रविवार, 17 फ़रवरी 2013

सभ्यता का प्रवाह : मुद्रा और ईश्वर

विचारधाराओं की जड़ता से अलग यदि मानव-सभ्यता के प्रवाह और उसकी दशा-दिशा को समझाने की कोशिश करें.तो मानवीय व्यवस्था और व्यव्हार की दो बड़ी संरचनाएं सामने आती है .एक है मानवीय व्यव्हार के मूल्य दूसरा है आर्थिक व्यव्हार के मूल्य .व्यव्हार की ये दोनों ही पद्धतियाँ ज्ञानात्मक और मनोवैज्ञानिक अमूर्त नियमों,प्रतीकों और अवधारणाओं  से संचालित होती हैं .मुद्रा अर्थ जगत का केन्द्रीय प्रतीक है तो ईश्वर धर्म-जगत का .एक समानांतर मनोलोक का तन्त्र उसके वास्तविक और मानसिक जगत को एक सूत्र में पिरोता है .इसमें एक संपत्ति -जगत का प्रतीक है तो दूसरा मानवीय अस्तित्व की अर्थवत्ता का .अपने व्यव्हार के अनुसार ही मुद्रा एक मूर्त प्रतीक है और ईश्वर एक अमूर्त प्रतीक.दोनों ही उसकी सभ्यता के महत्वपूर्ण नियामक सत्ताएँ हैं  .इसलिए मुझे लगता है की ईश्वर उसके ज्ञान-लोक की महत्वपूर्ण उपस्थिति रहा  है .चाहे वह अपने से इतर के मानवीय ससार की छाया या प्रतिनिधि उपस्थिति के रूप में ही क्यों न हो.समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो ईश्वर के प्रति सम्मान और शेष समाज के प्रति सम्मान में कोई विशेष अन्तर नहीं रहा है.दोनों ही सामूहिक मानव- व्यव्हार की एक ही परिणामी एकता तक पहुंचतेऔर पहुंचाते रहे हैं.दूसरी ओर अर्थ-जगत की आर्थिक सुरक्षा संपत्ति के ऐश्वर्य और प्रभुता को रचती रही है..संपत्ति के विकास के सुरक्षा-तन्त्र नें धरती पर के ईश्वरों को रचा है तो ईश्वर के प्रतीकों के इर्द-गिर्द रहने वाले ईश्वरत्व के दावेदार जातीय प्रतीकों को भी .इन सभी को कृषक सभ्यता नें अपने स्थाई उत्पादन तंत्र के बल पर आनुवांशिक निरंतरता की आधार-भूमि पर रचा था .
                आधुनिक सभ्यता नें व्यापक शिक्षा-व्यवस्था के बल पर आनुवांशिक विशेषाधिकार वाली जातीय प्रशिक्षण-तन्त्र को अतिक्रमित किया है .उसके नियतिवादी स्थायित्व में व्यतिक्रम पैदा किया है .यह एक सृजनशील प्रतिस्पर्धा वाला अस्थिर एवं तनावपूर्ण समाज है .उत्तर-आधुनिक विखंडन वादियों को मूल्यात्मक उच्छेद की इस पारिस्थितकी पर भी विचार करना चाहिए .सभ्यतागत स्थायित्व का यह तन्त्र
जो कृषि-सभ्यता की लगभग अपरिवर्तनीय और टिकाऊ उत्पादन-व्यवस्था और उस प्रक्रिया में उपजे मानवीय संबंधों  पर आधारित था ,उसके परम्परागत लगभग सभी मूल्य-व्यवस्था की रचना करते है ..लेकिन यहीं उसके व्यवस्थागत व्यव्हार का दूसरा-पक्ष भी है -स्थाई उतपादन संबंधों से दूरवर्ती अप्रत्यक्ष  तथा गतिशील अर्थ-तन्त्र नें  धन-संग्रह के रूप में जिस बाजार और महाबाजार(नगर) व्यवस्था का निर्माण किया है -वह उसी मूल्य-व्यवस्था का समानांतर प्रति-रूप है .ज्ञान-तन्त्र के रूप में  ये दोनों एक ही प्रभुत्व-तन्त्र के दो रूपों की रचना करते है .
                  पूंजी धरती पर एक सुरक्षित स्वर्ग का निर्माण कराती है .मुद्रा का एक रहस्यमय संसार  उसकी आस्था और विश्वास के उस पर्यावरण को निर्मित करता है,जिसे स्वर्गिक और ईश्वरीय कहा जा सकता है ..इस दृष्टि से देखें तो मुद्रा का अर्थ-ससार और मूल्यों का अर्थ-ससार दोनों ही एक -दुसरे के पूरक और समानांतर ही हैं .इसी लिए दोनों ही समाज में एक -साथ देखे जाते हैं .एक अर्थ-ग्रस्त मानव के लिए दोनों ही रहस्यमय और अविश्वसनीय है .उसे अपना ही भाग्य स्वप्न-सदृश लगता है .वह कृतज्ञ मन से इस रहस्य मय ससार को देखता है .वह श्रद्धा निवेदित करता है .उस ईश्वर के पर्यावरण को जीता है ,जो सब कहीं है .