रविवार, 2 दिसंबर 2018

महाभारत चिन्तन

अभिनव पाण्डव : सत्ता और समय का मिथकीय विमर्श

          रामप्रकाश कुशवाहा                         

भारतीयों के चरित्र- निर्माण में पौराणिक आख्यानों की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन आख्यानों मे सामन्ती मानव- मूल्यों का बनना- बिगड़ना तथा उनकी निरस्ति और प्रशस्ति को देखा जा सकता है । सभ्यता के विकास के साथ मानव- मूल्यों  का विकास  सम्पत्ति के स्वामित्व, जीवनोपयोगी वस्तुओं के उत्पादन और वितरण की व्यवस्था के सापेक्ष हुआ है । इसके अतिरिक्त कबीलाई  रीतिरिवाजों की  आदिम स्मृतियों का अवशेष भी जातीय संस्कृति के निर्माण की महत्वपूर्ण भूमिका मे हैं  । विशेषकर पितृसत्तात्मक कबीलों और मातृसत्तात्मक कबीलों के परस्पर प्रभाव ने एक साझे समाज के निर्माण और विकास के पूर्व  काफी देर तक एक- दूसरें को परिवर्तित करने के लिए काफ़ी संघर्ष  किया है  ।

रामकथा मे सीता और राम का दाम्पत्य तथा महाभारत की अधिकांश नायिकाएँ  तथा दुर्योधन- दुःशासन और द्रौपदी का संघर्ष  मातृसत्तात्मक परिवार से आई स्वाभिमानी स्त्रियों के कारण है । गंगा, सत्यवती, कुन्ती और ब्रज की गोपियां भी मातृसत्तात्मक कबीलों की स्त्रियाँ होने का कथात्मक संकेत छोड़ती हैं  । यही कारण है कि महाभारत का कथानक चरित- वैचित्र्त्य  से भरा हुआ है  । सत्य और असत्य का निर्णय न तो कथा के पात्र कर पाते हैं न ही उसके पाठक ।भाष्यकार भी बहुधा दुविधा में पड जाते हैं।  ऐसे मे महाभारत के मिथकीय आख्यान का पुनः पाठ जोखिमपूर्ण और विवादास्पद होते हुए भी आधुनिक बोध के लिए अत्यन्त जरूरी है।
       समकालीन  साहित्य मे अनेक प्रबन्ध काव्यों के बहुआयामी सर्जक उद्भ्रांत द्वारा महाभारत का रचनात्मक पुनर्पाठ  एक जोखिमपूर्ण प्रयास ही कहा जाएगा।

           महाभारत आरम्भिक युग का महाकाव्य है ।उस युग का,जिस युग के काव्य को मार्क्स ने मानवजाति की शैशवावस्था का काव्य कहा है । मानव सभ्यता के शैशवावस्था का काव्य होने के कारण यह महाकाव्य अपने भटकावो और मूल्य- विचलनो के बावजूद रोचक और श्लाघ्य है ।

          महाभारत की कहानियाँ कबीलों और वंशानुगत राजतंत्र के मध्य चलते घात- प्रतिघात का चित्र प्रस्तुत करती हैं। तरह-तरह के भौगोलिक और  कबीलाई विभाजनो के बीच राज्य- संस्था का प्रारम्भिक  स्वरूप विकसित हो रहा था । क्योकि कबीलों के स्थायित्व का आधार भी जन्म की आनुवांशिक निरन्तरता ही होता है और राज्य संस्था भी एक संगठनात्मक संरचना वाली संस्था है ,इसलिए प्रारम्भिक राजतंत्र के संस्थापक लड़ाकू कबीले ही थे ।

        एक पाठ के रूप मे देखा जाय तो  महाकवि व्यास के युधिष्ठिर अपनी दुर्दशा से द्यूतक्रीडा की प्रथा के विरुद्ध एक सर्वकालिक चेतावनी जारी करते दिखाई देते हैं।  इस दृष्टि से व्यास का विफल युधिष्ठिर भी कम समाजोपयोगी नहीं है। व्यंजना मे यह कहा जा सकता है कि व्यास के युधिष्ठिर से अलग उद्भ्रांत के अभिनव युधिष्ठिर वह सोचते और कहते हैं जिसे संवेदना और क्षोभ के धरातल पर महाभारत के पाठक भी प्राचीन काल से सोचते रहे हैं  ।

         महाभारत में    व्यास का धर्म- अधर्म  सही और गलत व्यवहार की पडताल के रूप मे है । उनके पास एक आसान सा सूत्र है धर्म की पहचान का कि जो व्यवहार तुम्हे अपने लिए पसन्द न हो उसे दूसरों के साथ मत करो ।दुर्योधन जिसका कि वास्तविक नाम सुयोधन था इसीलिए दुर्योधन के नाम से प्रसिद्ध हुआ क्योंकि वह जीवन भर बुरा युद्ध  लड़ता रहा ।

