सोमवार, 28 मई 2012

व्यवस्था के पुनर्निमाण का चिन्तन, उत्तर-आधुनिक यथार्थ और माक्र्सवाद


मनुश्य की हर व्यवस्था अन्तत: एक विचार है -अवधारणाओं ,विष्वासों और बौद्धिक निश्कशोर्ं का एक विषिश्ट संयोजन है । उत्तर-आधुनिक चिन्तक इसे ही पाठ के रूप में देखते हैं । हर विचार भी कार्य-कारण Üाृंखला से सम्बनिधत समझदारी ,क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं और अनुभवों पर आधारित निश्कर्श हुआ करते हैं । इसीलिए मनुश्य के परिवेष और परिप्रेक्ष्य के बदलते ही उसके विचार बदलने लगते हैं । मनुश्य और उसकी सभ्यता के स्वास्थ्य की दृशिट से स्वाभविक यही है कि ऐसा हो । एक स्वस्थ प्रगतिषील समाज और उसके सदस्य नए आते हुए तथ्यों और सूचनाओं के आधार पर अपने विष्वासों और विचारों को अधतन करते रहते हैं । रूढि़वादी समाज और उसके सदस्य मानसिकता को सिथर और अपरिवर्तनषील बनाए रखने के प्रयास में अतीत के तथ्यों और विचारों पर आधारित अवधारणाओं का पुनर्सृजन करने लगते है।  परिवेष और परिप्रेक्ष्य से जुडे़ तथ्यों के बदलाव के साथ अतीत की मासिकता को पुनरूत्पादित करने वाला समाज सामंजस्य के अनिवार्य तनाव से गुजरता है और सामूहिक रूप से मनोरोगी हो जाता है । वर्तमान के विरुद्ध अतीतजीविता के लिए उसका संघर्श अन्तत: सामूहिक मनोविक्षिपित में बदल जाता है । वह नकारात्मक और प्रतिहिंसक हो उठता है । जिस समुदाय के लोगों पर अतीत के पुनरूत्पादन का दबाव और वर्तमान के परिप्रेक्ष्य के अस्वीकार का दबाव अधिक होगा वह समुदाय उतनी ही मनोविक्षिपित का षिकार होगा । इस अवसाद की प्रतिक्रिया ही कुछ समुदायों में आतंकवादी पैदा कर रही है । इसका समाधान सिर्फ एक ही है कि दुनिया के सभी मनुश्य सभ्यताकरण की प्रक्रिया को समझें और अपनी चेतना और मसितश्क को साभ्यतिक अभियानित्रकी का एक उत्पाद एवं उपकरण बनने की सिथति से मुक्त करें ।

           क्योंकि सभ्यताकरण की प्रक्रिया में हर असावधान मनुश्य एक साभ्यतिक-सांस्कृतिक उत्पाद बन जाता है ,इसलिए मानव-जाति की तब तक मुकित सम्भव नहीं है ,जब तक उसका मसितश्क सामूहिक रूप से सभ्यताकरण के अभियानित्रक प्रभाव से मुक्त नहीं हो जाता । सभ्यताकरण के इस अभियानित्रक प्रभाव से मुक्त होना ही हमारी चेतना का इतिहास से मुक्त होना है - मानवीय विवेक को एक नर्इ सृजनषीलता के लिए मुक्त करना है । हमारी सभ्यता के पुनर्सृजन का रास्ता भी हमारी इसी मुकित में खुलता है । इसीलिए मानव-सभ्यता के पुनमर्ूल्यांकन और उसकी व्यवस्था के पुनर्निमाण के चिन्तन की प्राथमिक षर्त ही उसके व्यकितगत और सामूहिक विवेक की मुकित है। सभ्यताकरण की इस प्रक्रिया और उसकी अभियानित्रकी की जड़ता को भौतिक परिसिथतियों और जीवन पर परिप्रेक्ष्य के पडने वाले निर्णायक प्रभाव को कार्ल माक्र्स भी स्वीकार करते है ; लेकिन अपने युग के अविकसित मनोविज्ञान के कारण उनके द्वारा की गयी इतिहास की द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी व्याख्या उनकी विचारधारा को दार्षनिक नियतिवाद की ओर मोड़ देती है।

           मनोवैज्ञानिक दृशिट से माक्र्सवादी विचारधारा पूंजीवादी मानव-सम्बन्धों और व्यवस्था के प्रति उपजे असन्तोश एवं उसकी अपर्याप्तताओं का दार्षनिकीकरण है । उसका अन्त साम्यवादी क्रानित की दार्षनिक यूटोपिया में होता है । पूूजीवादी व्यवस्था की खामियों के कारण तथा उसकी प्रतिक्रियात्मक सापेक्षता में ही माक्र्सवादी विचारधारा का नैतिक औचित्य और प्रासंगिकता सुरक्षित है । माक्र्सवाद के द्वन्द्वात्मक नियतिवाद को जिसे इस विचारधारा के अन्तर्गत प्राय: द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहा जाता है उसके क्रानितधर्मी नियतिवाद और आषावाद को सृजनात्मक विकासवाद या संभाव्यवाद के वैज्ञानिक दृशिटकोण से विस्थापित किए जाने की जरूरत है ।

             यह सच है कि किसी भी युग के मनुश्य का जीवन-स्तर ,उसकी इच्छाएं और प्राथमिकताएं उस युग के सृजित संसाधनों तथा उस समय तक विकसित एवं निर्मित परिवेष के सापेक्ष ही घटित होगा । नयी सृजनषीलता के द्वार (और संभावनाएं ) भी उस समय तक विकसित ज्ञान,प्राप्त सूचनाओं और ज्ञात तथ्यों के सापेक्ष एवं पृश्ठभूमि में ही खुलेंगे। यह मैं वही कह रहा हूं , जो माक्र्स कह चुके हैं । इसके बावजूद राजनीतिक यानि वर्तमान सामूहिक जीवन-व्यवहार की व्यवस्था निर्मित करने के लिए उसके सृजनात्मक विवेक को मुक्त रखने की मनोवैज्ञानिक प्रविधि पाने का महत्त्व कम नहीं हो जाता । अवधारणाएं एक बार निर्मित और सर्वस्वीकृत हो जाने के बाद अनुजीवी समाज का पुनरूत्पादन करने लगती हैं । यह अनुजीविता समाज को तनावरहित ढंग से जीने की सुविधा तो प्रदान करती है ,लेकिन सूचनाओं और प्रषिक्षण की आवर्ती एकरसता के कारण वह नर्इ सृजनषीलता और संसाधनों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव भी डालती है । यथासिथतिपरक यथार्थ का एक प्रमुख कारण अवधारणात्मक परिवर्तनहीनता एवं उसका पीढ़ी दर पीढ़ी प्रषिक्षणात्मक पुनसर्ृजन भी है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक रूढि़वादी समाज अपने कुछ सांस्कृतिक-सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण अपने पिछड़ेपन का भी एक सीमा तक पुनरूत्पादन ही करता है । उदाहरण के लिए धार्मिक-जातीय कारणों से टीकाकरण का विरोध करने वाले रूढि़वादी चरित्र सम्बनिधत चरित्र और उसके वायरस को न सिर्फ संरक्षण प्रदान करते है बलिक एक समस्या को सामाजिक यथार्थ के रूप में पुनरूज्जीवित भी करते रहते हैं । इसलिए जड़ता के प्रषिक्षणात्मक पुनरूत्पादन की प्रक्रिया पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ।

