शनिवार, 9 मार्च 2013

भारतीय लोकतन्त्र और परिवारवाद की संस्कृति


आधुनिक लोकतंत्र की अवधारणा और भारत की बहुसंख्यक नेतृत्वकारी सांस्कृतिक मानसिकता में व्यापक अंतर्विरोध है .इसका मुख्य कारण प्राचीन भारतीय संस्कृति का राजनीतिक प्रतिस्पर्धा से मुक्त आनुवांशिक उत्तराधिकार वाले राजतन्त्र के लिए विकसित होना है .समाजशास्त्रीय दृष्टि से एक अन्य महत्वपूर्ण कारण भारतीय वर्णव्यवस्था में राजन्य वर्ण का वरीयता में दूसरे स्थान पर होना भी है .वास्तव में परंपरागत भारतीय सामाजिक व्यवस्था संस्कृति मूलक है .इस संस्कृति के निर्माण में केन्द्रीय भूमिका ब्राह्मण जाति की रही है .राजनीति में अवश्यम्भावी हिंसा और हत्या से जातीय रूप से बचने के लिए इसने क्षत्रिय वर्ण को आगे किया .अपने लिए जातीय श्रेष्ठता तो ली लेकिन राजनीतिक वैभव से दूर अपनी सामाजिक प्रस्थिति में उसका जातीय चरित्र प्रत्यक्ष राजनीतिक महत्वाकांक्षा और हस्तक्षेप का विरोधी ही रहा है .स्व-निर्णीतइस जातीय राजनीतिक निर्वासन के साथ उसकी दोहरी सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका रही है -पहली तो राजा की जातीय श्रेष्ठता और उसकी दैवी विशिष्टता का प्रजा में प्रचार करना ,अपनी स्वीकृति द्वारा आवश्यक जनमत तैयार करना दूसरा स्वयं प्रतिस्पर्धी न होते हुए दूसरों को भी प्रतिस्पर्धा और विरोध-प्रतिरोध से विरत रखना .उसके द्वारा जनता में फैलाया गया आध्यात्मवाद ,ईश्वर और भक्ति की अवधारणा भी सामाजिक व्यवहार की इसी भूमिका को सृजित कराती है .      
                  क्योंकि भारत में ब्राह्मण मानसिकता ही अन्य जातिओं का नेतृत्व करती है ,उनका आदर्श और मानक बनती है स्वयं राजनीतिक निषेध और उदासीनता जीने के कारण वह औरों के लिए भी राजनीतिक इच्छा के निषेध और उदासीनता की प्रचारक है .क्योंकि परंपरागत ढंग से और जातियों को राजा बनने का स्वप्न ही नहीं देखना था "इसी कारण से उसके लिए "दिल्लीश्वरो वा,जगादीश्वरो वा "कहना आसान रहा है .वह जिस संस्कृति का वाहक है ,वह निःशेष और सम्पूर्ण श्रद्धा एवं सम्मान जीवी है .उसके भाग्यवाद का दर्शन और राजा को ईश्वर की इच्छा का परिणाम तथा उसके प्रतिनिधि के रूप में देखने की प्रवृत्ति भक्त के रूप में अनुयायी के जिस मनोविज्ञान को सृजित कराती है ,दर-असल वह एक स्वामिभक्त और आदर्श प्रजा बनाने की संस्कृति है .ब्राह्मण केन्द्रित भारतीय संस्कृति वास्तव में प्रजानीति की सवाहक जातीय संस्कृति है.ऐसे में यदि समाजशास्त्रीय दृष्टि से देंखें तो भारतीय ईश्वर की परंपरागत अवधारणा और समाज के राजनीतिक नेतृत्व की परिकल्पना का विकास आनुवांशिक उत्तराधिकार वाले राजतन्त्र के लिए हुआ था .यही कारण है कि भारतीय समाज का परंपरागत सांस्कृतिक मनोविज्ञान अचेतन स्तर पर कुलीनतंत्र या परिवार-तंत्र के अधिक अनुकूल है . 