             वस्तुतः  कृष्ण कथा में चाहे गोपियां हों या कुन्ती- कुछ ऐसे कबीलों या जातियों के भारतीय प्रवास को सूचित करती हैं जो मातृसत्तात्मक रहे होंगे।  वैसे भी पिता पाण्डु के न रहने से पाण्डव कुन्ती के अभिभावकत्व मे पलते है और माता के निर्णय से प्रभावित होते है ।

          उद्भ्रांत के "अभिनव पाण्डव" का पाठ समकालीन सत्ता और उसके संदिग्ध चरित्र का विमर्श है। एक ऐसे समय मे जहाँ सभी राजनीतिक पक्षों का ही सांस्कृतिक और नैतिक पतन हुआ हो उद्भ्रांत व्यास की पाण्डव - पक्षधर दृष्टि से अलग युग के सभी चरित्रों का निरपेक्ष मूल्यांकन करने का प्रयास करते है । जहाँ व्यास अपने युधिष्ठिर की सज्जनता, विनम्रता और दूसरों को सम्मान देने वाले व्यक्तित्व पर मुग्ध है,वहीँ उद्भ्रांत युधिष्ठिर के गलत  निर्णय, नेतृत्व और मूर्खताओं पर क्षुब्ध  ।

              व्यास जी ने अपने महाभारत मे युधिष्ठिर के चरित्र को अत्यन्त सावधानी से गढा है ।युधिष्ठिर का चरित्र  प्रकृति के सन्तुलन यानि पर्यावरण के विनाश पर भी ध्यान रखने वाला है । व्यास के युधिष्ठिर एक स्थान पर रुक कर अधिक समय तक शिकार भी नहीं करते है कि कहीं शिकार जीवों का वंश ही न समाप्त हो जाए । व्यास के धर्मराज युधिष्ठिर इसलिए धर्मराज है कि राम के चरित्र की तरह वे अपनी ओर से कोई भी युद्ध आरम्भ नहीं करते । यद्यपि उनका नाम युधिष्ठिर यानि युद्ध मे स्थिर रहने वाला है लेकिन  वास्तविकता यही है कि युधिष्ठिर का व्यक्तित्व  सहिष्णु और अनारम्भी है । ऐसे युधिष्ठिर के माध्यम से जुए के विरुद्ध व्यास का महाभारत जो पाठ विकसित करता है- वह संवेदनात्मक रूप से अत्यन्त सफल पाठ है । उद्भ्रांत का " अभिनव पाण्डव " भी उसी का संवेदनात्मक विस्तार है ।
         प्राचीन भारत मे द्यूतक्रीडा यानि जुए का  एक धार्मिक प्रयोजन भी रहा होगा  । इसे विपत्तियों मे गंवाने और लुटाने की मानसिक तैयारी या साहस के अभ्यास के रूप मे भी देखा जा सकता है।  व्यास के महाभारत से अलग कविवर उद्भ्रांत के अभिनव पाण्डव का पाठ समकालीन सत्ता के संघर्ष और  संस्कृति के अनुरूप महाभारत के आख्यान की पुनर्परीक्षा करता है  । क्योंकि लोकतंत्र मे सभी लोग बराबरी के साथ शासन करने की पात्रता रखते है ,उद्भ्रांत युधिष्ठिर के ही पाण्डवों मे राजा बनने की विशेष योग्यता को अस्वीकार करते हैं  । निश्चय ही आज के लोकतांत्रिक समय मे सिर्फ़ अग्रज या ज्येष्ठ होना शासक बनने की योग्यता का सही आधार नहीं है । स्वयं महाभारत का आख्यान और लोक ऐसा मानता है कि अर्जुन और भीम मे युधिष्ठिर से बेहतर नेतृत्व क्षमता थी । ये रहते तो द्रौपदी को दांव पर लगाने जैसी त्रासदी भी घटित नहीं होती  ।