     मानव-जाति की नकारात्मक अवरूद्धता के कारणों की पड़ताल करते समय उसकी अवधारणात्मक और वैचारिक जड़ता को नकारा नहीं जा सकता । यह ध्यान रखना चाहिए कि अवधारणात्मक सृजन भी यदि वास्तविकताओं के सापेक्ष संगतिपूर्ण और औचित्यपरक  है तो वह अपनी विष्वसनीयता के कारण वैचारिक यथार्थ से सामाजिक यथार्थ में रूपान्तरित होता रहता है । किसी वस्तु या पर्यावरण के समान उसे बदला जा सकता है । हर नर्इ पीढ़ी उसकी संरचना में परिवर्तनात्मक हस्तक्षेप कर सकती है । यह वैचारिक दुनिया की वास्तविक दुनिया में पुनप्र्राति की तरह है ।  इस दृशिट से दार्षनिक या विचारधारात्मक विचलन भी एक यात्रा है । यदि यह यात्रा अपनी व्यर्थता को प्रमाणित कर देती है तो उसे स्मृति के बोझ के रूप में ही लिया जाना चाहिए । इसके बावजूद भी वह एक पुन:संस्कारित हो सकने वाली वस्तु के संरक्षण-मूल्य के साथ प्रासंगिक बनी रहेगी ।  विचारों का हर बीहड़ मानव-मसितश्क की सक्षमता के लिए भटकाव का रोमांचक क्षेत्र देता है लेकिन स्मृति में बने रहने के बावजूद व्यवहार में जीवित एवं प्रासंगिक बने रहने वाले विचार ही जीवित विचार के रूप में देखे जाते हैं । असावधान ,अप्रषिक्षित एवं अविकसित पाठक समुदाय किसी भी अवधारणा को देष-काल की चेतना से मुक्त होकर अपनी अनुकरणात्मक वृत्ति द्वारा पुनसर्ृजन या पुनरूत्पादन करने लगता है । विचारधारा के एक पाठ को जीने पर वह क्रमष: सांस्कृतिक ,सामाजिक और साभ्यतिक पाठ में बदल जाता है । इस पुनरूत्पादन की अनितम परिणति उसके पिछड़ने और किसी  दूसरे मानव-समूह के विकसित होते जाने की सापेक्षता में आगे चलकर वर्तमानित अतीत के रूप में होती है।

         ऐसा कोर्इ भी वर्तमानित अतीतीकृत समुदाय अपने स्थगित और सन्तुश्ठ होने के साथ-साथ किसी दूसरे समुदाय के लिए सदैव प्रतिक्रियात्मक चुनौतियां ही दे यह आवष्यक नहीं । किसी नए परिवर्तन के प्रति बुद्ध और कन्फयूसियस के अनुयायी अवरोधी प्रतिक्रियात्मकता की दृशिट से आवेगषून्य रहे हैं और उन्होंने बहुत ही सन्तुलित और स्वस्थ प्रतिक्रियाएं प्रदर्षित की हैं । बामियान बुद्ध के घ्वंस के अवसर पर विष्व नें देखा कि बुद्ध के षैक्षणिक मूल्य अधिक प्रभावी हुए तथा उसके घ्वंस पर भी बौद्धों की प्रतिक्रिया संयत एवं षालीन मौन के रूप में ही रही । निष्चय ही ऐसा अवधारणात्मक मनोग्रस्तताओं से बाहर निकल कर जीने की उनकी मनोविज्ञान सम्मत प्राचीन दार्षनिक प्रविधि के कारण ही हुआ होगा । इसीलिए मुझे लगता है कि दलार्इलामा के साथ तिब्बतियों ने भी चीन को षालीनतापूर्वक तिब्बत देकर चीनी सभ्यता को नैतिक दृशिट से कमजोर किया है । अपनी सारी आधुनिकता और वैज्ञानिक विकास के बावजूद गांधी की तरह दलार्इलामा ने भी चीनी सत्ता को अद्र्धसभ्य ,आदिम ,बर्बर और अनैतिक प्रमाणित किया है । लेकिन विडम्बना यह है कि हर आक्रामक सभ्यता अपनी अनैतिकता और अपराधबोध को लगातार बनाए रखने वाले विजेता उन्माद में भुलाए रहती है । यह उचित ही है कि चीनियों की नर्इ पीढ़ी ऐतिहासिक विरासत में मिली अनैतिक होने के हीनता ग्रनिथ को तिब्बत के तीव्र विकास के माध्यम से दूर करना चाहती है । इसे दलार्इलामा के संघर्श और निर्वासित उपसिथति के सार्थक परिणाम के रूप में भी देखा जा सकता है। इसप्रकार मनुश्य की कोर्इ भी अवधारणा मनुश्य निरपेक्ष नहीं हो सकती । यह सृजनषीलता यदि समकालीन मनुश्य की आवष्यकताओं से असम्बद्ध हो जाती है तो निरपेक्षता की बढ़ती हुर्इ प्रवृत्ति के साथ वायवीय अमूर्तन ,अप्रासंगिकता एवं कृत्रिमता का षिकार होने लगती है। ऐसी सिथति में वह बुद्धिजीवियों के व्यसन का परिणाम और बया का घोसला बन जाती है ; जिसको वह रहने के लिए बुनता है और बुनते हुए रहता है ।

