गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

एकलव्य प्रसंग

महाभारत में  गुरु द्रोणाचार्य द्वारा अपने अनौपचारिक शिष्य एकलव्य से गुरूदक्षिणा के रूप में  उसका अगूठा  मांग  लेने का प्रसंग आता है  ! इस प्रकरण मे एकलव्य के पास कोई वर्ग-स्वार्थ नहीं  है कि वह और उसका समुदाय  हस्तिनापुर की सत्ता को चुनौती देने मे दिलचस्पी रखे । उसकी धनुर्विद्या सिर्फ़ अपनी उदरपूर्ति और पशुओं के शिकार तक ही सीमित रहने वाली थी । ऐसे मे  उसके आत्मकेन्द्रित समुदाय से द्रोणाचार्य या अर्जुन किसी को भी कोई खतरा नहीं  था । फिर यह शरारती एवं भेदभावपूर्ण क्षेपक किसलिए महाभारत मे उपस्थित किया गया होगा-यह मेरी समझ मे नहीं  आता । यह सिर्फ और सिर्फ दक्षिणा-संस्कृति का ही महिमामंडन अवश्य करता है ।
        देखा जाय तो आज भी तो शस्त्र संचालन का लाइसेंस सरकार सभी को नहीं देती । धनुष भी भांति-भांति के बनाए और  पाए जाते रहे हैं ।धनुर्विद्या में  धनुष बनाने की प्रविधि भी शामिल  रही होगी ।  आदिवासियों का धनुष बांस या काष्ठ विशेष का होता था  लेकिन मध्य एशिया और चीन के तीर-धनुष अलग और जटिल विधि से निर्मित होते थे । ऐसे में  सत्ता कुछ उन्नत तकनीकों को  जनजातीय कबीलों से छुपाना भी चाहती रही होगी ।  तकनीक आदिवासी कबीलों मे न फैल जाए इसलिए मुझे तो लगता है छुपकर धनुर्विद्या सीखने वाले एकलव्य का अगूठा  द्रोणाचार्य ने ही उसे पकडवाकर कटवा दिया होंगा ।
    इस प्रसंग को केवल ज्ञान के पक्षपात का मामला नहीं  माना जा सकता । तत्कालीन सत्ता की दृष्टि में  कानून-व्यवस्था और शांति बनाए रखने का भी रहा होगा ।  राजस्थान में ही तीर-धनुष वाली आक्रामक भील जनजाति के होने के  बावजूद संसाधनो एवं कृषि-भूमि पर कब्जा कर क्षत्रिय जाति अपना राजतंत्र चलाती रही तो उसके पीछे उनका जातीय संगठन और श्रेष्ठ हथियार की तकनीक दोनो ही जिम्मेदार रही होगी ।
      एक और बात  समझ मे आती है  । जनजातियां  आसान दिनचर्या वाली  और आजीविका की दृष्टि से जंगल केन्द्रित प्रकृति पर आश्रित रही हैं  । उनमें  पूॅजीनिर्माण की संस्कृति नहीं मिलती । वे संसाधनों पर स्थायी और संगठित रूप में  कब्जा करने पर विश्वास नहीं  करती हैं । उनकी अन्तर्मुखी और स्वायत्त किस्म की उपस्थिति से मुख्यधारा के राजतंत्र और सत्ता को कभी कोई  चुनौती उपस्थित नहीं  हुई । जनजातियां  बहुत छेड़े जाने पर ही आक्रामक होती थीं  । ऐसे मे प्राचीन राजतंत्र ने उनके साथ सह अस्तित्व की नीति अपनाया । मुगलों  और ब्रिटिश सत्ता ने भी प्रायः ऐसा ही किया । 
      

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

साम्प्रदायिक घृणा का सांस्कृतिक अचेतन



साम्प्रदायिक घृणा का सांस्कृतिक अचेतन 


इस प्रश्न का ईमानदार उत्तर आप तभी पा सकते हैं, जब  धर्मों के पहले की मानवजाति की आप कल्पना कर सकें ।

