विधि-व्यवस्था से सम्बंधित जब भी कोई नया संकट और आपराधिक घटनाएँ सामने आती हैं ;उसके तल्कालिक प्रतिरोध में और कड़ा कानून बनानें की मांग तेज हो जाती है.जबकि सच्चाई यह रहती है कि पहले से बने कानून के पालन की देश में न कोई प्रशासनिक कार्य-संस्कृति है और न ही कोई प्रचारतंत्र .कई बार प्रशासनिक अक्षमता को भी कानून के अभाव या असमर्थता के रूप में देखा जाने लगता है .जबकि कई बार समस्या नागरिक बोध के अभाव की भी होती है .
लेकिन शासन करना केवल पुलिस के सहारे ही शासन करना नहीं है .सबसे अच्छा शासक एक जीवन्त समाज के शीर्ष नेतृत्व के रूप में उपस्थित होता है .जब-जब ऐसा नहीं होता संस्थागत नेतृत्व एक व्यक्तित्वहीन उपस्थिति बनकर रह जाता है .हम एक ऐसे समय से गुजर रहे हैं ,जबकि शीर्ष नेतृत्व सिर्फ औपचरिक होकर रह गया है .सत्तासीन दल के परिवारवादी पृष्ठभूमि के कारण सब जानते हैं कि सत्ता का मूल केन्द्र कहीं और है.औपचरिक नेतृत्व का चरित्र किसी राजनेता के स्थान पर नौकरशाह का लगता है .
यह एक कार्यकारी नेतृत्व है जो व्यवस्था के अभियांत्रिक सहजता के साथ एक संवादहीन मौन के साथ सक्रिय है .
मूलत: यह राजनीतिक व्यक्तित्वहीनता का समय है किसी के पास कहने-सुनने के लिए कुछ भी नहीं है ,यहाँ तक कि राजनीतिक रूप से सोचने के लिए भी .यह राष्ट्रवादी ध्रुवीकरण का समय नहीं है .अठारहवीं शताब्दी की दैत्याकार अभियांत्रिकी और विचारधाराओं के स्थान पर यह माइक्रो-अभियांत्रिकी का युग है .सुख की निरन्तर विकसित होती अभियान्त्रिक सुविधाओं वाली भौतिक सभ्यता नें एक निष्क्रिय और अंतर्मुख मौन समाज पैदा किया है .अब सत्ता भी एक ऐसा चैनल है ,जिसे देखना अपरिहार्य या अनिवार्य नहीं है .सच तो यह है कि मनोरंजन के लिए नित - नए खुल रहे चैनलों नें सरकारी चैनलों को अलोकप्रिय और अनुपस्थित कर दिया है .अब राष्ट्र का छवि-निर्माण भी बाजार के हवाले कर दिया गया है .
प्रथम-द्रष्टाया यह स्थिति उदार और लोकतान्त्रिक स्वतंत्रता की सूचक है तो दूसरी ओर शासकीय प्रसारण के अदृश्य एवं अनुपस्थित होते जाने की भी .इसे इस तरह भी लिया जा सकता है कि सरकार की कोई खबर नहीं है यानि सब ठीक है . केन्द्रीय सत्ता का इस तरह चुप होते जाना कि दिल्ली में लम्बे समय से अवैध ढंग से बस चला रहे चलकों-परिचालकों को लगे कि कहीं कोई सरकार ही नहीं है .वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं कुछ भी कर देने के लिए .यह चुप्पी पसंद देश के शीर्ष नेतृत्व का साइड -इफेक्ट है.इस दिशा में देश के शीर्ष नेतृत्व को कुछ बोलते रहना भी चाहिए.ताकि कम बुद्धि वाले जनसामान्य और आपराधिक प्रकृति वालों को लगे कि कोई है .
