सोमवार, 21 दिसंबर 2020

केदार नाथ सिंह की काव्य-यात्रा

                            रामप्रकाश कुशवाहा 
केदारनाथ नाथ सिंह विशुद्ध रूप से नेहरु युगीन हिन्दी कविता के उल्लास, उत्थान,गुणवत्ता  एवं बहुआयामी समृद्धि के कवि हैं । वे सार्थक एवं समानान्तर उपस्थिति के कवि हैं । नकारात्मक मनोवेगों और असामाजिक यथार्थ के प्रति एक संकल्पित किस्म की प्रतिरोधी चुप्पी भी उनके काव्यलोक की प्रकृति और स्वभाव रचती है । 'उत्तर-कबीर और अन्य कविताएं 'संग्रह मे संकलित 'लेखकों की समस्या पर सरकारी प्रतिनिधि का बयान ' कविता का सन्दर्भ दें तो  वे भलीभांति जानते थे कि हिन्दी कविता का पाठक वर्षों से फरार है । इस गुमशुदा पाठक की वापसी के लिए वे रचनात्मक चुनौती स्वीकार करने वाले कवि हैं  । उन्होने मुक्तिबोध और धूमिल की तरह आन्दोलनधर्मी और आवेशधर्मी कविताओं का रास्ता नहीं चुना   संगठनों और उनकी शर्तों को भी स्वीकार नहीं किया  । अधिक संभव यही है कि वे आश्वस्त रहे होंगे । प्रथम द्रष्टया मनोरम प्रतीत होने पर भी उनकी कविताओं का जल्दबाजी भरा पूर्ण सम्प्रेषणीय या अवगाहन वाला पाठ सम्भव नहीं  है   कुछ कविताओं को छोडकर वे लक्षणा और व्यंजना से नीचे आते ही नहीं  । यद्यपि उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय पंक्तियाँ अभिधा मे लिखी कविताओं की ही हैं  उदाहरण के लिए उनके 'जमीन पक रही है ' संकलन की 'फ़र्क नहीं पड़ता ' और 'हाथ' कविता को याद किया जा सकता हो -'पर सच तो यह है कि यहाँ/या कहीं  भी फ़र्क नहीं पड़ता/तुमने जहाँ लिखा है 'प्यार '/वहाॅ लिख दो 'सड़क '/ फ़र्क नहीं पड़ता/मेरे युग का मुहावरा है/फ़र्क नहीं पड़ता '(पृष्ठ 48) तथा 'उसका हाथ/अपने हाथ मे लेते हुए मैने सोचा/दुनिया को/हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिए ।'(पृष्ठ 79) इसके साथ उनकी 'जाना कविता को भी याद किया जा सकता है-"मै जा रही हूँ-उसने कहा/जाओ-मैने उत्तर दिया/यह जानते हुए कि जाना/हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया है ।"(पृष्ठ 80) केदारनाथ सिंह ऐसी अनेक सूक्तियो के कवि हैं ।
      अपनी कलात्मक सौन्दर्यप्रियता के बावजूद केदारनाथ सिंह की कविताएं अपने कवि के बहुआयामी सरोकारों का पता देती हैं ।वे अनुभूति एवं विषय-वैविध्य के कवि हैं । उन्होने ने शैली के स्तर पर तो नहीं लेकिन विषय के स्तर पर हिन्दी कविता की एकरसता को तोड़ा है । उनकी कविताओं में व्यापक एवं बहुस्तरीय विमर्श सांकेतिक पूर्वदृष्टियों के रूप मे दर्ज हैं ।
           वस्तुतः केदारनाथ सिंह अचेतन और त्वरित (आशु)अभिव्यक्ति के कवि नहीं हैं, बल्कि दीर्घकालिक सचेतन चिन्तन के बाद की गई कलात्मक अभिव्यक्ति के कवि हैं  । उनकी अधिकांश कविताएं जीवन के किसी प्रसंगवृत्त मे जन्म लेती हैं  अपने पूरे परिवेश, आस्था और जिज्ञासा के साथ रचनाये होता है उनका कवि । प्रायः प्रश्नों एवं जिज्ञासाओं के साथ उनके कवि को ठिठके हुआ देखा जा सकता है  । अपने अतीत के सार्थक और अविस्मरणीय को भी अपनी कविताओं में वे प्रायः विरल उपस्थितियों एवं संश्लिष्ट बोध के साथ दर्ज करते चलते हैं  ।
         केदारनाथ सिंह तीसरा सप्तक के कवि हैं । अज्ञेय द्वारा 1966 मे प्रकाशित तीसरा सप्तक के कवियों मे सम्मिलित किए जाने से पहले केदारनाथ सिंह का पहला काव्य-संग्रह ' अभी, बिल्कुल अभी' (1960) प्रकाशित हो चुका था । इसलिए उनके कवि की निर्मित  को समझने के लिए यह संकलन महत्वपूर्ण है ।
तीसरा सप्तक की अनागत, नए पर्व के प्रति, कमरे का दानव,दीपदान,दिग्विजय का अश्व, बादल ओ ! तथा 'निराकार की पुकार ' आदि कविताएं उनके पहले काव्य-संग्रह 'अभी बिल्कुल अभी ' में भी है । इन कविताओं के अध्ययन से पता चलता है कि आम धारणा से अलग केदारनाथ सिंह मात्र बिम्बों के कवि नहीं हैं । यदि यह कहा जाय कि अपनी प्रारम्भिक यात्रा मे उनका महत्वाकांक्षी और युवा कवि अपनी कविताओं के शिल्प और स्वरूप को लेकर उनका किया गया आत्मसंघर्ष अपने समय तक हिन्दी-कविता के समस्त प्रयोगों और ध्रुवान्तों को लेकर किया गया है । उनका काव्य सौष्ठव और कविताओं में मिलने वाली मितभाषिता अज्ञेय को आदर्श बनाने की सूचना देती है तो उनकी कविताओं की आत्मा मे लोक के प्रति प्रेम, सम्मान तथा उसके जिए गए क्षणों की स्मृतियाँ और आख्यान छिपे हैं ।
       केदारनाथ नाथ सिंह की कई कविताएं अज्ञेय की काव्य-भाषा की याद दिलाती हैं ।फ़र्क बस इतना ही है कि अज्ञेय की कविताओं का पारगमन ।'आंगन के पार द्वारा और ' देहरी को बाहर से घर के भीतर देखने की है तो केदारनाथ सिंह आंगन के भीतर से आंगन के पार द्वारे स्थित लोक के द्रष्टा हैं  ।
       कहने का तात्पर्य यह है कि कवि केदारनाथ सिंह की लोकोन्मुखता ही उन्हें दूसरा अज्ञेय बन जाने से रोकती है । संवेदना और कथ्य के धरातल पर केदारनाथ सिंह लोक के यायावर कवि हैं । वे लोकजीवी आस्वाद धर्मिता के कवि हैं । अज्ञेय के सागर-मुद्रा शब्द से उधार लेते हुए कहें तो कवि केदारनाथ सिंह लोकमुद्रा के कवि हैं  लेकिन अज्ञेय से अचेतन प्रतिस्पर्धा और होड़ उन्हे आभिजात्यवर्गीय काव्यभाषा से जोड़े भी रहता है ।
        'जो रोज दिखते हैं सड़क पर ' कविता जीवन के सामान्य अनुभव और दिनचर्या को भी एक  महत्वपूर्ण घटना के रूप मे देखे जाने का विनम्र आग्रह करती है- 
' कौन हैं ये लोग/जिनसे दूर-दूर तक/मेरा कोई रिश्ता नहीं/पर जिनके बिना/पृथ्वी पर हो जाऊंगाॅधी सबसे दरिद्र (उत्तर कबीर पृष्ठ 95)
आन्तरिक विस्थापन की स्मृतियाँ, संवेदनात्मक रिश्तों की पडताल एवं उनका विमर्शात्मक प्रत्यक्षीकरण केदारनाथ सिंह की अधिकांश रचनाओं का केन्द्रीय रचना-सूत्र है ।
    उनकी लोरी कविता के पाठ मे उनके कवि की रचना-प्रक्रिया का रहस्य खुलता है ।वे एक मूड,एक प्रसंग, एक संवेदनात्मक काव्य-वस्तु उठाते हैं और यथार्थ के ऊपर प्रत्याशित संभावनाओ के कल्पना-सृजित चकाचौंध से या धुन्ध मे छिपा देते हैं । प्रायः वे अनुभवों और विचार की श्रंखला प्रस्तुत करते हुए अपने पाठकों को काव्यात्मक साक्षात्कार के एक ऐसी यात्रा पर ले जाते हैं जिसे पर्यटन या भ्रमण न कहकर टहलना  कहना अधिक उचित होगा ।
         कवि केदारनाथ नाथ सिंह के यहाँ यथार्थ उनकी विशिष्ट रचना-प्रक्रिया और प्रविधि से रूपान्तरित होकर कविता मे उपस्थित होता है । उदाहरण के लिए ' लेखकों की समस्या पर सरकारी प्रतिनिधि का बयान शीर्षक कविता  को ही लें ध्यानाकर्षण और व्यंग्य होते हुए  भी यह कविता कवि की विशिष्ट कथन-भंगिमा यानि अन्दाज़ का पूरी तरह निर्वाह करती है ।
       उनकी 'बॅटवारा' और 'हस्ताक्षर ' जैसी कविताएं उनके स्वयं के कवि को समझने का प्रयास करती हैं । ' हस्ताक्षर ' मे कवि कहता है कि 'बालू पर हवा के/असंख्य हस्ताक्षर थे/और उन्हें  देखकर हैरान था मै/कि मेरा हस्ताक्षर/ हवा के हस्ताक्षर से/कितना मिलता है !' बंटवारा कविता मे  वे अपने भीतर के सामान्य मनुष्य और संवेदनशील आत्म वाले स्रष्टा कवि को सहोदर घोषित करते हैं ।
        कि गूँजहीन शब्दों के इस घने अन्धकार में /मैं-/ अर्थ-परिवर्तन की /एक अबूझ प्रक्रिया हूँ "........जड़ें रोशनी में हैं /रोशनी गंध में ,/गंध विचारों में /विचार स्मृतियों में /स्मृतियाँ रंगों में "- अभी,बिलकुल अभी "संकलन की पहली ही कविता के पीछे एक सुचिंतित और गंभीर भाषा-विमर्श और ज्ञान उपस्थित है . दरअसल वास्तविकता यह है कि केदारनाथ सिंह की कविताएँ अनेक विषयों और अनुभूतियों पर संवेदनात्मक विमर्श से बनी हैं . वे घटित-संवेदित होने के क्षण-विशेष के गतिशील चित्र हैं .मनोविज्ञान की शब्दावली में इन्हें प्रत्यक्षीकरण का प्रयास और काव्यालोचना में काव्य-बिम्ब की सर्जना का प्रयास कहा जा सकता है .बाल-सुलभ एवं रहस्यात्मक उत्प्रेक्षण कवि केदारनाथ सिंह की सर्वाधिक प्रिय रचना-पद्धति है . वे घटनाविहीन समय में घटनाओं की आशंका और संभावना के चितेरे कवि हैं . 
           केदारनाथ सिंह कि कविताओं के प्रकाशंन क्रम को देखें तो १९६० में प्रकाशित "अभी,बिल्कुल अभी और अज्ञेय द्वारा सम्पादित "तीसरा सप्तक" के बाद ,"जमीन पक रही है "(१९८०)"अकाल में सारस (१९८८),"उत्तर-कबीर और अन्य कविताएँ "(१९९५),"बाघ"(१९९६),तालस्ताय और साईकिल "(२००५)'"सृष्टि पर पहरा "२०१४)और "मतदान केंद्र पर झपकी "(२०१८) का क्रम बनता है। इन कविताओं में बहुत-सी कविताएँ ऐसी हैं जो सिर्फ कवि-कर्म से सम्बंधित हैं  या यह कह सकते हैं कि उनकी काव्य-दृष्टि का आख्यान हैं। इसके अतिरिक्त "मेरे समय के शब्द (१९९३ ) और कब्रिस्तान में पंचायत "(२००३)  उनकी उच्चस्तरीय आलोचकीय क्षमता की परिचायक गद्य यानि विचार कृतियाँ हैं।  आधुनिक हिंदी कविता में बिम्ब-विधान " जो उनके  शोध-प्रबंध के रूप में लिखा गया था तथा "कल्पना और छायावाद "भी इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि ये उनकी काव्य-दृष्टि को आधारभूत संस्कार देते हैं। 
           केदारनाथ सिंह का आरंभिक कवि अभिव्यक्ति की नवीनता और मौलिकता का अन्वेषी है। तीसरा सप्तक की  " वसंत गीत "कविता में कवि अपने सृजन की संभावनाओं की  घोषणा करता है -
          " यह कैसा उल्लास ,/ यह कैसी हाथों में सिर्जन की बेचैनी ,/टूटन-टूटन में रचने कि नयी-नयी-सी प्यास ,"( पृष्ठ १३२ ) "शारद प्रात " और "कुहरा उठा " कविता में वह नई बिम्ब-सर्जना करने वाली प्रतिभा का प्रमाण प्रस्तुत करता है। "दूर-दूर से-/हलके-हलके धनों के रुमाल हिलाये /बांसों में सीटियाँ बजाए /गलियारों में हाँक लगाए "(पृष्ठ १३६ ). "कुहरा उठा " कविता की निम्न पंक्तियाँ  अभिव्यक्ति कि नवीनता का प्रतिमान प्रस्तुत कराती हैं -"उठे पेड़,घर-दरवाजे,कुआं /खुलती भूलों का रंग गहरा उठा /शाखों पर जमे धुप के फाहे,/गिरते पत्तों से पल ऊब गए  हाँक दी खुलेपन ने फिर मुझको /दहरों के डाक कहीं डूब गए "(तीसरा सप्तक ,पृष्ठ १३७)तीसरा सप्तक में ही प्रकाशित अपनी 'नयी ईंट ' कविता में  कवि में  भावी  सर्जना की श्रेष्ठता का आत्मविश्वास देखा जा सकता है-"नयी ईंट रक्खूँगा /नए चाँद जोडूंगा ,/नया घर उठाऊंगा ,/नयी किरण रंग दूंगा ," लेकिन इसके साथ ही कवि परंपरा की पुनरावृत्ति के खतरे को लेकर भी चिंतित है -"पर इससे क्या होगा !जबकि साँझ उतारेगी,/कुहरा छितराएगा /उसी गड़ेरे की वंशी में फिर गाऊंगा !"(तीसरा सप्तक १४१)    "दीपदान" . कविता में  रवीन्द्रनाथ और छायावादी कवियों की भावभूमि को लोकदृष्टि का दार्शनिक आयाम तथ अज्ञेय कि सुगठित काव्यभाषा को लोकजीवन का संस्पर्श सौंपता है- "
             "एक दिया वहां जहाँ नयी-नयी दूबों नें कल्ले फोड़े हैं /एक दिया वहां जहाँ उस नन्हें गेंदे नें /अभी-अभी पहली ही पंखुड़ी बस खोली है ,एक दिया उस लौकी के नीचे /जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है। " दिग्विजयी का अश्व" और "निराकार की पुकार " दोनों ही कविताओं में काव्य-सिद्ध कवि का भावी प्रसिद्धि का आत्मविश्वास देखा जा सकता है -"एक नन्हा बीज मैं अज्ञात नवयुग का ,/आह कितना कुछ -सभी कुछ-न जाने क्या-क्या -समूचा विश्व होना चाहता हूँ !/भोर से पहले तुम्हारे द्वार -/तुम मुझे देखो न देखो -/कल उगूंगा मै !"(निराकार कि पुकार ,ती.स। १४९) इसके पहले दिग्विजय का अश्व में भी कवि कह चुकता है कि "तुम बराबर कहीं अगले मोड़ पर हो ,/और मैं चिल्ला रहा हूँ /आ रहा हूँ !आ रहा हूँ !/तुम जहाँ तक हो ,वहां तक /हाथ ये फैला रहा हूँ /आह ठहरो दिग्विजय के अश्व !"(पृष्ठ १४६)