            कौरवों और पाण्डवों का झगड़ा बहुत कुछ पारिवारिक और निजी प्रकृति का भी है । नैतिक रूप से गलत होते हुए भी दुर्योधन के पास रक्त सम्बन्ध आधारित यानि आनुवांशिक उत्तराधिकार का पक्ष है । पाण्डु के धर्मसूत्र माने जाने वाले देवपुत्र पाण्डव कुलीनता के परम्परागत दायरे मे नहीं आते बल्कि उनके पास धर्मपिता पाण्डु  द्वारा लोक से अन्वेषित और संकलित  की गयी वैसी जैविक श्रेष्ठता है ,जिसके कारण वे देव-पुत्र कहलाए । प्लेटो के आदर्श राज्य की संकल्पना की तरह  स्वयं संतान उत्पत्ति करने मे अक्षम राजा पाण्डु नियोग के लिए  पूरी दुनिया से खोजता है श्रेष्ठतम पिताओं को  । इस तरह पाण्डवों के पास गुणवत्ता और योग्यता की श्रेष्ठता का जैविक और आधुनिक विज्ञान- सम्मति आधार भी ।श्रेष्ठता का ऐसा ही जैविक आधार  वाल्मीकि के राम मे भी है । वे भी नियोगज है और अपने समय के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी की सन्तान । इस आधार पर तो आनुवांशिक कुलीनता की सापेक्षता मे पाण्डवों की जैविक गुणवत्ता आधुनिक विज्ञान सम्मत और क्रान्तिकारी प्रतीत होती है ।

           नैतिक रूप से गलत होते हुए भी दुर्योधन के पास रक्त सम्बन्ध आधारित यानि आनुवांशिक उत्तराधिकार का पक्ष है । पाण्डु के धर्मसूत्र माने जाने वाले देवपुत्र पाण्डव कुलीनता के परम्परागत दायरे मे नहीं आते बल्कि उनके पास धर्मपिता पाण्डु  द्वारा लोक से अन्वेषित और संकलित  की गयी वैसी जैविक श्रेष्ठता है ,जिसके कारण वे देव-पुत्र कहलाए । प्लेटो के आदर्श राज्य की संकल्पना की तरह  स्वयं संतान उत्पत्ति करने मे अक्षम राजा पाण्डु नियोग के लिए  पूरी दुनिया से खोजता है श्रेष्ठतम पिताओं को  । इस तरह पाण्डवों के पास गुणवत्ता और योग्यता की श्रेष्ठता का जैविक और आधुनिक विज्ञान- सम्मति आधार भी । श्रेष्ठता का ऐसा ही जैविक आधार  वाल्मीकि के राम मे भी है । वे भी नियोगज है और अपने समय के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी की सन्तान । इस आधार पर तो आनुवांशिक कुलीनता की सापेक्षता मे पाण्डवों की जैविक गुणवत्ता आधुनिक विज्ञान सम्मत और अधिक  क्रान्तिकारी प्रतीत होती है ।

             लेकिन कर्ण से लेकर पाण्डवों के जन्म तक कुन्ती के साथ जो कुछ भी घटा वह यौनशुचिता वाली भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा के अनुकूल नहीं है।  हस्तिनापुर आने के पूर्व कुन्ती की मातृसत्तात्मक स्वच्छंदता का अतीत  आज भी पुरुष सत्तात्मक  समाज के पाठकों के लिए चुनौती प्रस्तुत करता है ।

         स्पष्ट है कि उद्भ्रांत नायकत्व की दृष्टि से  युधिष्ठिर  की जिस अयोग्यता को देख रहे हैं, वह भारतीय संयुक्त परिवार वाली व्यवस्था मे नेतृत्व का आनुवांशिक अधिकार ज्येष्ठ पुत्र को देने की सांस्कृतिक परम्परा के कारण भी है । यह नेतृत्व का लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक आधार नहीं है । पाण्डवों की अधिकांश दुर्दशा का कारण युधिष्ठिर का अयोग्य नेतृत्व ही है । पाण्डव एक अनुशासित परिवार का उदाहरण प्रस्तुत करते है । वे इस तरह व्यवहार करते हैं जैसे बड़े भैया हर जगह सही हों । लेकिन लोक इस मर्यादा से बंधा नहीं है और आधुनिक कवि उद्भ्रांत भी नहीं।  उन्हे आधुनिक जीवनबोध की कसौटी पर  युधिष्ठिर का नेतृत्व खटकता है ।

            उद्भ्रांत का 'अभिनव पाण्डव " प्रबन्ध- काव्य अपनी प्रकृति में संवेदनात्मक और अस्वीकारमूलक है । उनकी अस्वीकृति का आधार आधुनिकता की चेतना है जो अभिव्यक्ति की विचारोत्तेजक श्रृंखला के बावजूद आख्यान के मूल ढांचे को यथासम्भव बनाए रखने की उदारता भी दिखाती है।

          यद्यपि तर्क तो व्यास के द्यूतक्रीडा प्रेमी युधिष्ठिर के पक्ष मे भी दिया जा सकता है कि इस स्वीकार करने मे जोखिम था वही क्षत्रिय मूल्यों को जीने का प्रयास करने वाले  एक जातीय राजा के लिए स्वीकार न करने मे कायरता  और स्वीकार करने में  बहादुरी के दर्शन  हो सकते हैं।