दूसरी बात नई -नई घटनाएँ और दुर्घटनाएँ ज्यों-ज्यों सामने आती हैं ,सार्वजानिक व्यवस्था का परिष्करण और परिकल्पन होते रहना चाहिए .यह सच है कि कई बार मानवीय घटनाएँ और दुर्घटनाएँ सामान्य अनुमान से आगे निकल जाती हैं ,लेकिन उनकी संभावनाओं की परिकल्पना करना एक सृजनशील
सत्ता के लिए जरुरी है.एक बेहतर सत्ता अधिक सृजनशील होकर अनेक समस्याओं का निवारण कर सकती है .
क्योकि जनसँख्या वृद्धि के साथ भीड़ बढ़ रही है ,भारत में अधिकांश शहरों में सार्वजानिक जीवन जीना अत्यन्त ही श्रम-साध्य होता जा रहा है .ट्रैफिक जाम की स्थिति को देखते हुए भारत के अधिकांश महानगरों में हेलीकाप्टर जैसे साधनों से युक्त निःशुल्क हवाई एम्बुलेंस सेवा की जरूरत है .यह सेवा पर्यटक स्थलों पर तो भारत में उपलब्ध है लेकिन जनता के लिए नहीं.
भारत में आपराधिक जीन और विदेशी साज़िशों की निगरानी की सतत -सजग मशीनरी होना भी आवश्यक है .यह सच है की अधिकांश जनता को सतत भयभीत करते रहना आवश्यक नहीं है ,लेकिन मंद-बुद्धि एवं अल्प-शिक्षित नागरिकों के लिए भय आवश्यक है .पूरी तरह भय-मुक्त होने पर उनमें आपराधिक प्रवृत्तियां उभर सकती हैं .उन्हें सत्ता की मशीनरी द्वारा उपस्थिति-सूचक भय द्वारा ही नियंत्रित और अनुशासित रखा जा सकता है .
अंतिम बात यह है कि प्रशासनिक उपेक्षा शासन की क्रूरता और नकारेपन का प्रदर्शन करती है
सडकों पर पड़े बेसहारा लोग,पागल और भिखमंगे एक सम्वेदंशुन्य सत्ता के होने का पता देते हैं .अधिकांश सरकारें मुझे इस ओर से उदासीन दिखाती हैं .जबकि यह एक क्रूर और संवेदन शून्य सत्ता का विज्ञापन ही है .
लेकिन शासन करना केवल पुलिस के सहारे ही शासन करना नहीं है .सबसे अच्छा शासक एक जीवन्त समाज के शीर्ष नेतृत्व के रूप में उपस्थित होता है .जब-जब ऐसा नहीं होता संस्थागत नेतृत्व एक व्यक्तित्वहीन उपस्थिति बनकर रह जाता है .हम एक ऐसे समय से गुजर रहे हैं ,जबकि शीर्ष नेतृत्व सिर्फ औपचरिक होकर रह गया है .सत्तासीन दल के परिवारवादी पृष्ठभूमि के कारण सब जानते हैं कि सत्ता का मूल केन्द्र कहीं और है.औपचरिक नेतृत्व का चरित्र किसी राजनेता के स्थान पर नौकरशाह का लगता है .
यह एक कार्यकारी नेतृत्व है जो व्यवस्था के अभियांत्रिक सहजता के साथ एक संवादहीन मौन के साथ सक्रिय है .
मूलत: यह राजनीतिक व्यक्तित्वहीनता का समय है किसी के पास कहने-सुनने के लिए कुछ भी नहीं है ,यहाँ तक कि राजनीतिक रूप से सोचने के लिए भी .यह राष्ट्रवादी ध्रुवीकरण का समय नहीं है .अठारहवीं शताब्दी की दैत्याकार अभियांत्रिकी और विचारधाराओं के स्थान पर यह माइक्रो-अभियांत्रिकी का युग है .सुख की निरन्तर विकसित होती अभियान्त्रिक सुविधाओं वाली भौतिक सभ्यता नें एक निष्क्रिय और अंतर्मुख मौन समाज पैदा किया है .अब सत्ता भी एक ऐसा चैनल है ,जिसे देखना अपरिहार्य या अनिवार्य नहीं है .सच तो यह है कि मनोरंजन के लिए नित - नए खुल रहे चैनलों नें सरकारी चैनलों को अलोकप्रिय और अनुपस्थित कर दिया है .अब राष्ट्र का छवि-निर्माण भी बाजार के हवाले कर दिया गया है .
