राहुल संकृत्यायन के जन्म-दिन पर आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेने का अवसर मिला .राहुल के सन्दर्भ में गौतम बुद्ध के अनीश्वरवाद की चर्चा हुई और मार्क्स की नास्तिकता की भी .इस अवसर पर मुझे भी वैचारिक शरारत सूझी इस अवसर पर मैंने कहा कि जो भी व्यवस्था के पक्ष में होगा और उससे संतुष्ट होगा वह आस्तिक होगा और जो भी व्यवस्था से नाराज या असंतुष्ट होगा उसे न चाहते हुए भी नास्तिक होना पड़ सकता है .इसलिए कि सुक्ष्म दार्शनिक स्तर पर करुणा और ईश्वर की सर्व्शाक्तिमंवादी आस्था में अंतर्विरोध है . बहुत से लोग इस तार्किक अंतर्विरोध को देख नहीं पाते.
आध्यात्मिकता के इस मूल विश्वास को ही देंखें कि यह दुनिया ईश्वर नें बनायीं है और उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलता-इस अवधारणा के आधार पर किसी दुर्घटना के अवसर पर मानवीय कर्तव्य का निर्धारण नहीं हो सकता .जैसे यदि किसी की टाग(पैर ) टूट जाए तो हरि-इच्छा वादियों की तरह यह मान लें कि अमुक व्यक्ति की टांग(पैर ) ईश्वर की इच्छा से ही टूटी है या ईश्वर की ही इच्छा थी कि उसकी टांग(पैर ) टूटे तो किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अस्पताल पहुँचाने का प्रयास भी ईश्वर की इच्छा के खिलाफ और विद्रोह ही मान जाएगा .ऐसा इस लिए है कि ईश्वर की इच्छा का सम्मान अंतत यथास्थिति का सम्मान ही प्रमाणित होता है .जब आप मानवीय कर्तव्य के रूप में करुणा करते हैं तो दुःख के विरोध में और कान्तिकारी भूमिका में होते हैं .इसी तरह किसी पूर्व-स्थापित सत्ता या वर्चस्व का विरोध करना भी ईश्वर से असहमत होकर ही संभव है .इसी दार्शनिक जरुरत के कारण बुद्ध को अनीश्वरवादी होना पड़ता है .स्पष्ट है की ईश्वर उनके लिए खलनायक है .यहाँ ईश्वर प्रकृति का पर्याय बन जाता है .यदि ईश्वर नें ही यह दुःख-पूर्ण दुनिया बनायीं है तो उससे सहमत होना दुख में बने रहना होगा ;दुख के कारणों का समर्थन करना होगा .ऐसे में दुख हटाना है या दुःख से लड़ना है तो ईश्वर यानि व्यवस्थ यानि यथास्थिति से असहमत हुए बिना संभव ही नहीं है
इस मनोग्रंथि का ही एक रूप इस्लाम के अनुयायियों में देखा जाता है ,उनके यहाँ सही-गलत का विवेक न होकर सिर्फ सफल-असफल का विवेक है .इसी मनोविज्ञान के करण वे लादेन और सददाम की सफलता को ईश्वर की इच्छा से समर्थित मानकर चुप्पी लगा जाते हैं .इसलिए कि तबाही में सफल हुआ तो ईश्वर की सहमति रही होगी ही .लेकिन जैसे ही ऐसे लोग मार दिए जाते हैं वे उसी मानसिकता से चुप्पी लगा लेते हैं कि ईश्वर की इच्छा नहीं रही होगी तभी ऐसे लोग मारे गए हैं .इसी मनोविज्ञान के करण इस्लाम के अनुयायियों में सही-गलत का विवेक बहुत काम है.
यदि वाल्मीकि रामायण पढ़ें तो पाएँगे कि रावण के मारे जाने के बाद जब ऋषियों-चारणों द्वारा उन्हें ईश्वर का अवतार घोषित किया जा रहा है तो वे स्पष्ट कहते हैं कि मैं दशरथ-पुत्र राम स्वयं को मनुष्य मनाता हूँ..प्रश्न साफ है कि यदि राम स्वयं ईश्वर थे तो फिर वे लड़ किससे रहे थे .राम के सामने यह प्रश्न रहा होगा कि उनके बारे में बुरा सोचने वाला कौन है .इस तरह राम व्यवस्था,यथास्थिति से असहमत होकर उससे प्रतिरोध के करण ही ईश्वर माने गए अन्यथा अपनी इच्छा से पत्ता तक हिलाने वाले ईश्वर नें तो उनका पत्ता साफ ही कर दिया था .बुद्ध भी अपनी संवेदना और दुःख से असहमत होने के कारण ईश्वर से असहमत थे .पश्चिमी संस्कृति नें इस समस्या का दूसरा समाधान निकाला है . वे अच्छे परिणाम वाली घटनाओं को ईश्वर की और से और बुरे परिणाम वाली घटनाओं को शैतान की और से मान लेते हैं .