         मुझे तो द्यूतक्रीडा के लिए पाण्डवों की विरोधहीन सहमति मे भी कृष्ण की कोई पूर्व निर्धारित योजना, साजिश या चाल लगती है।  जैसे  पाण्डवों को अपनी घटियाही और दुर्भावना प्रदर्शित करने का खुला अवसर प्रदान किया जा रहा हो ।

       पाण्डव कृष्ण की बुआ के पुत्र और उनके स्वजन होते हुए भी जिस तरह कौरवों से अपमानित हो रहे थे ,वह कृष्ण की श्रेष्ठता और सम्मान को हस्तिनापुर द्वारा दी जाने वाली खुली चुनौती थी । मेरे लिए यह मानना मुश्किल है कि इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले पाण्डवों ने कृष्ण से परामर्श न किया होगा।  द्रौपदी के चीरहरण प्रसंग मे उसके द्वारा थका  देने वाली लम्बी रेशमी साड़ी  जो सम्भवतः चीन से आयातित रही होगी-  उसे पहनने की सावधानी को कृष्ण द्वारा  निर्देशित माना ही जाता है ।

               पूरे द्यूतक्रीडा प्रसंग मे पाण्डवों का अधिकतम  मानवीय सीमा तक शान्त बने रहना और उसे द्रौपदी तक पहुँचा देना असामान्य होते हुए भी राम के पुरुष सत्तात्मक नायककत्व की तरह स्त्री की मर्यादा को हीन करने वाला ही कहा जाएगा।  यद्यपि पूरे महाभारत में गंगा,सत्यवती, गांधारी, कुन्ती और द्रौपदी जैसे पाॅच सशक्त चरित्र अपने युग के पुरुष चरित्रों पर भारी हैं  ।
         भारतीय कुटुम्ब व्यवस्था मे ज्येष्ठ पुत्र को परिवार का नेतृत्व सौपने की अत्यन्त प्राचीन काल से सर्वमान्य प्रथा रही है ,गुणश्रेष्ठ के स्थान पर  वयश्रेष्ठ की यह सामाजिक परम्परा अनेक विडम्बनाओं की सृष्टि करती है ।इस दृष्टि से महाभारत का युधिष्ठिर उचित ही नेतृत्व के अयोग्य होते हुए भी ज्येष्ठता के अधिकार को प्राप्त है ।भीम का आक्रोश और दैहिक बल ,अर्जुन का  अचूक शरसंधान का कौशल युधिष्ठिर   के  अयोग्य नेतृत्व के कारण व्यर्थ हो जाते हैं  । युधिष्ठिर की अयोग्यता को लेकर उद्भ्रांत की खीझ का यह भी एक महत्वपूर्ण कारण है  । उद्भ्रांत का कवि अपने इस क्षोभ को छिपाना नहीं चाहता । वह आत्म भर्त्सना के रूप मे युधिष्ठिर के मुख से ही स्वयं को क्लीव-नपुंसक आदि कहलवाता है ।इस युक्ति से वे न सिर्फ औचित्यदोष से बचे हैं बल्कि अपनी बात पाठकों तक भी सम्प्रेषित कर सके हैं।  कवि युधिष्ठिर को व्यावहारिक ज्ञान से शून्य एक बुद्धिजीवी या विचारक के रूप मे देखता है ।
       उद्भ्रांत का ध्यान भारतीय समाज के लिए इस सामाजिक-सांस्कृतिक  यथार्थ की ओर गया है कि  पाण्डवों द्वारा आचरित बहुपति अथवा  एक संयुक्त  पत्नी का आदर्श  भारतीय समाज के लिए स्वीकार्य आदर्श कभी नहीं हो सकता।  उसका चरित्र  व्यक्तिवादी और असामाजिक जीवनमूल्यो का प्रचारक है । इसीलिए एक पूर्ण नायक बनने के लिए अयोग्य यानि अपात्र भी ।
     जब उद्भ्रांत् के युधिष्ठिर यह कहते हैं कि ' मे  निर्वीर्य था / उस निर्णायक क्षण मे भी शक्ति नहीं जुटा सका / लेशमात्र/ समुचित प्रतिरोध की  ।' तो यह वर्तमान मध्यवर्ग के लिए युधिष्ठिर के नायककत्व के अप्रासंगिक हो जाने की सूचना ही देते हैं  ।
            ध्यान से देखा जाये तो उद्भ्रांत का  "अभिनव पाण्डव " मध्यवर्गीय जरूरतों और लोकतांत्रिक युग के अनुरूप महाभारत के आख्यान मे उपस्थित नायक युधिष्ठिर की पुनर्कल्पना है । इसका रचनात्मक महत्व आधुनिकता के पक्ष मे पाठकों की विचारशीलता को उद्दीप्त करने की दृष्टि से है । यह कृति अप्रासंगिक हो चुकी आस्थाओ को खारिज करते हुए उनका युगानुकूल पुन:पाठ प्रस्तुत करती है।