           आधुनिकता को प्राय: अतीत से मुकित और वैज्ञानिक ज्ञानोदय से जोड़कर देखा जाता है । इस प्रकार आधुनिकता एक अतीत सापेक्ष अवधारणा है । उत्तर-आधुनिक युग यदि आधुनिक युग से आगे का चरण है तो उसे या तो आधुनिकता को अतिक्रमित करने वाली अवस्था और व्यवस्था के रूप में होना चाहिए या फिर अतीत के प्रति मुकितपरक प्रतिक्रियावादी व्यवहार से अलग सम्यक व्यवहार के रूप में । क्योंकि आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता मानव जाति के साभ्यतिक विकास से सम्बनिधत अवधारणाएं हैं इसलिए उत्तर-आधुनिकता काी अवधारणा केवल इतिहास सापेक्ष न होकर विकास के इतिहास के सापेक्ष है। इसलिए इसे इतिहास की प्रक्रिया के रूप में नहीं बलिक विकास की प्रक्रिया के रूप में ही सही-सही समझा जा सकता है । इस दृशिट से देखने पर आधुनिक भारत ही नहीं बतिक आधुनिक विष्व भी बहु-कालधर्मी समाज है ; क्योंकि विकास की अलग-अलग अवस्थाओं पर आधारित मानव समुदाय आज के विष्व में एक साथ उपसिथत हैं । डिस्कवरी चैनल में अस्æेलिया के पास के किसी समुद्री द्वीप में पूरी तरह निर्वस्त्र रहने वाली जनजाति के बारे में एक वृत्त-चित्र दिया था । उन्हें वस्त्र आधारित सभ्यता की कोर्इ आवष्यकता ही नहीं थी । समुद्र के समतापीय वातावरण और उस प्रजाति में यौन बालों के अभाव नें उस प्रजाति के लिए वस्त्र-सभ्यता के विकास को अनावष्यक कर दिया था ।

         मेरी दृशिट में आधुनिकता ने जिस उत्तर-आधुनिक समाज की रचना की है उसमें वैषिवक या भूमण्डलीकरण के औधोगिक यथार्थ नें  नागरिकता को संषिलश्ट बहुनैशिठक और बहुआयामी बना दिया है । सुनीतानारायण और पेप्सी तथा कोला के भारतीय मूल के मैनेजरों में दिखने वाला मूल्य और प्रतिबद्धता का अन्तर्विरोध उत्तर-आधुनिक विष्व कोे राजनीतिक राश्æ से औधोगिक राश्æ की ओर जाने की सूचना देता है । उत्तर-आधुनिक विष्व आधुनिकता के प्रमुख लक्षण स्वचेतनता से सह-चेतनता की ओर बढ़ेगा । बढ़ते प्रतिरोध और घटते अन्तर के साथ वह बीसवीं षताब्दी की आक्रामक चेतनता से मुक्त होगा । व्यवसिथत विष्व-नागरिक समाज की दिषा ही उत्तर-आधुनिक विकास की दिषा हो सकती है । लेकिन इस अवधारणा का वैकासिक प्रतिपक्ष उत्तर-आधुनिक राश्æवाद ,रूढि़वाद और जातिवाद में है । उत्तर-आधुनिक विष्व की मुख्य समस्या ,मुख्य संकट और प्रमुख चुनौती मानव मसितश्क के पुनर्प्रषिक्षण एवं पुनरूत्पादन के सामुदायिक प्रयासों से ही है । अलग-अलग संस्कृतियों से सम्बद्ध जनसंख्या का सामुदायिक अतीतीकरण मानव-सभ्यता के विकास और उसके संसाधनों पर प्रतिस्पद्र्धी आधिपत्य को प्रोत्साहित और उसके उपयोग तथा विकास को पुनर्विभाजित कर रहा है । इस प्रकार -आधुनिकता की मुख्य चुनौती संगठनात्मक अतीतीकरण तथा सामुदायिक प्रतिस्पद्र्धा से ही है ,जिसके कारण अतीत की असिमताएं लादेन ,इसराइल और फिलिस्तीन के रूप में विज्ञानीकृत हो रही हैं । भारत में जातीय राजनीति नें नवजातीयकरण को बढ़ावा दिया है तो पषिचम वैषिवक कबीले के रूप में रूपान्तरित हो रहा है ।

         मैं जब-जब उत्तर-आधुनिक यथार्थ को देषज मुहावरों के माध्यम से समझना चाहता हू दृश्टान्त के कर्इ बिम्ब मेरे मन में कौंधते हैं । जैसे नारी-मुकित को केष-सज्जा से जोड़कर कहें तो मेरी दृशिट में पुरुशों के सदृष बाब कट बाल कटवाना आधुनिक कहा जाएगा ,लेकिन कोर्इ स्त्री तभी उत्तर-आधुनिक कही जाएगी जब उसे लगे कि बहुत हो चुका-अब मैं भी बाल मुड़ाने का मजा लूंगी । वाराणसी में मैंने एक विदेषी महिला को बौद्धों की तरह मुण्डन कराए देखा था और वह मुझे उत्तर-आधुनिक लगी थी । गाजीपुर में मैंने दो नागाओं को षहर की मुख्य सड़़क से नग्नावस्था में गुजरते देखा था तो मैं यह निर्णय ही नहीं कर पाया कि इस दृष्य को मैं उत्तर-आदिम कहूं ;उत्तर-सभ्यता कहूं या उत्तर-आधुनिक ! इस दृष्य को अतीत के जैन धर्म से जोड़कर न देखा जाये तो प्रसंग-निरपेक्ष रूप में वह उत्तर-आधुनिक भी है और अनुत्तर-आधुनिक भी । काषी हिन्दू विष्वविधालय में पढ़ते समय जब एक बार अंग्रेजी सीखने की लालच में एक अंग्रेजी फिल्म देखने पहुंचा तो उसके एक दृष्य में एक स्त्री के कलात्मक अद्र्धनग्नता के दर्षन हुए थे। उन दिनों मैं इतना अधिक षर्माता था कि मुझे तत्कालीन परिवेष और मानसिकता के अनुसार उस फिल्म की नायिका के अद्र्धनग्न होने के साहस पर ही श्रद्धा हो गयी थी। तब तक मैंने भारतीय नागाओं के बारे में सुन रखा था । वह मुझे विदेषी नागा लगी और मुझे वह सिद्ध भी लगी ;क्योंकि उसनें सार्वजनिक रूप से नग्न होने की सिद्धि तो प्राप्त कर ही ली थी । तब तक मेरी सिथति यह थी कि यदि पीछे बहुत अधिक लोग लाइन लगा देते थे तो सार्वजनिक स्थल पर मैं ठीक से लघुषंका भी नहीं कर पाता था ।

