्चे के आपरेशन का मामला लगता है .भारत में आध्यात्मिकता प्रायः एक जीवन-पद्धति और परंपरागत मनोविज्ञान के रूप में भी है .,आदर्श मानक व्यवहार,शिष्टाचार ,मानव-अस्तित्व की पारिभाषिकी,अस्मितापरक आस्था और आत्म विश्वास ,एक आदर्श सामाजिक व्यव्हार सभी कुछ आध्यात्म और धार्मिकता में सम्मिलित है .ऐसे में ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न मुझे नए ढंग से सोचने के लिए विवश करता है .रायः मुझे आध्यात्म-विज्ञानं और ईश्वर में विश्वास दोनों भिन्न बातें लगाती हैं .आध्यात्म विज्ञानं को यदि जीवन जीने के विज्ञानं के रूप में देखें तो इसमें ईश्वर के होनें या न होने से कुछ विशेष फर्क नहीं पड़ता .सम्पूर्ण प्रकृति के प्रति हमारा अस्तित्वगत रिश्ता भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है ईश्वर के होने और न होनें में .जीवन के अस्तित्व को लेकर वह प्राथमिक अज्ञानता और आश्चर्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है किसी आध्यात्मिक चिन्तन के लिए .तब जब कि सम्पूर्ण प्रकृति के प्रति हमारा अपना भी रिश्ता है .ईश्वर के अधिकार की मानसिकता जिसे प्रायः सीमित ही करती है .
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि तात्विक ईश्वर अस्मितापरक चिन्तन का एक हिस्सा है ,जबकि ईश्वर की रूहानी उपस्थिति में विश्वास एक बिलकुल भिन्न मामला है ..किसी अदृश्य चेतना और विवेक की उपस्थिति में विश्वास बहुत कुछ किसी प्रेत में विश्वास करने जैसा है .वह अपने से बा हर के किसी प्रभावी सत्ता में विश्वास के सामान है .सामाजिक मनोविज्ञान के नजरिए से देखें तो अपने से बहार की किसी परायी सत्ता पर विश्वास शेष समाज के प्रति व्यक्ति के अच्छे रिश्ते का भी अचेतन या मानसिक विश्वास का तंत्र रचता है .यह दूसरों से अत्यधिक प्रभावित व्यक्तित्वों की मनोरचना के लिए अधिक अनुकूल होता है .स्वावलम्बी धर्म और परावलम्बी धर्म की दो धाराएं हमेशा से ही रही हैं आध्यात्म यदि स्वावलम्बी दर्शन के रूप में है तो वह किसी बाहरी सत्ता के प्रति परावलम्बी दर्शन से भिन्न होगा..
यह स्थापना अजीब सी लग सकती है कि भारतीय आध्यात्म का एक बड़ा हिस्सा ईश्वर या ब्रह्म-चिन्तन के बहाने ही ज्ञान के धरातल पर ईश्वर की अवधारणा का ही प्रतिरोध रचता जाता है .यह ईश्वर के सर्वव्यापी आतंक के आगे मानवीय ज्ञान की छोटी सी सेंध के रूप में है .उपनिषदों में भारतीय चिन्तक आत्मा की खोज करते हुए भाषा और शब्दों की दुनिया से बाहर निकल जाते हैं .वे इस बोध तक जा पहुंचाते हैं कि भाषिक ज्ञान एक माध्यम है और यह अद्तित्व की शुन्यवत आधार-जड़ता का विकल्प नहीं बन सकता .काल की परिवर्तन शीलता के सापेक्ष अस्तित्व की एक काल -निरापेक्ष उपस्थिति भी है .
