र्इश्वर के बिना...
मैंने सारी सफलताएं
र्इश्वर के बिना ही प्राप्त की हैं-मित्र नें कहा
दुखती पिण्डलियों के साथ चढ़ा हूं समय का पहाड़
जैसे किसान र्इश्वर से अधिक अपने
बहते पसीनें को जानता है
खेत जोतते और मिटटी तोड़ते हुए
आजीविका के लिए सारी-सारी रात जागकर
ट्रेन और ट्रक चलाते ड्राइवरों की तरह
जो लड़ते रहते हैं अपनी नींद और मृत्यु से
हर शिकारी के लिए
र्इश्वर से अधिक अनुभव ही सफल बनाता है
जैसे खाना बनाने का हुनर सीखे बिना
नहीं बजवायी जा सकतीं सफलता की तालियां
शेरनी अपने अनुभव से पहचानती है कि
कि कौन-सा उपयुक्त शिकार बच्चा,बूढ़ा है या लाचार
और किसे बनाया जा सकता है
घायल होने के जोखिम के बिना
आसानी से अपना शिकार
या फिर कितनें सहयोगियों के साथ मिलकर
मर गिराया जा सकता है कोर्इ बड़ा शिकार...
परिदृश्य में र्इश्वर कहीं नहीं था
और आसानी से जिया जा सकता था र्इश्वर के बिना
समझते हुए समय और बाजार को
नेताओं को जीत के लिए र्इश्वर को नहीं
जनता के मन को समझना और पटाना था
डकैत और हत्यारे अपने अनुभव यानि हुनर से ही जानते थे कि
किस हत्या के लिए कितनें साथियों की जरूरत होगी
और कहां छिपकर लगाना होगा उन पर घात !
इधर एक मित्र की कविता पढ़ी
र्इश्वर का होना हास्यास्पद बताते हुए
और मुझे पूरी तरह लगा कि वे सच बोल रहे हैं
मित्र जो बार-बार कहते है कि
मैंने सारी सफलताएं (आत्मा पर पत्थर रखकर)
सिर्फ राजनीति से हासिल की हैं
जैसे कि अनेक मूर्खों को विद्वान कहा है
(जो वास्तव में हेड का साला होने के कारण
एक दिन प्राफेसर पद तक जा पहुंचे )
और भ्रष्टों को महान.....
ऐसे बिकाऊ दौर में जब खरीदनें की शकित न हो तो
सफलता के लिए मुझे र्इश्वर से अधिक
अपनी विनम्र वाणी और
चापलूसी में झुकी अपनी दुखती कमर पर अधिक भरोसा है
फिर भी जब जंगल में शिकार कम हो जाते हैं
या फिर बढ़ जाते हैं शहर में अपराध
बढ़ जाती है जीने की प्रतिस्पद्र्धा और असुरक्षा
बढ़ती प्रतीक्षा और घटते धैर्य के साथ-साथ
हर उच्छवास और हर बात में
एक मुहावरे के रूप में
लौट आता है र्इश्वर....
निष्कर्ष रूप में र्इश्वर
सिर्फ शाकाहारियों और सदाचारियों के लिए है
या फिर अपने पुरखों के प्रति सुरक्षित उत्तराधिकार के लिए कृतज्ञ
उन प्रतीक्षा (नियति) वादियों के लिए
जो स्वयं सही रहते हुए दूसरों के भी सही बने रहने के प्रति
सिर्फ प्रार्थना ही कर सकते हैं....
एक दुर्घटना की तरह आती है तकनीकी दरिद्रता
बहुत कुछ अप्रत्याशित और अविश्वसनीय....
शहर के ए0टी0एम0 मशीनों के एक साथ लिंक फेल होने की तरह....
या फिर ऐसी छुटिटयां जब बैंक वाले निकल पड़ते हैं एक साथ
जेल की टूटी दीवारों के पार निकल भागे कैदियों की तरह....
तकनीकी दरिद्रता में जब हम किसी से कहते हैं कि
रुपए नहीं रहे मेरे पास....तो मित्र
मनने के लिए तैयार ही नहीं होते
कि रुपए भला कैसे नहीं होंगे हमारे पास !