संयोग से दोनों धर्मों के नेतृत्व में पुरोहितवंशी पृष्ठभूमि और मानसिकता छिपी है । मुहम्मद साहब स्वयं पुरोहित घराने से थे और उन्होंने इस्लाम के प्रवर्तन के समय जिन मूर्तियों को ध्वस्त किया था ,उनका परिवार ही उस मन्दिर का पुरोहित था । दूसरी ओर हिन्दू धर्म का नेतृत्व ब्राह्मण नाम की पुरोहित जाति करती है । पुरोहित व्यवस्था हर इन्सान और उसकी रूह को ईश्वर तक सीधे पहुंचने के अधिकार को प्रतिबन्धित करती है । इस्लाम में पुरोहित मानसिकता की अभिव्यक्ति-'मुहम्मद ही उसके रसूल हैं ' कथन से होती है । हिन्दू धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक ब्राह्मणों के नियन्त्रण में है -ईश्वर तो है ही । इसका निहितार्थ यह हुआ कि मरने के बाद भी मुहम्मद साहब के बिना अल्लाह से कोई भी मुसलमान नहीं मिल सकता तथा कोई भी हिन्दू ब्राह्मणों के बिना ईश्वर तक पहुंचने का अधिकारी नही है । ये दोनो ही सामान्य मनुष्यों को दोयम दर्जे का सिद्ध करते हैं । मनुष्य को दो वर्गों मे विभाजित करते हैं -ईश्वर के प्रिय तथा ईश्वर से दूर के मनुष्यों में । स्पष्ट है कि परम्परागत धर्म अपनी अवधारणा मे ही भेदभावपूर्ण हैं ।

अब हम दोनों धर्मों के अनुयायियों मे व्याप्त परस्पर घृणा के मनोविज्ञान पर विचार करें । दोनों धर्मों का उद्भव स्थल प्राचीन काल की साधनहीनता को देखते हुए पर्याप्त दूर ही कहा जाएगा । भारत से बाहर मूर्ति पूजा वाला धर्म बुत यानी बुद्ध की मूर्तियों के रूप मे गया था । बुद्ध के लगभग पाॅच सौ वर्षों बाद ईसा मसीह और लगभग एक हजार वर्षों बाद मुहम्मद साहब आते हैं । सभी जानते हैं कि बौद्ध धर्म एक अनीश्वरवादी धर्म है । जीवन को दिव्य बनाने वाले बुद्ध के दर्शन को उनके जाने के हजार वर्षों बाद आयी तमाम विकृतियो के बाद सही-सही समझना संभव भी नहीं रहा होगा । हिन्दू धर्म के अन्य देवताओं की मूर्तियां जैसा कि इस्लाम के अनुयायी समझते हैं -ईश्वर की मूर्तियां नहीं होतीं । दिव्यता लोकोत्तर विशिष्टता कि पर्यायवाची होता है । हिन्दू धर्म के प्रायः सभी देवता अपना विशिष्ट चरित्र और आख्यान रखते हैं । सभी के चरित्र में कोई न कोई समाजोपयोगी आदर्श या प्रेरणादायी विशिष्टता होती है । अधिकांश देवता किसी न किसी पौराणिक आख्यान के चरित्र हैं । अवतारवाद को ही देखें तो वे ईश्वर के अंश एवं प्रतिनिधि ही माने जाते हैं-स्वयं ईश्वर नहीं । हिन्दू धर्म अनीश्वरवादी नहीं है । इस्लाम की काफिर वाली अवधारणा अनीश्वरवादी बौद्ध धर्म को लेकर बनी थी । हिन्दू धर्म मे वैष्णव मत पूरी तरह परोपकार का प्रचार करता है । हनुमान कि चरित्र भी प्रेरक और परोपकारी है । कहने का तात्पर्य यह है कि मुहम्मद साहब ने जिन्हें भी काफिर समझा होगा वह अनीश्वरवादी बौद्ध धर्म का हजार वर्षों बाद का विकृत स्वरूप रहा होगा । मध्यकाल मे जब इस्लाम के अनुयायियों का भारत पर आक्रमण हुआ तो उन्होने मूर्तिपूजा को बुतपरस्ती और सभी मूर्तिपूजको को काफिर मान लिया । यह वह घृणा है जो इस्लाम के अनुयायियों में हिन्दू धर्म के प्रति मिलती हैं । इस्लाम प्रेरित इस पूर्वाग्रह ने मूर्ति निर्माण जैसी महत्वपूर्ण सृजनात्मक कला को अभिशप्त कर दिया । मुसलमान मूर्ति निर्माण को ईश्वर का अपमान समझते हैं । उन्हें अपने अल्लाह को समझाना चाहिए कि जैसे अल्लाह या कुदरत ने सारी दुनिया बनायी वैसे ही यदि उसका बनाया इन्सान पत्थरों को तराश कर प्रतिमाएं गढता है तो वह भी तो अल्लाह द्वारा कुछ रचने की कला का अनुसरण या अनुकरण ही कर रहा है -फिर यह अपराध कैसे हुआ ?

