इतिहास एक ऐसा विषय है कि एक बार पढ़ने क बाद फिर उसकी पठनीयता के लिए विशेष नहीं रह जाता .यह भी दिमाग में बना रहता है कि किसी ज्ञात इतिहास को आप कम या अधिक ,घटा या बढ़ा नहीं सकते .यह भाव भी रहता है कि जो बीत गया सो बीत गया अब आगे की यानि वर्त्तमान की सुधि ली जाय.कुछ ऐसी ही मानसिकता के साथ मैंने चौरी चौरा को भी इतिहास का एक समाप्त अध्याय मान लिया था .सुभाष चन्द्र कुशवाहा जी जब यह पुस्तक लिख रहे थे तो सरकारी नौकरी में अपने अवकाश गवा देने के कारण मैं इस स्थिति में नहीं था कि मैं उनका सामग्री संकलन में कुछ सहयोग कर पाता.पुस्तक इलाहबाद में लोकभारती में उपलब्ध नहीं थी .मित्र क्षमाशंकर पाण्डेय भी पढ़ कर इसकी प्रशंसा कर चुके थे .अंततः बेटी से ओनलाइन खरीदारी के लिए आर्डर भेजने को कहा .पुस्तक कल ही मेरे यहाँ शाम को पहुँच गयी .
एक साहित्यकार के लिए इतिहास में घटित संवेदना और पल -पल कि मानसिकता अधिक महत्वपूर्ण होती है .होती तो जज के लिए भी .सुभाष जी नें सम्पूर्ण घटनाक्रम को ब्रिटिश सत्ता और गाँधी के सत्याग्रह से अलग जो मानवीय घटनाशीलता में रखकर देखा है वह अद्भुत है .इसमे सवर्ण मानसिकता और औपनिवेशिक मानसिकता की दुरभिसंधि को पहली बार इतना खुलकर और इतनी बेबाकी से रेखांकित किया गया है कि लेखक के मिशनरी साहस पर श्रद्धा हो जाती है .यह पुस्तक भारतीयोंको इतिहास के बहाने स्वयं को एक बार फिर आत्म विश्ल्केष्ण करने के लिए उकसाती है.तथ्यों का पुनरान्वेषी सर्वेक्षण इस लेखन को एक ऐतिहासिक प्रमाणिकता देता है . .इस श्रम साध्य पुस्तक की रचना के लिए सुभाष जी को एक
बार फिर बधाई .
इतिहास एक ऐसा विषय है कि एक बार पढ़ने क बाद फिर उसकी पठनीयता के लिए विशेष नहीं रह जाता .यह भी दिमाग में बना रहता है कि किसी ज्ञात इतिहास को आप कम या अधिक ,घटा या बढ़ा नहीं सकते .यह भाव भी रहता है कि जो बीत गया सो बीत गया अब आगे की यानि वर्त्तमान की सुधि ली जाय.कुछ ऐसी ही मानसिकता के साथ मैंने चौरी चौरा को भी इतिहास का एक समाप्त अध्याय मान लिया था .सुभाष चन्द्र कुशवाहा जी जब यह पुस्तक लिख रहे थे तो सरकारी नौकरी में अपने अवकाश गवा देने के कारण मैं इस स्थिति में नहीं था कि मैं उनका सामग्री संकलन में कुछ सहयोग कर पाता.पुस्तक इलाहबाद में लोकभारती में उपलब्ध नहीं थी .मित्र क्षमाशंकर पाण्डेय भी पढ़ कर इसकी प्रशंसा कर चुके थे .अंततः बेटी से ओनलाइन खरीदारी के लिए आर्डर भेजने को कहा .पुस्तक कल ही मेरे यहाँ शाम को पहुँच गयी .