सोमवार, 19 नवंबर 2018

हंसता हुआ बाज़ार

समकालीन काव्यधारा के महत्वपूर्ण कवि आदरणीय रामप्रकाश कुशवाहा जी का सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह ' हँसता हुआ बाज़ार' उत्तरआधुनिकता से उपजे बाज़ारवाद की स्थितियों के खतरे से आगाह ही नहीं करता वरन औपनिवेशिक मूल्यों की गहन पड़ताल भी करता है ।
वैचारिक और मनोवैज्ञानिक धरातल पर बेहद गंभीर रचनाओं को लेकर यह काव्य संग्रह आज की कविताओं से इतर हमें सोचने के लिए विवश करेंगी।
जल्द ही मेरी विस्तृत प्रतिक्रिया इस काव्य संग्रह पर आएगी ।
डॉ  शिव कुशवाहा शिव

मुक्तिबोध

मुक्तिबोध को लेकर आजकल फेसबुक पर चल रहे विवादित विमर्श मे मै थोडा हस्तक्षेप करना चाहूँगा। एकल जजमेन्ट भी एक घटना होती है, उसके बावजूद समाज उसे सही मानने या न मानने का अधिकार रखता है।  जैसे गोडसे द्वारा गांधी को गीली मारना एक व्यक्तिगत निर्णय या जजमेन्ट था । इसके बावजूद एक बड़ा समाज गांधी को पूरे सम्मान सहित जीवित रखे हुए है ।मुक्तिबोध एक बडे विचारक हैं।  वे क्रान्ति चाहते थे लेकिन उन्हे सत्ता द्वारा दण्डित किए जाने का भय भी था । उनकी  एक किताब प्रतिबन्धित भी शासन द्वारा की गयी थी ।उनकी सफलता इसमें है कि फैंटेसी शिल्प के प्रयोग और समाधान से उन्हे जो कहना था विपरीत सत्ता समय मे भी कह सके । अपने संप्रेष्य को व्यक्त करने के लिए  एक पहेलीनुमा दुर्बोध कविता संरचना का सहारा लेते है ।यह शिल्प उनकी जरूरत ,विवशता और सफलता है इसके लिए  उसकी निन्दा नही करनी चाहिए।
             मुक्तिबोध को पढना कविता के बीहड़ का रोमांच जीना है ।कबीर की तरह मुक्तिबोध का भी चिन्तक बडा है । वह हिन्दी कविता की एक भिन्न प्रारूप की संरचना के आविष्कारक कवि है। कोई कविता के अलग रास्ते से चलकर मुक्तिबोध से भी बडा कवि हो सकता है । वे क्रान्ति से सम्बन्धित  अपनी खतरनाक बातों को  सीधे सीधे कहने से बचना चाहते थे। इसीलिये उन्होनें फैंटेसी शैली मे कविताएँ लिखी। लेकिन उनके अपने काव्य सिद्धान्त की दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हुए भी उनकी एकमात्र गपोड़ी और उबाने वाली पुनरुक्तिदोष की शिकार किताब "कामायनी : एक पुनविचार" है ।जिसमे वे जबरदस्ती अपनी अवधारणा को थोपते हुए से जयशंकर प्रसाद की प्रतिष्ठा को मटियामेट करने का प्रयास करते है। उल्लेखनीय है कि मिथक और फैण्टेसी मे अन्तर होता है । प्रसाद मनु के आख्यान को मिथकीय आख्यान के रूप मे लेते है जबकि मुक्तिबोध की आलोचना उसे आरम्भ से ही फैण्टेसी मानकर चलती है । प्रसाद की प्रवृत्ति क्या हुआ होगा  यानि इतिबोध के साथ भी आख्यान के उपयोग की थी जबकि फैण्टेसी कार अपनी सर्जना के लिए स्वतंत्र होता है और किसी की परवाह नही करता ।इस  पुस्तक मे अपने सिद्धांतों के प्रयोग के लिए असम्बद्ध होते हुए भी मुक्तिबोध ने प्रसाद को बलि का बकरा बनाने के लिए वकीलों से भी अधिक खींचतान की है । उन्ही के पदचिन्हों पर चलती हुई उनके विरूद्ध भी नयी पीढी के कुछ लोग उन्ही का अनुसरण करते दिख रहे है ।
            दरअसल  प्रसाद की कामायनी शुक्ल जी के मनोविकारों पर लिखे गए निबन्धो के समानान्तर है  ।मनु के माध्यम से वह वह द्वितीय विश्व युद्ध कालीन तानाशाह शासकों और सत्ता के चरित्र का क्रिटिक रचती  है । कामायनी का समकाल और वैश्विक क्षितिज 1917 का न था । द्वितीय विश्व युद्ध कालीन था । प्रसाद की चिन्ताओ से भिन्न निष्कर्ष मुक्तिबोध ने निकाले है । इस अन्तर्विरोध को देखते हुए ही उसे मै सैद्धांतिक किस्म की यूटोयियन समीक्षा मै मानता हूँ।  उस कृति का महत्व सिर्फ़ मुक्तिबोध के रचना संसार को समझने की दृष्टि से है , न कि प्रसाद  ।