मुसलमानों के प्रति हिन्दुओं मे जो घृणा मिलती है -उसका एक कारण उनमें प्रचलित बलि- प्रथा और मांसाहार भी है । उल्लेखनीय है कि हिन्दुओं में बहुत सी जातियाँ मांसाहार नहीं करतीं । इनमें जैन , ब्राह्मण तथा बहुत सी अन्य किसान जातियां शामिल हैं । हमें ध्यान रखना चाहिए कि अरब और उसके निकटवर्ती अफ्रीका महाद्वीप मे शिकार आधारित जीवनयापन भी है । इस्लाम के अनुयायियों को सूअर को छोड़कर सभी जीवों का शिकार करने की छूट है जबकि कृषि प्रधान देश भारत में जन्मा सनातन धर्म कृषि मे सहायक बहुत से जीव-जन्तुओं को पवित्र और अबध्य मानता है । अन्त मे मै इस प्रश्न के सबसे जरूरी उत्तर को रखना चाहूॅगा । हिन्दू धर्म यज्ञ या हवन करने वाले और न करने वालों मे बंटा हुआ है । यज्ञ या हवन न करने वाली जातियों को ही शूद्र कहा जाता है । उच्च वर्ण के हिन्दुओं में शूद्र वर्ण के हिन्दुओं से एक सांस्कृतिक घृणा का अचेतन पहले से था । मुसलमान जब भारत में आए तो उच्च वर्ण के हिन्दुओं ने उन्हें शूद्रों से मिलते-जुलते एक नए धार्मिक समुदाय के रूप में देखा । कम से कम छुआ-छूत की नीति उच्च वर्ण के हिन्दुओं में शूद्रों और मुसलमानों के प्रति एक समान रही ।

हिन्दुओ के इस सामाजिक-सांस्कृतिक अचेतन का आधार प्पौराणिक काल की एक विशेष घटना से सम्बन्धित है । जब शिव की पहली पत्नी सती ने अपने पति को आमंत्रित न करने के कारण अपमानित होकर पिता दक्ष के यज्ञ कुण्ड में कूदकर आत्म-हत्या कर ली थी तो दक्ष के अनुयायियों और शिव के अनुयायियों के बीच एक भयानक दंगा हुआ । इस दंगे मे यज्ञ का विध्वंस तो हुआ ही, दक्ष सहित यज्ञकर्ता ॠषि- पुरोहित भी मारे गए । इस भयानक दंगे के बाद ही शिव को महादेव माना गया । यह सामूहिक रूप से तय हुआ कि मृत्यु के बाद अब से सती की भांति सभी अग्नि मे ही जलाए जाएंगे । ऐसे मे यज्ञ को शिव के अनुयायियों ने अपनी रानी सती के दाह एवं मृत्यु के कारण अपने लिए अशुभ एवं अपवित्र माना । यज्ञ या हवन आदि का बहिष्कार करने वाली यही जातियाँ कालान्तर में स्मृति लोप के कारण शूद्र मान ली गयीं । क्योकि ये यज्ञ कराने के लिए पुरोहितों को आमंत्रित नही करते थे इसलिए पुरोहित वर्ग इनके प्रति रोष और घृणा रखने लगे । मनुस्मृति के निर्माण के समय यानी पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में यज्ञ का बहिष्कार करने वाली जातियों को और बुद्ध के अनुयायियों को निम्न वर्ण शूद्र का मान लिया गया । इस्लाम की सत्ता स्थापित होने पर उन्हें भी शूद्रों के रूप में ही उच्च वर्ण के हिन्दुओं ने देखा । दोनों समुदायों की नासमझी और दंगों के ब्रिटिशकालीन उकसावे और भेदनीति तथा पाकिस्तान के निर्माण की ऐतिहासिक मांग ने मुसलमानों को भारत राष्ट्र के लिए खलनायक बना दिया है ।

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

भारत में प्रेम

तलाश 

जब यौवन
उफनती नदी की बाढ़ की तरह था
जब अन्तः स्रावी ग्रन्थियाॅ 
पागल नृत्य कर रही थीं 
जब देह में  सबसे अधिक बन रहे थे
प्यार के  मनोरसायन 
जब मैं  तुम्हारे
यानी अपनी पूरी प्रजाति की रक्षा के लिए
सारी दुनिया से लड़ सकता था
तब तुम कहाँ थी मेरा प्यार !
जब मैं  भटक  रहा था तुम्हारी तलाश में 
नगर-वन उपवन 
उन्मन-अनुमन
तुम्हें  कहाँ छिपा रखा था मेरी प्रजाति  ने  ?

