शनिवार, 23 मार्च 2013

जातीय अर्थ-तंत्र और उपभोक्ता


भारत में बेताहाशा बढ़ती मंहगाई का एक समाज-संरचनात्मक कारण भी है .यहाँ अनेक जीवनोपयोगी वस्तुएं अलग-अलग जातीय समुदायों के नियन्त्रण में हैं .कुछ व्यवसाय तो ऐसे हैं कि जिन्हें भारत की परंपरागत जातियां ही संभाले हुए हैं -जैसे बाल काटने का काम नाई ,सोने के गहने बनाने का काम सुनार,जूते बनाने का कम मोची तथा इसी तरह दूध बेचने का काम ,गल्ला आदि खाद्यसामग्री बेचने का कार्य भी जाति -विशेष ही करते दीखता है .इस तरह  भारत के अधिकांश बाजार ,भारतीय राजनीति की तरह ही परंपरागत रूप में जातीय अर्थतन्त्र के शिकार है. वे एक गिरोह के रूप में अन्य जातियों के रूप में फैले हुए व्यापक उपभोक्ता समुदाय से  संगठित दुर्व्यवहार करता रहता है  भारतीय बाजारों का यह जातीय अर्थ-तन्त्र उसके व्यव्हार को विषम बनता है . भारत में उपभोक्ता-हितों  की अनदेखी की यह सबसे बड़ी वजह है कि अधिकांश पेशे एवं व्यवसाय जाति-विशेष के हाथों में केन्द्रित है ..दूध ,फल 'मिठाइयाँ 'काष्ठ-कला आदि सभी .कई बार मंहगाई का सम्बन्ध अन्य जातियों में बटे -बिखरे उपभोक्ता के विरुद्ध जाति-विशेष के संगठित व्यव्हार के रूप में भी होता है. मंहगाई इस अर्थ में एक जाति विशेष  का क्रूरतापूर्ण जातीय -व्यवहार भी है.
           ऐसे में यह मानना कि आधुनिकता इस समाज के आर्थिक व्व्यव्हार को पूरी तरह सभ्य और मानवीय बना देगी;पूरी तरह सही नहीं है .जातीय-व्यवहार एवं सामुदायिक एकता का अर्थ-तंत्र उपभोक्ता-समाज को अमानवीय पराएपन के साथ देखता है .किसानो के प्रति इन व्यवसायी जातियों का संगठित व्यव्हार कुछ -कुछ वैसा ही होता है ,जैसा व्यव्हार  नदी पर कर रहे वाइल्डबीस्ट एवं जेब्रा प्रजाति के जानवरों के प्रति  मगरों का होता है .नई फसल आने के पहले ही वे गेहूं और दलहन आदि का मूल्य अप्रत्याशित रूप से बहुत ही कम घोषित कर देते हैं .इसी तरह विवाह आदि की तिथियाँ घोषित करने पर जाति-विशेष का हाथ रहता है 'जिसके पुरखों ने फसल के पकने के समय में ही प्रायः शुभ मूहुर्त तलाश रखे हैं .स्वाभाविक है कि कर्ज आदि दबाव में वह अपनी फसल बेचने के लिए मजबूर रहता है .इसे कहना चाहें तो उपभोक्ता प्रजाति पर शेरोंके हमले के रूप में देख सकते हैं .अब भी व्यवसाय -विशेष में जाति -विशेष की ही प्रमुखता है .