इस तरह हमें मान लेना चाहिए कि वर्तमान से यथार्थ से असहमत होने वालों का नास्तिक होना बुरा नहीं है .यह एक नए सर्जन के साहस से जन्म लेता है .वैसे भी यदि प्रकृति का एक नाम सृष्टि है तो सृजन ही मनुष्य का धर्म और कर्त्तव्य हुआ .भारत में इस आध्यात्मिक समस्या का समाधान विष्णु की परिकल्पना से निकल लिया गया है .वे नियति के प्रति मानवीय प्रतिरोध के प्रतीक हैं .वे गलत सफल के प्रति सही के सफल के लिए संघर्ष करते रहते हैं .इस तरह वे ऐसे ईश्वर हैं जो ईश्वर से ही जूझते और संघर्ष करते रहते हैं .गीता में कृष्ण भी गलत लोगों का सफल होना समाज के लिए हितकर नहीं मानते.यद्यपि शब्दावली कुछ इसप्रकार हैं कि सफल मनुष्य जिस तरह का आचरण करते हैं लोक उसी प्रकार का अनुसरण करता है .प्रकारान्तरसिसमें यह सन्देश छिपा है कि सही मनुष्य को सफल होना ही चाहिए .
इतना कुछ कहने के बाद यह भी कह देना उचित समझता हूँ कि प्राचीन ब्राह्मण जाति की भूमिका एक प्रकाशक की ही रही है.इसने आदर्श चरित्रों आध्यात्मिकीकरण करके उसका पेशेवर उपयोग भर किया है .ऐसा उसनें सभी चरित्रों के साथ किया है ;लेकिन एक सीमा से अधिक वह पेशेवर होने के करण ही चरित्रों के वर्ग और वर्ण चरित्र नहीं बदल सकी है .अच्छी बात यही है कि राम और कृष्ण जैसे उसके आदर्श नायक सकर्मक सौन्दर्य और आचरण वाले सक्रिय वर्णों से आए चरित्र हैं .इसीलिए पुरोहिती संस्करण से अलग भी उनके द्वारा चयनित ,प्रचारित एवं प्रसारित आदर्श चरित्रों की सार्थक सक्रिय भूमिका बनी रहती है .इसलिए भारत का सब कुछ ही ब्राह्मणवादी कह कर त्याग देने योग्य नहीं है .उनके नायकों की साहित्यिक संभावनाओं का तटस्थ मूल्याङ्कन कर ही उनके सार्थक या निरर्थक होने का निष्कर्ष निकलना उचित होगा .
इन तथ्यों को देखते हुए आशा है अगली बार आप भी स्वयं को आस्तिक या नास्तिक घोषित करने के पहले यह सोच लें कि आप यथास्थिति वादी तो नहीं हैं !
आध्यात्मिकता के इस मूल विश्वास को ही देंखें कि यह दुनिया ईश्वर नें बनायीं है और उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलता-इस अवधारणा के आधार पर किसी दुर्घटना के अवसर पर मानवीय कर्तव्य का निर्धारण नहीं हो सकता .जैसे यदि किसी की टाग(पैर ) टूट जाए तो हरि-इच्छा वादियों की तरह यह मान लें कि अमुक व्यक्ति की टांग(पैर ) ईश्वर की इच्छा से ही टूटी है या ईश्वर की ही इच्छा थी कि उसकी टांग(पैर ) टूटे तो किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अस्पताल पहुँचाने का प्रयास भी ईश्वर की इच्छा के खिलाफ और विद्रोह ही मान जाएगा .ऐसा इस लिए है कि ईश्वर की इच्छा का सम्मान अंतत यथास्थिति का सम्मान ही प्रमाणित होता है .जब आप मानवीय कर्तव्य के रूप में करुणा करते हैं तो दुःख के विरोध में और कान्तिकारी भूमिका में होते हैं .इसी तरह किसी पूर्व-स्थापित सत्ता या वर्चस्व का विरोध करना भी ईश्वर से असहमत होकर ही संभव है .इसी दार्शनिक जरुरत के कारण बुद्ध को अनीश्वरवादी होना पड़ता है .स्पष्ट है की ईश्वर उनके लिए खलनायक है .यहाँ ईश्वर प्रकृति का पर्याय बन जाता है .यदि ईश्वर नें ही यह दुःख-पूर्ण दुनिया बनायीं है तो उससे सहमत होना दुख में बने रहना होगा ;दुख के कारणों का समर्थन करना होगा .ऐसे में दुख हटाना है या दुःख से लड़ना है तो ईश्वर यानि व्यवस्थ यानि यथास्थिति से असहमत हुए बिना संभव ही नहीं है
इस मनोग्रंथि का ही एक रूप इस्लाम के अनुयायियों में देखा जाता है ,उनके यहाँ सही-गलत का विवेक न होकर सिर्फ सफल-असफल का विवेक है .इसी मनोविज्ञान के करण वे लादेन और सददाम की सफलता को ईश्वर की इच्छा से समर्थित मानकर चुप्पी लगा जाते हैं .इसलिए कि तबाही में सफल हुआ तो ईश्वर की सहमति रही होगी ही .लेकिन जैसे ही ऐसे लोग मार दिए जाते हैं वे उसी मानसिकता से चुप्पी लगा लेते हैं कि ईश्वर की इच्छा नहीं रही होगी तभी ऐसे लोग मारे गए हैं .इसी मनोविज्ञान के करण इस्लाम के अनुयायियों में सही-गलत का विवेक बहुत काम है.
