धर्म और अधर्म
सारी दिशाएं अपनी हैं
सारी धरती अपनी है
सारे लोग अपने हैं
और मै मनुष्य को
इतनी तरह से जीते हुए देखकर
आश्चर्य से भर गया हूँ
कितने रीतिरिवाजों
और कितनी प्रथाओं का सर्जक है आदमी
कितने शब्दों और कितने विश्वासों का रचनाकार!
कितने अन्धविश्वासों और कितने झूठों का जीवनहार
और मै
उनके सारे कार्यों का अनुकरण करने मे समर्थ
मना किया गया कि क्या- क्या मुझे करना चाहिए
और क्या नहीं !
इतनी शर्तो और
इतनी परतों में जी सकता है आदमी
जानने के बाद भी
वही-वही दुहराने की इच्छा
मेरी मर गयी है
ऊब गया हूँ मै
कर्मकाण्डो की दुरूहता
और बारम्बारता से
मै क्यो कुछ नया नहीं कर सकता ?
नहीं जी सकता नया
और क्यो कुछ नया जीने की स्वतंत्रता
मुझे विधर्मी बना सकती है !
मै क्यों नहीं बना सकता
सारी दुनिया की अच्छाइयों का संग्रहालय !
नहीं जी सकता अपनी समझ से चुना हुआ अच्छा
और क्यों- कोई तो मुझे बताए !
रामप्रकाश कुशवाहा
07/11/2018