          दरअसल किसी भी व्यवस्था के पुननिर्माण का चिन्तन एक समाज-सापेक्ष अवधारणा के रूप में ही विकसित होता है । ऐसा इसलिए कि अलग भौगोलिक,सांस्कृतिक ,ऐतिहासिक और सामाजिक पृश्ठभूमि  में हर मानव-समुदाय या देष में व्यवस्था के षोशणपरक संरचनाओं की प्रकृति और उनके अवषेश भिन्न प्रकार के होते हैं । इसलिए उनके समाधान की विचार-यात्रा भी भिन्न प्रकार से ही तय करनी होगी । यदि अलग संरचनाओं वाले मानव-समुदायों को अन्तत: एक ही मानक व्यवस्था-संरचना की ओर ले जाना हो तब भी  उनके पुनर्निर्माण की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न ही होगी । इसप्रकार किसी भी अवधारणा पर पुनर्विचार करते समय माक्र्स द्वारा दिखाए गए पथ का अनुसरण करते हुए उसके विकास के देष,काल और परिसिथतियों पर भी विचार करना चाहिए। माक्र्सवाद की युगीन सीमाओं पर भी विचार करते हुए ये सीमाएं और षतेर्ं समान रूप से लागू होती हैं ।

           मानव-विकास के एक विषेश चरण में विकसित माक्र्सवाद भी अन्तत: एक विषेश देष-काल में विकसित अवधारणात्मक विचारधरा ही है । अपनी युगीन वैचारिक सीमाओं के कारण ही ऐतिहासिक दृशिट से मानव-सभ्यता के निरन्तर जटिलतर होते जा रहे विकास के क्रम में माक्र्सवाद को भी मैं एक मूलतागामी दर्षन ही मानता हूं । मूलतागामी से मेरा तात्पर्य यह है कि वर्तमान सभ्यता की समस्याओं के समाधान, व्यवस्था के परिश्कार तथा अतिक्रमण के लिए वह जो वैचाारिक विकल्प देती है उसकी प्रेरणा तथा नैतिक-मनोवैज्ञानिक पृश्ठभूमि मानव-जाति की आदिम स्वतंत्रताएं हैं । भारत में भी कुछ दषकों पूर्व तक निजी उपयोग में न आ रही उपजाऊ भूमि भी सार्वजनिक उपयोग जैसे क्रीड़ा या चरागाह आदि के लिए उपेक्षित सी पड़ी रहती थी । æैक्टर आदि आधुनिक कृशि-साधनों के विकास के पूर्व प्रत्यक्ष श्रम पर आधारित अठारहवीं-उन्नीसवीं षताब्दी का निकटवर्ती भारतीय आधुनिक समाज भी सम्पत्ति को उपभोग की आवष्यकताओं से जोड़कर ही देखता था । दूसरे षब्दों में उपयोग न की जा रही पर्याप्त जमीन के उपलब्ध रहने से भारतीय समाज की आर्थिक संरचना षोशण-व्यवस्था से बहुत कुछ दूर थी भारत के वन प्रदेष में रहने वाली अनेक षिकारी जातिया निजी भूमि आधारित विधि ओर व्यवस्था का सामना नहीं कर पायीं ।ं

           भारतीय मानव-समुदाय के लिए व्यवस्था के पुनर्निर्माण का मौलिक चिन्तन इस दृशिट से तो आवष्यक है ही-इस प्रष्न का उत्तर तलाषने के लिए भी आवष्यक है कि षोशण की समापित के लिए माक्र्सवादी परिकल्पनाओं पर आधारित आन्दोलन और उनके संगठन एक समानान्तर व्यवस्था की प्रापित की दिषा में कितने स्पश्ट और विचारपूर्ण हैं । इसमें सन्देह नहीं कि यानित्रकी के क्षेत्र में तकनीकी त्रुटियों की तरह,व्यवस्था के क्षेत्र में उसके तंत्रीय विचलन भी अवांछित नकारात्मक परिणाम घटित कर सकते हैं । इस परिप्रेक्ष्य से विचार करने पर माक्र्सवादी व्यवस्था-परिकल्पना के सुधारवादी संभावनाओं एवं आषंकाओं की उचित और स्पश्ट व्याख्या की जा सकती है । माक्र्सवादी सैद्धानितकी का मूल्यांकन करने पर वह अपने लक्ष्य की परिकल्पना की दृशिट से आकर्शक एवं पूर्ण किन्तु प्रक्रियात्मक वास्तविकता के धरातल पर अद्र्धसपश्ट दर्षन के रूप में सामने आता है । दूसरे षब्दों में हर भविश्यवक्ता की तरह वह मानव-विकास के अतीत का वैज्ञानिक व्याख्याता तो है; लेकिन वह मनुश्य की भावी सृजनषीलता का सही अनुमान नहीं लगा पाता ।

          यही कारण है कि माक्र्सवादी परिकल्पना किसान और मजदूर क्षेत्र में तो षोशण-निरसित के साम्यवादी विकल्प के प्रति पूरी तरह आष्वस्त और स्पश्ट है ,किन्तु जब बौद्धिक सृजनषीलता और षहरी व्यवस्था की आर्थिक संरचनाओं को भी व्यवस्था पुनर्निर्माण की साम्यवादी परिधि में लिया जाता है तो वह इसलिए अमूर्त और अस्पश्अ होने लगता है कि वह किसान और मजदूर की तरह उत्पादक श्रम पर आधारित नहीं ,बलिक वितरक श्रम और मूल्य पर आधारित होती है । निस्सन्देह षहरी समाज और उसका अर्थ-तंत्र ,व्यवस्था की दृशिट से मनुश्यकृत एक जटिलतम व्यवस्था-प्रारूप का विकास है । उसके अधिकांष सदस्य न तो किसानों की तरह अन्न-उत्पादक निकाय का हिस्सा होते हैं ,न ही मजदूरों की तरह वस्तु-उत्पादक निकाय का ही । इसीलिए षहरों का वितरण-आधारित अर्थ-तंत्र एक अलग वर्ग के रूप में षोशणमुक्त समाज के निर्माण की दृशिट से एक भिन्न समतावादीव्यवस्था-संरचना की मांग करता है ।