गीता और बौद्ध-साहित्य दोनों में ही मिलाने वाली स्थिति-प्रज्ञ की अवधारणा आध्यात्म-चिन्तन को मानवीय जीवन का शास्त्र बना देती है .योग को कर्म का कौशल बताने का भी आशय धर्म को आचरण और व्यव्हार के सौन्दर्य के रूप में व्याख्यायित करना था .इस अर्थ में तो योग जीवन को बेहतर ढंग से जीने की कला है .यह भारतीय दृष्टिकोण इस्लाम आदि पश्चिमी धर्मों में मिलाने वाली ईश्वर की प्रेत जैसी (रूहानी ताकत ) की अवधारणा से बिलकुल भिन्न चीज है .यह अपने दैहिक -मानसिक अस्तित्व में डूबकर जीने जैसा है और शेष ब्रह्माण्ड से अपने अस्तित्व के रिश्तों को याद करने जैसा भी .यह उदात्त कविता जैसी किसी संवेदनात्मक-संवेगात्मक बोध का जीना है .इस विद्या के बाद ही सृजन के केंद्र में स्वयं को भी रखकर कोई मनुष्य अपने लिए ईश्वर जैसी दिव्यता की मांग कर सकता था .ईश्वर का अवतार मने जाने वाले भारतीय महापुरुष ज्ञान की इसी तात्विक प्रक्रिया और आत्म-विश्वास के आधार पर ही उदात्त जीवन जी पाए .यह दूसरी बात है कि स्थितिप्रज्ञ की यह अवधारणाशांति के लिए जितनी उपयोगी रही है क्रांति के लिए उतनी ही विरोधी और प्रतिरोधी भी .यह इसका नकारात्मक पक्ष रहा है .जिसने भारत को गुलामों का स्वर्ग भी बनाया .
धर्म का दूसरा पक्ष जो मनुष्य को एक अनुयायी यन्त्र-मानव (रोबोट ) में बदलता है -मध्ययुगीन सामंती व्यवस्था में बड़े संगठित साम्राज्य -निर्माण की प्रगतिशील आकांक्षाओं से पैदा हुआ था .समर्पण की मानसिकता और अनुयायिओं का मनोविज्ञान इस धार्मिकता को एक बड़े संगठन के निर्माण के उपकरण के रूप में विकसित करता है .ईसाईयत में ईसामसीह के जीवन और व्यक्तित्व के माध्यम से मानवीय प्रतिरोध उपस्थित हुआ है .बौद्ध धर्म में यह प्रतिरोध मनुष्य को केंद्र में रखकर विवेक-स्वातंत्र्य की खोज के रूप में हैं तो इस्लाम में जो कुछ भी सकारात्मक है ,वह मुहन्माद साहब के के आदर्श आचरण की स्मृति के रूप में ही है .इस दृष्टि से देखा जाए तो मध्य-युग में महकवि तुलसीदास बाल्मीकिकी राम कथा का इस्लामीकरण ही करते हैं .वे भारतीय परम्परा के आध्यात्म के स्थान पर वे राम की सर्वकालिक ईश्वरीय प्रेत के रूप में उपस्थिति की भी मान्यता देते प्रतीत होते हैं .
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि तात्विक ईश्वर अस्मितापरक चिन्तन का एक हिस्सा है ,जबकि ईश्वर की रूहानी उपस्थिति में विश्वास एक बिलकुल भिन्न मामला है ..किसी अदृश्य चेतना और विवेक की उपस्थिति में विश्वास बहुत कुछ किसी प्रेत में विश्वास करने जैसा है .वह अपने से बा हर के किसी प्रभावी सत्ता में विश्वास के सामान है .सामाजिक मनोविज्ञान के नजरिए से देखें तो अपने से बहार की किसी परायी सत्ता पर विश्वास शेष समाज के प्रति व्यक्ति के अच्छे रिश्ते का भी अचेतन या मानसिक विश्वास का तंत्र रचता है .यह दूसरों से अत्यधिक प्रभावित व्यक्तित्वों की मनोरचना के लिए अधिक अनुकूल होता है .स्वावलम्बी धर्म और परावलम्बी धर्म की दो धाराएं हमेशा से ही रही हैं आध्यात्म यदि स्वावलम्बी दर्शन के रूप में है तो वह किसी बाहरी सत्ता के प्रति परावलम्बी दर्शन से भिन्न होगा..