जारी 

रामप्रकाश कुशवाहा

गुरुवार, 24 सितंबर 2020

विचारशीलता और विचारधारा

विचारशीलता और  विचारधारा 


 मेरी दृष्टि में समय,सूचना और सभ्यता के विकास के सापेक्ष होने के कारण कोई भी विचार या विचारधारा पूर्णता को प्राप्त रुप में स्थिर हो ही नहीं सकती । इसी कारण मेरे लिए विचारशीलता, विचार करने की शक्ति और उसका कौशल मानव सभ्यता के विकास की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है । यह विचारधाराओं के पिछले इतिहास और अनुभव से प्राप्त सीख है और यदि वादी होना बहुत जरुरी हो तो मैं संभावना और विचारवादी ही होना चाहूँगा । वैसे भी मैं दर्शन की पृष्ठभूमि से नहीं बल्कि मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि से आया हूँ । मेरे लिये तथ्यों की प्रतीक्षा और उचित सम्मान के बावजूद निष्कर्ष (अन्तिम) अधिक मायने नहीं रखते बल्कि सोचना ही अधिक महत्वपूर्ण है । मुझे बहुवैकल्पिक सृजनधर्मी होने से अनेकांतवाद प्रिय है । मैं सिर्फ समझदार बनने- बनाने के लिये ही लिखना और सोचना पसंद करता हूं । शिक्षक एव्ं विज्ञान की पृष्ठभूमि से आने के कारण हानि और लाभ तथा गुण और दोष दोनो पर समान ध्यान देता हुँ। क्योंकि हर नयी सूचना ही हमारे-आपके निष्कर्ष बदल सकती है-इसके लिये मैं तैयार रहता हुँ । अधिकांश लोग उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर ही जल्दी से जल्दी इसलिये निष्कर्ष पाना चाहते हैं क्योंकि वे विचार की थकाने वाली मानसिक प्रक्रिया से जल्दी से जल्दी बाहर निकलकर आराम पाना या सुखी होना चाहते हैं । इसे मैं आलस्य,आराम पाने की जड़ता के रुप में देखता हूँ । यही जड़ता यथास्थिति और रुढ़िवाद को जन्म देती है ।

क्योंकि अधिकांश संगठन और उनके नेतृत्व की पद्धति और तंंत्र आदिम हैं और वे समावेशी वैचारिकता का सम्मान करते नहीं दिखते इसीलिए मैं अभी तक उपलब्ध राजनीतिक दलों की शक की नजर से देखने के लिये विवश हुँ । मैं अभी भी किसी आदर्श-आगामी की तलाश और प्रतीक्षा में हुँ और आपको मेरी प्रतिबद्धता को लेकर अनावश्यक शिकयतपूर्ण नहीं होना चाहिए ।
यद्यपि विचारधाराओं की प्रगतिशील और स्वस्थ परम्परा का पुनर्शोधंन करते रहने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन संशय एव्ं द्वंद्व की स्थिति में वैज्ञानिक आधुनिकता को ही निर्णायक होना चाहिए । उसमें भटकाव का जोखिम हो तब भी क्योंकि भविष्य के लिये भी सही होने की परीक्षा उसकी ही की जानी है ।
जहाँ तक साहित्य का प्रश्न है कला होने के साथ वह भी लोकशिक्षा का एक सशक्त माध्यम भी है । उसका उद्देश्य सिर्फ पूर्वनिर्धारित ज्ञान देने तक ही सीमित कभी नहीं हो सकता । यदि वह ज्ञान की खोज के लिये उचित-अनुचित की परख, आवश्यक प्रशिक्षण और सामर्थ्य भी नही देता ।

शनिवार, 11 जुलाई 2020

अंतरिक्ष की सीमा

मुझे लगता है कि ठोस धरती के प्राथमिक अनुभव के कारण हम शून्य की कल्पना करने में अक्षम हैं । सिर्फ़ उपग्रह,ग्रह,नक्षत्र,आकाश गंगा और ब्लैक होल आदि तक ही यूनिवर्स की परिकल्पना नहीं करनी चाहिए । उस रिक्तता को भी एक सच मानना चाहिए जिसमे से होकर प्रकाश की किरनें,गुरुत्वाकर्षण एव्ं विद्युत चुंबकीय तरंगे गुजरती हैं । प्रकाश की तरंगें तो वास्तव में यात्रा करती हैं क़1 वे ध्वनि तरंगों की तरह समय न लेतीं । विद्युत चुंबकीय तरंगे जिस प्रकार आवेश रुप में गति करती हैं वह अपनी प्रकृति में प्रकाश के सूक्ष्म कण फोटान के समान नहीं होती बल्कि एक माध्यम (ईथर)में आवेश के प्रभाव के समान होती है । इससे पता चलता है कि ब्रह्माण्ड में कोई सर्वव्यापी ऊर्जा तत्व सूक्ष्म रूप में होना चाहिए । अभी तक की जो युनिवर्स की परिकल्पना है उसमें असंख्य आकाशगंगाओं के समूह को परस्पर आकर्षण से बन्धे गोलाकार रुप में प्रदर्शित किया जाता है । यह समूह भी यदि अंतरिक्ष में बना हूआ है तो उसकी स्थिरता,संतुलन और व्यवस्था का भी कोई प्रतिबल या आधार चाहिए । सम्भव तो यह भी है कि एक ब्रह्माण्ड के समानान्तर दूसरा ब्रह्माण्ड भी हो । ऐसा मुझे इस लिये सम्भव लगता है कि सीमांत की खोज हमारे ऐंद्रिक अनुभवों सीमाओं के अनुभवों की उपज है । जबकि समस्या मनोवैज्ञानिक ही हो सकती है कि ठोस धरती के अनुभवों के कारण हम शून्य और रिक्ति के विस्तार की सही-सही कल्पना कर पाने में अक्षम हैं ।

रविवार, 7 जून 2020

यान्त्रिक भौतिकवाद


मार्क्स के जमाने का भौतिकवाद यान्त्रिक भौतिकवाद किस्म का था । यह यन्त्रों के आविष्कार से इतना अधिक अभिभूत था कि उसके लिए मनुष्य भी एक यन्त्र हो गया । तब आर एन ए और डी एन ए की खोज नहीं हुई थी कि जड़ और जीवन के अणुओं की रिश्तेदारी सामने आ पाती । जड़ परमाणु को ऊर्जा के रूप मे देखने और दिखाने वाली आइन्सटीन की आंख भी तब नहीं थी । इससे हत्यारे किस्म के भौतिकवादी और क्रान्तिकारी भी पैदा हुए,जिनके लिए मनुष्य को मारना एक अवांछित यन्त्र को बन्द करने जैसा था । विवेकानंद ,अरविन्दो घोष ,और टैगोर आदि का प्रकृति को जीवित मानने वाली भारतीय दृष्टि तत्कालीन विज्ञान के पिछड़ने के कारण आधुनिक और वैज्ञानिक नहीं समझी गयीं । यह एक दार्शनिक पूर्वाग्रह जैसी समस्या रही है ।

फुकुयामा

किसी देश काल परिस्थिति और परम्परा यानि मानवीय चिन्तन सरणि जिसे प्रायः स्कूल कहा जाता है -की उपज विचारधाराएं और उनके विचारक किसी मानव निर्मित चक्रव्यूह की तरह होते हैं । उनके वास्तविक स्वरूप को उचित दूरी से ही समझा जा सकता है । किसी विचारक को समझने के लिए उसकी नाभि यानी निर्मित के कारकों एवं कारणों की खोज करनी होगी । फुकुयामा की वैचारिक निर्मिति को समझने के लिए पहले अमेरिका को समझना होगा । इतिहास का अन्त तो तभी हो जाता है जब रेड इंडियनो को मारकर और अपनी-अपनी राष्ट्रीयताओं को पीछे छोड़ने वाले पूर्वजों के प्रवास से निर्मित जिसके प्रवास मे पूरा योरोप और अफ्रीका महाद्वीप समाहित है । जार्ज वाशिंगटन से लेकर अब्राहम लिंकन के पहले तक पागलपन की हद तक अपनी श्रेष्ठता एवं अतीत को जीने का संघर्ष । यहाँ अमेरिका के सामने एक रास्ता भारत बनने यानि जाति एवं नस्ल को बनाए रखने का था । यदि भारतीय अधिक मात्रा मे बस गए होते तो अमेरिका दूसरा भारत ही बन जाता लेकिन आधुनिकता ने उसे भारतीय जाति प्रथा की ओर जाने नहीं दिया । उसने जातियों नस्लों के महासंलयन और अतीत की विस्मृति का रास्ता चुना । फुकुयामा का इतिहास का अन्त इसी ऐतिहासिक अचेतन का दार्शनिकीकरण मात्र है । फुकुयामा जिस अमेरिकी उदार पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था को आदर्श मानकर उस पर रीझते है, उस अमेरिका के विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यही थी ।
एक सीमा तक इसी स्मृति और विस्मृति का द्वन्द्व आप मॉरीशस मे भी देख सकते हैं । ऐसे ही प्रवृत्यात्मक अतीत ने नायपॉल को भी रूढिबद्ध एशियाई सभ्यताओं को समझने की सही-सही दृष्टि दी । जैसा मैने बताया कि योरोपीय एकल राष्ट्रवादी इतिहास या विरासत बहुराष्ट्रीयताओं के सम्मिलन से निर्मित अमेरिका के नए राष्ट्र और नयी राष्ट्रीयता के लिए पूरी तरह अर्थहीन और अप्रासंगिक हो चुके थे । अमेरिकी इतिहास के अपने इस पर्यवेक्षण को ही मै फुकुयामा को समझने की कुंजी मानता हूँ ।
अमेरिका जब-जब भी योरोपीय नस्लीय राष्ट्रवाद को पुनर्जीवित करने का प्रयास करेगा उसे आधुनिकतावादी समाधान की अपनी ही ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि से संघर्ष करना पडेगा और अपनी निर्मिति के स्वभाव को भूलकर प्रतिगामी बनेगा ।



