रविवार, 31 मई 2015

कबीर के राम

कबीर का निर्गुण ब्रह्म सर्वव्यापी एवं साधनामूलक होने के कारण  हर काया को राम का अवतरण -स्थल मनाता है .उनके राम तक पहुँचने के लिए किसी को भी अपने से बाहर  नहीं जाना है ;किसी को भी बाहर भटकना नहीं है .उनका अंतर्यामी राम इस तरह हर जीव को राम के एक अवतार में बदल देता है .दरअसल जाति-पांति से ग्रसित इस देश नें मुक्ति के लिए जिस अस्मितामूलक आध्यात्म का विकास किया है -उसका कोई मनोवेज्ञानिक विकल्प नहीं है .सनातनी परंपरा में आदि शंकराचार्य ;आदिकाल में गुरु गोरखनाथ  और मध्यकाल में संत मत के प्रवर्तक कबीरदास जी सभी भारतीयों के लिए अपने अस्मिता मूलक आध्यात्म के कारण महत्वपूर्ण हैं , इस दृष्टि से शंकराचार्य को मैं गीताकार से भी अधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ .गीता में भेद -भाव मूलक आत्मा और परमात्मा के द्वैत का अपरोक्ष प्रतिपादन है .कृष्ण को ईश्वर विज्ञापित करने के चक्कर में वे अर्जुन और दुर्योधन आदि के आध्यात्मिक मानवाधिकार की उपेक्षा कर देते हैं .अर्जुन के पास विकास का समय नहीं है .दुर्योधन के पास सुधार और प्रायश्चित का विकल्प ही नहीं है -सिर्फ मारे जाने के अतिरिक्त .अर्जुन सामान्य मनुष्य की आत्मा के प्रतिनिधि हैं तो कृष्ण सर्वव्यापी परमात्मा के .शंकराचार्य का अद्वैतवाद आत्मा और परमात्मा दोनों की तात्विक समानता की खुलकर घोषणा करता है . आदिकाल में  गुरु गोरखनाथ भी  ' जोई पिंडे सोई ब्रह्मांडे ' कहकर दोनों की तात्विक समानता की घोषणा करते हैं .कबीर भी जल में कुम्भ ,कुम्भ में जल है ,बाहर -भीतर पानी ; फूटा कुम्भ जल-जलहि समाना ,यह तथा कथहु गियानी 'कहकर मानव -जीवन की महत्ता को स्वतन्त्रतापूर्वक जीते हैं .आज हम जानते हैं की यह स्वतंत्रता सामंती समाज से व्यक्ति -जीवन के मुक्ति की भी है ,
               इस क्रम में कबीर अपने राम को एक दार्शनिक अवधारणा के रूप में लेते हैं .उनका प्रयोजन दशरथ के पुत्र पौराणिक राम से नहीं है .कबीर के राम अन्तर्यामी एवं घट-घटव्यापी राम हैं .इसीलिए वे अपने राम -नाम के मर्म को अन्य बतलाते हैं . मेरी दृष्टि में वह मर्म यह है कि कबीर की माने तो हर आत्मा परमात्मा की अवतार है .इसतरह वे अभिजनवादी पौराणिक अवतारवाद का लोकतांत्रिककरण करते हैं .वे सभी के लिए राम बनने की मुक्ति का द्वार खोलते हैं . जबकि पुरोहितवाद एक राम के बाद ,दूसरे किसी भी मनुष्य के राम होने के अधिकार और संभावना का निषेध करता है .कबीर इस विभेद और विषमताकारी रामत्व को ही अस्वीकार करते हैं .सही अर्थों में देखा जय तो वे पौराणिक राम के भी अधिक समीप और सही थे .पौराणिक राम के गुरु विश्वामित्र  और उनका प्रसिद्ध गायत्री मंत्र भी तो सभी आत्माओं के दिव्यत्व की घोषणा ही करता था .उनका पुरोहित वशिष्ट(विशिष्ट !)) से लम्बा मुक्ति -संघर्ष भी चला .अपने नाम के अनुरूप विश्वामित्र जन-जन के आध्यात्मिक मानवाधिकार के समर्थक थे ; जबकि पुरोहितों का आध्यात्म अभिजनोचित और विशिष्टतावादी था . विश्वामित्र के प्रथम शिष्य के रूप में राम की स्थिति भी आधुनिक युग में मार्क्स के अनुयायी  लेनिन सरीखी ही  थी .राम का चरित्र गायत्री मंत्र के भावार्थ को ही अपने आदर्श आचरण के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाता है .कबीर का संत मत उसी रामत्व को पुनः मुक्त करता है .