सोमवार, 13 जून 2016

ब्राह्मणवाद और पुरोहितवाद

पुरोहितवाद और ब्राह्मणवाद : उत्थान और पतन
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भारतीय धर्म ,ईश्वर और दर्शन के अनेक रूप हैं जिसमें से शैव दर्शन और धर्म सबसे प्राचीन है .इसके प्रतीकों में आदिम मनुष्य का प्रकृति की रहस्यमय सृजन (प्रजनन} शक्ति का रहस्यमय साक्षात्कार देखा जा सकता है. आर्योंमेंअग्नि-पूजाऔर यज्ञ-हवन का जो धार्मिक संस्कार मिलता है ,उसका प्राचीन सहवर्ती संस्करण जरथ्रुस्थ केअवेस्ता और पारसियों में मिलने वाली अग्निपूजा में देखा जा सकता है. पुराणों में दक्ष के यज्ञ प्रकरण तक यह स्मृति बनी हुई है और यह आज भी भारतीय धार्मिक संस्कारों का प्रमुख हिस्सा है. यही एक ऐसा धार्मिक संस्कार है जो प्राचीन आर्य कबीलों के पूर्वज पुरोहितों से लेकर आज तक अक्षुण्ण रूप से धार्मिक परंपरा में चला आ रहा है. वेदों से स्पष्ट है कि प्रारंभ में आर्य प्रकृति-पूजक थे. उनमें ब्रह्म की अवधारणा का विकास उपनिषद् काल से थोडा ही पहले संभवतः शैव या पाशुपत धर्म केप्रभाव से हुआ होगा . जब उन्होंने कूछ प्रसिद्ध व्यक्तियों कीअसाधारण मानसिक शक्तियों का रहस्य सर्वसुलभ बनाने के प्रयास में चिंतन-मनन और गंभीर होकर किया होगा. जीवन की रहस्यमय दिव्यता का साक्षात्कार ब्रह्म के रूप में किया होगा . भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर मुझे संस्कृत के ब्रह्म में मिलने वाली 'ब्र' धातु और अंग्रेजी के' ब्राइट (चमकीला) शब्द के 'ब्र' धातु में निकट का सम्बन्ध दिखता है. सृष्टि में दिखने वाली रहस्यमय चेतन जीवनी शक्ति को ही उन्होंने सर्वव्यापी ब्रह्म तत्व के रूप में देखा होगा . उपनिषद् काल के बाद आर्यों - पुरोहितों नें इस ब्रह्मवादी दर्शन को व्यापक शास्त्रार्थों के बाद सर्वसम्मति से स्वीकार करते हुए स्वयं को ब्राह्मण कहना शुरूकर दिया . क्योंकि सामाजिक वर्ग-संरचना पुरोहित वाली ही रही .इसलिए ब्राह्मण,पुरोहित और पंडित शब्द नाम-परिवर्तन के बाद भी एक ही जातीय अस्तित्व का पता देते रहे. यही कारण है कि पुरोहितवाद को ब्राह्मणवाद कहने वाले आज भी कम नहीं है और यह शब्द भी ब्राह्मण के जातीय कर्म का ही विशेषण परक अर्थ प्रस्तुत करता है. उर्जा-सिद्धान्र की तरह एक दार्शनिक प्रत्यय होने के कारण ब्रह्म-वाद मुझे आज भी आकर्षित करता है. प्रकृति की रहस्यमय शक्तियों के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापक वेदकालीन रिचाओंमेंभीकुछ आपतिजनक नहीं दिखता बल्कि उनकी पवित्र समर्पण-भावनाअभिभूत ही करती है. जीवन को यज्ञ मानने वाली भारतीय दार्शनिकी में भी जीवन जीने के रहस्य का एक रूपक ही छिपा हुआ है.वनाच्छादित प्राचीन समय में निरंतर अग्नि प्रज्वलित रखना और अग्नि-देव का जूठन या प्रसाद जिसे आज हम पकाना भी कहते हैं सुरक्षित खाने की खोज का ही एक रूप लगता है .ऐसा प्रतीत होता है कि डायनासोर को समाप्त करने वाले उल्का-पात और उसके पश्चात के दीर्घकालीन अन्धकार-युगऔर हिम-युग का सामना मानव-जाति के पुरखों नें ज्वालामुखियों से प्राप्त अग्नि को पालतू बना कर ही किया होगा .भारतीयों में विशेष रूप से ब्राह्मणों की जातीय परंपरा एवं कर्मकांडों में में ये सारे अतीत जातीय स्मृति के रूप में सुरक्षित हैं. इनमें से अधिकांश दार्शनिक और प्रतीकात्मक अर्थवत्ता भी रखने के कारण प्रतिगामी नहीं भी माने जा सकते हैं. इनमें आदिम मनुष्य की काव्यानुभूति छिपी है. संभवतःइसीलिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने क्रांतिकारी सुधारों में इनका भी विरोध शामिल नहीं किया.
