रविवार, 24 जून 2012

समय में कौए

(यह कविता आपातकाल के दिनों में ही स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले से किए जा रहे माननीय प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन के साथ एक कौए का पाश्र्व स्वर गूंजने पर लिखी गयी थी । अधतन प्रासंगिकता के कारण डायरी के पन्नों से बाहर प्रकाशित देखना जरूरी लगा)


1.

टी0वी0 पर गूंज रही है उस कौए की कर्कश आवाज
(माननीय) प्रधानमंत्री जी के भाषण के साथ
हम सिर्फ उसे सुन सकते हैं उड़ा नहीं सकते
इस वक्त आवाज निकालकर या लगभग डांटते हुए
उसे उड़ा देना या चुप करा देना संवैधानिक शिष्टाचार के खिलाफ है...
प्रधानमंत्री भी उसे उड़ा नहीं सकते या फिर
किसी को उसे उड़ाने के लिए कह नहीं सकते....
वे अपना पूर्वलिखित भाषण पड़ रहे हैं
उसमें उस कौए के बारे में कुछ भी नहीं लिखा गया है

कविता की भाषा से बाहर वास्तविकता में संभवत:
वह इतने अधिक मनुष्यों की चुप और शान्त उपसिथति को समझ नहीं पा रहा है
या फिर वह माननीय प्रधानमंत्री जी की एकल आवाज सेले रहा है होड़़
या फिर आतंकवादियों की किसी विध्वंसक साजिश की ओर
वह अपनी ही भाषा में कोर्इ जरूरी रहस्यमय संकेत करना चाहता हो

अंगरक्षक उस पर गोली भी नहीं चला सकते क्योंकि तब
कोए के साथ गोली की आवाज भी पूरे राष्ट्र में गूंज जाएगी
उसकी आवाज निर्णायक अनितम और अपरिहार्य है
वह अब हमारी पसन्द और नापसन्द से परे है
जाने क्या कुछ बोलता हुआ
उसे अब किसी का भी भय नहीं
उसे अभयदान मिल चुका है और अब वह निर्भय कौआ है
अब उसे ही यह तय करना है कि वह क्या कुछ
और कब तक बोलता रहे और कब उड़ जाए
चुने गए राजनीतिज्ञो के समानान्तर
अब वह एक संवैधानिक रूप से संरक्षित प्रतीकात्मक कौआ बनता जा रहा है

सीधे प्रसारण में राजनीतिज्ञों की तरह गूंज रही है उसकी आवाज
प्रिय या अप्रिय होने की चिन्ता से मुक्त
सत्ता द्वारा संरक्षित एक प्रतीकात्मक उपसिथति की तरहं....
जैसे वह आश्वस्त हो कि इस वक्त उसकी उपसिथति का
अब कोर्इ विकल्प नहीं है-वह बोल सकता है
 जो और जैसा चाहे......उसके सही या गलत होने के बावजूद
 लोगों को उसे सुनना ही पड़ेगा....


2.


व्यकितगत रूप से मुझे चुने गए राजनीतिज्ञ भी पसन्द नहीं थे
मैंने उन्हें अपना अमूल्य मत भी नहीं दिया था
वे जिन दलों के प्रत्याशी थे
उनके स्थानीय सदस्य और कार्यकर्ता भी उन्हें बिल्कुल नहीं जानते थे
कि वेे कौन हैं और क्या करना चाहते हैं
इसतरह वे एक अप्रत्याशित प्रत्याशी थे नेतृत्व के
व्यकितगत रूप से वे एक गूंगे प्रत्याशी की तरह थे जिनके साथ
लिखित आवाज के रूप में पार्टी का घोषणापत्र था...

मुझे कौए भी पसन्द नहीं हैं और नही उनकी कर्कश-कटु आवाज
मैंने उन्हें गौरैया के अंडों को बिना बच्चे बने ही फोड़कर
किसी आतंकवादी की तरह पी जाते देखा है
अपनी हिंसक प्रवृतित और संगठित व्यवहार के कारण
वे प्राय: गलत इतिहास पुरुषों जैसे ही होते हैं
जिन्हें समय की विडम्बनाओं के साथ सिर्फ सहा जाता है और सहना पड़ता है
मुझे तो समय के राजनीतिज्ञ भी कौओं जैसे ही लगे
जो शिशु हाथों की रोटियों की तरह
आम जन की भावनाएं एवं विचार छीनकर
व्यवहार और शब्दों तक पहुचने के पहले ही उड़ और उड़ा ले जाते हैं
इस तरह कौआ मेरे लिए मेरे जीवन और पर्यावरण की
बलात,हिंसक और अप्रिय उपसिथति एवं अवांछित समय है......



