शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

समाजिक मुकित में भाषा-बोध की युकित


प्राचीन भारत में जाति नहीं बदली जा सकती थी लेकिन जाति की निरर्थकता को समझा जा सकता था .क्योंकि वह प्राचीन कालसे ही माया-जगत का हिस्सा और किस्सा रहा है.एक पूरी जाति इस मायावाद के प्रचार में लगी रही.यह सब प्राचीन आदर्शवाद का हिस्सा था .आज जब कि भारत में बलात्कारी बढ़ गए हैं .भारत की प्राचीन सांस्कृतिक अभियांत्रिकी यद् आती है.तब स्त्री-संसर्ग से विरत रहने वाला महिमा-मंडित किया जाता था .लक्ष्य पुरुषोत्तम बनाने का था .ब्रह्मचारी रहना एक चुनौती पूर्ण लक्ष्य था .पुरुष होने के बोध से मुक्त एक जीवन .सदाचारी होना पुरुषार्थ के लिए एक चुनौती था .
       संभव है कि ऐसे लोगों ने भौतिकवादी अर्थ में स्त्री -संसर्ग से विरत रहकर अपना नुकसान किया हो .लेकिन उन्होंने समाज को एक संयमी जीवन जीने का चुनौतीपूर्ण लक्ष्य दिया था .संभवतः यौन -भावना के प्रति नकारात्मक चिंतन से ही उसके हारमोनो को जीता जा सकता था .उन्होंने ऐसा ही किया .उन्होंने मानवीय अस्मिता  से सम्बंधित ज्ञान की निरर्थकता को अपने भाषा -चिन्तन  के क्रम में पाया था .शब्दों के अर्थ की प्रकिया को समझते-समझाते वे ज्ञान से परे के उस चित्त तक पंच पाए ,जहाँ से शब्दों की अर्थवान दुनिया शुरू होती है .भाषावैज्ञानिक चिंतन के क्रम में ही वे अवधारणाओं से पर के उस रहस्यमय अपरिभाषित चित्त को जान पाए थे जिसे नेति -नेति कहा और ब्रह्म भी .भारतीय लोक के ज्ञानात्मक  अतिक्रमण के लिए यह लोकोत्तर प्रवास जरुरी था -चाहे यह ज्ञान या बोध के स्तर पर ही क्यों न रहा हो
       मेरी दृष्टि में आज भी इस भाषा बोध की आवश्यकता बनी हुई है .यह चाहे रहस्यमय और सर्वव्यापी ईश्वर की उपस्थिति या साक्षात्कार के रूप में न हो ,लेकिन यह भारतीयों के विषमतापूर्ण अस्मिताकरण से मुक्ति के लिए अब भी प्रासंगिक हो सकता है अर्थकरण की प्रक्रिया को पहचानकर हम अपने चित्त के जातिकरण की प्रक्रिया को भी पहचान सकते हैं और उससे मुक्त हो सकते हैं . .