एक साहित्यकार के लिए इतिहास में घटित संवेदना और पल -पल कि मानसिकता अधिक महत्वपूर्ण होती है .होती तो जज के लिए भी .सुभाष जी नें सम्पूर्ण घटनाक्रम को ब्रिटिश सत्ता और गाँधी के सत्याग्रह से अलग जो मानवीय घटनाशीलता में रखकर देखा है वह अद्भुत है .इसमे सवर्ण मानसिकता और औपनिवेशिक मानसिकता की दुरभिसंधि को पहली बार इतना खुलकर और इतनी बेबाकी से रेखांकित किया गया है कि लेखक के मिशनरी साहस पर श्रद्धा हो जाती है .यह पुस्तक भारतीयोंको इतिहास के बहाने स्वयं को एक बार फिर आत्म विश्ल्केष्ण करने के लिए उकसाती है.तथ्यों का पुनरान्वेषी सर्वेक्षण इस लेखन को एक ऐतिहासिक प्रमाणिकता देता है . .इस श्रम साध्य पुस्तक की रचना के लिए सुभाष जी को एक
एक साहित्यकार के लिए इतिहास में घटित संवेदना और पल -पल कि मानसिकता अधिक महत्वपूर्ण होती है .होती तो जज के लिए भी .सुभाष जी नें सम्पूर्ण घटनाक्रम को ब्रिटिश सत्ता और गाँधी के सत्याग्रह से अलग जो मानवीय घटनाशीलता में रखकर देखा है वह अद्भुत है .इसमे सवर्ण मानसिकता और औपनिवेशिक मानसिकता की दुरभिसंधि को पहली बार इतना खुलकर और इतनी बेबाकी से रेखांकित किया गया है कि लेखक के मिशनरी साहस पर श्रद्धा हो जाती है .यह पुस्तक भारतीयोंको इतिहास के बहाने स्वयं को एक बार फिर आत्म विश्ल्केष्ण करने के लिए उकसाती है.तथ्यों का पुनरान्वेषी सर्वेक्षण इस लेखन को एक ऐतिहासिक प्रमाणिकता देता है . .इस श्रम साध्य पुस्तक की रचना के लिए सुभाष जी को एक
बार फिर बधाई .
हिंदी साहित्य का ई-संसार
[शैलेश भारतवासी]। इटरनेट पर लोग हिंदी में लिख-पढ रहे हैं- अब यह कोई नई जानकारी नहीं रही। लेकिन इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आईएएमएआई) और इंडियन मार्केट रिसर्च ब्यूरो (आईएमआरबी) द्वारा हाल ही में हुए एक देशव्यापी सर्वेक्षण में कुछ चौंकाने वाले नतीजे आए हैं। इस अध्ययन के अनुसार लगभग 4.5 करोड भारतीय देशी भाषाओं में इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत में कुल सक्रिय इंटरनेट प्रयोक्ताओं की अनुमानित संख्या लगभग 12.2 करोड है। यह बात भी गौर करने लायक है कि जहां 64 प्रतिशत ग्रामीण उपभोक्ता देशी भाषाओं में इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं, वहीं 25 प्रतिशत शहरी उपभोक्ता, यानी देशी भाषाओं की इंटरनेट सेवाओं का भविष्य भारत के गांवों में है। इस तरह का कोई अध्ययन अभी तक सामने नहीं आया है जो हिंदी में इंटरनेट की तमाम सेवाओं और सुविधाओं को इस्तेमाल करने का आंकडा प्रस्तुत करता हो। फिर भी जनसंख्या गणना को आधार मानकर यह बात तो कही ही जा सकती है कि 4.5 करोड देशी भाषी इंटरनेट प्रयोक्ताओं का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा यानी कि लगभग डेढ करोड से अधिक लोग हिंदी में इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। जरा अंदाजा लगाएं कि क्या यह संख्या हिंदी के अन्य माध्यमों की पहुंच से किसी भी तरह कम है!