माता सीता का भूमि-प्रवेश प्रसंग

माता सीता का भूमि-प्रवेश प्रसंग
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जब वाल्मीकि रामायण मे सीता जी के भूमि मे समाने और राम जी के विलाप का मार्मिक प्रसंग मैने पढ़ा था तो एक तो बहुत दुखी हुआ था । दूसरा यह कि तब मै विज्ञान का विद्यार्थी था और जैसे-जैसे मै इस दुनिया को समझता गया सीता का जन्म और उनकी मृत्यु दोनों ही मुझे प्राकृतिक नियमों के विरूद्ध, अवास्तविक कवि-कल्पना अथवा भरत के नाट्यशास्त्र से प्रेरित कोई नाटकीय प्रस्तुति लगने लगी। एक कारण यह भी था कि प्रजा को संतुष्ट करने एवं बहुत सी मानवीय बातें जो शासक वर्ग के महिमामंडन के विरुद्ध जाती थीं उसे नाट्यशास्त्र द्वारा आच्छादित कर छिपाने की भी प्रथा थी ।। जैसे नियोग प्रथा का कूटआच्छादन यज्ञ के अन्त में दिव्य फल देने वाले देवता के रूप मे किया गया । भारत मे तो प्राचीन काल से ही नट जाति रही है । ये नट आज के बहुरुपियों और जासूसों की मिली -जुली भूमिका में अपने राजा के प्रति वफादार होते थे । बताते हैं कि लगभग एक हजार वर्षों पहले राज कर चुके दक्षिण भारत के रामराजा के दरबारी नटों के वंशज आज भी हैं ।देवताओं द्वारा पुष्प वर्षा के प्रसंग को परम्परागत श्रद्धालु सच जबकि आधुनिक सोच वाले कवि-कल्पना मान लेंगे । जबकि सच दोनो मे ही नहीं था । राजाओं को दैवी आशीर्वाद के माध्यम से वैधता दिलाने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी से राजकुल के प्रति वफादार नट ही भांति-भांति के रूप-स्वांग धारण कर राजा की आदेशित-सुनियोजित छवि जनता में गढते थे । बाद के कवियों द्वारा उन्ही लोक-स्मृतियों का आख्यान मे उपयोग करने के कारण चर्चित ऋषियों और देवताओं का देश-काल से परे बार-बार उपस्थित होना वर्णित है । कुछ ऋषियों के स्थायी आश्रम एवं पीठ भी थे जैसाकि अब भी देखा जा सकता है कि आदि शंकराचार्य दारा स्थापित पीठ का मुख्य उत्तराधिकारी भी शंकराचार्य ही कहा जाता है । उदाहरण के लिए परशुराम राम कथा में भी हैं और कृष्ण कथा यानी महाभारत में भी कर्ण को धनुर्विद्या सिखाने वाले गुरू के रूप में हैं ।अशिक्षित प्रजा को सिर्फ यही बताया जाता था कि ऋषि हिमालय से आए थे और आशीर्वाद देकर वापस वहीं चले गए ।
सच तो यह है कि भारत मे हमेशा से दो सच रहा है । प्रजा का सच अलग रहा है और राजा का सच अलग । राजघरानों की अपनी पेशेवर वंशानुगत युक्तियाँ और चाालाकियाॅ थीं । सीता का भी भूमि मे समाने का प्रसंग भी सिर्फ इतना ही संकेत करता है कि या तो किसी सुरंग के रास्ते नाटकीय ढंग से भगाकर सीता को राजा जनक के यहाँ गोपनीय ढंग से पहुँचा दिया गया होगा या इससे मिलता-जुलता ही कुछ हुआ होगा । आख़िर भूमि से नाटकीय ढंग से सीता को प्राप्त करने वाला मिथिला का राजघराना अपनी सीता का कितना अपमान बर्दाश्त करता ? और कब तक ?
मैने इस प्रसंग को सावधानी से पढा था तो एक बात मुझे खटकी थी । सीता के भूमि मे समाने के बाद भी वहाँ सोने का वह सिंहासन रह गया था जिस पर आरूढ़ होकर सीता को ले जाने के लिए आयी धरती माॅ प्रकट हुई थीं । आप जानते हैं कि सोने का सिंहासन मानव निर्मित हुआ करता है । सोना ही मनुष्य की खोज है और सिंहासन भी प्राकृतिक अवस्था में नहीं मिलता । स्पष्ट है कि यदि घटना वास्तव मे घटित हुई थी तो वह कूटरचित ही हो सकती है । सिंहासन इस लिए धरती माता बनी नटी द्वारा छोड दिया होगा कि अभिभूत लोगों के सच जानने से पहले सुरंग के रास्ते उसे वहां पहुँचाना तो संभव था लेकिन सीता सहित पात्रों को तेजी से वहां से गायब होने की आवश्यकता को देखते हुए सिंहासन को लेकर भागना संभव नहीं था । जैसे ही सीता जी भूमि मे समाई-ऐसा वर्णन है कि उनके नाम पर जयकारा लगाती हुई भीड ने फूलों से उस सिंहासन को ही ढक दिया ।
सीता के भूमि फटने पर उसमेँ समाने वाला अंश काल्पनिक होता तो सिंहासन सहित सीथा धरती में समा जातीं लेकिन वाल्मिकी जी ने उसके अकल्पनीय रूप से वास्तविक होने के दो प्रमाण छोडे हैं-पहला तो वही सिंहासन जिसपर सवार होकर धरती माता स्त्री रूप में प्रकट हुईं उसका वास्तविक पदार्थ से बना होने के कारण अदृश्य या लुप्त न होना । दूसरा प्रमाण उनकी यह विशेष टिप्पणी है कि सीता नाग लोक को चली गयीं । ऐसा निश्चय ही सुरंग का होना देखते हुए ही उन्होने लिखा होगा । उसके बाद प्रतिशोध एवं राम को तडपाने के लिए सीता का राम और लोक से छिपकर जीना भी सर्पवत व्यवहार उन्हे लगा होगा ।
लगता है राम को अपने साथ हुई इस मानव रचित कूटघटना का पता चल गया होगा । जिस तरह राम ने सरयू नदी में अपने अंतिम प्रवेश के समय हनुमान को वापस लौट जाने को कहा जिसके आधार पर उन्हे आज तक जीवित माना जाता है-उससे पता चलता है कि राम को ऐसी कूटघटना के संयोजन मे हनुमान का भी हाथ होने कि सन्देह अवश्य रहा होगा ।ऐसी योजना इसलिए भी संभव है कि हनुमान दक्षिण भारत के थे और उधर पर्वत को खोखला कर गुफा महल बनाने वाले कारीगर भी उपलब्ध थे । वैसी सूझ को उत्तर भारत मे भी प्रयोग करना उनके लिए सामान्य बात ही थी । विश्वसनीय सेवक के रूप में सिर्फ उन्हीं को हर जगह बेरोकटोक जाने का अधिकार भी प्राप्त था । राम आदर्शवादी प्रकृति के थे , वचन के पक्के और विश्वासी थे । उनके साथ कुछ तो गलत हुआ होंगा । शक की सूई हनुमान जी की संलिप्तता पर इसलिए भी जाती है कि वे जादूगर घराने से थे -वायुपुत्र उनको इसीलिए कहा जाता है ।
मेरे पास घटनाओं के सूक्ष्म निरीक्षण से उपजे और भी श्रृंखलाबद्ध तर्क हैं । जिन्हे कभी विस्तार से लिखूँगा । मेरा ऐसा लिखने का बुरा मानने वाले संभावित श्रद्धालु जरा विचार करके देखेंगे कि पूरे विश्व मे सर्वाधिक मिथ्या -कथन का रिकार्ड हमारे इसी प्रिय नायक के नाम क्यों है ? बचपन मे ही सूर्य को निगल जाना । जिस समय गंगा मे केवट की नावें चल रही थीं ,उसकी पूरी बिरादरी थी -उस समय लंका मे छलांग मारकर आसमान से होकर पहुँचना ,वह भी तब जबकि उनसे बहुत पहले समुद्र मंथन कर हमारे विष्णु लक्ष्मी को प्राप्त कर चुके थे । यानी विष्णु के समय से भारतीय समुद्र यात्रा करने लगे थे । हनुमान वेश बदलने में भी माहिर थे - पूॅछ रहित विप्र रूप से पूॅछ युक्त स्वरूप तक ।
कुछ तो है जो कि रामकथा के अन्त मे ,यदि वह वास्तव मे मनुष्यो के बीच घटित हुई है तो अविश्वसनीय और अवास्तविक है । जैसा दिखा या दिखाया गया है वैसा नहीँ है । असहज करने वाला है । उस स्तर की पीड़ा पहुँचाने वाला कोई कारण होना चाहिए जिसको सुनने के बाद राम को लगा होगा कि अब बस बहुत हो चुका -इस धरती पर जीने का कोई कारण नहीं बचा ।वह भी ऐसे राम जो अपने को मनुष्य मानते रहे हों। वाल्मीकि रामायण में जैसा वर्णन है उसके अनुसार सीता जी को धरती मे जाने के बाद वहाँ एकत्रित तमाशाई अयोध्यावासियों की भीड ने उस सिंहासन को ही पुष्प-मालाओ से ढक दिया ।
मै इस बिन्दु पर युवावस्था से आज तक ठहरा हुआ हूँ कि यदि दैवी था तो वह स्वर्ण-सिंहासन क्यों गायब नहीं हुआ । प्रकट हुई धरती माता और सीता जी के भूमि मे समा कर गायब होने के बाद ?
आप भी सोचकर देखिए । यही कथा जो हजारों वर्षों तक लोगों को अभिभूत रख सकती है । वही बुद्धिमान भी बना सकती है आपको गर्व होगा कि इतने हैरत-अंगेज कारनामें करने वाले चतुर और बुद्धिमान चरित्र विश्व के किसी धर्म और जाति के पुरा आख्यानों में नहीं देखे जाते ।
यद्यपि धरती की छाती फटने वाला बिम्ब तो उसके पुराने पाठ में ही है लेकिन वैसी किसी घटना का एक मानवीय और वैज्ञानिक पाठ भी होना चाहिए-नयी पीढी के लिए । जो होगा तो संभवतः ऐसा ही कुछ होगा ।