            यह एक तथ्य है कि अलग-अलग भौगोलिक परिवेष में अलग-अलग प्रकार की कृशि उपज ,विषेश खनिज के लिए विषेश खनिज पर निर्भरता तथा नमक के लिए समुद्री क्षेत्र पर निर्भरता नें विनिमय और आपूर्ति केन्द्र के रूप में बाजार का विकास किया था । मुद्रा नें बाजार को जन्म नहीं दिया बलिक विनिमय की भाशा के रूप में बाजार नें ही मुद्रा को मूल्य दिया है । आज भी मांग और पूर्ति के आधार पर बाजार में मुद्रा एक असिथर संसूचक व्यवस्था ही बनी हुर्इ है । दूसरे षब्दों में अपने-आप में मुद्रा का कोर्इ मूल्य नहीं है । उसका मूल्यांकन वस्तु-विनिमय की मानवीय आवष्यकताओं के सापेक्ष ही है । बीसवीं षताब्दी के अधिकांष साम्यवादी देषों ने अपने नियनित्रत अर्थ-तंत्र के माध्यम से बाजार की संसूचक व्यवस्था को ही ध्वस्त और निरस्त करने का कार्य किया था । उन्होंने मुद्रा की अर्थ-सम्प्रेशण की षकित को कृत्रिम रूप से समाप्त करने का प्रयास किया । उसकी सम्पूर्ण सृजनषीलता पूंजी की समता के नाम पर पूंजी के स्वामित्व की समापित और भिन्न-भिन्न प्रकार की पूंजी की अन्त:संवादी मूल्य-व्यवस्था को समाप्त करने का रहा । देखा जाय तो एक तरह से वे बाजार की मूल्यांकन व्यवस्था के बाहर वस्तुओं और पूंजी को आवष्यकता के अनुरूप उत्पादित करने एवं वितरित करने का प्रयास ही कर रहे थे । अपने साम्यवादी समाज में बाजार के समानान्तर कोर्इ मूल्य-संवादी व्यवस्था या अर्थ-संसूचक तन्त्र विकसित न करने के कारण बीसवीं षताब्दी के साम्यवादी देषों ने अपनी मुषिकलें बढ़ा ली थीं । वे कृत्रिम एवं प्रायोजित आर्थिक भाशाहीनता के षिकार हो गए थे ।ं

            माक्र्सवादी दार्षनिक यूटोपिया के वास्तवीकरण में दूसरी गम्भीर बाधा पूंजीवादी अर्थतंत्र और बाजार की स्वाभाविक परिणति षहरों को साम्यवादी उत्पादक पूंजी की अवधारणा के अनुरूप पुनर्विसर्जित या विघटित न करने से भी हुर्इ । यह एक तथ्य है कि षहरों का विकास पूरक एवं वैकलिपक पूंजी के आपूर्तिया प्रवाह केन्द्र के रूप में हुआ था । बाजारों का विकास की पूंजी-वैविध्य को एक समान मूल्यांकन व्यवस्था में लाने के लिए हुआ था । माक्र्सवाद जैसी केवल उत्पादक पूंजीवाद की व्याख्याता एवं विनिमय श्रम और पूंजी को अतिरिक्त मूल्य के रूप में व्याख्यायित करने वाली विचारधारा नें षहरों और बाजार के पर्यावरण को भलीभांति समझे बिना मुद्रा एवं बाजार तंत्र को प्रषासनिक तंत्र में बदलने का कार्य ही किया । इससे राज्य का काम बढ़ा । नागरिक अभाव की सिथिति में प्रषासनिक दमन एवं अविष्वास की संस्कृति के षिकार हुए । अपने निशेधों के द्वारा बाजार और मुद्रा-तंत्र को निरस्त कर देने के कारण खेतों और कारखानों से दूर बसी षहरी जनसख्या जो बाजार-व्यवस्था के ध्वस्त होते ही कृत्रिम रूप से  बेरोजगार और अवैध हो गयी-उसके आर्थिक पुनर्नियोजन का अतिरिक्त दायित्व साम्यवादी राज्यों के ऊपर आ गया । कहने का मतलब यह है कि पुराने षहर हजारों वशोर्ं से पूंजीवादी अर्थ-प्रवाह के स्वाभाविक परिणाम हैं । क्योंकि माक्र्स नें व्यावहारिक साम्यवाद पर बहुत अधिक विचार नहीं किया था ,इसलिए माक्र्स के परवर्ती माक्र्सवादियों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे साम्यवादी यूटोपिया को विसंगतिपूर्ण बनाने वाली इस समस्या पर सोचें । वे यदि बाजार-व्यवस्था के बाहर निकलकर एक साम्यवादी व्यवस्था का सपना देखते हैं तो उनको पूंजी के मूल्यांकन तंत्र और सम्प्रेशण की एक समाानान्तर मौलिक भाशा निर्मित करनी होगी -उतनी ही अर्थ संसूचक ,जितनी कि बाजार है ; जो बढ़़ती हुर्इ कीमत के साथ ही किसी वस्तु को संभलकर उपभोग करने का या अनावष्यक उपभोग न करने का र्इमानदार सन्देष दे देती है ।

           मानव-जाति द्वारा अब तक विकसित की गयी व्यवस्था के पुनर्निर्माण के चिन्तन सम्बन्धी इन्हीं दुर्बलताओं के कारण तथा वैचारिक अस्पश्टता से बचने के लिए ही देष और विदेष के अनेक वामपंथी संगठन किसानों और मजदूरों के इर्द-गिर्द मंडराने के लिए ही बाघ्य रहे हैं । अविकसित क्षेत्रों में उन्होने सर्वषून्य को सर्वहारा मानकर पूंजी सृजन और पूंजी-विनिमय की प्रक्रिया को ही बाधित कर दिया है । पंूजी-सृजन जो कि एक बौद्धिक प्रक्रिया है- और जैसा कि माक्र्स नें भी सामन्त युग और औधोगिक पूंजीवाद के चरण के बाद ही एक विकसित सभ्यता के रूप में साम्यवादी क्रानित और व्यवस्था की परिकल्पना की थी ।  अन्तत: माक्र्सवाद भी उन्नीसवीं षताब्दी के औधोगिक पूंजीवाद की प्रतिक्रियात्मक आलोचना ही है । क्या निरन्तर विकसित होती मानव-जाति की पूंजी और उसके अर्थ-तंत्र की सम्पूर्ण सृजनषीलता और विकसनषीलता एक सिथर बिन्दु पर पहुंच गयी है । इती कि उसके विष्लेशण और उसे समझने का प्रयास लगभग पूरा समझा जाय ! क्या निरंकुष पूंजी-सृजन की मानवीय नकारात्मकताओं को पहचान कर उनका कोर्इ राजनीतिक और गैरराजनीतिक मानवीय समाधान विकसित नहीं किया जा सकता ? क्या आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी की दैत्याकार अभियानित्रकी के स्थान पर कोर्इ सािनीय और लघु(माइक्रो) अभियानित्रकी नहीं विकसित की जा सकती -जो तानाषाही की प्रकृति की न होकर अधिक लोकतानित्रक और मानवीय तथा सहज हो ! ये कुछ ऐसे प्रष्न हैं जिनपर पुनर्विचार किए बिना अतीत के बुद्धिजीवियों द्वारा प्रवर्तित क्रानितकारिता का कभी पुनमर्ूल्यांकन और उनपर पुनर्विचार नहीं किया जा सकता।