बिलकुल नहीं! हिंदी इंटरनेट पर बहुत तेजी से पसर रही है और आने वाले समय में यह संख्या हमारे अनुमान से कई गुनी तेज गति से बढने वाली है।
इंटरनेट पर हिंदी साहित्य का संसार भी काफी व्यापक हो गया है। एक आकलन के अनुसार साहित्यिक हिंदी वेबपन्नों की संख्या करोड का कांटा छू रही है। जहां कविताकोश में चंदबरदाई से लेकर कविता लिखने का अभ्यास शुरू करने वाले नवोदित कवि की कविताओं का जखीरा उपलब्ध है, वहीं हिंदी समय जैसी वेबसाइट पर साहित्य की तमाम विधाओं की उत्कृष्ठ कृतियों को संपूर्ण रूप से उपलब्ध कराया जा रहा है। ऐसे कई हजार वेबसाइट और सामूहिक ब्लॉग हैं जो साहित्य रचने में संलग्न युवा प्रतिभाओं का प्रोत्साहन कर रहे हैं। लगभग 6-7 साल पहले कुछेक ब्लॉगों और एक-दो वेबसाइटों के जरिए शुरू हुई हिंदी साहित्य की इंटरनेटीय सवारी का अब हर छोटा-बडा लिखवाड यात्री है और जो अब तक इसपर सवार नहीं हुआ है, उसकी अपनी मजबूरियां हैं। एक समय था जब इंटरनेट पर हिंदी में साहित्य रचने वाले लोगों को मुख्यधारा का वर्ग गंभीरता से नहीं लेता था। बहुत समय नहीं बीता जब नामवर सिंह ने रायपुर में आयोजित एक संगोष्ठी में इंटरनेट पर हिंदी में रची-छपी समूची हिंदी रचनात्मकता को कूडा कहा था। दिल्ली में ब्लॉगर-कवियों के एक कार्यक्रम में राजेंद्र यादव ने इंटरनेट को दोजख की जुबान माना था। लेकिन मुख्यधारा के युवा लेखक-कवियों की पिछले 2-3 सालों में इंटरनेट पर बढी मौजूदगी ने वरिष्ठ साहित्यकारों को भी इसपर गंभीरता से सोचने को मजबूर किया। देश-विदेश में अकादमिक स्तर पर ई-साहित्य पर चर्चा, गोष्ठी, सेमिनार और सम्मेलन आयोजित होने लगे। हिंदी की इंटरनेटीय दुनिया से दूर रहने वाले साहित्यकार बहुत जल्द ही इस नई मीडिया के जानकार घोषित कर दिए गए। अब जिन्हें भी अभिव्यक्ति के इस नए माध्यम की वैश्विक पहुंच और पाठकों की इस पर बढ रही आमद का अंदाजा है वे तेजी से इंटरनेट पर अपने कोने सुरक्षित कर रहे हैं। इन्हें इंटरनेट के त्वरित और अकल्पनीय विस्तार का अंदाजा लग गया है, तभी हिंदी की तमाम लघुपत्रिकाओं में भी इसकी चर्चा होने लगी है। बहुत सी लघुपत्रिकाओं ने भी अपने ब्लॉग, वेबसाइट और फेसबुक पेज बना लिए हैं। प्रसिद्ध कवि एवं कहानीकार उदय प्रकाश ब्लॉग पर तो सक्रिय हैं ही, फेसबुक पर भी बहुत अधिक सक्रिय हैं। वरिष्ठ साहित्यकार पुरुषोत्तम अग्रवाल, वरिष्ठ कवि- आलोचक नंद भारद्वाज जैसे नामचीन साहित्यकार फेसबुक पर बेहद सक्रिय हैं। वरिष्ठ कथाकार रवींद्र कालिया और राजेंद्र यादव की भी अपने-अपनी फेसबुक प्रोफाइल है जो शायद इनके किसी सहयोगी के द्वारा बनाई गई हैं क्योंकि ये अपनी प्रोफाइल पर लगभग न के बराबर सक्रिय हैं।