हंसता हुआ बाज़ार

हँसता हुआ बाज़ार : समीक्षा के निकष पर
        
          आज सुबह सोकर जब उठा तो 'हँसता हुआ बाजार' सामने था। बाजारू व्यवस्था से उकताये, सहज और सरल रूप से साहित्य-साधना करने वाले चर्चित रचनाकार डॉ.रामप्रकाश कुशवाहा की बहुप्रतीक्षित कृति 'हँसता हुआ बाजार'।
         सोचता हूँ 'बाजार' किस पर हँस रहा है और क्यों हँस रहा है! अगले ही क्षण मन में विचार करता हूँ, कहीं हँसते हुए बाजार को देखकर, उसकी नकली हँसी को देखकर, उसमें हँसते नकली लोगों को देखकर रचनाकार तो नहीं हँस रहा है!
         याद आते हैं- 'लोकऋण', 'सोनामाटी' और 'नमामि ग्रामम्' जैसे प्रसिद्ध उपन्यासों के लेखक डॉ.विवेकी राय, जो लिखते हैं- दँवाई-कटाई के यंत्रों- थ्रेसर आदि की भड़भड़ाहट ने सीवान के स्थाई मनसायन को छीन लिया। कुछ देर के लिए लगता है कि यह तो विरोधाभासी बात हुई! कहाँ उसने सीवान के मनसायन को छीन लिया! आखिर वह भी तो भड़भड़ा रहा है! उस पर भी तो आदमी काम कर रहे हैं!
        फिर अचानक गाँव और गँवई संस्कृति, किसान संस्कृति याद आती है और तब गाँव का सन्दर्भ समझ में आता है कि विवेकी राय जी किस मनसायन के छिनने की बात कर रहे हैं। बन्द ए.सी. कमरों में बैठकर साहित्य-सृजन करने वालों को यह बात समझ में नहीं आयेगी।और सन्दर्भों को पकड़े बिना यंत्रों के भड़भड़ाहट की निस्सारता समझ में नहीं आयेगी।
         ठीक वैसे ही हँसते हुए बाजार की निर्जान और खोखली हँसी उन लोगों को समझ में नहीं आयेगी जो रिश्तों की खोज में बाजार में जाते हैं, जिनके लिए सारी संवेदनाएँ, सारी खुशी बाजार में ही उपलब्ध है। बड़े-बड़े शहरों के बड़े-बड़े मॉल (बिग बाजार) ने मनुष्य की जरूरतों को एक जगह उपलब्ध कराने का प्रयास तो किया है लेकिन उसी के साथ वह इस बात के लिए उन पर हँस भी रहा है कि इन विवेक-हीन और संवेदन-हीन मनुष्यों को कौन समझाये कि मैंने (बाजार ने) लोगों के आपसी सम्बन्ध, सामाजिक सहकार और भाईचारे को भी उनसे हमेशा-हमेशा के लिए छीन लिया है।
        आज सब कुछ की मण्डी लग रही है। बाजार लग रहा है। जहाँ सामान ही नहीं बिक रहे हैं, अपितु सब कुछ बिक रहा है। नेता बिक रहा है। शिक्षा बिक रही है। शिक्षक बिक रहा है। न्याय बिक रहा है। पुलिस बिक रही है। कानून बिक रहा है। डॉक्टर बिक रहा है। मंत्री बिक रहा है। सरकार बिक रही है। ईमान बिक रहा है। प्यार बिक रहा है। देह बिक रही है। सम्बन्ध बिक रहे हैं। संवेदनाएँ बिक रही हैं। आँसू बिक रहे हैं। व्यवस्था बिक रही है। लेखक बिक रहा है। प्रकाशक बिक रहा है। देश बिक रहा है। लज्जा बिक रही है। आबरू बिक रहा है। बिकने की जैसे होड़ लगी है। बिकने के लिए तरह-तरह का विज्ञापन हो रहा है।
          'बाज़ार में उत्सव' शीर्षक कविता में कवि कहता है-
'बाज़ार खुले को बन्द में बेच रहा है
और बन्द को खुले में
कम को अधिक में बेच रहा है
और अधिक को कम में
बाज़ार वह सब बेच रहा है
जो बेचा जा सकता है
बाज़ार से लोग वह सब खरीद रहे हैं
जो बिक सकता है बाज़ार में.....।'