पत्नी और बच्चे भी नहीं करते विश्वास
कि सुबह से बनाने के लिए नहीं मिला कोर्इ और....
तकनीकी दरिद्रता में
भीतर से घबराहट होने लगती है
और ट्रेजरी के बाबू पर भी आता है गुस्सा
दूकानदार यधपि अपमानित नहीं करते
लगते हैं गर्व भरे सहयोगी-सâदय
फिर भी अपमानमय रहता है अन्त:करण....
तकनीकी दरिद्रता में दुखते समय को लावारिस छोड़कर
आगे बढ़ जाते हैं-बहुत कुछ हम नहीं कर पाते
कर्इ बार तो स्वयं भीख मांगने की परिसिथतियों में
होते हुए भी नहीं मांग पाते भीख......
तकनीकी दरिद्रता चुभती है मजाक -सी
रोते हुए भी हंसना पड़ता है खुद पर
भविष्य के लिए बचत की मिलती जो सीख !
चूहे बिलिलयों से बचने के लिए
सांपों के लिए बिल खोद रहे थे
घबराहट में और अधिक संख्या में
बेमौत मारे जा रहे थे कायर......
भागकर चूहों की तरह ही
सापों के मुख में जा फंसे थे !
और मैं चारों ओर से घिरे हुए बाढ़ में डूबे
अकेले खडे़ ऊंचे पेड़ पर चढ़ बैठे बन्दर की तरह
अकेला बचा हुआ था
मानक आदशोर्ं के शिखर ऊंचाइयों की
थकी हुर्इ टहनियां पकड़े
ज्बकि सभी बदल गए थे-चुपके-चुपके-चुपके...
एक-दूसरे से अपने अपमानजनक समझौतों की खबरें छिपाए
किसी सुरक्षित शरणस्थल पर पहुंचकर
डूबते हुओं के प्रति
अफसोस प्रकट करने के लिए.....
(र्इश्वर का समाजशास्त्र )
मैंने सारी सफलताएं
र्इश्वर के बिना ही प्राप्त की हैं-मित्र नें कहा
दुखती पिण्डलियों के साथ चढ़ा हूं समय का पहाड़
जैसे किसान र्इश्वर से अधिक अपने
बहते पसीनें को जानता है
खेत जोतते और मिटटी तोड़ते हुए
आजीविका के लिए सारी-सारी रात जागकर
ट्रेन और ट्रक चलाते ड्राइवरों की तरह
जो लड़ते रहते हैं अपनी नींद और मृत्यु से
हर शिकारी के लिए
र्इश्वर से अधिक अनुभव ही सफल बनाता है
जैसे खाना बनाने का हुनर सीखे बिना
नहीं बजवायी जा सकतीं सफलता की तालियां
शेरनी अपने अनुभव से पहचानती है कि
कि कौन-सा उपयुक्त शिकार बच्चा,बूढ़ा है या लाचार
और किसे बनाया जा सकता है
घायल होने के जोखिम के बिना
आसानी से अपना शिकार
या फिर कितनें सहयोगियों के साथ मिलकर
मर गिराया जा सकता है कोर्इ बड़ा शिकार...
परिदृश्य में र्इश्वर कहीं नहीं था
और आसानी से जिया जा सकता था र्इश्वर के बिना
समझते हुए समय और बाजार को
नेताओं को जीत के लिए र्इश्वर को नहीं
जनता के मन को समझना और पटाना था
डकैत और हत्यारे अपने अनुभव यानि हुनर से ही जानते थे कि
किस हत्या के लिए कितनें साथियों की जरूरत होगी
और कहां छिपकर लगाना होगा उन पर घात !
इधर एक मित्र की कविता पढ़ी
र्इश्वर का होना हास्यास्पद बताते हुए
और मुझे पूरी तरह लगा कि वे सच बोल रहे हैं
मित्र जो बार-बार कहते है कि
मैंने सारी सफलताएं (आत्मा पर पत्थर रखकर)
सिर्फ राजनीति से हासिल की हैं
जैसे कि अनेक मूर्खों को विद्वान कहा है
(जो वास्तव में हेड का साला होने के कारण
एक दिन प्राफेसर पद तक जा पहुंचे )
और भ्रष्टों को महान.....