                   इस दृष्टि से देखा जाय तो गुजराती संतों के आध्यात्मिक प्रचार और मोदी के निर्विरोध निर्वाचन में सीधा सम्बन्ध है .दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं .दोनों ही एक-दुसरे के पूरक सहयोगी हैं.एक-दुसरे के समर्थन में ,एक-दुसरे की शक्ति के रूप में कामकर रहें हैं .यह मानसिकता और उसका मनोविज्ञान ईश्वर की तरह ही एक अप्रतिस्पर्धी राजनीतिक नेतृत्व का पोषण और प्रोत्साहन करता है.यह राजनीतिक स्थिरता की दृष्टि से उपयोगी है,किन्तु दूसरी ओर यही मानसिकता एक बहुलवादी लोकतान्त्रिक राजनीतिक संस्कृति और वैकल्पिक नेतृत्व की महत्वाकांक्षा को हतोत्साहित भी करती है.. यह मजबूत विपक्ष के अस्तित्व और पोषण की दृष्टि से अनुकूल नहीं है .    
                   यह एक सच्चाई है कि यदि गणतंत्र न होता तो बुद्ध के करुणावादी,निरीश्वरवादी प्रज्ञात्मक दर्शन का जन्म भी नहीं होता,जिसे आज हम बुद्ध का धर्मं कहते हैं. समीकरण साफ है की एक सर्वव्यापी ईश्वर या फिर राजनीतिक सत्ता के लिए भी हमें अपने व्यक्तित्व को समेटना होगा . उसे आकाशीय विस्तार और अवकाश देने के लिए अपने अहम् को कम करना होगा .परंपरागत शब्दावली में इसे दास्य भाव की भक्ति कहते हैं.सामाजिक व्यवहार में यह एक हीन और विनम्र मनुष्य की मांग करता है.स्पष्ट रूप से यह व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था की असमानता की पराकाष्ठा की स्थिति को ही सूचित करती है. इस तरह स्पष्ट है कि लोकतन्त्र बिना मानवतावादी -बुद्धिवादी आध्यात्म के विकास के संभव ही नहीं है .या तो हमें ईश्वर की चिंता को छोड़कर मनुष्य की चिंता करनी होगी या फिर नास्तिक या निरीश्वरवादी बनना पड़ेगा .इसमे कबीर और नानक की शैली का मनुष्यव्यापी ईश्वर और आध्यात्म अधिक प्रासंगिक और युक्तियुक्त होगा .वैष्णवी विचारधारा तो प्रकारान्तर से आदर्श एवं संवेदनशील राजतन्त्र का ही विस्तार है . 
                    समाजशास्त्रीय विश्लेषण के इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो अधिकांश लोग ईश्वर की अवधारणा को किसी सर्वकालिक और सर्वशक्तिमान सत्ता की उपस्थिति के रूप में स्वीकार करते हुए उसके सामाजिक स्रोत,सामाजिक भूमिका और मानवीय परिणामों को अनदेखा करते हैं . वे यह भूल जाते हैं कि भारतीयों की अधिकांश सांस्कृतिक अवधारणाओं का विकास एक जाति-विशेष ब्राह्मण नें ही किया है .अपने पेशेगत कारणों से इस विशेष जाति नें जो अपने लिए भी विशिष्ट चरित्र-नीति और मर्यादाएं निर्धारित कीं;वह राजतन्त्र व्यवस्था के कारण 'इस सीमा तक राजनीतिक महत्वाकांक्षा से हीन विकसित किया गया है कि वह पूरी भारतीय संसकृति को एक आज्ञाकारी शासित संस्कृति में बदल देता है .  
                सबसे पहले तो पुनर्जन्म ,भाग्यवाद और कर्मवाद की अवधारणा के कारण यह राजा को ईश्वर की इच्छा ,प्रारब्ध एवं नियति के अनुसार राजप्रप्ति करने वाले के रूप में जन्म के पहले से ही विशिष्ट मानव
घोषित करती है . इसमें संदेह नहीं है कि इन विश्वासों नें अंतर्सामुदायिक विश्वासघात ,नेतृत्व की अराजकता और महात्वाकांक्षी प्रतिस्पर्धा को रोका है .दरअसल यह पूरी संस्कृति और धार्मिक आचारसंहिता वंशानुगत उत्तराधिकार को केंद्र में रखकर रची गई थी .इससे निःसंतान होने तक कोई भी राजतन्त्र कई पीढ़ियों तक चलता रह सकता था .   