सवाल यह उठता है कि क्या हिंदी के मुख्यधारा के लेखक इंटरनेटीय माध्यमों को अपनी अभिव्यक्ति को दुनिया तक पहुंचाने का प्रमुख माध्यम बना पाए हैं? क्या ये अपनी नई और अनछपी रचनाओं को सबसे पहले इंटरनेट पर सक्रिय पाठकों तक पहुंचा रहे हैं? इंटरनेट का महत्व इन लेखक-कवियों को समझ में तो आ गया है लेकिन पारंपरिक मीडिया में छपने-पहुंचने का मोह अभी कम नहीं हुआ है। मुख्यधारा के ऐसे बहुत कम ही लेखक हैं जो इंटरनेट को पहला माध्यम मानते रहे हैं और आज वे मुख्यधारा में अपना एक खास मकाम बना चुके हैं। यह बात भी गौर करने वाली है कि मुख्यधारा के जो साहित्यकार इंटरनेट पर हाल ही में सक्रिय हुए हैं, वे अपनी पुरानी रचनाओं को इंटरनेट पर ठेलकर आभासी दुनिया के भाषाई माहौल को समकालीनता से दूर कर रहे हैं। पुराने एवं बुजुर्ग लेखक इस बात से बेखबर हैं कि इंटरनेट पर 25 से 40 वर्ष के युवाओं की संख्या सबसे अधिक है। इस वर्ग की अपनी भाषा है। अपनी समझ है। यदि लेखन इनकी भाषा में इनकी समझ के स्तर से अपनी बात नहीं रखता तो उन तक पहुंचने की संभावना बेहद कम है। शायद यही वह अवरोध है जो बडे-बुजुर्ग लेखकों के सामने इंटरनेट को बूझने में रुकावट पैदा कर रहा है। अधिकतर वृद्ध साहित्यकारों के पास इंटरनेटीय सेवाओं पर चलने-फिरने का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे चाहकर भी इसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं बना पाए हैं।
इंटरनेट ने हिंदी साहित्य को नए पाठक भी दिए हैं। इस बात की पुष्टि इस तरह से भी की जा सकती है कि जहां हिंदी की बहुत सी ऐसी पत्रिकाएं हैं जिनकी पहुंच 500 भी नहीं है, वहीं हिंदी के एक सामान्य ब्लॉग या फेसबुक पेज की पहुंच कई हजार है। मुद्रित लघुपत्रिकाओं को भौगोलिक रूप से अलग-अलग स्थानों पर रह रहे पाठकों तक वितरित करना बेहद मुश्किल काम है। लघुपत्रिकाओं की सीमित आर्थिकी ने इन्हें आसपास और अपने संपर्को तक ही सीमित रखा, लेकिन इंटरनेट की पहुंच वैश्विक है। फेसबुक पर ऐसे कई हजार लोग उपलब्ध हैं जिन्होंने अपनी पाठ्य-पुस्तकों के बाद हिंदी साहित्यिक रचनाओं को पहली बार इंटरनेट पर ही पढा है और वे अब यह स्वीकार भी रहे हैं कि हिंदी में कविता-कहानी और अन्य तरह की रचनाओं को पढना उनकी रोजमर्रा के कामों में शुमार हो चुका है। बहुत से इंटरनेटीय पाठक यह मानने लगे हैं कि ब्लॉग, फेसबुक और अन्य साहित्यिक वेबसाइटों के मध्यम से ही उन्हें समझ में आया है कि हिंदी में बहुत कुछ अच्छा लिखा जा रहा है, लेकिन वे दुनिया के उन कोनों में रह रहे थे जहां पर हिंदी की समकालीन रचनाओं की पहुंच लगभग शून्य थी। इंटरनेट पर इनके सुलभ हो जाने से उन्हें इसका भान हुआ। फेसबुक पर हिंदी पे्रमियों के बहुत से ऐसे ग्रुप सक्रिय हैं जो एक-दूसरे को यह बताते रहते हैं कि आपको यह जरूर चाहिए, यह फलां वेबपेज पर उपलब्ध है। यदि उपलब्ध नहीं हैं तो पाठक दूसरों के लिए उसे इंटरनेट पर उपलब्ध करा रहे हैं।
