मंगलवार, 5 जुलाई 2016

समय-पाठ

०००००००० 
वे हैं 
उनके होने में संदेह नहीं 
उनका सिर्फ इतना ही दोष है 
कि वे हिंसक और अशिष्ट ढंग से हैं
उनका होना एक-दुसरे को व्यर्थ और निरस्त करता है

समय के संधान में यह निर्णय नहीं किया जा सकता
कि वे बाली हैं या सुग्रीव
मालाएँ दोनों ओर सामान हैं और मल्यार्पक भी
समय किसी निर्मम रस्सा कशी की भूमिका में है
सिर्फ दर्शक की भूमिका में
अनिर्णय की स्थिति का शिकार

वे सभी अपने जीवनाधिकार और हस्ताक्षर के लिए लड़ रहे हैं
एक दूसरे की हत्या और मृत्यु से ही होना है निर्णय
समय के सच्चे इतिहास-पुरुष का

जनता अपने आदिम अनुभव के साथ चुपचाप खड़ी है
हर लडाई के परिणाम में बचे हुओं के इंतजार में
जनता अपने भीतर की नापसंदगी के साथ
समेत रही है अपने हिस्से की निष्ठाएं
जनता अब बेवफाई के निर्णायक मूड में है
प्राचीन काल की उन बेवफा किन्तु समझदार स्त्र्यों की तरह
जिन्होंने सारी निगरानी और भय के बावजूद
समय पर भारी बनैले पशुओं के स्थान पर
भयभीत समझदारों के जीन
अत्यंत गोपनीय मिशन के साथ
अगली पीढ़ी तक पहुंचाए

कि डरा और सताया हुआ समय
बिना किसी शोर के
चुपके-चुपके पढ़ता है भीगी आँखों के पीछे से'''
और डराया हुआ समय
अपने विज्ञापित दु:स्वप्नों के बावजूद
हटाई हुई नज़रों और बंद नथुनों के साथ
किसी कूड़ा-स्थल की तरह
होता रहता है अपमानित अनंत-काल तक

सिर्फ बाजार में होना और जीना ही काफी नहीं है
उस प्रेयसी पहचान के लिए
जिसके लिए धरती से लेकर आसमान तक
मचा हुआ है घमासान
और जिंदगी के नाम पर बताई गयी सारी राहें
सिर्फ पहुंचना जानती हैं श्मशान (मसान !)

० रामप्रकाश कुशवाहा
०५..०७.२०१६