यदि वाल्मीकि रामायण पढ़ें तो पाएँगे कि रावण के मारे जाने के बाद जब ऋषियों-चारणों द्वारा उन्हें ईश्वर का अवतार घोषित किया जा रहा है तो वे स्पष्ट कहते हैं कि मैं दशरथ-पुत्र राम स्वयं को मनुष्य मनाता हूँ..प्रश्न साफ है कि यदि राम स्वयं ईश्वर थे तो फिर वे लड़ किससे रहे थे .राम के सामने यह प्रश्न रहा होगा कि उनके बारे में बुरा सोचने वाला कौन है .इस तरह राम व्यवस्था,यथास्थिति से असहमत होकर उससे प्रतिरोध के करण ही ईश्वर माने गए अन्यथा अपनी इच्छा से पत्ता तक हिलाने वाले ईश्वर नें तो उनका पत्ता साफ ही कर दिया था .बुद्ध भी अपनी संवेदना और दुःख से असहमत होने के कारण ईश्वर से असहमत थे .पश्चिमी संस्कृति नें इस समस्या का दूसरा समाधान निकाला है . वे अच्छे परिणाम वाली घटनाओं को ईश्वर की और से और बुरे परिणाम वाली घटनाओं को शैतान की और से मान लेते हैं .
इस तरह हमें मान लेना चाहिए कि वर्तमान से यथार्थ से असहमत होने वालों का नास्तिक होना बुरा नहीं है .यह एक नए सर्जन के साहस से जन्म लेता है .वैसे भी यदि प्रकृति का एक नाम सृष्टि है तो सृजन ही मनुष्य का धर्म और कर्त्तव्य हुआ .भारत में इस आध्यात्मिक समस्या का समाधान विष्णु की परिकल्पना से निकल लिया गया है .वे नियति के प्रति मानवीय प्रतिरोध के प्रतीक हैं .वे गलत सफल के प्रति सही के सफल के लिए संघर्ष करते रहते हैं .इस तरह वे ऐसे ईश्वर हैं जो ईश्वर से ही जूझते और संघर्ष करते रहते हैं .गीता में कृष्ण भी गलत लोगों का सफल होना समाज के लिए हितकर नहीं मानते.यद्यपि शब्दावली कुछ इसप्रकार हैं कि सफल मनुष्य जिस तरह का आचरण करते हैं लोक उसी प्रकार का अनुसरण करता है .प्रकारान्तरसिसमें यह सन्देश छिपा है कि सही मनुष्य को सफल होना ही चाहिए .
इतना कुछ कहने के बाद यह भी कह देना उचित समझता हूँ कि प्राचीन ब्राह्मण जाति की भूमिका एक प्रकाशक की ही रही है.इसने आदर्श चरित्रों आध्यात्मिकीकरण करके उसका पेशेवर उपयोग भर किया है .ऐसा उसनें सभी चरित्रों के साथ किया है ;लेकिन एक सीमा से अधिक वह पेशेवर होने के करण ही चरित्रों के वर्ग और वर्ण चरित्र नहीं बदल सकी है .अच्छी बात यही है कि राम और कृष्ण जैसे उसके आदर्श नायक सकर्मक सौन्दर्य और आचरण वाले सक्रिय वर्णों से आए चरित्र हैं .इसीलिए पुरोहिती संस्करण से अलग भी उनके द्वारा चयनित ,प्रचारित एवं प्रसारित आदर्श चरित्रों की सार्थक सक्रिय भूमिका बनी रहती है .इसलिए भारत का सब कुछ ही ब्राह्मणवादी कह कर त्याग देने योग्य नहीं है .उनके नायकों की साहित्यिक संभावनाओं का तटस्थ मूल्याङ्कन कर ही उनके सार्थक या निरर्थक होने का निष्कर्ष निकलना उचित होगा .
इन तथ्यों को देखते हुए आशा है अगली बार आप भी स्वयं को आस्तिक या नास्तिक घोषित करने के पहले यह सोच लें कि आप यथास्थिति वादी तो नहीं हैं !