रविवार, 8 जनवरी 2017

भीड़ में

पूरा मेला बाजार बन जाए
और मैं उसकी भीड़ में गुम हो जाऊं
तब भी क्या मैं मैं नहीं रहूँगा .....
यह सच है कि भीड़ का चेहरा नहीं होता 
लेकिन जिस चेहरे को पहचानने का भ्रम जी रही भीड़
वह चेहरा एक मदारी का है

जिंदगी,आस्था और विश्वास

जिंदगी में कुछ काम मैं अपने लिए करता हूँ और कुछ उन दूसरों के लिए ,जो सगे हैं और इतने सगे हैं कि पूरी दुनिया में अरबों की जनसँख्या छोड़कर सिर्फ मेरे ही हिस्से पड़े हैं .पहले पिताजी थे .वे कवियों को नाचने-गाने वाले समुदाय का एक हिस्सा समझते थे .उनके द्वारा कवियों को हिकारत से देखने के कारण ही छुप-छुप कर कविताएँ लिखता हुआ भी कभी कवि कहलाने के बारे में सोचा नहीं , न ही कभी उपनाम ही लगाया .अब यह उदासीनता मेरे स्वभाव का एक हिस्सा और लगभग स्थायी भाव जैसी हो गयी है .जबतक माँ रहीं तब तक माँ के हिस्से को भी उनकी भावनानुसार जीता रहा .उनकी पीढ़ी से सांस्कृतिक असहमति के बावजूद उन्हें पूर्ण सम्मान दिया .कुछ इस तरह सोचता रहा कि अंधविश्वासपूर्ण होते हुए भी सिर्फ वैचारिक असहमति के लिए हमें असहिष्णुता प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए .उग्र प्रगतिशीलता के नाम पर किसी पर अपना विश्वास इस तरह बलात नहीं थोपना चाहिए कि वे सुबह-शाम बिलकुल मेरी तरह क्यों नहीं सोचने लग रहे हैं .सांस्कृतिक परिवर्तन वैसे भी तात्कालिक और वैयक्तिक मामला नहीं है .उसके स्थायित्व और सामूहिकता का सम्मान करते हुए ही नयी पीढ़ी की आवश्यकताओं के अनुरूप बदलाव के लिए सुझाव देना उचित होगा .
               विवाह होने के बाद भी पारिवारिक स्तर पर मेरे लिए क्रांतिकारिता जीना लगभग असंभव ही था ,क्योंकि पत्नी विवाह से पूर्व ही एक वाहन दुर्घटना में अपने पिता और भाई को खो चुकी थीं .वे मनोवैज्ञानिक रूप से इतनी असुरक्षित थीं कि जीवन के प्रति मेरे मेरे आध्यात्मिक सम्मान भाव को देखकर ही भीतर ही भीतर वे जैसे डरती रहती थीं .कुछ ऐसे ही जैसे स्वाभिमान से जीना ही किसी का अपमान कर देना हो .भारतीय धर्म जिसे ब्राहमणों नें जातीय रूप से विकसित किया है उसमें विनम्रता और अहंकार रहित होने पर विशेष बल दिया जाता है .अहंकार आध्यात्मिकता का शत्रु है .इस सामूहिक प्रशिक्षण से जनता का एक बड़ा हिस्सा यथास्थितिवादी और विनम्र बना रहता था .आज हम समझ पाते हैं कि यह भक्तिपंथ सामाजिक रूप से न सिर्फ ईश्वर के समक्ष झुकने का प्रशिक्षण देता था बल्कि राजा और सामंत प्रभु वर्ग के समक्ष झुकने का भी जो किसी भी बात पर कभी भी किसी की गरदन उड़ा सकते थे और उस समय उन्हें रोकने वाला कोई भी क़ानून नहीं था .इस तरह प्रकारांतर से इस भक्ति पन्थ नें जनसामान्य के एक बड़े हिस्से को संगठित प्रभु-वर्ग से मारे जाने से बचाया . बुद्ध क्योंकि गणतंत्र के नागरिक थे महाजनपदों के राजतंत्र का आध्यात्मिक पाठ उन्हें सही नहीं लगा .दुःख के होते हुए उनके लिए ईश्वर की प्रशंसा करना दार्शनिक दृष्टि से भी संभव न था .आज के लोकतान्त्रिक समय में भी जनता को विनम्र और सिर्फ अनुयायी बनाए रखने में धर्म की परंपरागत भूमिका ख़त्म नहीं हुई है .