प्रथम-द्रष्टाया यह स्थिति उदार और लोकतान्त्रिक स्वतंत्रता की सूचक है तो दूसरी ओर शासकीय प्रसारण के अदृश्य एवं अनुपस्थित होते जाने की भी .इसे इस तरह भी लिया जा सकता है कि सरकार की कोई खबर नहीं है यानि सब ठीक है . केन्द्रीय सत्ता का इस तरह चुप होते जाना कि दिल्ली में लम्बे समय से अवैध ढंग से बस चला रहे चलकों-परिचालकों को लगे कि कहीं कोई सरकार ही नहीं है .वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं कुछ भी कर देने के लिए .यह चुप्पी पसंद देश के शीर्ष नेतृत्व का साइड -इफेक्ट है.इस दिशा में देश के शीर्ष नेतृत्व को कुछ बोलते रहना भी चाहिए.ताकि कम बुद्धि वाले जनसामान्य और आपराधिक प्रकृति वालों को लगे कि कोई है .
दूसरी बात नई -नई घटनाएँ और दुर्घटनाएँ ज्यों-ज्यों सामने आती हैं ,सार्वजानिक व्यवस्था का परिष्करण और परिकल्पन होते रहना चाहिए .यह सच है कि कई बार मानवीय घटनाएँ और दुर्घटनाएँ सामान्य अनुमान से आगे निकल जाती हैं ,लेकिन उनकी संभावनाओं की परिकल्पना करना एक सृजनशील
सत्ता के लिए जरुरी है.एक बेहतर सत्ता अधिक सृजनशील होकर अनेक समस्याओं का निवारण कर सकती है .
क्योकि जनसँख्या वृद्धि के साथ भीड़ बढ़ रही है ,भारत में अधिकांश शहरों में सार्वजानिक जीवन जीना अत्यन्त ही श्रम-साध्य होता जा रहा है .ट्रैफिक जाम की स्थिति को देखते हुए भारत के अधिकांश महानगरों में हेलीकाप्टर जैसे साधनों से युक्त निःशुल्क हवाई एम्बुलेंस सेवा की जरूरत है .यह सेवा पर्यटक स्थलों पर तो भारत में उपलब्ध है लेकिन जनता के लिए नहीं.
भारत में आपराधिक जीन और विदेशी साज़िशों की निगरानी की सतत -सजग मशीनरी होना भी आवश्यक है .यह सच है की अधिकांश जनता को सतत भयभीत करते रहना आवश्यक नहीं है ,लेकिन मंद-बुद्धि एवं अल्प-शिक्षित नागरिकों के लिए भय आवश्यक है .पूरी तरह भय-मुक्त होने पर उनमें आपराधिक प्रवृत्तियां उभर सकती हैं .उन्हें सत्ता की मशीनरी द्वारा उपस्थिति-सूचक भय द्वारा ही नियंत्रित और अनुशासित रखा जा सकता है .
अंतिम बात यह है कि प्रशासनिक उपेक्षा शासन की क्रूरता और नकारेपन का प्रदर्शन करती है
सडकों पर पड़े बेसहारा लोग,पागल और भिखमंगे एक सम्वेदंशुन्य सत्ता के होने का पता देते हैं .अधिकांश सरकारें मुझे इस ओर से उदासीन दिखाती हैं .जबकि यह एक क्रूर और संवेदन शून्य सत्ता का विज्ञापन ही है .