मानव-जाति इस आधार पर दुनिया का सबसे कामुक प्राणी है .,कि मनुष्य को छोड़ कर दूसरा कोई भी प्राणी काम-चिंतन नहीं करत्त .पशु-जगत के काम-व्यव्हार से मानव-जगत के काम-व्यव्हार की तुलना करने पर जो अन्तर सामने आता है उसमें मनुष्य द्वारा ज्ञान,बुद्धि और स्मृति के स्तर पर किया जाने वाला कामुक व्यव्हार ही प्रमुख है .मनुष्य ने कामुकता को सभ्यतागत और संस्थागत विस्तार दिया है .विवाह-संस्था से लेकर उसके सामाजिक व्यव्हार में लिंग-भेद की चेतना की बहुआयामी अभिव्यक्तियाँ उसके काम-व्यव्हार को विशेष बनती हैं .क्योंकि मनुष्य में ज्ञान की सारीअभियांत्रिकी उसके भाषा-तंत्र पर ही आधारित है ,इसलिए स्वाभाविक है कि उसके कामुक बुद्धि का भी प्रमुख आधार भाषा-आधारित ज्ञान-तंत्र ही है .हर भाषा में कामोत्तेजक श्लील-अश्लील शब्द मिलते हैं .संवेदनात्मक साहचर्य के कारण ये शब्द पुरुष और स्त्री में विपरीत लिंग के साथी की प्रत्यक्ष दैहिक उपस्थिति के बिना भी उसकी कल्पना द्वारा उसके मन-मस्तिष्क को संवेदित करने में समर्थ है .संवेदनात्मक साह्चर्य के कारण ये शब्द उसकी अन्तःस्रावी ग्रंथियों को भी उत्तेजित करने में समर्थ है. क्योंकि अन्तःस्रावी ग्रंथियों का स्विच मनोरासायनों में है और यह कोई छिपी बात नहीं कि मस्तिष्क अपने सबसे निरीह अवस्था में काम-चिंतन के क्षणों में ही होता है .मस्तिष्क और तंत्रिका-तंत्र का एक बड़ा हिस्सा कामजनित तनावों और उत्तेजनात्मक जैविक व्यस्तताओं को ही समझाने और संभालने में लग जाता है .वस्त्र,व्यक्तित्व से लेकर भाषा,मुहावरों और गालियों तक मनुष्य के काम-तन्त्र का ज्ञानात्मक विस्तार है .पुरुष और स्त्री व्यक्तित्व कि अलग अभियांत्रिकी रूचि,वेशभूषा से लेकर खेल तक देखी जा सकती है .इस लिए स्त्री-पुरुष के समानतावादी व्यव्हार पर आधारित समाज की रचना के लिए इस सारे पर्यावरण को बदलना होगा .
मनुष्य के लैंगिक अपराधों को देखते हुए आश्चर्य होता है कि पशु-जगत अपने विपरीत लिंगी साथी के प्रति काम-व्यव्हार में कितना शिष्ट और सभ्य है .वह कभी लैंगिक दुर्व्यवहार या बलात्कार नहीं करता है .अपने समागम में भी वह जैविक उपकारक कि भूमिका में होता है .ऐसा वह प्रकृति प्रदत्त सहज -वृत्ति के द्वारा करता है .वह तलाश करता है .जो कुछ भी करता है सहमति के साथ .मनुष्य का लैंगिक व्यव्हार उसकी जैविक प्रेरणा से अधिक उसके बोद्धिक-मानसिक पर्यावरण से अधिक प्रभावित होता है .उसका सांस्कृतिक पर्यावरण भी उसके काम-व्यवहार को प्रभावित करता है .पहले भारतीय गांवों में अपने गाँव की युवतियों को बहन मानने की सांस्कृतिक व्यवस्था थी .युवतियां बहन-भाई के रिश्ते के विस्तार के कारण सुरक्षित रहती थीं .कुछ धार्मिक अवधारणाए भी स्त्री शरीर को देवी की प्रतिनिधि के रूप में देखने कि दृष्टि देती थीं..यह प्रभाव फ़िल्मी नायक-नायिकाओं के अश्लील प्रभाव से अलग एक पवित्र भाव-लोक रचता था .मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो इसे प्रत्यक्षीकरण की सांस्कृतिक अभियांत्रिकी कहा जा सकता है .यह पद्धति स्त्री शरीर को देखने की दृष्टि और मानसिक व्याख्या बदलती है .आधुनिक भौतिकवाद और बाजारवाद नें उससे यह दृष्टि छीनी है .वर्जनाओं की पूरी सांस्कृतिक अभियांत्रिकी निरस्त कर दी गयी है .यह जरुरी नहीं है कि संस्कृति को केवल धार्मिकता के अंतर्गत ही देखा जाय .पारिवारिक रिश्तों को विस्तार देते हुए भीं समाज की बेहतर संस्कृति रची जा सकती है .
