शनिवार, 5 जनवरी 2013

मस्तिष्क -पाठ

मेरे लिए हर मस्तिष्क एक पाठ है
किसी आदिम गुफा में बन्द
सीलन भरी ठहरी हवा की तरह
मैं उसे नापसंद कर सकता हूँ ....

मेरे लिए हर इतिहास एक कल्पना है
और उसको अलग-अलग समूहों में
जाति की तरह जी रहे सारे लोग कल्पनाजीवी

मैं उसे तथाकथित सम्भ्रान्त व्यक्ति की शातिर मुस्कान और
पार्क के दूसरी छोर पर बने कूड़ा -घर के पास
हंसते हुए बैठे
उस पागल की हंसी की तरह पढ़ सकता हूँ

मैं पढ़ सकता हूँ
सड़क के दूसरी ओर जा रही उस स्त्री को
घूरते हुए उस आदमी का दिमाग
जिसकी चुभन से बचने के लिए
उसने अपनी चाल तेज कर दी है
और लगभग भागती हुई -सी
किसी शिकार की तरह निकल जाना चाहती है
शिकारी परिदृश्य के बाहर.....

वह लुच्चा जो अपनी आँखों से
खोद देना चाहता है उस युवती की देह .....

तीन विचार कविताएं


सृष्टि के अन्त की वैज्ञानिक भविष्यवाणियों पर 


मैं मरूँगा और धरती के साथ मरूँगा
या फिर मरूँगा अपने ब्रह्माण्ड अपनें अंतरिक्ष  के साथ
उस दिन जब धरती कांपने लगेगी प्यासी
थकने लगेगा बूढ़ा ब्रह्माण्ड
सारा समुद्र वाष्प बनाकर उड़ जाएगा अंतरिक्ष में
और मेरे बूढ़े मरणासन्न पिता की तरह
धौंकती सांसों के साथ हांफने लगेगा सूरज
हाँ उस दिन जब धरती पर सिरफिरे अपराधियों की तरह
नृत्य करने लगेंगी पागल सौर हवाएं ....

हाँ उस दिन जब मैं डूबते पोत के कप्तान की तरह
अपनी धरती के साथ बूढ़े सौर समुद्र में
डूब मरने के लिए अपनी आँखें बंद कर लूँगा
हाँ उस दिन जब बिना किसी किताब को पढ़े
जीवन के पर्यावरण को रौद रहा होगा समय का यमदूत
हाँ उस दिन जब ईश्वर अपनी आँखें बंद कर रहा होगा
चिर-निद्रा में सो जाने को तैयार
हाँ उस दिन जब बूढ़ा सूर्य डूब रहा होगा
अपनी ही सृष्टि में ...

हाँ उस दिन जब मेरी मौत
धर्म-ग्रंथों के आश्वासनों के बाहर
ब्रह्माण्ड के नियमों के अधीन होगी
उस दिन हाँ उस दिन के लिए छोड़ दो तुम
ताकि मैं एक बहादुर की मौत मर सकूँ
अपनी प्यारी धरती के साथ !

हाँ उस दिन....उस दिन आखिरी बार बूढ़ा होकर
मर जाऊंगा मैं
एक प्रवाहमान जीवनधारा के अंत की तरह
उस दिन बूढी मानव-जाति की बूढी देह
लड़खड़ाती हुई गिर पड़ेगी धरती पर हमेशा-हमेशा के लिए
जीवन उड़ जाएगा वाष्प होकर
वाष्प अणुओं-परमाणुओं में टूटकर ऊर्जा में बदल जाएगा
मेरे अधरों के निर्माता परमाणु भी
अग्नि के एक विराट अट्टहास में बदलकर  चल पड़ेंगे
हजारों प्रकाश वर्ष दूर
जहाँ से देख रहा होगा नया-नया जन्मा हुआ
एक नन्हा -सा ईश्वर
अपनी नई मुस्कान के साथ.....


"डब-मैंन"


दो बड़े कबीले रहते हैं मेरे शहर में
सामूहिक संक्रमण के शिकार
दो अलग -अलग प्रजाति के वायरस के शिकार दो बड़े समूह
हजारों वर्ष पुरानी घटनाओं पर आंसू बहाते हुए
अपने-अपने कथा-नायकों के दुःख से दुखी
और सुख से सुखी होते हुए
अत्यन्त सामूहिक क्रूरता के साथ डरते हुए कि
दूसरे के दुःख से दुखी होते ही
 ख़त्म हो जाएगा उनका वजूद ...

वे सभी ऐसे अपराध-बोध से ग्रस्त हैं
जो उन्होंने किया ही नहीं है
वे दुखी हैं दुख के उस पल की अपनी अजन्मी अनुपस्थिति के लिए
अपनें कुछ भी न कर पाने की असमर्थता के शोक में डूबे
वे रोना चाहते हैं अनन्त काल तक
कुछ ऐसे की उनका कोई निजी दुःख ही नहीं रहा हो कभी .....

वे ग्रस्त हैं सिर्फ अपने ही नायकों के दुःख से
वे अत्यन्त क्रूरता के साथ दूसरों के नायक के दुःख से
दुखी होने से बचाना चाहते हैं
वे ईमानदार हैं अपनी-अपनी स्मृतियों के
अति शुद्ध पाठ के प्रति
अलग-अलग फिल्मों की अलग-अलग सीता की तरह
गुजरे हुए जय -ग्रंथों की
अपनी प्रिय धुन को बजा रहे हाँ वे
पूरी शक्ति के साथ .....

समय में और समय में नहीं ....


मैं अपने समय में हूँ
मैं इतना स्वतन्त्र हूँ कि
अपने हिस्से के समय को जी सकता हूँ !
लेकिन 'माफ़ कीजिएगा'-मैं अपने प्रति
पुरे सम्मान और सहानुभूति के साथ
आपका अपने समय में न होने का
शोक-गीत लिखना चाहता हूँ !

आपकी तरह मैं भी बीते हुए कल की संतान हूँ
लेकिन आप तो बीता हुआ कल ही हैं
मेरे समय के जीवित अतीत !

जो अपने समय में नहीं हैं
उनकी रुलाइयाँ छूट रही हैं सडकों पर
जो अपने समय में नहीं हैं
बिता हुआ कल उनके भीतर
गंदे जल-सा सड़ रहा है

वे मुस्करा रहें है
बीते हुए ज़माने की अच्छाइयों पर
युगों पहले के नायक पर रीझते हुए
वे स्वयं को नायक बनाना भूल गए हैं
वे अपने मस्तिष्क में बंद हैं और
तूफानी समुद्र में लावारिस भटकते किसी
भग्न पोत की तरह डूब रहे हैं अपनी स्मृति में ....

वे इस तरह हैं कि
जैसे कहीं हो ही नहीं
वे साथ-साथ न होते हुए होने में ही खुश हैं
वे डरते हैं कि स्वयं को होने और जीने के क्षणों में
वे घोषित कर दिए जाएँगे विधर्मी
हो जाएँगे प्रतिबंधित स्वार्थों की लेन-देन में ....

वे एक जीवित इतिहास हैं
और इतिहास को जीवित रखने के प्रयास में
मारे जा चुके हैं वे