बुधवार, 6 मई 2020

हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म
पूरा हिन्दू समुदाय पुरोहित से यज्ञ या हवन कराने के पात्र और अपात्र जातियों में विभाजित है । शूद्र समझी जाने वाली अधिकांश जातियाँ न तो हवन कराने की पात्र समझी जाती हैं और न ही उनके यहाँ ब्राह्मण पुरोहित ही जाते हैं । अत्यंत लम्बा इतिहास होने और इस विभाजन को न समझ पाने के कारण ही ब्राह्मण संहिता कारों ने हवन या यज्ञ-संस्कृति मे शामिल न होने वाली जातियों को निचला वर्ण मानकर उनके लिये अपमानजनक व्यवस्था दी ।
दरअसल शूद्रों के निर्माण पर ब्राह्मणों के जातीय धर्म ग्रन्थ सीधे-सीधे तो चुप्पी लगाए हुए हैं लेकिन रामायण और शिवपुराण आदि में संभावित कारण छिपे हुए हैं । मेरा स्पष्ट मानना है कि यह अतीत के धार्मिक और साम्प्रदायिक विभाजन और संघर्ष का परिणाम है । रामकथा ऐसे बडे समुदाय के भारत में होने का पता देती है जो ब्राह्मण ऋषियों को यज्ञ नहीं करने देते थे । रामकथा इन्हें राक्षस कहती है और इन्हीं का नेता रावण को बताती है ।
रामकथा यह नहीं बताती हैं कि राक्षस यज्ञों का होने देना क्यों नहीं पसन्द करते थे ? उनके यज्ञ विरोध का कारण क्या था मैं इसके कारण को शिवपुराण में वर्णित उस घटना से जोड़ता हूँ जो यज्ञ-कुण्ड मे कूदकर सती के आत्मदाह से सम्बन्धित है । जिनकी जली हुई लाश को लेकर विक्षिप्त शिव के देश भ्रमण करने का भी वर्णन है । निश्चय ही इस घूमने ने शिव के अनुयायियों में यज्ञ के प्रति नकारात्मक भाव उत्पन्न किया होंगा । सती की मृत्यु पर जो शिव के गणों द्वारा आक्रमण हुआ उसमें भी भयानक दंगे और यज्ञ-विध्वंस की सूचना है । गुस्से मे दक्ष प्रजापति का वध होना भी वर्णित है । मेरे विचार से यहीं से भारतीय समाज यज्ञ और हवन आदि करने वाले और न करने वाले समाज में विभाजित होता है ।
आज भी किसी पर्व या प्रथा के किसी अशुभ घटना से जुड़ जाने पर उस पर्व को न मनाने का रिवाज मिलता है । यज्ञ कराने वाले सती के पिता दक्ष प्रजापति की हत्या के बाद शिव के अनुयायियों ने आस-पास के राजाओं को भी कुछ समय तक यज्ञ न करने दिया होंगा । यह सोच भी रही होगी कि मेरी रानी के कूदकर जल मरने से यज्ञ अभिशप्त हो चुका है । इसलिए आगे से यज्ञ बन्द हो जाना चाहिए ।
एक बात और ध्यान देने की है कि यज के लिए अग्नि चाहिए । पहली बार बिना किसी संसाधन के घर्षण द्वारा अग्नि उत्पन्न करना अत्यंत श्रमसाध्य होता है । जंगल या ज्वालामुखी क्षेत्र से ही पूर्वजों को अग्नि प्राकृतिक अवस्था मे मिली होगी । ग्रीष्म ऋतु में सूखी घास पर ऊंचे पहाड़ों से पत्थर आदि गिरने से उत्पन्न चिंगारियों से भी जंगलों में आग लगा करती थी । ऐसी प्राप्त अग्नि को नियन्त्रित विधि से थोड़ी-थोड़ी सूखी लकड़ियाॅ देकर जिलाए रखने की समझदारी जिन कबीलों मे आयी होगी वे फिर भून कर खाने का महत्व भी जान गए होंगे । अग्नि का जलना रात में प्रकाश और जंगली निशाचर पशुओं को दूर भगाने का भी माध्यम था । अपनी तरह ही अग्नि को भी जीवित सत्ता और उसे देवता का दर्जा देने की अवधारणा का भी विकास हुआ होगा । यह बहुत कुछ कुत्ते और गायों आदि पालतू पशुओं की तरह अग्नि को भी पालतू बनाने जैसी घटना रही होगी । यह भी कि बहुत सी शिकारी खानाबदोश घुमन्तू जातियों के पास अग्नि को पालतू बनाने का धैर्य नहीं भी रहा होगा । जिस तरह भारत आज भी एक जीवित ज्वालामुखीय क्षेत्र नहीं है,उसे देखते हुए लगता है कि अग्नि पालक एवं पूजक कबीलों के भारत में आगमन के साथ ही अग्नि पूजा वाली यज्ञ संस्कृति का प्रचार-प्रसार भारत मे हुआ ओल्ड टेस्टामेंट में लूत से सम्बन्धित प्रसंग में ज्वालामुखी विस्फोट का वर्णन है । कयामत की घटना का सम्बन्ध भी ऐसी ही किसी स्मृति से है । यह भी सच है कि आज की तुलना में प्राचीन काल में अधिक ज्वालामुखी सक्रिय रहे होंगे । वैज्ञानिकों द्वारा पाए गए हिमयुग में भी मनुष्य ऐसे ही किसी ज्वालामुखीय क्षेत्र में रहकर बचा होगा । वहीँ से किसी जलती हुई लकड़ी को उठाकर आग को मशाल की तरह दूर तक ले जाना भी सीखा होगा । अधिक संभावना है कि भारत मे आग जलाए रखने की व्यवस्थित प्रथा आर्यों के आगमन के साथ ही आयी ।
राम-रावण युद्ध मे रावण की पराजय और मृत्यु के पश्चात् यज्ञ संस्कृति का संगठित विरोध तो थम जाता है लेकिन उन कबीलों और जातियों मे जिनके पुरखे कभी शिव और रावण के पक्ष से रहे यज्ञ और हवन आदि न कराने की सांस्कृतिक आदतें बनी रही । यज और हवन कराने वाले पुरोहितों की सन्तानों को भी सिर्फ इतना ही पता रहा कि अमुक-अमुक जातियों के यहाँ हवन कराने नहीं जाना है । लम्बा समय बीत जाने के बाद इसी ने सांस्कृतिक अचेतन के रूप मे शूद्र घृणा और शूद्र ग्रन्थि का रूप ले लिया । बाद मे बौद्ध मत के अनुयायी मौौर्य वंश की समाप्ति के बाद शुंग वंश के शासनकाल मे बौद्धों को भी यज्ञ न कराने वाले शूद्रों मे शामिल करते हुए उन्हें चतुर्वर्ण संकल्पना मे सबसे निकले क्रम पर रखा गया । देखने की बात यह है कि यदि यह संकल्पना अधिक पुरानी रही होती तो नन्द वंश जो शूद्र था वह शासन ही कैसे कर पाता । उस समय तक कहीं न कही शूद्र सम्मानित ही रहे होंगे ।
इस तरह शूद्र जातियों के हवन संस्कृति मे शामिल न होने का खामियाजा ही उठाना पडा । ब्राह्मण शासकों ने उन्हे अपात्र घोषित कर दिया जबकि सच यह था कि पहले पुरोहितों ने नही बल्कि शूद्रों के पूर्वजों ने ही यज्ञ संस्कृति का बहिष्कार किया था ।
रामायण का सबसे बड़ा संरचनात्मक दोष यह है कि वाल्मीकि आश्रम मे सीता से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर लिखी गयी है । उसका पूरा विमर्श सीता के हरण और रावण के मृत्यु और सीता की मुक्ति तक सीमित हो जाता है ।। वाल्मीकि व्यास जी की तुलना में भावुक रचनाकार हैं । उनमें अपने समय के सामाजिक अन्तर्विरोधों को सही ढंग से समझने की व्यास वाली प्रतिभा नहीं है । रामकथा का विन्यास अपने समय की कूटनीतिक गतिविधियों को नेपथ्य मे छोड़ता जाता है । उसमे कथानायक राम के चरित्र की तथा अन्य चरित्रों की आन्तरिक समझदारी भी शामिल नहीं की गयी है । वह यह नहीं बताती कि राम को सीता के चरित्र पर क्यों संदेह है या जनक ने ही रावण को स्वयंवर से विरत रखने के लिए शिव का धनुष ही क्यों चुना । स्वयंवर के समय तक रावण राम के पिता दशरथ और जनक से भी बडा राजा था । कहीँ जनक को यह भय तो नहीं था कि शिव का धनुष न रखने पर सीता अपनी वरमाला कहीं रावण को ही नही पहना दे ! यह भी तो हो सकता है कि खर-दंषण के वध के कारण रावण राम से बदला लेना चाहता हो और उसने कैकयी के पिता या भाई से उनके भांजे भरत को अयोध्या का राज सिहासन सौपने के नाम पर कोई परस्पर दुरभिसन्धि और कूटरचना रची हो । इस योजना मे राम को मारने के लिए कैकेयी के द्वारा राम को वन-निर्वासन कराया गया हो । यह भी तो हो सकता है कि स्वयंवर मे अप्रत्यक्ष ढंग से अपमानित किए जाने के कारण प्रतिशोध स्वरूप तथा पद्मावत के अलाउद्दीन खिलजी की तरह सीता के सौन्दर्य से अभिभूत रावण विवाह के बाद भी सीता को अपना बनाने का पागलपन न छोड़ पाया हो । यह भी तो हो सकता है कि शूपर्णखा अपना प्रणय निवेदन लेकर नहीं बल्कि प्रेम मे घायल रावण का विरह निवेदन लेकर पंचवटी सीता के पास आयी हो । सीता का रावण के साथ जाना एक पूर्व नियोजित षडयंत्र का हिस्सा रहा हो । राम ने एक पति के रूप मे सीता के द्वन्द्व और विचलन को महसूस किया हो । रावण के साथ जाने मे सीता की भी आन्तरिक सहमति और संलिप्तता महसूस की हो । राम के बाद लक्ष्मण राम के संकटग्रस्त होने की आशंका के साथ ही भेजे जाते हैं । रावण के साधुवेश मे आने पर सीता उसकी आतिथ्य मे लगी चित्रित की गयी हैं । वे कहीं भी आशंकित और दुश्चितां ग्रस्त नहीं नितांत हुई हैं । लंका मे रावण की मृत्यु के बाद सीता को पाकर राम का यह कहना कि मुझे तुम्हारे चरित्र पर सन्देह है -एक स्त्री के पक्ष मे राम को खलनायक बना देता है । इस एकमात्र अभिव्यक्ति के बावजूद वाल्मीकि का रामायण सीता केन्द्रित पाठ ही प्रस्तुत करता है । उसमें अपने समय के सारे अन्तर्विरोध और राम के अन्तर्मन के सारे अन्तर्द्वन्द्व अनुपस्थित हैं ।
एक महाकाव्य के रूप में वाल्मीकि रामायण का रचना और अन्तिम परिमार्जित भाषाकाल राम के वास्तविक इतिहास काल यानी उपनिषद काल से निश्चय ही बहुत बाद का है । अन्यथा सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ का इतना स्मृति लोप न मिलता । परवर्ती होने के कारण इसका साहित्यिक पाठ उसके ऐतिहासिक पाठ के अनुरूप संगतिपूर्ण नहीं है । वर्तमान रामायण लम्बे समय तक आल्हा की तरंह गायी जाती रही । रामायण मे ही ऐसा प्रसंग है कि वाल्मीकि द्वारा लिखे जाने के बाद इसे लव और कुश द्वारा अयोध्या में गाकर सुनाया गया था । वाल्मीकि ने बहुत सी घटनाओं को सीता जी से पूछकर लिखा होंगा । क्योंकि उनके आश्रम मे हनुमान भी यदि जाते रहे होंगे तो उनसे भी सुनकर लिखा गया होगा । ऐसा मुझे इसलिए लगता है कि सबसे काल्पनिक और मनगढ़ंत मिश्रण हनुमान प्रसंग मे ही मिलता है । जैसाकि फादर क़ामिल बुल्के ने भी लिखा है कि वायुपुत्र हनुमान जादूगरी एवं बहुरुपियागिरी करने वाले परिवार से थे । हम सभी जानते हैं कि जादू कार्य-कारण सम्बन्ध को छिपाने के कारण ही दर्शकों को चमत्कृत करता है । इसे तथ्य छिपाने और झूठ बोलने की चतुराई के रूप में भी देखा जा सकता है । हनुमान जब पहली बार राम से मिलते हैं तो विप्र रूप मे मिलते हैं और अच्छी प्रशंसनीय परिष्कृत भाषा भी बोलते हैं । जाहिर है कि पूॅछ उस समय तक नहीं लगा रखी थी वे कपि का रूप धारण कर लंका मे प्रवेश करते है इसलिए कि जैव विविधता बन्दरो मे ही सबसे अधिक होती है और एक नए ढंग का बन्दर होने का भ्रम उत्पन्न किया जा सकता था । वायु पुत्र यानी जादूगर परिवार से आने के कारण चमत्कारिक मनगढ़ंत हनुमान के चरित्र के साथ ही मिलता है । प्रयाग से चित्रकूट तक पहुंचने के पहले उत्तर भारत के राम गंगा पार करने के लिए केवट बिरादरी और नाव का सहारा लेते हैं लेकिन दक्षिण मे जाते ही वे किसी नाव जैसी वैज्ञानिक युक्ति का सहारा नहीं लेते बल्कि बन्दरो और पक्षियों की मिली जुली सामर्थ्य के साथ मिथकीय छलांग मारते हैं । वास्तव मे अधिक संभावना समुद्री नाव से ही जाने की है । जबकि समुद्र मंथन से सम्बन्धित एक अन्य पौराणिक गल्प विष्णु के समुद्र पार जाने एवं एक योरोपीय प्रजाति की महिला लक्ष्मी के समुद्र से लाने-पाने के सन्दर्भ मे मंथन विधि यानी चप्पू या पतवार चलाने का संकेत कर चुका होता है । प्रश्न यह है कि जब विष्णु के जमाने में समुद्र मंथन यानी यात्रा के लिए बडी नौका उपलब्ध थी तो फिर बाद की पीढ़ी मे आए राम ई हनुमान किसी तैरती नौका या लट्ठे पर बैठकर लंका क्यों नहीं गए ? इससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि प्राचीन काल का नेतृत्व वर्ग भी जनसामान्य से तथ्यों को छिपा कर सत्ता के प्रति सिर्फ़ आस्थावान बनाए रखना चाहता था । सिर्फ बालि का गुफा भवन दक्षिण भारत मे पहाड़ो को खोखला कर बनाए जाने वाले महलों की निर्माण कला के अनुरूप है ।
अंत मे आपके प्रश्न पर इतना ही कहना उपयुक्त होगा कि भविष्य की अनिश्चितता से उबरने के लिए मनोवैज्ञानिक अवलम्बन के लिए समूची मानवजाति अपने ढंग से पूजा और प्रार्थना तो करती ही आयी है लेकिन राक्षसपति रावण और उसके पुत्र मेघनाथ ने आर्यों की तरह ही यज्ञ और हवन आदि कराया यह भी कहाँ प्रमाणित होता है । प्रमाणित तब मानता जब शृंगी और वशिष्ठ की तरह लंका के किसी पुरोहित का नाम लोग मुझे बताते ।
स्पष्ट है कि दलित भी आज की अवधारणा है । नन्द वंश तक तो शूद्र भी दलित नहीं रहे हैं, शासक रहे हैं । अभी वाला भारतीय समाज शुंग काल के बाद का है । शुंग यानी ब्राह्मण काल में ही बौद्धों की जातक कथाओं की तर्ज पर अठारह पुराणों सहित वाल्मीकि रामायण और मनुस्मृति आदि सभी लिपिबद्ध किये गये ।
आज स्वयं को वाल्मीकि से जोडने वाली एक जाति जो सफ़ाई से जुडी है उसका कहना है कि इस्लाम स्वीकार न करनें के दण्ड स्वरूप उसके पुरखों को सफ़ाई का गन्दा काम दिया गया ।
पहले स्वतंत्र कबीले हुआ करते थे । महाभारत काल में मातृसत्तात्मक कबीले भी थे । गंगा और सत्यवती आदि ऐसे ही मातृसत्तात्मक कबीलों की उन्मुक्त स्त्रियाँ हो सकती हैं ।
अत मे प्रमाणों और आधारों को लेकर एक टिपण्णी- नए बने मन्दिरों की तरह नए लिखे ग्रन्थों को भी अति प्राचीन बताने की एक विशेष प्रवृत्ति ब्राह्मण धर्म ग्रन्थों मे मिलती है । अपौरुषेय, अनादि और लोकोत्तर बताना उनके पेशे की दृष्टि से भी जरूरी था । बौद्ध धर्म के स्वर्णिम युग मौर्य काल के बाद सनातन धर्म के पुनरुत्थान हेतु समर्पित शासक पुष्यमित्र शुंग मे एक बात तो यह प्रशंसनीय दिखती है कि उसने जातक कथाओं की तर्ज पर अठारह पुराणों की रचना करवायी ।पाणिनी के द्वारा संस्कारित भाषा संस्कृत मे वाल्मीकि रामायण को प्रस्तुत कराया लेकिन अपने प्रशस्ति गान से सम्बन्धित कुछ भी नहीं लिखवाया । सम्भवतः उसे मनोवैज्ञानिक बाधा रही हो कि राजवंश का हत्यारा होने के कारण लोग उसके प्रशस्ति गान को स्वीकार नही करेंगे ।
हमें जानना चाहिए कि ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ प्राय एकमात्र स्रोत होते हुए भी सत्य तक पहुंचने के विश्वसनीय आधार नहीँ हो सकते । उनकी समझ देशकाल,रूढ़ियों और जातीय परम्पराओं से आच्छादित है ।यद्यपि जातीय तंत्र होते हुए भी विशेष मूल्य परक दृष्टिकोण के कारण सैकड़ो राजवंशों की सैकड़ो पीढियाँ को एक तरह से खारिज करते हुए उपेक्षित छोड़ दिया गया है । इसी कारण ऐसे हजारों राजा हुए है जिनका कोई सांस्कृतिक योगदान नहीं दीखता । संस्कृत साहित्य मे तो अकबर का भी उल्लेख संभवतः न मिले । मैं जो कहना चाहता हूँ उसे बहुत कम लोगों ने समझने का प्रयास किया है । हमारी संस्कृति के प्रवाह को निर्णायक मोड़ देने वाले चरित्र और घटनाएं कम ही हैं ।