इस सम्बन्ध में यह भी देखना होगा कि अधिकांश यौन-नैतिकता का निर्माण सामन्ती युग में ही हुआ है .उस युग की मान्यताओं में यौन-शुचिता और शुद्धता कि मान्यताएं भी हैं .एक समय था जब भोजन के बर्तन छू जाने मात्र से धर्म बदल जाते थे .यौन शुचिता कि अवधारणा भी उसी दौर की और उनमें से एक है .स्त्री को सिर्फ देह के रूप में देखने से उसके व्यक्तित्व का सही मूल्याङ्कन नहीं हो सकता .समाज को यह मानना सीखना होगा कि अपने साथ हुए यौन -अपराध कि शिकार होने के बावजूद भी कोई स्त्री अपनी इच्छाओं,मन और भावनाओं से उसमे शामिल नहीं है .एक लुटी हुई स्त्री योन-अपराधी के प्रति अपनी घृणा में भी बची हुई हो सकती है .शिकार होने के बाद भी ,यदि वह किसी एड्स रोगी द्वारा नहीं किया गया है -कोई स्त्री अपने मानसिक सोंदर्य और व्यक्तित्व के साथ बची हुई हो सकती है .संतान-उत्पत्ति में सक्षम उसके वे सारे डिम्ब जो उसकी जैविक-जीनेटिक विशेषता के अनुरूप एक नए मनुष्य को जन्म दे सकते हैं,बलात्कार कि शिकार स्त्री के पास भी एक संभावनापूर्ण भविष्य के रूप में बचे रह सकते हैं .इस तरह हर स्त्री एक विशिष्ट जैविक गुणवत्ता का बीज भी है .इस तरह यों-अपराधों कि शिकार स्त्री के शरीर का परंपरागत अवमूल्यन और शुचितावाद एक अंधविश्वासपूर्ण पूर्वाग्रह के अतिरिक्त और कुछ नहीं है .इस मध्ययुगीन सोच से समाज को बाहर निकालने कि जरुरत है .http://www.jansatta.com/columns/jansatta-editorial-stri/24367/http://www.jansatta.com/columns/jansatta-editorial-stri/24367/
मनुष्य के लैंगिक अपराधों को देखते हुए आश्चर्य होता है कि पशु-जगत अपने विपरीत लिंगी साथी के प्रति काम-व्यव्हार में कितना शिष्ट और सभ्य है .वह कभी लैंगिक दुर्व्यवहार या बलात्कार नहीं करता है .अपने समागम में भी वह जैविक उपकारक कि भूमिका में होता है .ऐसा वह प्रकृति प्रदत्त सहज -वृत्ति के द्वारा करता है .वह तलाश करता है .जो कुछ भी करता है सहमति के साथ .मनुष्य का लैंगिक व्यव्हार उसकी जैविक प्रेरणा से अधिक उसके बोद्धिक-मानसिक पर्यावरण से अधिक प्रभावित होता है .उसका सांस्कृतिक पर्यावरण भी उसके काम-व्यवहार को प्रभावित करता है .पहले भारतीय गांवों में अपने गाँव की युवतियों को बहन मानने की सांस्कृतिक व्यवस्था थी .युवतियां बहन-भाई के रिश्ते के विस्तार के कारण सुरक्षित रहती थीं .कुछ धार्मिक अवधारणाए भी स्त्री शरीर को देवी की प्रतिनिधि के रूप में देखने कि दृष्टि देती थीं..यह प्रभाव फ़िल्मी नायक-नायिकाओं के अश्लील प्रभाव से अलग एक पवित्र भाव-लोक रचता था .मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो इसे प्रत्यक्षीकरण की सांस्कृतिक अभियांत्रिकी कहा जा सकता है .यह पद्धति स्त्री शरीर को देखने की दृष्टि और मानसिक व्याख्या बदलती है .आधुनिक भौतिकवाद और बाजारवाद नें उससे यह दृष्टि छीनी है .वर्जनाओं की पूरी सांस्कृतिक अभियांत्रिकी निरस्त कर दी गयी है .यह जरुरी नहीं है कि संस्कृति को केवल धार्मिकता के अंतर्गत ही देखा जाय .पारिवारिक रिश्तों को विस्तार देते हुए भीं समाज की बेहतर संस्कृति रची जा सकती है .
इस सम्बन्ध में यह भी देखना होगा कि अधिकांश यौन-नैतिकता का निर्माण सामन्ती युग में ही हुआ है .उस युग की मान्यताओं में यौन-शुचिता और शुद्धता कि मान्यताएं भी हैं .एक समय था जब भोजन के बर्तन छू जाने मात्र से धर्म बदल जाते थे .यौन शुचिता कि अवधारणा भी उसी दौर की और उनमें से एक है .स्त्री को सिर्फ देह के रूप में देखने से उसके व्यक्तित्व का सही मूल्याङ्कन नहीं हो सकता .समाज को यह मानना सीखना होगा कि अपने साथ हुए यौन -अपराध कि शिकार होने के बावजूद भी कोई स्त्री अपनी इच्छाओं,मन और भावनाओं से उसमे शामिल नहीं है .एक लुटी हुई स्त्री योन-अपराधी के प्रति अपनी घृणा में भी बची हुई हो सकती है .शिकार होने के बाद भी ,यदि वह किसी एड्स रोगी द्वारा नहीं किया गया है -कोई स्त्री अपने मानसिक सोंदर्य और व्यक्तित्व के साथ बची हुई हो सकती है .संतान-उत्पत्ति में सक्षम उसके वे सारे डिम्ब जो उसकी जैविक-जीनेटिक विशेषता के अनुरूप एक नए मनुष्य को जन्म दे सकते हैं,बलात्कार कि शिकार स्त्री के पास भी एक संभावनापूर्ण भविष्य के रूप में बचे रह सकते हैं .इस तरह हर स्त्री एक विशिष्ट जैविक गुणवत्ता का बीज भी है .इस तरह यों-अपराधों कि शिकार स्त्री के शरीर का परंपरागत अवमूल्यन और शुचितावाद एक अंधविश्वासपूर्ण पूर्वाग्रह के अतिरिक्त और कुछ नहीं है .इस मध्ययुगीन सोच से समाज को बाहर निकालने कि जरुरत है .http://www.jansatta.com/columns/jansatta-editorial-stri/24367/http://www.jansatta.com/columns/jansatta-editorial-stri/24367/