कुल मिलाकर यह बात बिल्कुल सीधी है कि इंटरनेट जिस आयु वर्ग के लोगों के रोजमर्रा का हिस्सा है, उस आयु वर्ग के लेखक-कवि और पाठक इंटरनेट पर पहुंच चुके हैं और शोध इसकी भी पुष्टि कर चुके हैं कि आने वाले दो-तीन सालों में इंटरनेट ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचकर शहरी प्रयोक्ताओं को संख्याबल में पछाड देगा। यानी इंटरनेट पर हिंदी और हिंदी साहित्य का भविष्य चमकदार है। हालांकि अभी भी ग्रामीण इलाकों के ज्यादातर लेखक-पाठक आभासी संसार के रोमांच से अछूते हैं। अंत में यह कहना भी जरूरी है कि जिस प्रकार पारंपरिक माध्यमों की पहुंच मध्यवर्ग तक है उसी प्रकार इंटरनेट भी एक नये तरह के मध्यवर्ग का ही खिलौना है। अध्ययन बताते हैं कि हाशिए के बाहर खडे लोगों तक अभी इसका पहुंचना बाकी है।
[लेखक हिंद युग्म प्रकाशन में संपादक हैं]
[मो. 09968755908]
हिंदी कहानी का 113 साल का सफर
राजेन्द्र राव]। अगर यह मान लिया जाए कि माधव राव सप्रे की 'टोकरी भर मि˜ी' [1900] हिंदी में प्रकाशित पहली कहानी थी तो कुल 113 साल का सफर बनता है इस लोकप्रिय विधा का जिसे 'हिंदी की क्लासिक कहानियां' ग्रंथावली के छह खंडों में निरूपित किया है प्रख्यात आलोचक और शोधकर्ता डा. पुष्पपाल सिंह ने। प्रथम खंड 'धरोहर' में हिंदी कहानी के शैशव काल से लेकर 1920 तक प्रकाशित माधव राव सप्रे, रामचंद्र शुक्ल, बंग महिला, जयशंकर प्रसाद, चंद्रधर शर्मा गुलेरी और प्रेमचंद जैसे इतिहास निर्माताओं की 25 कहानियां हैं। दूसरे भाग 'प्रेमचंद-प्रसाद समय' में 1921 से 1950 तक के कालखंड की 24 चुनी हुई और चर्चित रचनाएं हैं जिनमें अपने पूर्णोदय काल के प्रेमचंद और प्रसाद के साथ जैनेंद्र, यशपाल, अश्क, निराला, अज्ञेय, अमृतलाल नागर, रांगेय राघव और उग्र जैसे आधुनिक कहानी के शिल्पी उपस्थित हैं। तीसरे खंड में 1951 से 1965 तक के 'नयी कहानी युग' को कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, अमरकांत, राजेन्द्र यादव, कृष्णा सोबती, रेणु, धर्मवीर भारती और शैलेश मटियानी आदि की प्रतिनिधि कथाओं के माध्यम से चित्रित किया गया है।
1965 से बीसवीं सदी के अवसान तक के भाग को 'समकालीन कहानी समय' शीर्षक से प्रस्तुत किया गया है जिसमें लगभग सभी समकालीन महत्वपूर्ण कथाकार शामिल हैं-ज्ञानरंजन और गिरिराज किशोर से लेकर उदय प्रकाश, संजीव और अखिलेश तक। कमलेश्वर, महीप सिंह हैं तो रमेशचंद्र शाह भी। एक खंड 'महिला कथाकार' (1965 से अद्यतन) पूरी तरह महिलाओं को समर्पित है जिसमें सुधा अरोड़ा-ममता कालिया-चित्रा मुद्गल से लेकर नीलाक्षी सिंह और प्रत्यक्षा तक 20 प्रमुख लेखिकाओं की रचनात्मकता की मनोहर झांकी है।
अंतिम छठे खंड 'नवागत पीढ़ी' में 19 ऐसे युवा कथाकारों की कहानियां हैं जिनका पदार्पण 21वीं शती में हुआ है और आजकल उत्सुकता से पढ़े जा रहे हैं। इनमें अजय नावरिया, कुणाल सिंह, मो. आरिफ, प्रियदर्शन, रणेंद्र, प्रभात रंजन और शशिभूषण द्विवेदी जैसे नाम संकलित हैं। एक संग्रहणीय और ऐतिहासिक महत्व का पठनीय ग्रंथ।
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