मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

आस्था का संकट

मैं जब दरवाजा खोलता हूँ मुझे नहीं पता कि
दरवाजे के बाहर जो खड़ा है आगंतुक
उसका चरित्र कैसा है !
मैं जब दरवाजा खोलता हूँ
किसी सज्जन के आगमन की प्रत्याशा के साथ
बाहर स्वजन के स्थान पर खड़ा मिलता  है दुर्जन

मैं दरवाजा बंद रखने पर स्वयं को सुरक्षित समझता हूँ
मैं जब दरवाजा बंद रखता हूँ
होता है स्वजन का अपमान
मेरा स्वजन बाहर भटकता है लावारिस
मैं जब दरवाजा खोलता हूँ स्वजन के लिए
स्वजन को धक्का देकर मेरे घर में घुस आता है हत्यारा

इस तरह दरवाजा खोलना एक साथ ही
स्वागत और असुरक्षा है
मुझे नहीं पता कि मैं जब खोलूंगा द्वार
उससे कौन आएगा भीतर
ईश्वर या शैतान ?
कि विश्वास के उस भावुक दुर्बल क्षण  में
विश्वासघाती दुर्घटना
सारे जीवन को नकारात्मकता से भर देती है।

हे पिता ! हे पूर्वजों !
तुम्हारी दी हुई आस्था नें
असुरक्षित कर दिया है मुझे
मेरी एक ही आस्था
ईश्वर और शैतान दोनों को ही  मुक्त आमंत्रण देती  है /

कि मुझे यह नहीं पता है कि
मैं जब-जब भी खोलूंगा  द्वार
उससे कौन आएगा मेरे भीतर
ईश्वर य़ा शैतान ?
जबकि हर आस्था परनिर्भरता विकसित करती ही है।