रविवार, 18 जनवरी 2015

कविता का चरित्र

वर्त्तमान में कविता के स्वरूप और चरित्र को लेकर इतनी विविधता है कि उसका कोई निश्चित स्वरूप भी हो सकता है -यह नहीं कहा जा सकता .लेकिन यह भी एक सच है कि कविता एक सांस्कृतिक अविष्कार है ,इसी कारण से सभी देशों की कवितायेँ एक ही भूमिका में नहीं रही हैं .पश्चिम में ओल्ड टेस्टामेंट हो या भारत का वादिक साहित्य -प्रारंभिक साहित्य अपने प्रयोजन में प्रायः धार्मिक ही रहा है ..बाद में यद्यपि यह कहना अधिक सही होगा कि भाषिक सामर्थ्य के विकास के साथ समर्थ कवियों नें वृहत्तर कथा -काव्यों की रचना की होगी ,जिन्हें आज हम महाकाव्य कहते हैं . कथा -काव्य यानि कि गाथाएँ कविता सांसारिक आकांक्षाओं को सम्पूर्णता में व्यक्त करती है.
           यूरोपीय और भारतीय काव्य परम्पराओं का तुलनात्मक अध्ययन करें तो एक अंतर यह सामने आता है कि पश्चिमी साहित्य विस्मय और रोमांच मूलक है .उसके कवियों का चित्त नवीन जिज्ञासाओं और कल्पनाओं के प्रति अधिक आकर्षित होता है .प्रत्याशा और रोमांच उसके साहित्य के स्थायी स्वाभाविक वृत्तियाँ हैं .वे वैसा ही जीवन जीते हैं और वैसा ही पसंद करते हैं तो स्वाभाविक है कि उनका साहित्य भी उन्ही भावनाओं से भरा हुआ है .इसका कारण यह प्रतीत होता है कि उनका जीवन और परिवेश अधिक चुनौतीपूर्ण  रहा है .इसके विपरीत भारतीय साहित्य स्तायित्वपूर्ण कृषि -व्यवस्था के कारण परिवार एवं रिश्ते जीनेवाला रहा है ..इसलिए उसके साहित्य में रिश्तों से जुडी भावनाएं ही अधिकांशतः व्यक्त हुई हैं .सामाजिक जीवनराग एवं चरित गायन उसके साहित्य का केन्द्रीय स्वर रहा  है .प्राचीन भारतीय साहित्य यदि केवल धार्मिक भावनाओं को ही प्रश्रय देता दिखाई देता है तो इसका सामाजिक कारण यह भी हो सकता है कि भारत में लिखित  साहित्य  के संरक्षण की जातीय जिम्मेदारी प्रायः ब्राह्मणों के ऊपर ही रही है ..इस जाति की दिलचस्पी प्रायः नैतिक और धार्मिक साहित्य को ही संरक्षित करने की रही है .  लौकिक साहित्य तो प्रायः लोकागाथाओं या फिर रजा द्वारा संरक्षित किये जाने पर ही बचा है .