         इस परिप्रेक्ष्य में रखकर देंखें तो भारतीयों की समस्या यह है कि जन-सामान्य सिर्फ भाषा का प्रयोग ही जानता है ,उसका मर्म नहीं  ।वह अपने अधिकांश-बोध में भाषा की स्थार्इ निर्मिति या वस्तु उत्पाद की तरह है । भाषा का एक जड़ संसार उसकी अर्थजीवी चेतना को नियनित्रत करता है । प्राचीन भारतीय विद्वानों नें भाषा के पार की उस दुनिया को जीवन और संसार की सीमा से परे ब्रहम की सत्त के रूप में देखा । वे चाहते तो इस ज्ञान का उपयोग भारतीयों को जातिवादी कुण्ठा से निकालने के लिए कर सकते थे । लेकिन इससे भाषा-ग्रस्त मानव-संसाधन की सामाजिक अभियानित्रकी ध्वस्त हो जाती । उन्होंने लोक को जाति-चिन्तन के लिए छोड़कर एक सीमित वर्ग को ब्रहम-चिन्तन की ओर मोड़ दिया ।
          आज भी कर्इ लोग अपनी जाति और धर्म के लिए कुणिठत रहते है और कर्इ लोग र्इश्वर को होने न होने को लेकर । निहित स्वाथोर्ं के कारण मानव समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी नहीं चाहता कि लोग शासित होने और दूसरों को बड़ा मानने की अपनी आदत छोड़ें ।  वे लाभ की सिथति में हैं इस लिए किसी भी प्रकार से अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक आदत या व्यसन कोे बनाए रखना चाहते हैं । यह जानते हुए भी कि शब्द के सच सामाजिक रूप से माने हुए ही होते हैं ,वे नहीं चाहते कि सामान्य जनता इस झूठ की भाषावैज्ञानिक- सृजनशीलता को जानें । शब्द-विज्ञान से देखें तो कौन कह सकता है कि र्इश्वर का नाम र्इश्वर ही है । शब्दों में निहित सारे अर्थ एक आभासी दुनिया की सृषिट करते हैं और दिमाग के भीतर चिन्तन के उपकरण के रूप में इश्तेमाल करने के लिए दिमाग के बाहर से लिए गए हैं । वे हमारे मसितष्क में बाहरी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
         भाषा-विज्ञान के नजरिए से जब देखता हूं तो दलित-दलित चिल्लाना भी अप्रत्यक्ष रूप से नर्इ पीढ़ी को गुमराह करने के लिए एक भाषा-वैज्ञानिक झूठ को सच बनाने का कूटनीतिक उपक्रम ही लगता है । जो काम राजनीतिक स्वार्थ के लिए प्रभुत्वशाली वर्ग नें हजारों वषों्र तक किया उसे अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए प्रभावित वर्ग का नेतृत्व स्वयं एवं सहर्ष कर रहा है ।
           मेरा मानना है कि प्राचीन एवं आधुनिक भाषा-विज्ञान का इश्तेमाल जातिवाद और साम्प्रदायिकता से मुकित के लिए किया जा सकता है । मैं कौन हूं का प्रश्न और तर्क सिर्फ प्राचीन भारतीयों की तरह सिर्फ ब्रहम को जानने के लिए ही नहीं किया जाना चाहिए ,इस बोध का उपयोग जाति और सम्प्रदाय-बोध से बाहर निकलने और निकालने के लिए भी किया जा सकता है । यह मुकितदायक-ज्ञानवद्र्धक प्रश्नोत्तर कुछ इसप्रकार होगा-
      प्रश्न- तुममैं कौन ?
      उत्तर- तुम  मैं एक माने गए शब्द हैं ।
      प्रश्न- कैसे शब्द ?
      उत्तर- दूसरों के द्वारा दिए गए अर्थ वाले ....
एक नए समाज की रचना पुराने शब्दों से दूरी बनाए बिना संभव नहीं है । यदि किसी को परम्परा से मिले अर्थ पसन्द नहीं हैं तो उससे अलग होने की सोचे और सामूहिक बहिष्कार जीना सीखे । सभ्यता या असभ्यता से मिले हीनता या श्रेष्ठताबोधक काल्पनिक किन्तु सच की तरह जिए जाने वाले भाषावैज्ञानिक यानित्रकबोध से बाहर निकलने के लिए भाषा एवं शब्द-विज्ञान की सहायता लेनी होगी । राजनीतिज्ञ तो झूठ को भी सचके रूप् में विज्ञापित कर दंगा करा देता है । इसप्रकार समस्या यही है कि विश्व के अधिकांश लोग आज भी भाषावैज्ञानिक दृषिट सेमूर्ख या अज्ञानी हैं । वे जिस चीज से मुक्त होने के लिए संशर्ष कर रहे होते हैं,उसे ही अपने कार्य और व्यवहार की जीवन-चर्या से सच करते जाते हैं ।