शनिवार, 2 जून 2012

शास्त्र-चर्चा : एक नए स्वर्ग के लिए




यह कविता धर्म ,मोक्ष और उद्धार के नाम पर बाबाओं द्वारा ठगे जाने के तकोर्ं का उचित निरसितकरण करती है । भारतीय दर्शन के अनुसार जन्म और मृत्यु-चक्र  के बन्धन में पड़ी आत्माओं का ही पुनर्जन्म होता है । इस दृषिट से देखने पर तथाकथित सभी धर्मगुरू अभी इस जन्म तक तो मुक्त नहीं ही हैं । 
जब उनका अपना ही उद्धार नहीं हुआ है तो वे दूसरों का उद्धार कैसे कर सकते हैं ?







जो सबसे अच्छे थे अब तक पैदा ही नहीं हुए शायद
कम अच्छे मारे गए गर्भपात में
कमतर अच्छे आकर भी छोड़कर चले गए दुनिया......
फिर हम आए हम !

क्या पता पुण्य क्षीण होने पर
देवताओं नें स्वर्ग से गिराए थे धक्के मारकर
या फिर हम कीट-पतंगों से रेंगते हुए
पिछले दरवाजे से यहां तक पहुंचे !

हमारे जन्म पर शास्त्रों ने आशीर्वाद नहीं कहे
अभुक्त थे जो हम-गिरे हुए लौकिक या नारकीय !
स्वर्ग मृत्यु के पार था इसलिए देवता भी नहीं थे हम
और मारे जाने के लिए अभिशप्त
अपने होने से ही प्रमाणित कि मुक्त नहीं हम ।

तो अच्छे लोगों के विरुद्ध निरन्तर घृणास्पद होती जाती नियति में
शास्त्रसम्मत यही है कि हममें से कोर्इ मुक्त नहीं हैं
अपने पवित्र संकल्पाों और प्रार्थनाओं के बावजूद
हम सभी पापी हैं और कुकर्मी.......
न होते तो हमारा जन्म ही क्यों होता- कहते हैं शास्त्र !

हम सब विद्रोह के लिए अभिशप्त तिरष्कृत-त्रिशंकु की सन्ताने हैं
और हमारी मुकित सिर्फ विश्वामित्र बनने में है........
हमारे लिए प्रतिबनिधत स्वर्ग की अश्लील नागरिकता के समानान्तर
एक बार फिर रचने में है एक नया स्वर्ग !

त्र्रासदी पर पुनर्विचार.....

 ( मां  मित्रों और र्इश्वर के बहाने )


सिर्फ यही एक रास्ता है मेरे पास
कि बाहर के अंधेरे का सामना करने के लिए
अपने भीतर वापस लौट जाऊं !
कुछ वैसी ही कामना के साथ
जैसी कि मेरी मां की थी.....

मां ने बतलाया था-वह बहुत निराश थीं
जैसे अन्धकार के समुद्र में डूबती हुर्इ-सी
जब मैं उनके गर्भ में आया........
कि मैंने सुनहरे भविष्य की तरह तुम्हारी प्रतीक्षा की थी
जैसे अन्धकार के गर्भ से निकलता है सुबह का सूर्य
तुम्हारे अपना सूर्य बन जाने की कामना और सपने के साथ
पूरी की थी अन्तहीन अंधेरे की यात्रा
मैंंने तुम्हारे जन्म लेने की प्रतीक्षा में काटी थीं
न जाने कितनी रातें जाग-जागकरं.....

इसपुरुष-देह के साथ
मैं तो सिर्फ मसितष्कगर्भा ही बन सकता हूं
हां अपनी मांसपेशियों में भी कल्पना कर सकता हूं
नए सार्थक कमोर्ं को जन्म देने वाले सर्जक गर्भ की
ल्ेकिन मैं क्या करूं ! मैं जिसे किसी पर भी भरोसा नहीं है
किसी पर भी विश्वास नहीं है !
मैं जो अपने बाहर के सारे अन्धकार से जूझने के लिए
अपने भीतर की सृजनशीलता में डूबकर
दुनिया की सारी आशंकाओं और सारे भय को भूल जाना चाहता हूं
किसी श्रमिक की तरह बहते-बहाते अपने श्रम-जल के प्रवाह में
अनवरत बहते हुए अनन्त-काल तक जीना चाहता हूं मछलियों की तरह

मां के उस सपने को सच करते हुए
जिसमें वह मुझे चारों ओर से घिरे अन्तहीन समुद्र के बीच
तैरते देखकर पहले तो घबरा गर्इ थी
फिर यह जानकर आश्वस्त हुर्इ कि तैरना ही मेरी नियति है
कि मेरी नौकरी ही लगी है समुद्र के बीच तैरते पोत पर
रहने जीने और करते रहने के लिए.......

