शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

बुद्ध एक पुनर्विचार

बुद्ध   एक पुनर्विचार
आस्था और विश्वास के साथ सबसे बड़ा खतरा यही होता है कि कभी भी धोखा हो सकता  है ।बुद्ध इस धोखाधडी से बचना चाहते थे । इसीलिए उन्होंने अपने सच से ईश्वर को भी बाहर रखा । एक प्रजाति के रूप मे मानवजाति को सुखी और सुरक्षित करने के लिए सिर्फ करुणा ही पर्याप्त है। यहां तक तक कि उसकी करुणा मे मार्क्सवाद को भी समाहित देखा जा सकता है ।
         बौद्ध धर्म ने मानव-चित्त और व्यक्तित्व को लेकर बिल्कुल स्वावलंबी और विशिष्ट सांस्कृतिक सौन्दर्यबोध उत्पन्न किया। मनुष्य मे अन्तर्निहित महानता की सम्भावना प्रदर्शित करने के लिए ही उनके अनुयायियों ने बुद्घ की विशाल बनवायी ।
           बौद्ध देशों में मिलने वाली विशेष ढंग की बौद्धिक सभ्यता अन्य धर्म के अनुयायियों की तुलना मे उन्हें श्रेष्ठतर प्रमाणित करती है ।  यह अजीब पर्यवेक्षण है कि ईश्वर को केन्द्र में रखकर विकसित धर्म एक विकलांग और परजीवी मनुष्यता को जन्म देते है  । ऐसे धर्म  ईश्वर की कृपा प्राप्त रूप मे व्यक्ति - पूजा को बढ़ावा देते है । इसी संस्कार के कारण भारतीय लोकतंत्र भी व्यक्ति, वंश और परिवार केन्द्रित हो गया है  ।
            प्राचीन गणतंत्र से सम्बंधित होने के कारण बुद्ध का दर्शन स्वाभाविक रूप से आधुनिक लोकतंत्र के लिए प्रासंगिक और अनुरूप है जबकि सनातन धर्म राजतंत्र की स्वाभाविक व्युत्पत्ति होने के कारण रीढ़ विहीन चाटुकारिता की  पोषक , सामन्ती विशिष्टता और भेदभाव  को मान्यता देने वाली और लोकतांत्रिक समानता की विरोधी है  ।
(बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर गौतम बुद्ध को याद करते हुए )
रामप्रकाश कुशवाहा
30/04/2018