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

एकलव्य प्रसंग

महाभारत में  गुरु द्रोणाचार्य द्वारा अपने अनौपचारिक शिष्य एकलव्य से गुरूदक्षिणा के रूप में  उसका अगूठा  मांग  लेने का प्रसंग आता है  ! इस प्रकरण मे एकलव्य के पास कोई वर्ग-स्वार्थ नहीं  है कि वह और उसका समुदाय  हस्तिनापुर की सत्ता को चुनौती देने मे दिलचस्पी रखे । उसकी धनुर्विद्या सिर्फ़ अपनी उदरपूर्ति और पशुओं के शिकार तक ही सीमित रहने वाली थी । ऐसे मे  उसके आत्मकेन्द्रित समुदाय से द्रोणाचार्य या अर्जुन किसी को भी कोई खतरा नहीं  था । फिर यह शरारती एवं भेदभावपूर्ण क्षेपक किसलिए महाभारत मे उपस्थित किया गया होगा-यह मेरी समझ मे नहीं  आता । यह सिर्फ और सिर्फ दक्षिणा-संस्कृति का ही महिमामंडन अवश्य करता है ।
        देखा जाय तो आज भी तो शस्त्र संचालन का लाइसेंस सरकार सभी को नहीं देती । धनुष भी भांति-भांति के बनाए और  पाए जाते रहे हैं ।धनुर्विद्या में  धनुष बनाने की प्रविधि भी शामिल  रही होगी ।  आदिवासियों का धनुष बांस या काष्ठ विशेष का होता था  लेकिन मध्य एशिया और चीन के तीर-धनुष अलग और जटिल विधि से निर्मित होते थे । ऐसे में  सत्ता कुछ उन्नत तकनीकों को  जनजातीय कबीलों से छुपाना भी चाहती रही होगी ।  तकनीक आदिवासी कबीलों मे न फैल जाए इसलिए मुझे तो लगता है छुपकर धनुर्विद्या सीखने वाले एकलव्य का अगूठा  द्रोणाचार्य ने ही उसे पकडवाकर कटवा दिया होंगा ।
    इस प्रसंग को केवल ज्ञान के पक्षपात का मामला नहीं  माना जा सकता । तत्कालीन सत्ता की दृष्टि में  कानून-व्यवस्था और शांति बनाए रखने का भी रहा होगा ।  राजस्थान में ही तीर-धनुष वाली आक्रामक भील जनजाति के होने के  बावजूद संसाधनो एवं कृषि-भूमि पर कब्जा कर क्षत्रिय जाति अपना राजतंत्र चलाती रही तो उसके पीछे उनका जातीय संगठन और श्रेष्ठ हथियार की तकनीक दोनो ही जिम्मेदार रही होगी ।
      एक और बात  समझ मे आती है  । जनजातियां  आसान दिनचर्या वाली  और आजीविका की दृष्टि से जंगल केन्द्रित प्रकृति पर आश्रित रही हैं  । उनमें  पूॅजीनिर्माण की संस्कृति नहीं मिलती । वे संसाधनों पर स्थायी और संगठित रूप में  कब्जा करने पर विश्वास नहीं  करती हैं । उनकी अन्तर्मुखी और स्वायत्त किस्म की उपस्थिति से मुख्यधारा के राजतंत्र और सत्ता को कभी कोई  चुनौती उपस्थित नहीं  हुई । जनजातियां  बहुत छेड़े जाने पर ही आक्रामक होती थीं  । ऐसे मे प्राचीन राजतंत्र ने उनके साथ सह अस्तित्व की नीति अपनाया । मुगलों  और ब्रिटिश सत्ता ने भी प्रायः ऐसा ही किया । 
      

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

साम्प्रदायिक घृणा का सांस्कृतिक अचेतन



साम्प्रदायिक घृणा का सांस्कृतिक अचेतन 


इस प्रश्न का ईमानदार उत्तर आप तभी पा सकते हैं, जब  धर्मों के पहले की मानवजाति की आप कल्पना कर सकें ।

संयोग से दोनों धर्मों के नेतृत्व में पुरोहितवंशी पृष्ठभूमि और मानसिकता छिपी है । मुहम्मद साहब स्वयं पुरोहित घराने से थे और उन्होंने इस्लाम के प्रवर्तन के समय जिन मूर्तियों को ध्वस्त किया था ,उनका परिवार ही उस मन्दिर का पुरोहित था । दूसरी ओर हिन्दू धर्म का नेतृत्व ब्राह्मण नाम की पुरोहित जाति करती है । पुरोहित व्यवस्था हर इन्सान और उसकी रूह को ईश्वर तक सीधे पहुंचने के अधिकार को प्रतिबन्धित करती है । इस्लाम में पुरोहित मानसिकता की अभिव्यक्ति-'मुहम्मद ही उसके रसूल हैं ' कथन से होती है । हिन्दू धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक ब्राह्मणों के नियन्त्रण में है -ईश्वर तो है ही । इसका निहितार्थ यह हुआ कि मरने के बाद भी मुहम्मद साहब के बिना अल्लाह से कोई भी मुसलमान नहीं मिल सकता तथा कोई भी हिन्दू ब्राह्मणों के बिना ईश्वर तक पहुंचने का अधिकारी नही है । ये दोनो ही सामान्य मनुष्यों को दोयम दर्जे का सिद्ध करते हैं । मनुष्य को दो वर्गों मे विभाजित करते हैं -ईश्वर के प्रिय तथा ईश्वर से दूर के मनुष्यों में । स्पष्ट है कि परम्परागत धर्म अपनी अवधारणा मे ही भेदभावपूर्ण हैं ।

अब हम दोनों धर्मों के अनुयायियों मे व्याप्त परस्पर घृणा के मनोविज्ञान पर विचार करें । दोनों धर्मों का उद्भव स्थल प्राचीन काल की साधनहीनता को देखते हुए पर्याप्त दूर ही कहा जाएगा । भारत से बाहर मूर्ति पूजा वाला धर्म बुत यानी बुद्ध की मूर्तियों के रूप मे गया था । बुद्ध के लगभग पाॅच सौ वर्षों बाद ईसा मसीह और लगभग एक हजार वर्षों बाद मुहम्मद साहब आते हैं । सभी जानते हैं कि बौद्ध धर्म एक अनीश्वरवादी धर्म है । जीवन को दिव्य बनाने वाले बुद्ध के दर्शन को उनके जाने के हजार वर्षों बाद आयी तमाम विकृतियो के बाद सही-सही समझना संभव भी नहीं रहा होगा । हिन्दू धर्म के अन्य देवताओं की मूर्तियां जैसा कि इस्लाम के अनुयायी समझते हैं -ईश्वर की मूर्तियां नहीं होतीं । दिव्यता लोकोत्तर विशिष्टता कि पर्यायवाची होता है । हिन्दू धर्म के प्रायः सभी देवता अपना विशिष्ट चरित्र और आख्यान रखते हैं । सभी के चरित्र में कोई न कोई समाजोपयोगी आदर्श या प्रेरणादायी विशिष्टता होती है । अधिकांश देवता किसी न किसी पौराणिक आख्यान के चरित्र हैं । अवतारवाद को ही देखें तो वे ईश्वर के अंश एवं प्रतिनिधि ही माने जाते हैं-स्वयं ईश्वर नहीं । हिन्दू धर्म अनीश्वरवादी नहीं है । इस्लाम की काफिर वाली अवधारणा अनीश्वरवादी बौद्ध धर्म को लेकर बनी थी । हिन्दू धर्म मे वैष्णव मत पूरी तरह परोपकार का प्रचार करता है । हनुमान कि चरित्र भी प्रेरक और परोपकारी है । कहने का तात्पर्य यह है कि मुहम्मद साहब ने जिन्हें भी काफिर समझा होगा वह अनीश्वरवादी बौद्ध धर्म का हजार वर्षों बाद का विकृत स्वरूप रहा होगा । मध्यकाल मे जब इस्लाम के अनुयायियों का भारत पर आक्रमण हुआ तो उन्होने मूर्तिपूजा को बुतपरस्ती और सभी मूर्तिपूजको को काफिर मान लिया । यह वह घृणा है जो इस्लाम के अनुयायियों में हिन्दू धर्म के प्रति मिलती हैं । इस्लाम प्रेरित इस पूर्वाग्रह ने मूर्ति निर्माण जैसी महत्वपूर्ण सृजनात्मक कला को अभिशप्त कर दिया । मुसलमान मूर्ति निर्माण को ईश्वर का अपमान समझते हैं । उन्हें अपने अल्लाह को समझाना चाहिए कि जैसे अल्लाह या कुदरत ने सारी दुनिया बनायी वैसे ही यदि उसका बनाया इन्सान पत्थरों को तराश कर प्रतिमाएं गढता है तो वह भी तो अल्लाह द्वारा कुछ रचने की कला का अनुसरण या अनुकरण ही कर रहा है -फिर यह अपराध कैसे हुआ ?