                यद्यपि कई बार तो मंत्री और सेनापति का पद भी आनुवांशिक था ,लेकिन राजा को यह अधिकार था कि वह जाति-विशेष से ही किसी अन्य ब्राह्मण को मंत्री के रूप में चुने ठीक उसी तरह जैसे जनसामान्य में भी हर परिवार के अपनें वंशानुगत पुरोहित परिवार होते थे .उसी तरह मंत्री के परिवार से ही कोई मंत्री बन सकता था .प्राचीन भारत में इस जातीय व्यवस्था नें राजा और मंत्री बनने की कूटनीतिक साज़िशों और प्रतिस्पर्धा को रोका .वास्तव में यह एक कृषि -आधारित स्थायित्वपूर्ण समाज की स्थाई व्यवस्था थी .जिस व्यवस्था में किसान का कृषि -क्षेत्र और उपज -सामर्थ्य तक सुनिश्चित थी .कृषि -आधारित स्थाई संसकृति नें ये सारे सामाजिक -सांस्कृतिक चरित्र और भूमिकाएँ निर्धारित की थी .इसी के अनुरूप जातीय चरित्र और उसका संस्कारगत प्रशिक्षण -तंत्र भी विकसित किया था .  
                ब्राह्मण वर्ण का जातीय चरित्र उसको राजनीतिक व्यवस्था में महत्वाकांक्षा से रहित रहने की मांग करता था .समाज में राजा के बाद की पद -व्यवस्था के कारण यह संस्कृति-जीवी जाति जिस धर्म -व्यवस्था और सामाजिक व्यव्हार -तंत्र की अचेतन प्रस्तावना कराती है :वह किसी और के नेतृत्व का
समर्थनकारी व्यक्तित्व रचता है .वह शासक को सम्मान से देखने की संस्कृति का प्रस्तावक है .अपनी इस मानसिक व्यवस्था के कारण ब्राह्मण जाति और उसके द्वारा प्रस्तावित संस्कृति किसी भी शासक के लिए अनुकूल और समर्थन की भूमिका में रही है .क्योंकि भारतीयों की अधिकांश धार्मिकता और संस्कृति के केंद्र में ब्राह्मण-दृष्टि और मानसिकता की ही केन्द्रीय भूमिका है .इसलिए इस वर्ण की मानसिकता के अनुरूप
भारतियों का ईश्वर भी शासक -समर्थक मानसिकता को पोषित करता है .उसका जातीय तंत दरअसल राजतन्त्र और वंशानुगत उत्तराधिकार की संरक्षक अवधारणा और विश्वास -तंत्र के रूप में है .    
                  भारतीय संस्कृति का नियतिवाद क्योंकि कृषि -सभ्यता के स्थिर अर्थ-तंत्र से प्रेरित स्थायित्व्वाद ही है ,इस लिए इसकी ईश्वर और धर्म सम्बन्धी सभी सांस्कृतिक अवधारणाएं यथास्थितिवाद की पोषक तथा बेहतर नेतृत्व की दृष्टि से किसी भी लोकतंत्रोचित राजनीतिक प्रतिस्पर्धा एवं प्रतियोगिता का निषेधी है .यह संस्कृति भारतीयों में व्यापक लोकतान्त्रिक उदासीनता को जन्म देती है .इसका दूसरा दुस्परिणाम भारतीय राजनीति में परिवारवाद की सहज और व्यापक स्वीकृति तथा जन-समर्थन है .इससे भारत में लोकतान्त्रिक सत्ता कुछ ही परिवारों में सिमटकर रह गयी है .अच्छा या बुरा जो कुछ भी हो रहा है ,उन्ही के माध्यम से हो रहा है .क्योंकि भारतियों की दार्शनिक ,धार्मिक और सांस्कृतिक अवधारणाएँ बहुत कुछ चारण जाति की भूमिका वाली पुरोहित जाति ने रची है ,इस लिए यह शासक वर्ग को प्रजा की चुनौतिओं से परे का एक प्रतिरोध रहित राजनीतिक स्वर्ग देती है .