3.



समय और पर्यावरण में कौए
हर दिन-हर सुबह...हर शाम मेरे छत की मुंडेर पर
अपनी खुफिया आंखे लिए आ बैटता है
और फिर ध्वनि एवं विचार-प्रदूषण की तरह
घण्टों करता रहता है अपनी अपरिहार्यता की मुनादी
कुठ ऐसे कि खबरदार ! अपनी औकात से बाहर
जो कुछ भी सोचा तो.....

दूसरे दिन वह फिर आ जाता है
हलो ! कहकर व्यंग्य से मुस्कराता है
कुचर-कुचर करता हुआ डरावनी आवाज में फिर शुरू हो जाता है
लड़ाता और धमकाता है बहसें
एक ही बात को कर्इ-कर्इ माध्यमों से कर्इ-कर्इ बार
प्र्रसारित करवाता है-ऐसा है मेरा समय...वैसा है मेरा समय
कुछ ऐसा ही बार-बार दुहराता है

अपनी भददी आवाज की कर्कश धार से
चोंचों की मार से मेरे विचारों को लहूलुहान करता
छीन लेता है मेरे अन्तर में
अंकुरित होने के लिए छटपटाते
बीज जैसे हर नन्हें नए कोमल चूजे विचार....
वह मुझे पूर्ण सहमत देखना चाहता है
वही नहीं चाहता कि मेरे भीतर पल रहा हो कोर्इ
वैचारिक संभावना का वैकलिपक प्रतरोध
मेरे भीतर का विचार उसके सिद्धान्तत:
उसके सही ही होने के दावे को स्वीकार नहीं करता
जबकि वह पूरी ताकत के साथ मेरे मसितष्क में भी
अपने ही विचरों का उपनिवेश देखना चाहता है
वह मेरे प्रतिरोध पर क्षुब्ध आक्रोशित और आक्रामक है....

कहां मैं हूं गलत-मैं हाथ जोड़कर पूछना चाहता हूं उससे
और मेरे हर पूछनें के साथ उसकी खुली खोंच
किसी खूंखार सैनिक की निशाने पर तनी गन की तरह
विस्फोटक धमाकों में गूंजती रहती है खांव-खांव-खांव-खांव....
अब वह मुझसे शानित और व्यवस्था के अनुशासन के रूप में
पूर्ण स्थगन मांगने लगा है.....

शायद वह मुझे भी समझने लगा है आतंकवादी
ऊपर के किसी खुफिया निर्देश पर
जैसे कि उनके लोकतंत्र के असितत्व को भी हो खतरा
मेरे भूमिगत सृजनात्मक सपनों और मेरे आदर्श मानवतावाद से
बहुत ही खतरनाक क्रानितकारी है यह
करता है सम्पूर्ण मनुष्यता की बातें
किसी भी देश की सरकार को संकीर्ण वर्ग और आतंक समझता
अपने-आप को प्रतिबद्ध समुदायवादी समझता है मनुष्यता का
हर देश की पुलिस को रखनी चाहिए इस पर खुफिया नज़र
यह भयानक बुद्धि-अपराधी किसी भी देश के देश-भकित प्रचार को
एक मध्ययुगीन आदर्शवादी निष्ठा और
सारी मानवता के खिलाफ षडयन्त्र समझता है-घेर लो इसे !
कौओं का कमाण्डर कांव-काव चीखता हुआ
अपने सैनिकों को देता है निर्देश
जबकि मैं अभी भी नहीं डर रहा
उसकी भावनाओं की तात्कालिक वैधता का करता हुआ सम्मान
उसकी भी दृषिट पर सहानुभूति से विचार करता
भीतर अपनी असहमति छिपाए संवैधानिक लाचारी में ही सही
उसे पूरे सम्मान के साथ कांव-कांव नांव-नांव करने की देता हुआ सहमति ।ं
समय के कौए तो चीख रहे और तेज
सिर के बहुत पास तक लड़ाकू हेलिकाप्टरों-सा उतर आए
अपने ऊपर उनके भ्रमों से बुरी तरह परेशान
उनके आरोपों का प्रतिवाद करता
दोनों हाथ उठाए आत्मसमर्पण की मुद्रा में
मैं निकल आता बाहर...खुले मैदान में मुझे देखकर
और सतर्क हो जाता है कौओं का कमाण्डर
देता वह कौओं को जल्दी-जल्दी आदेश-निर्देश....