योग्यता और तैयारी 

प्रेम 
प्रजाति की रक्षा के लिए तपस्या है
प्रेम अस्तित्व का आनन्दपूर्ण उत्सव है 
प्रेम अभिभावक बनने का जोखिम उठाने की तैयारी है
मेरा यौवनकाल 
प्रेम के लिए योग्यता अर्जित करने की 
तैयारी में चला गया

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

काशीनाथ सिंह का उपन्यास 'उपसंहार '

काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'उपसंहार 'को पढ़ते हुए मुझे लगातार नामवर सिंह याद आते रहे | मुझे लगता रहा कि काशीनाथ सिंह ने प्रसिद्धि की कीमत पर नामवर जी की गृह-कथा -अपने ही स्वजनों की असंतुष्टि और नाराजगी को कृष्ण कथा के माध्यम से आत्म -प्रक्षेपित किया है | हर सार्वजनिक व्यक्तित्व कहीं न कहीं पारिवारिक और निजी जीवन के मोर्चे पर हारता और स्वयं को घायल करता रहता है | 'उपसंहार' उपन्यास का सबसे कमजोर बिंदु यह है कि इसमें कुछ पौराणिक अंधविश्वासों का ज्यों का त्यों इश्तेमाल कर लिया गया है और सबसे ताकतवर पक्ष यही है कि इसमें कृष्ण के बहाने नामवर सिंह की प्रसिद्धि ,मनोदशा और नियति पर निवेश रूप में एक व्यंजनाधर्मी सूक्ष्म विश्वसनीय विमर्श उपस्थित है |दरअसल 'उपसंहार 'के कृष्ण (और वास्तविक जीवन में नामवर दोनों ही ) सामंती शैली की अभिजन श्रेष्ठता को जीते हैं और गणतंत्र /लोकतंत्र के बावजूद अपने समुदाय को अपने निर्णयों पर इतना आश्रित बनते जाते हैं कि अंत में लोगों को नालायक बनाता हुआ ईश्वरीय छवि में लिपटा व्यक्तिवाद बचता है | यह असम्वादी अभिजन व्यक्तिवाद ही कृष्ण का एकाकी अभिशप्त अकेलापन है (और हिन्दी साहित्य में संभवतः नामवर का भी ) इस उपन्यास में खुलकर तो नहीं लेकिन दबे सांकेतिक रूप में ब्राह्मणवादी छवि निर्माण पर रोचक  टिप्पणियां उपलब्ध हैं | काशीनाथ सिंह के इस उपन्यास की इस दृष्टि से प्रशंसा की जानी चाहिए कि यह कृष्ण के लौकिक से लोकोत्तर बनने-बनाने की प्रक्रिया में कृष्ण के असमाजीकरण और अमानवीकरण का गंभीर एवं सजग चित्रण करते हैं | दुर्वासा द्वारा कृष्ण को नंगा होकर खीर पोतने का आदेश देना ऐसा ही ब्राह्मणीकरण करने वाला प्रसंग है ,जिसे कृष्ण व्यवस्था का अंग बन जाने के बाद निस्तेज भाव से किसी आज्ञाकारी शिशु की भांति स्वीकार करते हुए दिखाए गए हैं | कृष्ण के पूर्ववर्ती विद्रोही चरित्र को देखते हुए यह पौराणिक प्रसंग कूट रचित और  प्रक्षेपित लगता है और इसका उद्देश्य वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण दुर्वासा को सामंती-अवतारी कृष्ण से भी सर्वोपरि सिद्ध करना रहा होगा | आखिर ईश्वर घोषित करने के पारिश्रमिक-पारितोषिक के रूप में इस प्रायोजक वर्ण-समूह को कुछ तो चाहिए ! आखिर ईश्वर बनाने और घोषित करने वाला वर्ण ईश्वर बनने वाले वर्ण से ऊपर और श्रेष्ठ होना ही चाहिए | कृष्ण यदि यहाँ विद्रोह कर देते या इनकार कर देते तो उनका ईश्वर पद छीन जाना तो तय ही था | फिर अवतारी कृष्ण को म्रत्यु जैसे घोर पार्थिव सत्य का भी सामना करना था | ब्राह्मण दुर्वासा द्वारा अमर बनाने वाली इस खीर के लेपन से कृष्ण का तलवा छूट जाता है और वहीँ से वे व्याघ्र द्वारा मार दिए जाते हैं | कोई चाहे तो दिव्य बनाने की इस इंजीनियरिंग को भी अपने विमर्श में शामिल कर सकता है |