              भारत में इस जातीय शोषण-तंत्र के कारण ही कई बार लोकतान्त्रिक सरकारें भी कुछ नहीं कर पाने की स्थिति में होती हैं  ऐसा  मूल्य-निर्धारण की शक्ति जाति-विशेष की सामूहिकता में केन्द्रित होने से होता रहता है पूंजी के संचय के कारण कृत्रिम अभाव की स्थिति पैदा कर पाना इस जातीय अर्थ-तंत्र के लिए आसान होता है .इस अर्थ-तंत्र से बहुत नैतिक होने की उम्मीद नहीं की जा सकती .उदहारण के लिए उत्तर भारत में जाति -विशेष के लोगों का दूध के व्यवसाय में परम्परागत रूप से वर्चस्व है .दूध का उत्पादन स्वयं अपनें यहाँ न होने की स्थिति में भी दूसरे पशुपालकों से दूध खरीद कर भी बेचने का व्यवसाय इस जाति के लोग करते हैं.खरीदते समय पूरी तरह शुद्ध और बेचते समय प्रायः जल-युक्त और अशुद्ध ही इस जाति की प्रमुख जातीय नीति है .उपभोक्ताओं के साथ वे ऐसा दुर्व्यव्हार वे जातीय सामूहिकता में करते हैं .बाजार के आर्थिक व्यव्हार पर  इस प्रभाव को हम भारतीय जातिवाद के अन्य आयाम या पार्श्व-प्रभाव के रूप में देख सकते हैं .इस सम्बन्ध में एक व्यक्तिगत संसमरण भी प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत करना चाहूँगा .मुझे याद है
बचपन में मेरे जन्म-स्थान के पास वाले बाजार में एक ही जाति -विशेष के लोग सब्जी बेचने के व्यवसाय में थे .एक दिन सभी सब्जी व्यवसायियों नें जातीय पंचायत करके यह तय किया था कि भले ही सब्जी सड़ जाए या उसे फेंक देनी पड़े ,कोंई भी उसे व्यक्तिगत रूप से उसे निर्धारित मूल्य से कम में नहीं बेचेगा .
           इधर सब कुछ बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों की जो दुकाने प्रचालन में आने जा रही हैं ,वे व्यवसायियों के जातीय समुदाय विशेष को दुष्प्रभावित तो करेंगी लेकिन मुक्त एवं वैकल्पिक प्रतिस्पर्धा में
जातीय पूंजीवाद के संगठित व्यवहार से भारतीय बाजारों को मुक्ति भी मिलेगी.उनका निरंकुश आर्थिक व्यवहार संयमित और प्रतिस्पर्धी होने के लिए विवश होगा.अधिक अच्छा तो यह होता कि समाज सेवा के क्षेत्र की तरह आर्थिक सेवा के क्षेत्र में भी स्वयंसेवी संगठन या संस्थाएं सक्रिय होतीं .भारत में जाति-निरपेक्ष राजनीति की तरह जाति-निरपेक्ष बाजार की भी आवश्यकता है .एक ऐसे बाजार की जो अपेक्षित लाभा के साथ उपभोक्ताओं के प्रति भी सहृदय और संवादी हो.निजी क्षेत्र की निरंकुश महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित रखने के लिए ही पिछली सरकारों नें नियंत्रित मूल्य वाली दुकानें जिन्हें जनसामान्य कोटे वाली दुकानें कहता है-खुलवायी थीं.वे दुकानें अब भी चल रही हैं ,लेकिन उनका उद्देश्य निम्न आय वर्ग के लोगों को न्यूनतम सुरक्षा प्रदान करना है .इसे बाजार की समानांतर व्यवस्था के रूप में नई परिकल्पना के साथ
और व्यापक तंत्र के रूप में विकसित किए जाने की जरुरत है .
              गाँधी युग की बहुत सी संस्थाएं ,जो प्रायः खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अनुदानों पर पलती रही हैं -यदि समय के साथ अपनें को परिवर्तित कर आर्थिक जनसेवा केन्द्रों के रूप में विकसित की जाएँ तो बाजार के निरंकुश व्यवहार के समानांतर एक स्थिर व्यवहार वाले तन्त्र बनाए जा सकते हैं .एक बेहतर विकल्प
सरकारी मॉल का भी हो सकता है .सिद्धान्ततः बाजार की प्रतिस्पर्धा उसे कम मूल्य के साथ अधिक बेहतर बनानें की ओर होना चाहिए लेकिन परम्परा से अधिक खुदगर्ज और पेशेवर भारत का जातीय अर्थतन्त्र
सामान्य उपभोक्ता को शिकारी हिंसक पशुओं की तरह घेर कर उससे अधिक से अधिक लाभ कमानें में विश्वास करता है .