ऐसे बिकाऊ दौर में जब खरीदनें की शकित न हो तो
सफलता के लिए मुझे र्इश्वर से अधिक
अपनी विनम्र वाणी और
चापलूसी में झुकी अपनी दुखती कमर पर अधिक भरोसा है
फिर भी जब जंगल में शिकार कम हो जाते हैं
या फिर बढ़ जाते हैं शहर में अपराध
बढ़ जाती है जीने की प्रतिस्पद्र्धा और असुरक्षा
बढ़ती प्रतीक्षा और घटते धैर्य के साथ-साथ
हर उच्छवास और हर बात में
एक मुहावरे के रूप में
लौट आता है र्इश्वर....
निष्कर्ष रूप में र्इश्वर
सिर्फ शाकाहारियों और सदाचारियों के लिए है
या फिर अपने पुरखों के प्रति सुरक्षित उत्तराधिकार के लिए कृतज्ञ
उन प्रतीक्षा (नियति) वादियों के लिए
जो स्वयं सही रहते हुए दूसरों के भी सही बने रहने के प्रति
सिर्फ प्रार्थना ही कर सकते हैं....
तकनीकी दरिद्रता में....
एक दुर्घटना की तरह आती है तकनीकी दरिद्रता
बहुत कुछ अप्रत्याशित और अविश्वसनीय....
शहर के ए0टी0एम0 मशीनों के एक साथ लिंक फेल होने की तरह....
या फिर ऐसी छुटिटयां जब बैंक वाले निकल पड़ते हैं एक साथ
जेल की टूटी दीवारों के पार निकल भागे कैदियों की तरह....
तकनीकी दरिद्रता में जब हम किसी से कहते हैं कि
रुपए नहीं रहे मेरे पास....तो मित्र
मनने के लिए तैयार ही नहीं होते
कि रुपए भला कैसे नहीं होंगे हमारे पास !
पत्नी और बच्चे भी नहीं करते विश्वास
कि सुबह से बनाने के लिए नहीं मिला कोर्इ और....
तकनीकी दरिद्रता में
भीतर से घबराहट होने लगती है
और ट्रेजरी के बाबू पर भी आता है गुस्सा
दूकानदार यधपि अपमानित नहीं करते
लगते हैं गर्व भरे सहयोगी-सâदय
फिर भी अपमानमय रहता है अन्त:करण....
तकनीकी दरिद्रता में दुखते समय को लावारिस छोड़कर
आगे बढ़ जाते हैं-बहुत कुछ हम नहीं कर पाते
कर्इ बार तो स्वयं भीख मांगने की परिसिथतियों में
होते हुए भी नहीं मांग पाते भीख......
तकनीकी दरिद्रता चुभती है मजाक -सी
रोते हुए भी हंसना पड़ता है खुद पर
भविष्य के लिए बचत की मिलती जो सीख !
समयांकन
चूहे बिलिलयों से बचने के लिए
सांपों के लिए बिल खोद रहे थे
घबराहट में और अधिक संख्या में
बेमौत मारे जा रहे थे कायर......
भागकर चूहों की तरह ही
सापों के मुख में जा फंसे थे !
और मैं चारों ओर से घिरे हुए बाढ़ में डूबे
अकेले खडे़ ऊंचे पेड़ पर चढ़ बैठे बन्दर की तरह
अकेला बचा हुआ था
मानक आदशोर्ं के शिखर ऊंचाइयों की
थकी हुर्इ टहनियां पकड़े
ज्बकि सभी बदल गए थे-चुपके-चुपके-चुपके...
एक-दूसरे से अपने अपमानजनक समझौतों की खबरें छिपाए
किसी सुरक्षित शरणस्थल पर पहुंचकर
डूबते हुओं के प्रति
अफसोस प्रकट करने के लिए.....