            भारत में लोकतानित्रक व्यवस्था से सहमत और असहमत सभी वामपन्थी संगठन--तात्कालिक जन-समस्याओं को मुददा बनाकर संघर्श करने की उनकी नीति और उनका इतिहास ; दोनों ही साम्यवादी परिकल्पना में निहित वैचारिक अमूर्तनों और चिन्तन सम्बन्धी अस्पश्टताओं को छिपा नहीं पाते । रूस ,चीन ,हंगरी,पोलैण्ड,पूर्वी जर्मनी और क्यूबा तक अतीत और वर्तमान में फैले साम्यवादी व्यवस्था के विभिन्न ऐतिहासिक पाठ साम्यवादी विचारधारा में निहित इसी वैचारिक इन्तराल और अवकाष को अपने ढंग से भरने का प्रयास करते हैं । कर्इ देषों नें स्थानीय और सामाजिक स्तर पर रूस की तरह परम्परागत बाजार-तंत्र से अधिक छेड़-छाड़ नहीं की और रूस की तरह परम्परागत मुद्रा-व्यवहार के सम्पूर्ण पर्यावरण का विनाष करने से बच गए और रूस जैसे हश्र से भी । रूस माडल की साम्यवादी व्यवस्था के अधिकांष देषों नें बाजार को विस्थापित कर प्रषासनिक वितरण प्रणाली स्थापित करने की अतिरेकपूर्ण कोषिष की और ऐतिहासिक रूप से विफल हुए । इसका एकमात्र कारण यही समझ में आता है कि जो काम बाजार व्यवस्था किसी वस्तु की प्रचुर उपलब्धता की दषा में मूल्य घटाकर और अभाव की दषा में उसे सिर्फ मंहगाकर करती है उस कार्य को साम्यवादी देषों नें प्रषासनिक सूचना, वर्जना और आतंक से करने की कोषिष की और अप्रिय हुए । माक्र्स की विचारधारा का अन्तर्राश्æीय भव्यीकरण नहीं रहा होता और कम्युनिस्ट तानाषाही नहीं रही होती तो इतने वर्शो  तक इन अस्पश्टताओं के साथ इतनी बड़ी जनसंख्या का जीना संभव नहीं हो पाता । यह लिखते हुए मेरा उददेष्य पूंजीवादी व्यवस्था की माक्र्स द्वारा की गर्इ सम्पूर्ण आलोचनाओं और विष्लेशणों को खारिज करना नहीं बलिक पुनर्चिन्तन के उन समस्यात्मक बिन्दुओं को चिनिहत करना है ; जिनका समाधान पाकर ही भविश्य के पूंजीवाद के सापेक्ष भविश्य की साम्यवादी व्यवस्था को विकसित किया जा सकता है ।

            यधपि ऐसा नहीं है कि साम्यवादी देषों ने विनिमय मूल्य पर पलने वाले मध्यस्थ पूंजी-तंत्र और वितरक वर्ग के समानान्तर वितरण-व्यवस्था को निर्मित करने का प्रयास नहीं किया । उन्होंने प्रयास किया किन्तु वे असफल इस लिए हुए कि उन्होंने मुद्रा का सम्पूर्ण बहिश्कार नहीं किया । सच तो यह है कि आप या तो बाजार को समझकर  और उसके साथ रहकर जिन्दा रह सकते हैं या फिर उसके सम्पूर्ण बहिश्कार की आत्मनिर्भरता प्राप्त कर । इन दोनों को एक साथ रखने का दुश्परिणाम भी रूस जैसी साम्यवादी व्यवस्था को भोगना पड़ा । माक्र्स के योरोप में नर्इ तक्नालाजी के विकास के साथ युवा औधाोगिक पूंजीवाद इतना चकाचौंध भरा था कि नए-नए आविश्कारों के साथ उनका कोर्इ ऐसा प्रतिद्वन्द्वी नहीं था कि उन्हें बाजार में कोर्इ चुनौती दे । विष्व में कुछ ही कम्पनियां वायुयान बना पाती थीं और कुछ ही कार । कुछ ही मषीनें बनाती थीं और अधिकांष उत्पादित माल । उपभोक्ता और पूंजीपति के बीच

यदि बाजार और छोटा व्यवसायी था भी तो वह दिखार्इ नहीं देता था । संभवत: इसीलिए एक सिद्धान्तकार के रूप में कार्ल माक्र्स नें विनिमय मूल्य पर पलने वाले वितरण वर्ग की उस विषाल जनसंख्या को अपने विष्लेशण का आधार नहीं बनाया था ,जो आगे चलकर क्रानित-विरोधी भूमिका में पूंजीवाद की अनितम कड़ी मध्य वर्ग के रूप में सामने आया । माक्र्स का सर्वहारा स्वयं पूंजीपति बनने के सपने को छोड़कर मध्यवर्गीय सुखों को ही हसरत से देखने लगा ,जो जीवन-यापन की न्यूनतम आवष्यकताओं की दृशिट से समृद्ध, सुखी और सुरक्षित दिखता है ।

           माक्र्स के औधोगिक पूंजीवाद के विकास की दृशिट से प्रारमिभक दौर में ; जबकि पूंजी-उत्पादक मजदूर वर्ग से विनिमय पूंजी पर पलने वाले मजदूरों की संख्या कम नहीं थी-जमींदार-सामन्त और औधाोगिक पूंजीपति वर्ग से अलग व्यापारिक पूंजीपति वर्ग अलग आर्थिक समीकरणों ,संरचनाओं और सिद्धान्तों से परिचालित होता है ; अत: इस वर्ग के श्रमिकों की षोशण-समस्याओं पर आधारित समाधानकर्ता साम्यवाद ,वितरण वर्गीय साम्यवाद के रूप में एक भिन्न सैद्धानितक अवधारणा की मांग करता है । पूंजी के उत्पादक और उपभोक्ता के बीच सामन्जस्यपरक होने के कारण तथा आवष्यकता आधारित अर्थतंत्र के कारण इस वर्ग की व्यवस्था-संरचना में भागीदारी अधिक असिथर और गतिषील पूंजी पर आधारित होती है । इस वर्ग का अर्थ-विभाजन छोटी होते हुए भी इतनी जटिल और सूक्ष्म आर्थिक संक्रियाओं से निर्धारित होता है कि एक ओर वह जहां पूंजी-प्रवाह यानि वितरण और विनिमय केन्द्रों के रूप में एक वर्ग या संघ की तरह बाजार का निर्माता होता है वहीं उसकी उपसिथति के कारण ,उसके क्रानित-विरोधी समस्यात्मक परिप्रेक्ष्य में उपलब्ध साम्यवादी अवधारणाएं अपर्याप्त,अविकसित और अस्पश्ट प्रतीत होने लगती है ।