मां नें कहा था-जब यादों की ओर लौटना
घावों के इतिहास की ओर लौटना हो
अच्छा होगा कि पुराने इतिहास से बाहर रहकर
एक नए इतिहास को जन्म देने का प्रयास किया जाये
मां मुझे देखना चाहती थी नया इतिहास रचते हुए...


मां ने कहा था -अपने लिए सुखी होने के लिए
जन्म नहीं हुआ है तुम्हारा
ऐसे ही नहीं सूरज के उगने के साथ हुआ है तुम्हारा जन्म
तुम दुखी रहोगे.....जलते रहोगे अन्धे सूरज की तरह
दूसरों की अन्धकार से घबरार्इ आंखों के लिए
जिनके लिए जलोगे तुम
वे तुम्हें धन्यवाद भी नहीं कहेंगे
भूल जाएंगे अपनी आंखों के पीछे तुम्हारे जलने का सच
क्योंकि सभी को तुमसे सुखी रहने की आदत जो पड़ चुकी है
किसी को तुम्हारे सुख की ओर घ्यान भी नहीं जाता.....

मां ने कहा था तुम अपने हिस्से का भाग्य भी बांट देते हो
अपने मित्रों के बीच
कि मैं इतना भोला हूं कि जब भी मैं किसी से जुड़ता हूं
कुछ न कुछ खो बैठता हूं
वह मेरे मित्रों को किसी फूल पर मंडराते
आवारा पतंगो की तरह देखती थी
वह अच्छी तरह पहचान गयी थी कि
मै अपने मित्रों की जरूरत हूं
मित्र मेरी जरूरत नहीं हैं
वे सिर्फ मेरा समय बरबाद कर सकते है
वह भी अपने स्वार्थ के लिए
और एक दिन मुझे अकेला छोड़कर चल देंगे
अपनी जरूरतें पूरी हो चुकने के बाद......

कि तुम्हारे सारे मित्र फर्जी हैं
तुम्हारे सारे मित्र इसलिए फर्जी हैं क्योंकि उन्हें तुमने नहीं तलाशा है
बलिक वे ही धीरे-धीरे खिंचते आए हैं तुम्हारे पास
अपने स्वार्थ के अनुरूप तुम्हारी उपयोगिता की पहचान करते हुए
कि लोग पहचान गए हैं मेरे भीतर का बुद्धूपन
और यदि मैं अपनी जरूरत के अनुसार
अच्छे मित्रों की तलाश नहीं कर सकता
तब भी मुझे अच्छे मनुष्यों की तलाश करनी ही चाहिए......
यधपि मैं इतना मेहनती हूं कि
शायद ही मुझे किसी सहारे की आवश्यकता पड़े !

मां कहती थी कि तुम्हारे कोर्इ भी काम नहीं आएगा
तुम ही काम आने के लिए अभिशप्त हो दूसरों के
तब तक पत्नी नहीं आयी थी
जो बता पाती कि आप ही ठगे जायेंगे हर बार......
तब तक मैं यह पहचान नहीं पाया था कि
मेरे स्वभाव की सारी कमजोरियों का राज
मेरे उन सांस्कृतिक विश्वासों में छिपा है
जो मेरे प्रतिद्वद्वियाें और चुनौतियों से मुक्त- एकल
भारतीय र्इश्वर की तरह ही भोली आश्वस्त और अद्वितीय थीं
मां को मेरे बाद र्इश्वर पर ही सबसे अधिक भरोसा था
लेकिन सबसे अधिक डरती थी वह र्इश्वर से ही
वह संदिग्ध है ....उसकी लीला अपरम्पार है
और उसे कोर्इ भी नहीं समझ सकता
उसकी खुशामद के लिए सिर्फ एक ही जन्म काफी नहीं !
जो पूरे विश्वास में जीते हैं र्इश्वर उनके साथ मजाक किया करता है
पता नहीं यह र्इश्वर वही है या कोर्इ और......
कहते हुए हंसती थी मां

हमें सावधान रहना चाहिए
कि जब हम विनम्र प्रतीक्षा में होते हैं
मानव जाति का एक बुरा चेहरा
हमारे भीतर के स्थगित भोले असावधान मनुष्य को पहचान जाता है
जंगल में अपने आसान शिकार की तलाश में घूमती हुर्इ
भूखे बाघ की शातिर शिकारी आंखों केी तरह.....
र्इश्वर जो करता है अच्छा ही करता है के परम्परागत विश्वास के साथ
एक आम भारतीय के भोले बुद्धूपन के साथ
तब मैं पूरे गर्व के साथ अपनी अच्छाइयों के अनुरूप ही
अपने साथ अच्छे व्यवहार और स्नेहिल प्रशंसाओं की प्रतीक्षा में था.....