यह स्थापना अजीब सी लग सकती है कि भारतीय आध्यात्म का एक बड़ा हिस्सा ईश्वर या ब्रह्म-चिन्तन के बहाने ही ज्ञान के धरातल पर ईश्वर की अवधारणा का ही प्रतिरोध रचता जाता है .यह ईश्वर के सर्वव्यापी आतंक के आगे मानवीय ज्ञान की छोटी सी सेंध के रूप में है .उपनिषदों में भारतीय चिन्तक आत्मा की खोज करते हुए भाषा और शब्दों की दुनिया से बाहर निकल जाते हैं .वे इस बोध तक जा पहुंचाते हैं कि भाषिक ज्ञान एक माध्यम है और यह अद्तित्व की शुन्यवत आधार-जड़ता का विकल्प नहीं बन सकता .काल की परिवर्तन शीलता के सापेक्ष अस्तित्व की एक काल -निरापेक्ष उपस्थिति भी है .
गीता और बौद्ध-साहित्य दोनों में ही मिलाने वाली स्थिति-प्रज्ञ की अवधारणा आध्यात्म-चिन्तन को मानवीय जीवन का शास्त्र बना देती है .योग को कर्म का कौशल बताने का भी आशय धर्म को आचरण और व्यव्हार के सौन्दर्य के रूप में व्याख्यायित करना था .इस अर्थ में तो योग जीवन को बेहतर ढंग से जीने की कला है .यह भारतीय दृष्टिकोण इस्लाम आदि पश्चिमी धर्मों में मिलाने वाली ईश्वर की प्रेत जैसी (रूहानी ताकत ) की अवधारणा से बिलकुल भिन्न चीज है .यह अपने दैहिक -मानसिक अस्तित्व में डूबकर जीने जैसा है और शेष ब्रह्माण्ड से अपने अस्तित्व के रिश्तों को याद करने जैसा भी .यह उदात्त कविता जैसी किसी संवेदनात्मक-संवेगात्मक बोध का जीना है .इस विद्या के बाद ही सृजन के केंद्र में स्वयं को भी रखकर कोई मनुष्य अपने लिए ईश्वर जैसी दिव्यता की मांग कर सकता था .ईश्वर का अवतार मने जाने वाले भारतीय महापुरुष ज्ञान की इसी तात्विक प्रक्रिया और आत्म-विश्वास के आधार पर ही उदात्त जीवन जी पाए .यह दूसरी बात है कि स्थितिप्रज्ञ की यह अवधारणाशांति के लिए जितनी उपयोगी रही है क्रांति के लिए उतनी ही विरोधी और प्रतिरोधी भी .यह इसका नकारात्मक पक्ष रहा है .जिसने भारत को गुलामों का स्वर्ग भी बनाया .
धर्म का दूसरा पक्ष जो मनुष्य को एक अनुयायी यन्त्र-मानव (रोबोट ) में बदलता है -मध्ययुगीन सामंती व्यवस्था में बड़े संगठित साम्राज्य -निर्माण की प्रगतिशील आकांक्षाओं से पैदा हुआ था .समर्पण की मानसिकता और अनुयायिओं का मनोविज्ञान इस धार्मिकता को एक बड़े संगठन के निर्माण के उपकरण के रूप में विकसित करता है .ईसाईयत में ईसामसीह के जीवन और व्यक्तित्व के माध्यम से मानवीय प्रतिरोध उपस्थित हुआ है .बौद्ध धर्म में यह प्रतिरोध मनुष्य को केंद्र में रखकर विवेक-स्वातंत्र्य की खोज के रूप में हैं तो इस्लाम में जो कुछ भी सकारात्मक है ,वह मुहन्माद साहब के के आदर्श आचरण की स्मृति के रूप में ही है .इस दृष्टि से देखा जाए तो मध्य-युग में महकवि तुलसीदास बाल्मीकिकी राम कथा का इस्लामीकरण ही करते हैं .वे भारतीय परम्परा के आध्यात्म के स्थान पर वे राम की सर्वकालिक ईश्वरीय प्रेत के रूप में उपस्थिति की भी मान्यता देते प्रतीत होते हैं .