मुसलमानों के प्रति हिन्दुओं मे जो घृणा मिलती है -उसका एक कारण उनमें प्रचलित बलि- प्रथा और मांसाहार भी है । उल्लेखनीय है कि हिन्दुओं में बहुत सी जातियाँ मांसाहार नहीं करतीं । इनमें जैन , ब्राह्मण तथा बहुत सी अन्य किसान जातियां शामिल हैं । हमें ध्यान रखना चाहिए कि अरब और उसके निकटवर्ती अफ्रीका महाद्वीप मे शिकार आधारित जीवनयापन भी है । इस्लाम के अनुयायियों को सूअर को छोड़कर सभी जीवों का शिकार करने की छूट है जबकि कृषि प्रधान देश भारत में जन्मा सनातन धर्म कृषि मे सहायक बहुत से जीव-जन्तुओं को पवित्र और अबध्य मानता है । अन्त मे मै इस प्रश्न के सबसे जरूरी उत्तर को रखना चाहूॅगा । हिन्दू धर्म यज्ञ या हवन करने वाले और न करने वालों मे बंटा हुआ है । यज्ञ या हवन न करने वाली जातियों को ही शूद्र कहा जाता है । उच्च वर्ण के हिन्दुओं में शूद्र वर्ण के हिन्दुओं से एक सांस्कृतिक घृणा का अचेतन पहले से था । मुसलमान जब भारत में आए तो उच्च वर्ण के हिन्दुओं ने उन्हें शूद्रों से मिलते-जुलते एक नए धार्मिक समुदाय के रूप में देखा । कम से कम छुआ-छूत की नीति उच्च वर्ण के हिन्दुओं में शूद्रों और मुसलमानों के प्रति एक समान रही ।

हिन्दुओ के इस सामाजिक-सांस्कृतिक अचेतन का आधार प्पौराणिक काल की एक विशेष घटना से सम्बन्धित है । जब शिव की पहली पत्नी सती ने अपने पति को आमंत्रित न करने के कारण अपमानित होकर पिता दक्ष के यज्ञ कुण्ड में कूदकर आत्म-हत्या कर ली थी तो दक्ष के अनुयायियों और शिव के अनुयायियों के बीच एक भयानक दंगा हुआ । इस दंगे मे यज्ञ का विध्वंस तो हुआ ही, दक्ष सहित यज्ञकर्ता ॠषि- पुरोहित भी मारे गए । इस भयानक दंगे के बाद ही शिव को महादेव माना गया । यह सामूहिक रूप से तय हुआ कि मृत्यु के बाद अब से सती की भांति सभी अग्नि मे ही जलाए जाएंगे । ऐसे मे यज्ञ को शिव के अनुयायियों ने अपनी रानी सती के दाह एवं मृत्यु के कारण अपने लिए अशुभ एवं अपवित्र माना । यज्ञ या हवन आदि का बहिष्कार करने वाली यही जातियाँ कालान्तर में स्मृति लोप के कारण शूद्र मान ली गयीं । क्योकि ये यज्ञ कराने के लिए पुरोहितों को आमंत्रित नही करते थे इसलिए पुरोहित वर्ग इनके प्रति रोष और घृणा रखने लगे । मनुस्मृति के निर्माण के समय यानी पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में यज्ञ का बहिष्कार करने वाली जातियों को और बुद्ध के अनुयायियों को निम्न वर्ण शूद्र का मान लिया गया । इस्लाम की सत्ता स्थापित होने पर उन्हें भी शूद्रों के रूप में ही उच्च वर्ण के हिन्दुओं ने देखा । दोनों समुदायों की नासमझी और दंगों के ब्रिटिशकालीन उकसावे और भेदनीति तथा पाकिस्तान के निर्माण की ऐतिहासिक मांग ने मुसलमानों को भारत राष्ट्र के लिए खलनायक बना दिया है ।

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

भारत में प्रेम

तलाश 

जब यौवन
उफनती नदी की बाढ़ की तरह था
जब अन्तः स्रावी ग्रन्थियाॅ 
पागल नृत्य कर रही थीं 
जब देह में  सबसे अधिक बन रहे थे
प्यार के  मनोरसायन 
जब मैं  तुम्हारे
यानी अपनी पूरी प्रजाति की रक्षा के लिए
सारी दुनिया से लड़ सकता था
तब तुम कहाँ थी मेरा प्यार !
जब मैं  भटक  रहा था तुम्हारी तलाश में 
नगर-वन उपवन 
उन्मन-अनुमन
तुम्हें  कहाँ छिपा रखा था मेरी प्रजाति  ने  ?

योग्यता और तैयारी 

प्रेम 
प्रजाति की रक्षा के लिए तपस्या है
प्रेम अस्तित्व का आनन्दपूर्ण उत्सव है 
प्रेम अभिभावक बनने का जोखिम उठाने की तैयारी है
मेरा यौवनकाल 
प्रेम के लिए योग्यता अर्जित करने की 
तैयारी में चला गया

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

काशीनाथ सिंह का उपन्यास 'उपसंहार '

काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'उपसंहार 'को पढ़ते हुए मुझे लगातार नामवर सिंह याद आते रहे | मुझे लगता रहा कि काशीनाथ सिंह ने प्रसिद्धि की कीमत पर नामवर जी की गृह-कथा -अपने ही स्वजनों की असंतुष्टि और नाराजगी को कृष्ण कथा के माध्यम से आत्म -प्रक्षेपित किया है | हर सार्वजनिक व्यक्तित्व कहीं न कहीं पारिवारिक और निजी जीवन के मोर्चे पर हारता और स्वयं को घायल करता रहता है | 'उपसंहार' उपन्यास का सबसे कमजोर बिंदु यह है कि इसमें कुछ पौराणिक अंधविश्वासों का ज्यों का त्यों इश्तेमाल कर लिया गया है और सबसे ताकतवर पक्ष यही है कि इसमें कृष्ण के बहाने नामवर सिंह की प्रसिद्धि ,मनोदशा और नियति पर निवेश रूप में एक व्यंजनाधर्मी सूक्ष्म विश्वसनीय विमर्श उपस्थित है |दरअसल 'उपसंहार 'के कृष्ण (और वास्तविक जीवन में नामवर दोनों ही ) सामंती शैली की अभिजन श्रेष्ठता को जीते हैं और गणतंत्र /लोकतंत्र के बावजूद अपने समुदाय को अपने निर्णयों पर इतना आश्रित बनते जाते हैं कि अंत में लोगों को नालायक बनाता हुआ ईश्वरीय छवि में लिपटा व्यक्तिवाद बचता है | यह असम्वादी अभिजन व्यक्तिवाद ही कृष्ण का एकाकी अभिशप्त अकेलापन है (और हिन्दी साहित्य में संभवतः नामवर का भी ) इस उपन्यास में खुलकर तो नहीं लेकिन दबे सांकेतिक रूप में ब्राह्मणवादी छवि निर्माण पर रोचक  टिप्पणियां उपलब्ध हैं | काशीनाथ सिंह के इस उपन्यास की इस दृष्टि से प्रशंसा की जानी चाहिए कि यह कृष्ण के लौकिक से लोकोत्तर बनने-बनाने की प्रक्रिया में कृष्ण के असमाजीकरण और अमानवीकरण का गंभीर एवं सजग चित्रण करते हैं | दुर्वासा द्वारा कृष्ण को नंगा होकर खीर पोतने का आदेश देना ऐसा ही ब्राह्मणीकरण करने वाला प्रसंग है ,जिसे कृष्ण व्यवस्था का अंग बन जाने के बाद निस्तेज भाव से किसी आज्ञाकारी शिशु की भांति स्वीकार करते हुए दिखाए गए हैं | कृष्ण के पूर्ववर्ती विद्रोही चरित्र को देखते हुए यह पौराणिक प्रसंग कूट रचित और  प्रक्षेपित लगता है और इसका उद्देश्य वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण दुर्वासा को सामंती-अवतारी कृष्ण से भी सर्वोपरि सिद्ध करना रहा होगा | आखिर ईश्वर घोषित करने के पारिश्रमिक-पारितोषिक के रूप में इस प्रायोजक वर्ण-समूह को कुछ तो चाहिए ! आखिर ईश्वर बनाने और घोषित करने वाला वर्ण ईश्वर बनने वाले वर्ण से ऊपर और श्रेष्ठ होना ही चाहिए | कृष्ण यदि यहाँ विद्रोह कर देते या इनकार कर देते तो उनका ईश्वर पद छीन जाना तो तय ही था | फिर अवतारी कृष्ण को म्रत्यु जैसे घोर पार्थिव सत्य का भी सामना करना था | ब्राह्मण दुर्वासा द्वारा अमर बनाने वाली इस खीर के लेपन से कृष्ण का तलवा छूट जाता है और वहीँ से वे व्याघ्र द्वारा मार दिए जाते हैं | कोई चाहे तो दिव्य बनाने की इस इंजीनियरिंग को भी अपने विमर्श में शामिल कर सकता है |

शुक्रवार, 20 मार्च 2020

आस्तिकता और नास्तिकता

आस्तिकता और नास्तिकता 


आस्तिक या नास्तिक होने के प्रश्न पर एक रोचक मनोवैज्ञानिक समस्या की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ । नास्तिक और  नास्तिकता की सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि भाषिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर ईश्वर की अवधारणा को पहले ही स्वीकार कर लेता है । उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति आस्तिक होने पर ' ईश्वर है ' कहेगा तथा नास्तिक होने पर ' ईश्वर नहीं है ' कहेगा । दोनों ही स्थितियों मे 'है ' से उसका पीछा नहीं छूटेगा । उसका मस्तिष्क एक अनुत्पादक और काल्पनिक संघर्ष मे फंस जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि आस्तिकता और नास्तिकता दोनो ही विचार हैं । विचारग्रस्तता यदि किसी निर्णय पर नहीं पहुँचाती तो संशय की मनःस्थिति को जन्म देती है । ईश्वर को मानने मे और न मानने मे ऊर्जा व्यर्थ करने से अच्छा है कि इस प्रश्न और विषय को छोड़कर हम स्वयं को ही जिएं । ईश्वर को होने की पुष्टि हो जाए तो फिर ईश्वर की सहमति और असहमति तथा अनिच्छाऔर इच्छा का प्रश्न शुरू होगा यह प्रश्न शुरू होगा कि ईश्वर हमारे पक्ष में है या विपक्ष में -यदि वह स्वतंत्र मस्तिष्क या चेतना है तो । यदि वह हमारी ही चेतना के हिस्से के रूप मे है तो उसके मानने या न मानने से कोई विशेष फर्क नहीं पडने वाला । बुद्ध इसी कारण ईश्वर के होने या न होने के प्रश्न को ज्ञानविलास ही मानते थे । अपनी भूमिका, सामर्थ्य और दायित्व को अनदेखा कर ईश्वर पर सोचना अपने पडोसी के बारे में सोचने के ही बराबर है ।  फिर एक बार ईश्वर की सर्वशक्तिमानता स्वीकार कर लेने के बाद  हमारी अपेक्षाएं एवं प्रत्याशाएं  बढ जाती हैं । हम अपने हिस्से का कार्य भी उसके हवाले करने लगते हैं ।  वास्तविक प्रकृति में  हम  विवेक  और चेतना  का विकेन्द्रीकरण देखते हैं  जबकि आस्तिक ईश्वर के माध्यम से विवेक और चेतना के केन्द्रीयकरण की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं । जबकि वास्तविक प्रकृति मे हर परमाणु और जीवाणु -विषाणु की भी अपनी  हैसियत  है । हमारी काया के भीतर भी हमारी कोशिकाएं हमे संज्ञान मे लाए बिना ही अपने हिस्से का कार्य चुपचाप करती रहती हैं  । 
     बौद्ध धर्म एक अनीश्वरवादी धर्म था । अतीत का भारत इस नास्तिक धर्म को भी जी चुका है । सच्ची नास्तिकता वस्तुतः स्वावलम्बन की साधना है  और ऐसा साधक तथाकथित परावलमबी आस्तिको से श्रेष्ठ होता है ।  यह स्वयं को भी आराम पहुंचाता है और ईश्वर को भी (होने की स्थिति में  )!