            इसका कारण यह है कि प्राय: किसान-मजदूर को केन्द्र में रखने के कारण माक्र्सवादी विचारधारा अपनी एकांगिता के साथ 'उत्पादक साम्यवाद में परिणत हो गयी है।  इसका परिणाम यह हुआ कि बीसवीं  षताब्दी में अधिकांष साम्यवादी देषों ने पूंजी-वितरण की परम्परागत समाजार्थिक व्यवस्था बाजार-तंत्र को विभिन्न प्रतिबन्धों और अंकुषों से विस्थापित कर प्रषासनिक हस्तक्ष्ेाप के माध्यम से वितरक पूंजीपति के स्थान पर 'वितरक पूंजीवाद की सैद्धानितक अवधारणा के रूप में साम्यवादी प्रषासन-तंत्र या नौकरषाही को स्थापित किया । एक संवेदनषील साम्यवादी विनिमय एवं वितरण-तंत्र के अभाव में साम्यवादी देषों ने परम्परागत मध्यवर्ग को साम्यवादी नौकरषाही में बदल दिया । अधिकांष साम्यवादी देषों ने बाजार की निरसित आौर अनुपसिथति को एक व्यावहारिक और तात्कालिक षासन की समस्या के रूप में देखा तथा इस वर्ग के प्रतिक्रियात्मक नकार और असहयोग के कारण ही पषिचमी योरोप के अधिकांष साम्यवादी देषों में ऐतिहासिक रूप से ध्वस्त हुआ । कारण स्पश्ट है कि पूंजी और वर्ग-विभाजन का उत्पादक और वितरक स्वरूप स्पश्ट न होने के कारण साम्यवादी षासन नें उत्पादन और वितरण दोनों ही कार्य  स्वयं ही दायित्वबोध के साथ संभाला ।

          हजारों वर्शों के पूंजीवादी पर्यावरण की उपज षहरी असन्तोश नें ही साम्यवादी देषों से साम्यवादी षासन को उखाड़ फेंका । क्या ऐतिहासिक तथ्य मात्र इतना ही कहते हैं ! जो नहीं कह पाते वह यह कि साम्यवादी देषों को साम्यवादी पर्यावरण के निर्माण के लिए पूंजीवादी पर्यावरण की उपज षहरों को उखाड़ फेंकना चाहिए था । विस्थापित जनसंख्या को खेतों के किनारे और कारखानों के पास पुन: बसाना चाहिए था । इसके विपरीत साम्यवादी देषों नें पूरी की पूरी षहरी जनसंख्या को प्रषासन-तंत्र में बदलने तथा प्रषासन तंत्र से ही नियनित्रत करने का प्रयास किया । आवष्यकता और उत्पादन के बीच कोर्इ मूल्यपरक सम्प्रेशण व्यवस्था न होने के कारण आर्थिक संवादहीनता के कारण साम्यवादी सरकारें वितरण की प्रषासनिक विफलता के करण क्रमष: निरंकुष होती गर्इं और एक दिन सम्पूर्ण राज्य को ही एक बड़े यातना-गृह में बदल दिया । पूंजीवादी व्यवस्था की वर्तमान और भावी आलोचना को विकसित करते समय उसकी इन कमियों के प्रति सजग रहना होगा ताकि भविश्य का साम्यवाद, भविश्य के पूंजीवाद की और अधिक पूरक और निर्दोश प्रतिक्रिया बन सके ।

             इसलिए एक समग्र समानान्तर व्यवस्था के निर्माण और अन्वेशण के लिए आवष्यक है कि पूंजीवाद की परम्परागत वितरण प्रणाली बाजार के समानान्तर यदि साम्यवादी यूटोपिया के दावेदार हैं तो किसी अधिक संवेदनषील समतामूलक वितरण प्रणाली की खोज करनी चाहिए । यदि सम्पूर्णता में नहीं कर सके तो पूंजीवादी व्यवस्था की क्रूरता को नियनित्रत और कम करने के लिए उसके अन्तर्गत या समानान्तर एक न्यूनतम सर्वहारा सुरक्षा-तंत्र विकसित करना चाहिए ; क्योंकि निरंकुष वैयकितक या संगठित पूंजीवाद की अमानवीय महत्वाकांक्षाओं की सतत समीक्षा होती रहनी ही चाहिए । एक कम उत्तेजक,कम आवेषधर्मी किन्तु अधिक जिम्मेदार अधिक प्रबुद्ध,अधिक निर्दोश समतामूलक समाज और व्यवस्था को विकसित किए जाने की जरूरत है । जरूरत इस बात की है कि षोशण-मुक्त व्यवस्था के अधिक परिश्कृत और स्पश्ट संरचनात्मक वैकलिपक सिद्धान्तों -निश्कशोर्ं को विकसित-विचारित और उपलब्ध किया जाय । अन्यथा स्पश्ट अवधारणाओं के अभाव में चरमपंथी भारतीय साम्यवादी आदर्षवादियों का भी उसी प्रकार व्यवहारवादी स्वप्नभंग होगा ,जैसाकि पषिचमी योरोप और सोवियत रूस के कम्युनिस्टों  का हुआ । किसानों में समान भूमि-वितरण तथा मजदूरों की उधाोगों में न्यायपूर्ण हिस्सेदारी के समान ही वितरक-पूंजी वाले मध्य-वर्ग के कामगारोंं के लिए भी किसी स्पश्ट ,मूर्त और चरम लक्ष्य,आदर्ष या अवधारणा की खाोज करनी होगी तथा भविश्य की षोशणमुक्त व्यवस्था के लिए ऐसी आर्थिक संरचनाओं की तलाष करनी होगी कि जनसंख्या के उत्पादक और वितरक समूह दो विरोधी आर्थिक संरचनाओं  के रूप में साम्यवादी व्यवस्था को वर्ग-विभाजित न कर दें । क्योंकि विशम आर्थिक समीकरणों से संचालित होने पर वे अपनी वैचारिक अपूर्णताओं के कारण बड़े-बड़े दावों और लुभावने सपनों को उत्तेजित करने के बावजूद साम्यवाद की तानाषाही के लिए अधिग्रहीत जनसंख्या को  आन्तरिक रूप से विभाजित,विशमतापूर्ण और असंतुश्ट ही करेंगे ।