प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मणों नें ऐसा कौन सा अपराध किया है कि आज ब्राह्मणवाद एक गाली बन चूका है. इसके उत्तर का ऐतिहासिक आधार यही है कि वे स्वयं को जातीय रूप में तो ब्राह्मण ही समझते रहे लेकिन भारत से बौद्धों के उच्छेदन (पुष्यमित्र शुंग के बाद) के परवर्ती दौर में स्वयं शासक बन जाने के कारण दूषित स्वार्थ बद्ध ,मानवता-विरोधी और धर्म-भ्रष्ट हो गए. ब्राह्मण पुरखे जिस कलि-युग की चर्चा करते हैं वह उनमें ही आकर बैठ गया है. उन्होंने सभी प्राणियों में ब्रह्म का दर्शन करना छोड़ दिया. भारतीयीा्मूल के मानव-समाज नें जो उन्हें ईश्वर से जुड़ने के कारण सिर-आँखों पर बैठा रखा था उसे विषमता के पक्ष में प्रक्रति और ईश्वर द्वारा ब्राह्मणों को प्रदत्त विशेषाधिकार के रूप में प्रचारित किया. शुंग-काल में ही पुराणों का पुनर्लेखन हुआ. भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से महाभारत के बाद संभवतःइसी काल में वाल्मीकि रामयण की भी रचना हुई. तथा बोद्धों और शूद्रों की हत्याओं को जायज ठहराने के लिए पुष्यमित्र शुंग के दरबारी ब्राह्मणों नें अपने आदर्श के पीछे सत्ता छोड़ने वाले राम के हाथों में भी शम्बूक वध का प्रसंग प्रक्षिप्त करा दिया. ऐसा इसलिए कि अंतिम मौर्य शासक के हत्यारे महामंत्री पुष्यमित्र शुंग को राम का दर्जा दिया जा सके.जनता में यह प्रचारित करने के लिए कि पुष्यमित्र शुंग नें अपने राजा का वध करके विश्वासघात का कोई सामाजिक अपकर्म नहीं किया है बल्कि एक नास्तिक धर्म को मानने वाले शूद्र राजा का वध किया है जो धर्म-सम्मतहै.
प्रश्न फिर वही रह गया है कि ब्राह्मणों में बुरा क्या है. वह भी तब जबकि मेरे जीवन के सबसे अच्छे मित्रों में से अधिकांश वे सहपाठी रहे हैं जिनका जन्म ब्राह्मण घरों में ही हुआ है-मैं ब्राह्मण-अपराध का वास्तविक स्वरूप उसके उस अंधेपन में ही देखता हूँ जिसकी ओर कभी कबीर नें इशारा किया था. वेस भी वे ब्रह्म यानि जीवन की विलाक्षणता का दर्शन करने वाली आँखे खो चुके हैं. वे समदर्शी रूप में नहीं बल्कि विषमतादर्शी रूप को जी रहे हैं . मेरी यह समझ में नहीं आता कि वे शूद्रों में ब्रह्म की व्याप्ति से प्राचीनकाल में मनुस्मृति लिख कर इंकार कर चुके हैं तथा आज उनसे प्रभावित राजनीतिक संगठन मुसलमानों और ईसाईयों में व्याप्त अपने ही ब्रह्म को देख नहीं पाते वे संकीर्णता दर्शन. के वाहक बन चुके हैं. आध्यात्मिक प्रेम के नहीं बल्कि घृणा के प्रचारक हैं.उन्हें सामने के वर्त्तमान मनुष्य में निहित संभावनाएं और उनके अस्तित्व और जीवन की दिव्यता नहीं दिखती. वे सिर्फ अतीत पर रीझे हुए लोग हैं और उनके पक्ष में वर्तमान मनुष्यों का यथाशक्ति अपमान ही किया करते हैं.
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो ब्राह्मणवादी धर्म (जिसे वास्तव में पुरोहितवाद कहना चाहिए ) का विकास महाजनपदों में सामंतवाद के एक रूप राजतंत्र के संरक्षण के लिए किया गया था-इसमें पुरोहित (ब्राह्मण) स्वाभिमान रहित होकर जिसे आध्यात्मिक भाषा में अहंकार रहित होकर राजा और ईश्वर के सामने झुकने और अधीनता स्वीकार करने -कराने का अभ्यास कराता है.उसे आप गुलामी का पवित्र-धार्मिक प्रशिक्षक भी कह सकते हैं.अब जब पुरोहित लोग ब्रह्मवाद को मानने के कारण स्वयं को ब्राह्मण कहने लगे तो आजकल यह भर्त्सना ब्राह्मणवाद नाम से ही की जाती है.ब्राह्मणवाद को एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में ही लेना चाहिए ,जातीय अपमान के रूप में नहीं.क्योंकि भारत में जातीयता के विकास के लिए सभी लोगों के पुरखे जिम्मेदार हैं इसलिए सभी बुराइयों के लिए सिर्फ ब्राहमणों को ही जिम्मेदार ठहराना अतिरेकपूर्ण हो सकता है.लेकिन कुछ सांस्कृतिक आदतों से बाहर निकलने के लिए ब्राहमणों और गैर ब्राहमणों सभी को जागरुक होना पड़ेगा.

यह स्वीकार करते हुए कि हर विचारधारा की तरह ब्राह्मण-मूल्यों का भी एक स्वर्णिम प्रगतिशील अवदान काल रहा है. प्राचीन भारत में चाणक्य और आधुनिक भारत में महामना मदन मोहन मालवीय के रूप में मुझे प्रगतिशील ब्राहमण धर्म का भी सच्चा (अवतारी!) स्वरूप दिखता है.एक अलग आयाम में आदि शंकराचार्य में भी.