मैं कौंओं का एकतरफा बहरापन और
सिर्फ उन्हें बोलते सुनते रहनें की अपनी निरीह नियति पर क्षुब्ध
अपनी असहाय सिथति का आकलन कर
हाथ उठाकर चीखता-सा और असमय बोलने के अपने अपराध को
स्वीकार करता-सा निरपराध
अब भी कहता कि- हां ! मैंने फेंके थे विचारों के ढेले
इन्कार नहीं कर रहा....पर तुमनें भी चलार्इ कम बो(गो)लियां
मारे कम जन ? शानित और व्यवस्था का ले-लेकर नाम.....
हां ! मैं स्वीकारता कि फेंके थे ढेले विचरों के
अपने भीतर असहमति का करता दु:साहस
पर सब कुछ सिर्फ नागरिक होने के लिए....
झूठा नहीं नागरिक-देखता-सुनता-समझता-सोचता-चुनता हुआ
गुस्साता पर ढेलों से बार-बार खींचता हाथ
हां ! स्वीकारता कि लगे जो तुमको विचारों के ढेले.....
सबने तुमको गौरैया के अंडों को
फोड़-फोड़कर खा जाते देखा......

कौए तो शायद और गुस्सा हो उठे तबसे
लड़ाकू विमान की तरह आवाजों की बमबारी करते
मेरे सिर के ऊपर...नीचे तक मंडराते
और लो...यह उसनें अपनी दंभी हिंसक चोच भी मार दी
लोकतंत्र है तो क्या सत्ता के मद में...संगठन में...
बहुमत में है कौआ-कुछ ऐसे कि जैसे भरी सड़क पर
बरस रही लाठियां पुलिस की.....

और मैंने भी फिर उठा लिया है ढेला
गुस्साते कौओं पर....और चीखना कौओं का भी तेज हो गया
ढेले ऐसे विचारों के कि देश अभी आजाद नहीं हुआ
देह अगर आजाद हुआ तो और नहीं कुछ-
मन,बुद्धि ,विचार,भाव और कल्पना.......
पहचान रहा कि कहता तो स्वयं को दिल्ली का ही कौआ
पर लन्दन का....यदि होता कौआ दिल्ली का
पहचानता अपने लोगों को और विरुद्ध अपने ही हित के
नागरिकों को लोकतंत्र की उलट दिखाते
औरों का हिस्सा कुछ जन मिलकर खाते
अपनों का ही खाते—और उड़ाते ...और बीटते कौए
ये कौए तो दिल्ली में पर दिल्ली के भी नहीं
न्याय की भाषा में रचते अन्याय का विषाक्त इतिहास
कहने को ही अनुशासन और व्यवस्था के कर्ता
पर सच में तो भोग-रोग,शराब-साकी की डूब मचाते खूब अपहर्ता....

लगता ह ैअब और क्षुब्ध हैं कौए
मेरा अपने ही खिलाफ यह बड़-बड़ सुनकर
और तेज संगीनों जैसी हिलती उनकी चोंच....
उनकी बढ़ती कर्कश चीख के साथ
मेरा भी बढता जा रहा विचारक गुस्सा
देख रहे हाथें में क्या है मेरे
यह ढेले जो बंधे हुए से शब्द तीखे विचारधार किनारों वाले
खींचकर मारूंगा मैं भी यदि चुप नहीं हुए तो
तू तो केवल चयनित घोषित वुद्धिमान मात्र है समझदार नहीं है
अर्थ की अनर्थकारी इतिहास की विडम्बना से चयनित
चयनक को तू मूर्ख समझता और बनाता.....

वैसे ही तो मैं भी नागरिक जैसे तुम
मैं अब भी वापस न लेता कहता यह
हौए हो तुम कौए-जो भटके इतिहास-समय में
रोटियां खोदते श्रमजीवी जन की न फुरसत का लाभ उठाकर
सिर,कन्धे और पीठ नोचते
कांव-कांव से भरते आसमान
क्षितिज तक धौंस जमाते...तनिक नहीं शरमाते
सेवा के अवसर में सत्ता-मदमाते...