विश्व हिन्दी दिवस 10
जनवरी पर विशेष -
10 जनवरी 1975 को नागपुर मे आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मलेन के चालीस वर्ष बीतने और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
द्वारा 10 जनवरी 2006 को प्रतिवर्ष विश्व हिंदी दिवस माने जाने की
घोषणा के दसवें वर्ष में हिंदी कंप्यूटर एवं इंटरनेट युग की वैश्विक भाषा तो बन ही गयी
है . आज यूनिकोड में टंकित हिंदी को गूगल
के अनुवाद(ट्रांसलेशन ) एवं लिप्यान्तरण(ट्रांसलिटरेशन) सॉफ्टवेयर के माध्यम से
विश्व की किसी भी भाषा में पढ़ा जा सकता है .यह एक बड़ी तकनीकी विजय है ,जिसने
पूर्ववर्ती पीढ़ी के हिंदी -विरोध को बेमानी कर दिया है . वैश्वीकरण और उन्मुक्त
बाजार व्यवस्था नें हिंदी भाषियों के संख्या-बल के
आधार पर विवश होकर यह महत्वपूर्ण कार्य किया है .
यद्यपि इससे 10
जनवरी को विश्व हिंदी दिवस
को औपचारिक रूप से माने जाने का महत्त्व कम नहीं हो जाता .इसका महत्त्व एक संकल्प
दिवस के रूप में है कि विश्व में हिंदी के प्रचार -प्रसार के लिए हम क्या -कुछ कर
सकते हैं .ऐसे में तो और भी जबकि हम हिंदी भाषी भाषा-चेतना की दृष्टि से भारत के ही अन्य भाषाभाषियों की
तुलना में उदासीन और पिछड़े ही कहे जाएँगे .औपिनिवेशिक मानसिकता के कारण ही बाजार में दुकानों तक के नाम भी अंग्रेजी में ही
लिखे जाते हैं .अभी तक तो विश्व हिंदी दिवस एक सरकारी पर्व ही बन कर रह गया है .विदेशों
में स्थित भारत के दूतावास इस दिवस को विशेष रूप से मानते हैं .इसका उद्देश्य
हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए तथा विश्व में
हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए जागरूकता पैदा करना है .हिंदी को सरकारी
स्टार पर नहीं ,बल्कि सामाजिक स्टार पर विश्व में प्रतिष्ठित होने के
लिए अभी भी एक लम्बी यात्रा करनी है .
इतिहास में देखा जाए तो पहले भी भारत
के व्यापक भूभाग में हिंदी को फैलाने में भक्ति आन्दोलन के साथ -साथ बाजार एवं
शहरीकरण की महत्वपूर्ण भूमिका थी . व्यापार की आवश्यकताओं नें अतीत में हिंदी के
प्रचार प्रसार और उसके मानकीकरण में महत्त्व पूर्ण भूमिका निभाई है .व्यप्परियों
को दूर -दूर तक यात्राएं करनी पड़ती हैं ,ऐसे में आंचलिक और स्थानीय भाषा और उसके शब्दों से उनका
काम नहीं चलता .ऐसे में दूर तक समझे और बोले जाने वाले
शब्दों को बढ़ावा मिलता है . आज भी बाजारीकरण की प्रक्रिया वैश्विक आदान-प्रदान के
रूप में जारी है .अभी भारत नें मारीशस को स्वदेशी युद्ध पोत बेचा है .हिंदी में
नामकरण वाले ऐसे भारतीय उत्पाद भी अपनी प्रतिष्ठा और यश के साथ हिंदी शब्दों को
फैला सकते हैं .प्रधानमंत्री महोदय की 'मेक इन इण्डिया नीति सफल होने पर अप्रत्यक्ष रूप में ही सही ' हिंदी शब्दों
के प्रचार -प्रसार में महत्त्व पूर्ण भूमिका अदा कर सकती है .
अभी हिंदी को वैश्विक ख्याति वाली
गीतांजलि जैसी किसी महत्वपूर्ण साहित्यिक
कृति के रचे जाने का भी इंतजार है .एक ऐसी कृति जिसके लिए लोग विवश होकर हिंदी
सीखें या फिर उसके माध्यम से हिंदी के बहुत सारे शब्द सारे विश्व में फ़ैल जाएं .
आज भी अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी के विकास की जो चुनौतियां हैं ,वह
राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय दोनों ही स्तरों की हैं .पहला तो यह की हम सभी भारतीय
ही बिना किसी राजनीतिक विद्वेष के हिंदी का सम्मान करें और उसका बिना किसी हीनता ग्रंथि के व्यव्हार में उपयोग
करें .भारत के दक्षिणी राज्यों में हिंदी थोपे जाने का प्रबल प्रतिरोध अंततः उनको ही क्षति पहुंचता है .इस मानसिकता से
मुक्त होंने के कारण केरल के लोग सर्वाधिक
संख्या में उत्तर भारत में नौकरी करते पाए जाते हैं .
अब तक के इतिहास का अनुभव यह बताता
है कि राजनीति एवं राजनीतिज्ञ हिंदी के प्रचार-प्रसार
में प्रतिष्ठापरक एवं संरक्षण देने जैसे सहयोग ही कर सकते हैं .पहले भूतपूर्व
प्रधानमंत्री अटल जी नें और अब वर्तमान प्रधानमंत्री श्री मोदी इस भूमिका के प्रति
सजग हैं .दर असल राष्ट्रवादी भावना के बिना हिंदी को उसका वांक्षित सम्मान नहीं
मिल सकता .इसी भावना के कारण स्वाधीनता के नायकों नें हिदी को ही भारत की
राष्ट्रभाषा की सही अधिकारिणी समझा था .इसके अतिरिक्त हिंदी सांप्रदायिक एकता की
भी भाषा है . सभी भाषा-वैज्ञानिक
इस रहस्य को जानते हैं कि अपनी संरचना में हिंदी और उर्दू दोनों ही खडी बोली पर ही आधारित दो शैलियाँ हैं .उनमें इतनी समानता है कि पाकिस्तान का उर्दू प्रसारण भी हिंदी ही लगता है .मुझे एक पुस्तक मिली थी
पाकिस्तान के उर्दू शायरों की उसमें भारत में लिखने वालों से बहुत अधिक हिंदीपन था
.इतना कि वे हिंदी की गजलें ही लग रही थीं .इस दृष्टि से देखें तो बिना
लिप्यान्तरण के उर्दू के रूप में हिंदी पाकिस्तान में भी बोली जाती है .सिर्फ लिपि-भेद और
शैलीभेद के साथ राजनीतिक संकीर्णता के कारण कोई भी किसी सार्वजनिक मंच से इस सत्य
को स्वीकार करना नहीं चाहता .
इसके बावजूद यह एक तथ्य है
कि अपनी जड़ों से जुड़े रहने की मानसिकता के कारण विश्व में फैले प्रवासी भारतीय
विश्व में हिंदी फैला रहे हैं .ठीक वैसे ही जैसे मारीशस में कभी भोजपुरी गयी थी .पश्चिमी
देशों के विश्वविद्यालयों में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन
की ओर विदेशियों का भी आकर्षण बढ़ा है .हम ऐसा दिवा स्वप्न देखा सकते हैं की हिंदी
अंग्रेजी की तरह भूमंडली कृत भाषा भले ही ण बन पे लेकिन वह एक सामानांतर महत्त्व
की वैश्विक भाषा तो बन ही सकती है .