       एक नर्इ सभ्यता के निर्माण के लिए पूर्वाग्रहमुक्त विचारशीलता इस लिए भी आवश्यक है कि आज की अनुभवी एवं सृजनशील मानव-जाति को अतीत की दीर्घकालिक रूढि़वादिता एवं उसके दुष्परिणामों का लम्बा अनुभव है । आज हम जानते है। कि अधिकांश वैचारिक निर्मितियां भी अपनें देश-काल का अतिक्रमण नहीं कर पातीं । विचारधाराएं जो एक दौर में बिल्कुल सही मानी जाती थीं ,लाखों विरोधयों की हत्या के बाद भी एक दिन स्वयं को गलत माने जानें से भावी मानव-जाति को रोक नहीं पातीं । यह भी कि अधिकांश विचारधाराएं एक काल्पनिक दुनिया या यूटोपिया का निर्माण कर सत्याभास रच देनें में इसलिए सफल होती हैं कि मनुष्य अपनी उच्च्स्तरीय सृजनशीलता के कारण एक नए अतीत की तरह अतीत के विश्वासों के अनुरूप भी एक पुरानी दुनिया को वर्तमान के रूप में रच सकता है । विचारधाराएं किस प्रकार मानव-जाति को छल सकती हैं,इसका रोचक दृष्टान्त गांधीवाद और माक्र्सवाद की चरितार्थता में भी देखा जा सकता है । मानव-मनोविज्ञान की दृषिट से इन दोानों ही विचारधाराओं की आलोचना की जा सकती है । एक बार पूर्ण सत्य मान लिए जानें के बाद ये मानव-जाति की सृजनशीलता को दूर तक प्रभावित करनें लगती हैं और उनकी समय और इतिहास के वर्तमान की जरूरतों से अलग भी एक कृत्रिम पर्यावरण की पुनर्रचना करनें लगती हैं । इस दृषिट से जब मैं वर्तमान को देखता हूं तो पाता हूं कि अलग सांस्कृतिक मानसिकता और विचारधारा के कारण एक ही समाज के भिन्न-भिन्न व्यकितयों में रुचि और ऐचिछक विच्छोभ का भी अलग-अलग स्तर दीखता है । कम इच्छाएं या उदासीनता सृजन और विकास की इच्छा और आवश्यकताओं के बोध को सीमित करती हैं ।

 उदाहरण के लिए गांधीवाद पूंजीवाद की अनैतिक महत्वाकांक्षाओं की आलोचना करता हुआ उसे सभ्य ,नैतिक और मानवीय बनानें का निस्संदेह प्रयास करता है । मानव-जाति के अंिहंसक àदय-परिवर्तन पर वह कुछ अधिक ही विश्वासी है । गांधीवाद का तरीका मानव-इच्छाओं की निगरानी करनें का है । व्यकित् की इच्छाओं को अनुशासित और परिसीमित करनें के कारण ,एक यूटोपियन विचारधारा के रूप में गांधीवाद जिस मनुष्य को निर्मित करेगा ,वह नैतिक दृषिट से सज्जन और भद्र पुरुष तो होगा ,लेकिन उस विचारधारा को पूरी तरह चरितार्थ करनें वाले समाज के सदस्यों की सादगी और संतोष जैसे मूल्यों के कारण सृजनशीलता की कल्पना-शकित कुंठित हो सकती है । बहुत प्रभावी होनें पर वह बहुत सी तकनीकों और आविष्कारों को हतोत्साहित कर सकता है ।

      इसीप्रकार यूटोपियन दुष्प्रभाव की दृषिट से माक्र्सवादी विचारधारा भी एक नकारात्मक नियामक के रूप में सामनें आती है ; क्योंकि वह इतना अधिक अविश्वासी है कि वह मनुष्य को असभ्य,अनैतिक और अमानवीय बनने का अवसर ही नहीं देना चाहता । इस तरह माक्र्सवादी विचारधारा के आधार पर निर्मित व्यवस्था की अयोग्यता भिन्न प्रकार की हो जाती है । वह पूंजी की उन्मुक्त सृजनशीलता के अधिकार को सीमित करना चाहता है । इस तरह वह अभिप्रेरणा के स्तर पर सृजनशीलता के आनप्द को कृणिठत करता है । व्यकित के स्तर पर वह नकारात्मक है लेकिन सृजनशीलता को सामूहिकता की भावना से जोड़नें की अपेक्षा के कारण एक सीमा तक सार्थक भी । पूंजी उत्पादन में भी सामूहिकता में चलनें-चलानें की उसकी इच्छा की तुलना परेड में चलनें से की जा सकती है । वह कदमताल को अधिक महत्व देता है । कुछ अलग चलनें के प्रयास को घातक मानता है । एक अविश्वासी नियामक विचारधारा होने के कारण माक्र्सवाद संवादी भी नहीं है । उसकी सैद्धानितकी बाजार और मुद्रा दोनों को ही ध्वस्त,व्यर्थ और निरस्त करती है । यधपि बाजार के पास मांग और पूर्ति का सटीक सूचना-तंत्र तो होता है ,किन्तु मानवीय संवेदना और नैतिक चेतना नहीं होती । ऐसे में माक्र्सवाद में से दमन ,अविश्वास और तानाशाही को निकालकर उसमें पूंजी-निर्माण की सामूहिकता वाली सकारात्मक को बल देनें वाली अभिप्रेरणा शामिल करनें की जरूरत है । यदि किसी नवमाक्र्सवाद की परिकल्पना की जाय तो  उसमें माक्र्सवाद की नैतिक चेतना और संवेदना के साथ बाजार से संवादी होना भी सीखना होगा ,क्योंकि बाजार मानव-जाति की सृजनशीलता का सवोर्ंत्तम संग्रहालय भी है ।

          जैसाकि टी.एस.इलियट का भी मानना था । हम सभ्यता के धरातल पर अतीत से कटकर कभी भी पूरी तरह आधुनिक नहीं हो सकते । हम समझनें की योग्यता के लिए प्राय: परम्परा पर ही निर्भर करते हैं । दरअसल आधुनिक होना बिल्कुल नया होना नहीं है और न ही आधुनिक सभ्यता से आशय वर्तमान सभ्यता ही है । वास्तव में हम यथार्थ के साथ-साथ जीनें की आदतों का भी कालान्तरण कर रहे हैं ।प्राचीन को आधुनिक बना रहे हैं । हमारे जीवन-समय में अतीत और वर्तमान एक साथ उपसिथत हैं । आधुनिक वर्तमान नहीं है और वर्तमान आधुनिक नहीं है। आधुनिक और वर्तमान में फर्क है । विडम्बना यह है कि जो वर्तमान है वह आधुनिक नहीं है और जो आधुनिक है वह वर्तमान नहीं है । आज का वर्तमान इतिहासग्रस्त है । अतीत का पुनरूत्पादन किया जा रहा है ।

         एक नयी व्यवस्था को पानें की दिशा में भविष्य-चिंतन परिकल्पना,योजना और यूटोपिया के रूप में हो सकता है । खतरा यह है कि अधिकांश यूटोपिया अपनें निर्माण के समय की वास्तविकताओं की प्रतिकि्रया में ही जन्म लेते हैं । लेकिन उनके अनुयायी और प्रशंसक उन्हें सार्वभौम मान लेते हैं ।