सोमवार, 28 जनवरी 2013

दो कविताएं

एक ही पूंजी समय 

एक

सब एक ही तरह से सोच रहे हैं
सभी सहमत हैं एक ही पसंद के  साथ
एक ही रूचि और मानसिकता के साथ
समय की एक ही बस में बैठे -घूरते
एक ही समूह के बलात्कारियों की तरह .....

सब एक ही तरह से सोच रहे हैं
नापसंद कर रहे हैं-
निरस्त और व्यर्थ घोषित कर रहे हैं
वे  पूरे आवेश के साथ मंच को ही
पूरी दुनिया घोषित कर रहे हैं

वे आश्वस्त हैं कि
एक बर्बर महत्वकांक्षी यात्रा के
शानदार अन्त के साथ
उन्होंने हथिया लिया है समय ....

वे एक पूर्वनिर्मित
और निर्धारित समूह के आतंक के साथ
गुजरते समय का सच घोषित करना चाहते हैं
विवेक की परीक्षा से बचने की
अपनी साजिशी कोशिश  में
रचना चाहते हैं
एक बन्धक विवेक का इतिहास

वे नहीं चाहते कि
कोई अकेला विवेक
कभी स्वतः स्फूर्त और अहिंसक विवेक में बदले


एक ही पूंजी
एक ही पूंजी-समूह
रच रहा है एक ही रचना-समय .....


वे समय के अपने बिवेक से
डरते हुए रचना चाहते हैं
एक सुरक्षित और सामूहिक
प्रायोजित रचना समय

दो

सृजन -नीति 


इसी प्रतिरोध में मैं हूँ
हूँ मैं अपने अस्वीकार में और घृणा में
और अनुपस्थितियों में
मैं रच रहा हूँ
अपना विस्थपित समय
तथाकथित स्थापितों के
नापसन्द वर्चस्व के विरुद्ध ...

वे जो  बाजार में है
और बाजार है

मैं जानता हूँ कि
मैं उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता
और यह कि उनके सामने
आत्म-समर्पण न करना
आत्महत्या करना है
या फिर मार दिए जाने की सुनिश्चितता
फिर भी पुरे होशोहवास के साथ
मैं उनको चिढाना चाहता हूँ एक सृजनात्मक मजाक की
उपस्थिति के साथ

सिर्फ इतना चाहता हूँ मैं कि
वे  मुझे देखकर चौंक जाएँ
भक सफ़ेद हो जाएँ उनका चेहरा
अपने होने के अनैतिकताबोध से
हे मुर्ख ,डकैत और कायर
सामूहिक जीवन-समय

मैं सिर्फ इतना भी कर सकूँ तो
गर्व से चला जाऊंगा
यह दुनिया छोड़कर....