बुधवार, 11 मार्च 2020

धर्म पर पुनर्विचार

धर्म पर पुनर्विचार 


इस्लाम एक सेमेटिक यानी सामी मूल का धर्म है जो मूसा के द्वारा प्रवर्तित यहूदी धर्म से अधिक प्रभावित है । यद्यपि कुरान मे सम्मानित पैगम्बरों के रूप में ईसा मसीह को भी याद किया गया है लेकिन कुरान पढने से स्पष्ट हो जाता है कि मुहम्मद साहब ने मूसा के यहूदी धर्म की तर्रज पर ही अपने मुसलमानों की कल्पना की ।। मुसलमान शब्द के अर्थ मुसल्लम ईमान से ही स्पष्ट है कि इस्लाम और कुरान में वैचारिक तर्क़-वितर्क की बिल्कुल ही इजाजत नहीं है । कुरान की आयते अपने अनुयायियों से पूरी निष्ठा की माॅग करती हैं । जैसा कि सभी जानते हैं कि अरबी का बुत शब्द बुद्ध का ही तद्भव है और दूर-दराज के बौद्ध उपदेशक बुद्ध की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा करने लगे थे । बौद्ध धर्म एक अनीश्वरवादी धर्म था और बुद्ध के दर्शन को मूल रूप मे न समझ पाने के कारण ही मुहम्मद साहब ने बुतपरस्ती (बुद्ध की भक्ति) की काफ़ी निन्दा की है । हम सभी जानते हैं कि बुद्ध ने न तो ईश्वर की पूजा करने का उपदेश दिया और न ही अपनी ही पूजा करने के लिए कहा था । मध्य एशिया और अरब तक पहुंचते-पहुँचते बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के रूप में विभाजित और विकृत हो चला था । क्योंकि ईसा मसीह के जन्म के समय उन्हें आशीर्वाद देते समय घुमन्तू बौद्ध भिक्षुओं की प्रभावी भूमिका थी-जिन्हे ही ईसाई धर्मग्रन्थों में देवदूत कहा गया है । यही कारण है कि ईसा मसीह के उपदेशों और व्यक्तित्व में बुद्ध का प्रभाव दिखता है ।

ईसा मसीह के उपदेशों के विपरीत मुहम्मद साहब ने अपने कुरान में मूसा के यहूदी धर्म का अनुसरण किया है । कुरान में स्पष्ट लिखा है कि दुनिया की सभी भाषाओं को बोलने वालों के लिए पवित्र धर्म ग्रन्थ एवं पैगम्बर नाजिल किए गए हैं । कुरान सिर्फ अरबी जानने वालों के लिए नाजिल हुई है । मुहम्मद साहब के जीवन काल मे इस्लाम बहुत दूर तक नहीं फैला था । उन्होंने तो अपने जीवनकाल में यह सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन कुरान पढने के लिए सारी दुनिया के मुसलमान अरबी सीखेंगे । मुहम्मद साहब ने यहूदी धर्म में ईश्वर के लिए प्रचलित शब्द यहोवा के स्थान पर ईश्वर का जो नया नामकरण किया वह अल्लाह था । अ मूल स्वर है और अरबी भाषा का पहला अक्षर अल्लिफ है । इस आधार पर हुए ईश्वर के नामकरण अल्लाह का अर्थ हुआ दुनिया में सबसे पहला । पूरे कुरान मे कुदरत के प्रति आश्चर्य का भाव सबसे महत्त्वपूर्ण है । वे प्रकृति को स्वयं मे ही चमत्कार मानते थे । उनके अनुसार कुदरत स्वयं मे ही चमत्कार है । उसको बनाने वाले अल्लाह के प्रति कृतज्ञता (सिजदा) के लिए अलग से किसी प्रमाण या चमत्कार की आवश्यकता नहीं है ।

कुरान का अधिकांश हिस्सा मुसलमानों के लिए आचार संहिता के निर्माण से सम्बन्धित उपदेशों से भरा हुआ है । मुहम्मद साहब ने क़ोई भी उपदेश अपनी ओर से जारी न कर अल्लाह की ओर से ही जारी किया है । ऐसा बार-बार व्यक्त किया है कि जो कुछ भी कहा जा रहा है वह ईश्वर के परामर्श यानी रज़ामंदी से ही कहा जा रहा है ।

ओल्ड टेस्टामेंट के अनुसार मानव इतिहास मे पहला खतना इब्राहीम की पत्नी ने अपने बीमार बेटे को बचाने के लिए बलि प्रथा के प्रतीक के रूप मे किया था । बच्चे के स्वस्थ हो जाने ने पिता इब्राहीम को प्रभावित किया और उन्होंने खतना प्रथा अपने परिवार पर यानी आने वाली पीढ़ियों पर लागू कर दिया । बाद मे एक काफिले के साथ मिश्र जा पहुंचे यूसुफ जब अपनी योग्यता से वहाँ के शासक के मंत्री बन गए तो अपने भाइयों को भी मिश्र बुला लिया । कई पीढ़ियों बाद खतना के आधार पर ही शिनाख्त कर मूसा ने यहूदियों को एक जुट कर अपने देश इजरायल जाने लिए मिश्र से निकाला । मूसा के नेतृत्व में यहूदियों ने जो विजय हासिल की उसने यहूदियों से अलग बची शेष अरबी जनसंख्या को कुण्ठित कर रखा था । मुहम्मद साहब ने मुसलमानों मे भी अल्लाह के नाम पर खतना प्रथा प्रचलित कर यहूदियों के समानान्तर अरबी लोगों को इस्लाम दे दिया । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह हुई कि यह सब यहूदी लोग एक ही पूर्वज की सन्ताने हैं । कोई दूसरा स्वयं को यहूदी घोषित नहीं कर सकता लेकिन ईसाई धर्म की तरह मुहम्मद साहब ने किसी को भी मुसलमान बनने की इजाजत दी है । जन्म पर आधारित होने के कारण यहूदी अल्पसंख्यक ही रह गए । जबकि मत परिवर्तन की इजाजत देने के कारण इस्लाम धर्म ईसाई धर्म की तरह पूरी दुनिया में फैल गया

बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंट के मूसा के नेतृत्व में मिश्र से यहूदियों के महा-निष्क्रमण का वर्णन अत्यन्त विस्तार से किया गया है ।| मूसा जब पहाड़ी पर चढ़ कर चिंतन कर रहे थे,उस समय अपने अनुयायियों की धैर्यहीनता तथा सभी के सोने को पिघलाकर एक देवता बनाकर पूजने का प्रयास करने वाले अपनें ही बीच के दूसरे नंबर के नेतृत्व को तथा उसकी बात मानने वालों को बर्बरतापूर्वक हत्या करवाते हैं | यहूदियों के लिए मूसा के निर्देश कितने महत्वपूर्ण थे कि बहुत बाद में ईसा मसीह को भी उसी के आधार पर सूली यानि ऊँचे पर लटका दिया गया | यहूदी आज भी मूसा के उपदेशों से ही संचालित होते हैं जबकि ईसा मसीह के अनुयायियों नें बाद में यहूदियों को समझना छोड़ कर दूसरी जातियों को उपदेश देना शुरू किया | यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्र की अवधारणा का जन्म भी मूसा के द्वारा यहूदियों को संगठित करने की घटना से ही जोड़ा जाता है | मूसा नें यहूदियों को संगठित किया | उस संगठित शक्ति के नेतृत्व में यहूदियों नें नगर के नगर लुटे और भयंकर कत्लेआम कर काला सागर के पास की वह थोड़ी सी जमीन वापस छीनी जो उनके अनुसार उनके पुरखों की थी | यहूदी धर्म की यह जनसँख्या यहूदियों के लिए खतना अनिवार्य करने वाले उनके पहले पैगम्बर ईब्राहिम के लगभग हजार वर्ष बाद जब खतना किए हुए लोगों की एक बड़ी संख्या मिश्र में हो जाती है .बहुत पहले युसूफ के साथ मिश्र में आए यहूदियों के वंशज मूसा के नेतृत्व में एक -दूसरे को पहचान कर मूसा के नेतृत्व में मिश्र से बाहर निकलने का सफल प्रयास करते हैं |एक संगठित सैन्य शक्ति के रूप में एक लड़ाकू धर्म ,जाति और राष्ट्र के संस्थापक बनते हैं जो यहूदी कहलाती है | मूसा नें यहूदियों को संगठित सैन्य शक्ति के रूप में जो नया चेहरा दिया उसका धर्म की मानवीय संवेदना से कुछ लेना-देना नहीं था | वह इस अंधी आस्था पर आधारित था कि यहोवा के नाम पर जिसका भी खतना हुआ है ,वह दूसरे मनुष्यों से विशिष्ट है | यह सीधे-सीधे दूसरों को हेय और स्वयं यानि यहूदियों को श्रेष्ठ समझने वाला धर्म था | यह विशिष्टता-बोध जीता था और दूसरों का अपमान करता था | इस्लाम के प्रवर्तक स्वयं मुहम्मद साहब के ऊपर भी नीचा देखने की भावना से कूड़ा फेकने का जिक्र मिलता है | इस प्रकार धर्म के नाम पर संगठित श्रेष्ठता और संगठित अपमान करने वाली कट्टरता का सम्बन्ध यहूदियों से है |

जैसा कि मैने पहले भी संकेत किया है- मुहम्मद साहब नें इस्लाम की खतना प्रथा यहूदियों से ही ली थी |.हाँ अरबी भाषा के पहले अक्षर अल्लिफ के अनुसार उन्होंने ईश्वर को यहोवा न कहकर अल्लाह कहा जिसका आशय था सृष्टि में पहला (जैसे अल्लिफ अरबी वर्ण माल का पहला अक्षर है उसी प्रकार दुनिया के पीछे सक्रिय पहली शक्ति को उन्होंने अल्लाह कहा | मुहम्मद साहब की जीवन गाथा पढ़ाकर ऐसा लगत है कि प्रारम्भ में उनका उद्देश्य गौतम बुद्ध और ईसा मसीह की परंपरा का ही मसीहा बनने का था लेकिन जब विरोधियों द्वारा उन पर प्राणघातक हमले बढ गए तो उन्होंने अपना रास्ता मूसा की शैली का कर लिया | खतना और कट्टरता दोनों ही इस्लाम में मूसा के यहूदियों वाली ही रही है | यही कट्टरता जब भारत में आयी तब यहाँ के लोगों को मूर्तिपूजक मानकर वही प्रयोग भारतीयों के साथ भी हुए | प्रतिक्रिया में संगठन के महत्व को देखते हुए मध्य युग में खालसा और सिक्ख पंथ का गठन गुरु गोविन्द सिंह नें किया | वे स्वयं तो मारे गए लेकिन उनकी नीव का भवन बाद में महाराणा रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिक्खों नें देखा | ईसाईयों नें ईसा मसीह के नेतृत्व और प्रभाव में सेवा का संगठन बनाया लेकिन मूसा की हिंसक संगठन वाली परंपरा इस्लाम के अनुयायियों की परंपरा सिक्खों में होती हुई ब्रिटिश काल में निर्मित होने वाले हिन्दू संगठनों तक पहुंची | इसे मैं इतिहास में एंटीबाडी बनने की ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखता हूँ | वह मुसलमानों की तरह ही एक ऐतिहासिक अनुभव प्रक्रिया का परिणाम है -यह कट्टरता की पर्तिक्रियात्मक प्रक्रिया के रूप में है | हिन्दू नामकरण से लेकर उसका चरित्र गढ़ने तक इस्लाम के ऐतिहासिक अनुभव ही इसे शक्ति और उर्जा देते रहे हैं | मैं आज भी दुनिया की किसी कट्टरता के पीछे मूसा का असहिष्णु और क्रोधी चेहरा झांकते हुए पाता हूँ |

मैं जानता हूँ कि धर्म का यह भारतीय चेहरा नहीं है हाँ इसे संगठन का चेहरा अवश्य कहा जा सकता है -एक ऐसा संगठन जिसे मुस्लिम कट्टरता नें रचा है अपनी प्रतिक्रिया में | भारत के मसीहाओं का असली चेहरा बुद्ध और महात्मा गाँधी के चेहरे से मिलता-जुलता हो सकता है ,ईसा मसीह से भी | मुहम्मद साहब का प्रारंभिक आचरण बताता है कि वे भी ईसा मसीह की तरह के ही पैगम्बर होना चाहते थे लेकिन परिस्थितियों नें उन्हें मूसा की शैली का पैगम्बर बना दिया | मुझे् लगता है कि उनकी आत्मा की शांति के लिए इस्लाम के अनुयायियों को ही आगे आना होगा | वे इंसानियत के प्रति अपने कर्तव्यों को समझकर लचीले बनेंगे तभी वे अपने जैसे सनकी कबीले के बनाने के स्थान पर इंसानियत का एक बार फिर फैलाना देख पाएगे |