           और अब तो बाज़ार में ईश्वर भी बिकने लगा है। रचनकार के शब्दों में- 'ईश्वर सापेक्ष होता है बाज़ार में..... बाज़ार का / वह खोने वाली जेब के लिए अशुभ / और दूसरों के खोये हुए को पाने वाली जेब के लिए / शुभ होता है।' ऐसे में बाजार खड़ा निर्लज्ज भाव से खरीद-फरोख्त कर रहे लोगों पर अट्टहास करता है। मानो ऐसा करते हुए वह संकेत कर रहा है कि यदि अब भी तुम नहीं सँभले तो तुम्हारी यह बाजारू-वृत्ति एक दिन तुम्हें लील जायेगी। सभ्यता और संस्कृति के इस डँड़मेर में संस्कृति एक दिन पूरी तरह विनष्ट हो जायेगी।    
        शायद इस खतरे को चौदहवीं शताब्दी में ही कबीर ने भाँप लिया था, जिससे उन्हें कहना पड़ा, 'कबिरा खड़ा बाजार में, माँगे सबकी खैर।' सबकी खैर की चिन्ता ने कबीर के हाथ में लुकाठी (लुआठी) तक पकड़ा दिया, बाजारवादी व्यवस्था को खत्म करने के लिए। जिसने अपने घर को जलाने के बाद इस पूरी भ्रष्ट व्यवस्था को जलाने का संकल्प लेकर लोगों को अपने साथ चलने का आह्वान किया और इतने पर भी जब लोगों को समझ में नहीं आया तो मोहभंग की स्थिति में लिखा- 'पूरा किया बिसाहुँणा, बहुरि न आवौं हट्ट।' तुलसी जैसे मर्यादावादी कवि को लिखना पड़ा -'अब लौं नसानी, अब न नसैहों/ राम कृपा भव निसा सिरानी, जागे पुनि न डसैहों।'
         लेकिन कहाँ फर्क पड़ा किसी पर! सन्त-महात्मा आते गये, जाते गये, कहते गये, लिखते गये और लोग अपने हिसाब से अर्थ लगाते गये, समझते गये और बाजार की व्यवस्था में बाजारू होते गये। ईमान, धर्म, मूल्य, इज्ज़त किसी की भी चिन्ता नहीं रही, ऐसे में बाजार तो हँसेगा ही।
          उसकी इस क्रूर हँसी पर, अट्टहास पर मानव और जीवन मूल्यों के पोषक रचनाकार का चिन्तित होना स्वाभाविक ही है। बाजार की इस खोखली हँसी से पीड़ित-व्यथित रचनकार के संवेदनशील मन से ठीक उसी तरह ये कविताएँ फूट पड़ी हैं, जैसे कभी क्रौंच पक्षी के बध के समय आदि कवि के मुख से पहला श्लोक फूट पड़ा था। इस बाजारू व्यवस्था से कवि पूरी तरह उकताया हुआ है, पुस्तक में संकलित कविताओं को पढ़ने के बाद यह बात दावे के साथ कही जा सकती है।
           कवि के शब्दों में कहें तो 'बाज़ार को मानवीय सृजनशीलता की अभिव्यक्ति और विनिमय का महामंच मानते हुए भी उसके दाँव-पेंच, घात-प्रतिघात तथा अर्थ की शिकारी वृत्ति में निहित संवेदनहीनता और क्रूरता के प्रति लोगों को सचेत करने की रचनात्मक चिन्ता का परिणाम है हँसता हुआ बाज़ार की कविताएँ। प्रसिद्ध आलोचक, समीक्षक एवं चिन्तक डॉ.पी.एन.सिंह जी इन कविताओं को थीम पोएट्री कहते हैं।
            बाज़ार की हर मुद्रा और व्यवहार का कवि के द्वारा सूक्ष्मता से किया गया निरीक्षण पाठक को निश्चित ही बाजारू व्यवस्था पर सोचने और चिन्तन करने के लिए मजबूर करता है। वह बाज़ार से गुजरता तो है, पर उसका खरीददार नहीं बनता। वह बाज़ार के उठने-गिरने और उस पर सरकार की सफाई तथा किसान, मजदूर, गरीब के मरने पर सरकार की चुप्पी से आहत है।
          पुस्तक के 'पहला पाठ' (बाज़ार से गुजरा हूँ ख़रीददार नहीं हूँ) शीर्षक के लेखक नलिन रंजन सिंह के शब्दों में कहें तो संग्रह की कविताएँ बाज़ार के सारे रंगों को, उसकी परिणति को, उसके हो-हल्ले को, उसकी ईश्वरीय आभा को, उसके विमर्श को सामने लाती हैं। यही कारण है कि संग्रह की छाछठ कविताओं में से सैंतालीस कविताओं के शीर्षक में ही बाज़ार है और शेष उन्नीस भी उसी की प्रतिकृति हैं। बाज़ार का यह सूक्ष्म पर्यवेक्षण उनकी 'आलोचकीय कविताओं' को जन्म देता है। ये कविताएँ नहीं, कवि के जीवनानुभव की 'मुकम्मल बयान' हैं। कवि स्पष्ट शब्दों में कहता है-