एक र्इश्वर-जो बुराइयों के लिए समर्पित हो
हमारी भूलों गलतियों और अपमानों से बना हुआ र्इश्वर
हमारे हिंसक प्रतिरोध और प्रतिशोध में अभिव्यकित पाता हुआ
एक पागल र्इश्वर का शैतान की तरह होना
जो हमारे विश्वासों को प्रश्नांकित करता रहे
ताकि हम बचे रह सकें एक बुरे आत्मविश्वास से
उन बाहरी बुरे प्रभावों से-जब हम अपने साथ
अच्छे व्यवहार की उम्मीद में दूसरों द्वारा ठगी के शिकार होते हैं....

शायद एक आसितक भारतीय होने के कारण
तब मैं पूरी तरह अपरिचित था उस बुरे र्इश्वर यानि कि शैतान से

मुझे अच्छे मनुष्यों की अब भी तलाश है
अच्छे मनुय यानि कि जो बार-बार ठगे गए हों और
दुनिया के बुरे चेहरे को देखने के सर्वथा अयोग्य हों
मुझे उन शक्की लोगों की भी तलाश है
जो किसी के अप्रत्याशित बुरे व्यवहार से हतप्रभ होकर
अपने ही भीतर सिमट गए हों
मुझे अब भी तलाश है उस मनुष्य की
जो अपनी नैतिकताओं को ढोते रहने के प्रयास में
समय और समाज से बाहर हो गया हो
मैं उस अदृश्य मनुष्य की खोज में हूं
जो अपने निर्वासन और अकेलेपन में र्इश्वर से होड़ ले रहा हो
मैं उसे ही अपना मित्र बनाना चाहता हूं

इस दुनिया में आने के बाद उसने मुझे बताया था
और मुझे अच्छा लगता कि सच ही कोर्इ र्इश्वर होता
कोर्इ भी असितत्त्व के मनहूस अकेलेपन में कैद होना नहीं चाहेगा
यह दुनिया जो असितत्त्व की अन्तहीन आवृत्ति से बनी है
मुझे अच्छा लगेगा कि मैं न सही कोर्इ दूसरा ही हो
जिसके होते हुए मैं पूरी तरह गैरजरूरी प्रमाणित हो सकूं
मैं किसी भी असितत्त्व के सम्मान में
अपनी सारी महत्त्वाकांक्षाओं को स्थगित करते हुए
अनन्तकाल तक प्रार्थना में झुके रह सकता हूं
लेकिन मैं भ्रमों से भरा हुआ जीवन जीना नहीं चाहता
मैं चाहता हूं कि मेरे सारे भ्रम टूट जाएं
अब तक जिया हूं चाहे जैसा
लेकिन मैं नंगे सच के साथ ही मरना चाहता हूं......

सच कहूं मैं..... मुझे बताया गया था
जो कुछ भी हो मेरे हिस्से का जीवन
सब कुछ इतना नियत कि र्इश्वर की ओर से ही हो जैसे.......
एक अटूट मजबूत विश्वास की तरह
मैं सफलता के संयोगों की निरन्तरता को
किसी चमत्कार की तरह र्इश्वरीय समझने लगा था
मैं समझता था बचे रह जाएंगे -
मैं और मेरे जैसे लोग जैसे अब तक उल्का पिण्डों की अनवरत मार
सहते हुए भी बची रह गयी है धरती
धरती पर चुपचाप बचा रह गया है जीवन

मित्रों में घबराहट फैलने लगी थी
और मित्रगण चुपचाप खिसकने और बदलने लगे थे
एक दिन पिता नें हाथ खड़े कर दिए कि बूढ़ा हो गया हूं मंैं
कि अब सहारे के लिए कोर्इ दूसरा र्इश्वर ढूढ़ो.....
मैं किसी समझदार र्इश्वर की प्रतीक्षा में था
जबकि असितत्त्व की आवृत्ति के साथ र्इश्वर अनेक भ््राामक विकल्पों में था
मेरा जीवन प्रेम के बाजार में खड़ा था-किसी एक के चयन के लिए...

कि जिस दिन नौकरी लगी
उस दिन पता चला कि प्रेम के बिकाऊ बाजार में
अब तक बचा हुआ हंू मैं अपनी बची हुर्इ कीमत के साथ....
मित्रगण झगड़ने लगे थे
अपनी-अपनी साली के साथ विवाह प्रस्ताव देने के लिए
कि जैसे वे हमेशा-हमेशा के लिए कैद कर लेना चाहते थे मुझे
किसी उपयोगी की तरह अपने रिश्तों की स्थायी कैद में

मां नें कहा था-बहुत -सी बेवकूफियां
हम साथ-साथ कर जाते हैं
अन्धी प्रतिक्रियाओं के उन्माद में
बिना समझे....बिना सोचे
और यह भी कि जब हम अपने साथ हुए हादसों के लिए
दूसरों की संदिग्ध भूमिका की तलाश कर रहे होते हैं
हम स्वयं ही एक पक्ष बन चुके होते हैं
अपने ही साथ हुए अपराधों के लिए.....