भारत में ऐतिहासिक रूप से ब्राह्मण जाति द्वारा संगठित रूप से बनाए गए इसी मनोवैज्ञानिक स्वर्ग का लाभ पहले हिन्दू राजाओं और सामंतों नें उठाया ,फिर मुगलों ने,अंग्रेजों ने और स्वतंत्रता के बाद नेहरू परिवार नें और अब अन्य क्षेत्रीय दलों के स्वामी राजनीतिक परिवार ले रहे हैं .यह स्थिति आगे भी देर तक चलती रहेगी क्योंकि परंपरागत धार्मिक और जातीय संगठन अब भी विभिन्न रीति-रिवाजों ,मान्यताओं और उत्सवों के साथ पूरी तरह सक्रिय हैं .इस तरह भारतीय मूल की जनसँख्या की समस्या यह है कि उनका दार्शनिक और सांस्कृतिक ढांचा सामंती एवं मध्ययुगीन है.
                 भारत में दूसरी बड़ी जनसँख्या इस्लाम के अनुयायियों की है .एशियायी मूल का धर्म होने से वह भी भक्तिपंथी ही है .वह भी आध्यात्मिक धरातल पर अल्लाह के प्रति तो सामाजिक धरातल पर इस्लामी कबीले के प्रति पूर्ण समर्पण की मांग करता है .इस तरह उसका भी मनोवेज्ञानिक पर्यावरण व्यक्ति के विवेक की स्वतंत्रता का निषेध करने वाला ही है .हिदुत्व में ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता ब्राहमणों के आधिपत्य से होकर जाता है तो इस्लाम में उसके प्रवर्तक की अपरिहार्य मध्यस्थता से . इन दोनों धर्मों में जन्मे हुए लोग इनकी सामाजिक सांस्कृतिक ऐतिहासिक विशिष्ट स्थिति की अवहेलना नहीं कर सकते .यद्यपि कुछ समानांतर सम्प्रदायों की उपस्थिति जैसे जैनियों के अनेकान्तवाद और बौद्धों के प्रभाव के कारण दार्शनिक शंकराचार्य, गोरखनाथ और कबीर से होते हुए हिंदुत्व में ऐसी गुंजाईश बनी कि मनुष्य अपने आध्यात्मिक स्वाभिमान को जी सके .विवेक की स्वतंत्रता का यह पर्यावरण भारतीय लोकतंत्र की दीर्घायुता के लिए जरुरी है .
                 आवयविक सिद्धांत की दृष्टि से देखें तो हिंदुत्व और ईसाइयत में ईश्वर और मनुष्य का रिश्ता पिता-पुत्र वाला होने से प्रकारांतर से मनुष्य को ईश्वर के सारे अधिकार प्राप्त हो जाते हैं .इसमें से आध्यात्मिक समानता का भी अधिकार है .इसमें ईश्वर एक सम्मानित पूर्वज की तरह विशिष्ट बना रहता है -उत्तराधिकार में वर्त्तमान मनुष्य को सब कुछ सौंपने के बावजूद .इस्लाम अपने सूफी मत के माध्यम से प्रेम की एकता के माध्यम से यह प्रयत्न करता है .
हिदी का प्राध्यापक होने और भक्तिकाल को आधुनिक दृष्टि से पढ़ाने के पेशेवर दबाव में इतने सम्प्रदायों और उनके भिन्न -भिन्न ईश्वरों से सामना हुआ कि मैं अपनी पत्नी के स्तर पर एकांत भक्ति-भाव में फिर वापस नहीं लौट सकता .फिर भी मैं ईसाइयत ,बौद्ध ,हिदुत्व और इस्लाम में अलग-अलग तरह की कविता देख पाता हूँ .इस्लाम के अनुयायी किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह अपने ईश्वर को जीते दिखाई देते हैं तो हिंदुत्व को पर्यावरण के सबसे बडे संरक्षक धर्म के रूप में प्रासंगिक पाता हूँ .बुद्धत्व मानसिक सोंदर्य तो ईसाइयत करुणा और सेवाभाव देकर मानवता के लिए अब भी प्रासंगिक है .इस दृष्टि से मार्क्सवाद भी शोषण और असमानता के विरुद्ध प्राचीन घृणा का ही विस्तार है .