'बाज़ार में बच्चे जब सोच भी नहीं रहे होते हैं
हिन्दू या मुसलमान होने का मतलब
उन्हें हिन्दू या मुसलमान बना दिया जाता है।'

         बाज़ार की खोखली हँसी और झूठे प्रेम पर वह चेतावनी स्वरूप कहता है-

'बाज़ार में प्रेम एक शिकारी की भूमिका में होता है
जीतता रहता है एक-दूसरे को पूरी मौज में
बाज़ार में प्रेम ऊबता रहता है पुराने प्रेम से
और भटकता रहता है नये प्रेम की तलाश में।'

        लेकिन नये प्रेम की इस तलाश में उसे सर्वत्र निराशा ही हाथ लगती है, क्योंकि यहाँ अब प्रेम भी दिखावटी और नकली हो गया है। लगाव या प्यार भी पैसे के आधार पर कम या बेसी होने लगा है। भावनाएँ आहत हुई हैं और संवेदनाएँ चुकी हैं। रिश्तों की चूलें हिल उठी हैं। बकौल नलिन रंजन 'सेल्फी युग' में आत्ममुग्धता देह की तारीफ़ पर आ टिकी है। क्या स्त्री, क्या पुरुष, सभी बहुत जल्दी में हैं। उन्हें विपरीत देह बदलने में संकोच नहीं है। अब देह का मिलन ही प्रेम है। ......बाज़ार उसके लिए हर साल वैलेण्टाइन लेकर आता है, जहाँ विकल्प ही विकल्प है, प्रस्ताव ही प्रस्ताव हैं। प्रेम की पवित्रता बीते दिनों की बात है। वह अनदेखे-अनजाने से इनबॉक्स होते हुए व्हाट्सऐप के रास्ते मोबाइल पर है और सुख के अपने तरीके के 'पल' तलाश कर अपने-अपने शहर में व्यस्त है। ऐसा लगता है कि ऐसी ही स्थिति को देखकर घृणित भाव से प्रसिद्ध शायर अकबर इलाहाबादी ने कभी कहा होगा-

"दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ,
बाज़ार से गुजरा हूँ खरीददार नहीं हूँ।"

       संग्रह की कविताओं में बाज़ार-दर्शन, हँसता हुआ बाज़ार, बाज़ार का अर्थशास्त्र, बाज़ार में बिकना, बाज़ार की मुद्रा, बाज़ार में इच्छाएँ, बाज़ार में ईश्वर, बाज़ार में घर, बाज़ार में ऊँट, लोकतंत्र और बाज़ार, बाज़ार में कवि, बाज़ार में आदतें, बाज़ार में नाक, बाज़ार में सही, बाज़ार में छायालोक, श्लील आकांक्षाएँ, बाज़ार में प्रेम, अस्तित्व का अर्थशास्त्र, बाज़ार में आदिमानव, जिधर लोग हैं, ज़हरखुरान, सड़क के शिकारी, बाज़ार का सूत्रधार, बाज़ार में महान, इच्छाएँ, बाज़ार और ईश्वर, बाज़ार में शिकारी, बाज़ार में खेल, भाषा-बाज़ार, बाज़ार में लड़की, बाज़ार में समय, बाज़ार में पशु-युग, कविता के बाज़ार में, समय और बाज़ार, अच्छे दिन और बाज़ार आदि कुछ ऐसी कविताएँ हैं, जो अपने को कई बार पढ़वाती हैं। सुखद आश्चर्य की बात यह है कि बाज़ार संज्ञक इतनी कविताओं के बावजूद पूरी पुस्तक में कहीं भी दुहराव नहीं है।
         पाठकीय आकर्षण से भरपूर इन कविताओं से कढ़ने वाला सन्देश पाठक को दूर तक और देर तक प्रभावित करता है। कहना असंगत नहीं होगा बाज़ार की चकाचौंध में दम घोंटती मानवता को बचाने और लोगों को सजग-सचेत कराने के लिए कृतसंकल्पित रचनाकार अपने उद्देश्यों में पूरी तरह सफल दिखता है। उम्मीद है कि 'हँसता हुआ बाज़ार' संज्ञक यह कृति पाठकों को पसन्द आयेगी, साथ ही साथ रचनाकार-व्यक्तित्व में चार चाँद लगायेगी।

डाॅ0  चन्द्र शेखर तिवारी