( क्योंकि सबसे पहले मूसा नें ही एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना की थी जो सिर्फ यहूदियों के लिए हो |यहूदियों को सगा और श्रेष्ठ और दूसरों को पराया मानने वाला दुनिया का पहला सांप्रदायिक संगठन वही था | क्योंकि मुहम्मद साहब नें यहूदियोे की प्रतिस्पर्धा में अपना धार्मिक संगठन 'इस्लाम 'खड़ा किया था ,इसलिए ईसाई धर्म से कुछ कथाएँ लेने के बावजूद इस्लाम यहूदी धर्म का ही प्रति-रूप है | यही कारण है कि जैसे यहूदी दूसरे समुदायों के साथ नहीं रह सकते वैसे ही मुसलमान भी नहीं रह सकते | क्योंकि यह मूसा के शुद्धतावादी नरसंहारों का ऐतिहासिक अचेतन छिपाए है | इस लिए हर बढ़ती जनसँख्या के साथ यह भी अलग राष्ट्र मांगता रहेगाा |दूसरी कौमें नहीं देना चाहेंगी तो उन्हें लड़ना ही होगा | इसराइल ,पाकिस्तान और कश्मीर यह सब एक ही ऐतिहासिक -सांस्कृतिक अचेतन की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं | बिना मानवतावादी आधुनिकतावादी विज्ञानवादी मुस्लिम एवं हिन्दू नवजागरण के मुझे ऐसी धार्मिक-मजहबी ऐसी संकीर्णताओं की समस्या का कोई समाधान नहीं दिखता |

धर्म की पिछली यात्रा को देखकर मैं आज भी आश्चर्य से भर जाता हूँ कि मध्य युग के संगठित अपराधियों नें ईश्वर को भी नहीं छोड़ा |आज भी उनका व्यवहार नहीं बदला है | वे क्योंकि तलवार से हत्या कर सकते थे इसलिए वे इसकी घोषणा कर सकते थे कि ईश्वर उनसे सहमत है | एक मित्र नें मुझसे धर्म की परिभाषा पूछी थी -क्या मैं ऐसा कह सकता हूँ कि प्राचीन काल से ही संगठनों की दादागिरी ही धर्म है | धर्म वही है जिसे विजेता कहता है ....

हिन्दू धर्म भी यहूदियों की तरह एक जन्म आधारित धर्म है । अन्तर यही है कि इसमें सभी श्रेष्ठ नहीं है । भाग्य और प्रारब्धवाद के आधार पर राजा के पक्ष में जनमत तैयार करते ब्राह्मण अपनी भूमिका में बने रहे और उनकी इस भूमिका का लाभ बाद में मुग़ल शासकों को भी मिला | आज भी यह तंत्र आनुवंशिक व्यवस्था का सम्मान करता है | आज के भारतीय लोकतंत्र में ही कई ऐतिहासिक घराने सक्रिय हैं |एक बार निष्ठां तय हो जाती है तो उसमें भगवान की खोज शरू हो जाती है | जिसे देखो और जिधर देखो उधर ही यह तंत्र भक्त पैदा करता रहता है |ये भक्त अपनी जिम्मेदारियों से निरंतर भागते रहते हैं और जिम्मेदारियों का निरवाह करने के लिए एक अदद भगवान की खोज में लगे रहते हैं | यद्यपि इतिहास में कुछ बहुत चालाक ब्राह्मणों नें ब्राहमणों के तटस्थ रहने के जातीय निर्देश को नहीं माना और स्वयं राज सत्ता हथिया ली | इनमें से पुष्यमित्र शुंग का नाम सर्वोपरि है | भारत में गुलामी का मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार करने वाले आध्यात्म के नाम पर समर्पण वादी भक्ति का प्रचार किया गया |

हमारी मनोभूमि तथा सामाजिक-सांस्कृतिक स्वीकृति,प्रशंसा और वर्जनाएं ही हमारे कार्य-व्यवहार तथा आचरण को निर्देशित करने वाली आदतों एवं अभिवृत्तियो के रूप में हमारे जीवन का संविधान रचती हैं । हमारी धार्मिक मनोरचनाएं भी हमारे जीवन के पर्यावरण को दूर तक प्रभावित करती हैं । स्पष्ट है कि इस दुनिया को बदलने के लिए सभी धर्मों के गतयुगीन अनुयायियों को एक साथ समझदार होना होगा और सुधरना भी होगा ।

रामप्रकाश कुशवाहा 

शनिवार, 25 जनवरी 2020

ज्ञातव्य

"विवेचिता" और "सत्या "की सभी पंक्तियाँ ,चिंतन के गहन निष्कर्ष-क्षणों को शब्दों में बांध लेने के प्रयास में तो जन्मी ही हैं ; इसकी सभी रचनाएं ,अपनी सर्जना और उद्देश्य के स्तर पर -डायरी की उन पंक्तियों की तरह हैं ,जो भावों और विचारों को सुरक्षित रख पाने के लोभ में ही लिपिबद्ध कर ली जाती है .अथवा अन्य तस्वीरों की तरह ये भी अंतर्मन के छायाचित्र हैं ; जिसमें जीवन-प्रवाह को इन स्मृति-चित्रों के रूप में कैद कर लिया गया है . 
      यदि इन रचनाओं में प्रयुक्त उपकरणों को छोड़ दें तो अपनी सम्पूर्ण निर्मिति एवं अभिप्रेत की दृष्टि से ये किसी पूर्वनिर्मित ज्ञानकोश की विशिष्ट छाया में रचित नहीं हैं . यह कहना सत्य की समस्त रचनाओं को देखते हुए आश्चर्यजनक प्रतीत हो सकता हैं ,लेकिन है पूरी तरह सच .

सोमवार, 20 जनवरी 2020

सम्पादकों के ई -मेल

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54. साखी (त्रैमासिक), सदानंद शाही (संपादक), shakhee@gmail.com
55. गतिमान, डॉ. मनोहर अभय (संपादक), manohar.abhay03@gmail.com
56. साहित्य यात्रा, डॉ कलानाथ मिश्र (संपादक), sahityayatra@gmail.com
57. भिंसर, विजय यादव (संपादक), vijayyadav81287@gmail.com
58. सद्भावना दर्पण, गिरीश पंकज (संपादक), girishpankaj1@gmail.com
59. सृजनलोक, संतोष श्रेयांस (संपादक), srijanlok@gmail.com
60. समय मीमांसा, अभिनव प्रकाश (संपादक), editor.samaymimansa@gmail.com
61. प्रवासी जगत, डॉ. गंगाधर वानोडे (संपादक), gwanode@gmail.com pravasijagat.khsagra17@gmail.com
62. शैक्षिक उन्मेष, प्रो. बीना शर्मा (संपादक), dr.beenasharma@gmail.com
63. पल प्रतिपल, देश निर्मोही (संपादक), editorpalpratipal@gmail.com
64. समय के साखी, आरती (संपादक), samaysakhi@hmail.in
65. समकालीन भारतीय साहित्य, रणजीत साहा (संपादक), secretary@sahitya-akademi.gov.in
66. शोध दिशा, डॉ गिरिराजशरण अग्रवाल (संपादक), shodhdisha@gmail.com
67. अनभै सांचा, द्वारिका प्रसाद चारुमित्र (संपादक), anbhaya.sancha@yahoo.co.in
68. आह्वान, ahwan@ahwanmag.comahwan.editor@gmail.com
69. राष्ट्रकिंकर, विनोद बब्बर (संपादक), rashtrakinkar@gmail.com
70. साहित्य त्रिवेणी, कुँवर वीरसिंह मार्तण्ड (संपादक), sahityatriveni@gmail.com
71. व्यंजना, डॉ रामकृष्ण शर्मा (संपादक), shivkushwaha16@gmail.com
72. एक नयी सुबह (हिंदी त्रैमासिक), डॉ. दशरथ प्रजापति (संपादक), dasharathprajapati4@gmail.com
73. समकालीन स्पंदन, धर्मेन्द्र गुप्त 'साहिल' (संपादक), samkaleen.spandan@gmail.com
74. साहित्य संवाद , संपादक - डॉ. वेदप्रकाश, sahityasamvad1@gmail.com
75. भाषा विमर्श ( अपनी भाषा की पत्रिका), अमरनाथ (प्रधान संपादक), अरुण होता (संपादक), amarnath.cu@gmail.com
76. विश्व गाथा, पंकज त्रिवेदी (संपादक), vishwagatha@gmail.com 
77. भाषिकी अंतरराष्ट्रीय रिसर्च जर्नल, प्रो. रामलखन मीना (संपादक), prof.ramlakhan@gmail.com
78. समवेत, संपादक-डॉ.नवीन नंदवाना, editordeskudr@gmail.com
79. तदभव, संपादक: अखिलेश, akhilesh_tadbhav@yahoo.com
80. रचना संसार, भारत कात्यायन (संपादक), rachanasansar@gmail.com
81. शब्द सुमन मासिक पत्रिका, सम्पादक-डॉ रामकृष्ण लाल ' जगमग', 2015shabdsuman@gmail.com
82. अनुराग लक्ष्य, संपादक- विनोद कुमार, vinodmedia100@gmail.com
83. सरस्वती सुमन (मासिक), संपादक- आनन्दसुमन सिंह, saraswatisuman@rediffmail.com
84. आधारशिला (मासिक), संपादक- दिवाकर भट्ट, adharshila.prakashan@gmail.comeditor.adharshila@gmail.com
85. प्रेरणा-अंशु (राष्ट्रीय मासिक), संपादक- प्रताप सिंह, prernaanshu@gmail.com
86. युवादृष्टि (मासिक), संपादक- बी सी जैन, suggestion.abtyp@gmail.comabtypyd@gmail.com
87. संवदिया(सर्जनात्मक साहित्यिक त्रैमासिकी), संपादक- अनीता पंडित, प्रधान संपादक- मांगन मिश्र'मार्तण्ड', samvadiapatrika@yahoo.com
88. सोच विचार, संपादक-डॉ. जितेन्द्र नाथ मिश्र, sochvicharpatrika@gmail.com
89. त्रैमासिक आदिज्ञान, संपादक-जीतसिंह चौहान, adigyaan@gmail.com
90. पतहर तिमाही, संपादक-विभूति नारायण ओझा, hindipatahar@gmail.com
91. चौराहा (अर्द्धवार्षिक), संपादक - अंजना वर्मा, anjanaverma03@gmail.com
92. निराला निकेतन पत्रिका बेला, संपादक -संजय पंकज, dr.sanjaypankaj@gmail.com
93. इंदु संचेतना(साहित्य परिक्रमा), गंगा प्रसाद शर्मा'गुण शेखर'(प्रधान संपादक),थिएन कपिंग(कार्यकारी संपादक,चीन),बिनय कुमार शुक्ल(संपादक), indusanchetana@gmail.comindusanchetana.blogspot.in
94. समय सुरभि अनंत (त्रैमासिक ), सम्पादक- नरेन्द्र कुमार सिंह, samaysurabhianant@gmail.com
95. औरत मासिक पत्रिका, संपादक डॉ विधुल्लता ,भोपाल (मध्यप्रदेश), aurat.vidhu@gmail.com
96. वार्ता वाहक-श्रीवत्स करशर्मा(संपादक), vartavahak@gmail.com
97. नागरी संगम-डॉ हरिपाल सिंह(प्रधान संपादक), nagrilipiparishad1975@gmail.com
98. सेतु (पिट्सबर्ग से प्रकाशित), अनुराग शर्मा, setuhindi@gmail.com
99. स्त्री, प्रो. कुसुम कुमारी (संपादक), chitra.anshu4@gmail.com
100. चिंतन दिशा, संपादक-हृदयेश मयंक, chintandisha@gmail.com 
101. आधुनिक साहित्य, संपादक डॉ. आशीष कंधवे, aadhuniksahitya@gmail.com
102. अनभै, संपादक- डॉ.रतनकुमार पाण्डेय, anbhai@gmail.com
103. कथाबिंब - सं.डॉ.माधव सक्सेना अरविंद, kathabimb@gmail.com
104. संयोग साहित्य- सं.मुरलीधर पाण्डेय, lordsgraphic@gmail.com
105. नई धारा – संपादक- शिवनारायण, editor@nayidhara.com
106. नया पथ- संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह/चंचल चौहान, jlsind@gmail.com<br style="co
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