सोमवार, 16 जनवरी 2017

"मैंने अपना ईश्वर बदल दिया है " पुस्तक की भूमिका का कुछ अंश

जब हम ईश्वर के अस्तित्व के बारे में सोच रहे होते हैं निश्चित रूप से पूरी दुनिया और अपने जीवन के अस्तित्व के प्रति आश्चर्य से भरे होते हैं .निश्चय ही यह अनुभूति एक बड़ी और उदात्त कविता की अनुभूति जैसी है .एक ऐसी कविता जो अपने अस्तित्व के लिए कृतज्ञता और धन्यवाद भावना से भरी हो .मुझे लगता है कि ईश्वर के प्रति हमारी आस्था के मूल में सम्पूर्ण अस्तित्व के प्रति हनारा कृतज्ञता ,आश्चर्य ,धन्यता और आत्मीयता से भरा वह अभिन्न सम्बन्ध ,रिश्ता और आकर्षण ही है जो आध्यात्मिक अनुभूति के रूप में हममे प्रकट होता है .मेरे लिए सच्ची आध्यात्मिकता इसी उदात्त अनुभूति और अर्थवत्ता की खोज है | ईश्वर इसी बड़ी कविता का प्रतीकात्मक प्रत्यय है | मेरे लिए इसी उदात्त अनुभूति और कविता को जीना ही ईश्वर को जीना है | लेकिन संसार के सारे प्रचलित धर्म और उनके अंध अनुयायी इसी उदात्त कविता को जीने के अधिकार को रोकते हैं | प्राचीन काल से ही जंगली कुत्तों में मिलने वाले व्यवहार की तरह सिर्फ ,नेतृत्व ,शासक या राजा को ही नहीं रोका गया है या फिर साधु ,फकीर नबी ,पैगम्बर या अवतार माने जाने वाले गिने-चुने व्यक्तियों को ही उन्मुक्त अस्तित्व की यह आदिम कविता जीने का अधिकार मानव-जाति नें दिया है | मैं जब अपने अस्तित्व और अस्मिता को लेकर अपने हिस्से की उदात्त अनुभूति और कविता जीना चाहता हूँ –देखता हूँ उसकी सूचना मात्र से लोग घबरा जाते हैं | वे इस कविता को जीने से डराने लगते हैं .उन्हें यह खतरनाक बात लगती है कि कोई इस सृष्टि से अपने अभिन्न रिश्ते को सम्पूर्णता से रिश्ते को जीने की मांग कैसे कर सकता है ? विगत में यहूदियों के  नेतृत्व मूसा द्वारा लगाए गए ऐसे ही प्रतिबन्ध के कारण ईसा मसीह को ऐसी ही कविता जीने के अपराध में सूली पर चढ़ा दिया गया था  .
             मेरा सीधा सा प्रश्न है कि हम ब्रह्माण्ड से अपने रिश्ते को सीधे-सीधे क्यों नहीं जी सकते ? क्या सिर्फ इस लिए कि सामंती नेतृत्व वाले पिछले धार्मिक समाजों  नें सभी को ऐसा अधिकार जीने के लिए वर्जित किया है |क्योंकि जीवन अनेक रूपों-प्रारूपों में है और लगभग एक भीड़ के रूप में भी | .सामूहिकता और सामाजिकता की सह-अस्तित्वपूर्ण भावना हमें अपनी प्रजाति की सामूहिकता के पक्ष में इस सृष्टि को अकेले ही जीने के अधिकार से रोकती है | भारत में प्राचीन काल में इस कविता को जीने की घोषणा गिने-चुने लोगों नें ही की है .संख्य-दर्शन के प्रवर्तक कपिल ,महर्षि पतंजलि ,विश्वामित्र ,शंकराचार्य ,गोरखनाथ और कबीर आदि इतने ही नामों के लिए मैं अपनी स्वीकृति प्रदान कर पाता हूँ | महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध की कविता का भी अलग संवेदनात्मक  महत्त्व है लेकिन  वह सम्पूर्ण प्रकृति की तुलना में मानव-प्रकृति की दार्शनिक व्याख्या से अधिक सम्बंधित है | वह सीधे-सीधे सम्पूर्ण अस्तित्व को उदात्त भाव-रूप में जीने से सम्बंधित नहीं है | पश्चिम में ईसा ही इस कविता को जीने का दुस्साहस करते दिखते हैं | 
                 इस भावाधिकार को मैं सृष्टि को अपने अस्तित्व और अस्मिता से जोड़कर जीने के भावाधिकार के रूप में देखता हूँ | इस दृष्टि से इस्लाम भी  मुझे एक निषेधात्मक धर्म ही लगता है | जहाँ इस कविता को जीने से ही सभी को एक साथ मना  कर दिया गया है | इसी दृष्टि से इस्लाम और भारत के पुरोहित-जातीय धर्म को मैं प्रकृति निषेधात्मक धर्म ही मानता हूँ | ये दोनों एशियाई धर्म सृष्टि से जीवन के रिश्ते को सीधे-सीधे जीने देने के पक्ष में नहीं हैं | ये कबीले और जाति के पक्ष में व्यक्ति-जीवन को निरीह बनाने और बताने  वाले धर्म हैं | ये चाहते हैं कि मनुष्य उस अस्मिता को जिए ही नहीं और सृष्टि से अपने प्रत्यक्ष रिश्ते को प्रजाति के प्रत्यय के पक्ष में समर्पित कर दे | मैं जब अपने ईश्वर को बदलने की मांग कर रहा हूँ तो इसी निषेधात्मक निरीह बनाने वाले ईश्वर की अवधारणा  को अस्वीकार करने की घोषणा कर रहा हूँ |
            आज  हमारे समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके लिए ईश्वर एक कालातीत विषय हो चुका  है | मार्क्सवाद और वैज्ञानिक चेतना के प्रभाव से उन्हें लगता है कि ईश्वर को चिंतन और रचना का विषय बनाना ही समय की बर्बादी है | बहुत से लोग जो धार्मिक अर्चना और वर्जना की पुरानी आदतों से बाहर निकल गए हैं ;उनके लिए ईश्वर की अवधारणा  को स्वीकार करना एक खास तरह की जीवन-पद्धति और पूर्वाग्रहों सहित पिछड़े समय की सामाजिक आदतों को भी पुनः  स्वीकार करने जैसा है | यदि दुनिया का एक बड़ा हिस्सा ईश्वर की अवधारणा के बिना भी नैतिक और अनुशासित होकर जीना सीख गया है तो क्या जरुरत है उसे वहां से विस्थापित कर पुरानी दुनिया के विश्वासों में ले जाने की ? मार्क्स से सहमत होते हुए बहुत से ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो बिना ईश्वर के ही पूरे आत्म-विशवास के साथ जीना और सोचना चाहते हैं | क्योंकि अतीत में ईश्वर के नाम पर भी सवेदित जन-समुदायों नें बहुत से नरसंहार और सामुदायिक अपमान किए हैं | अतः हमें ईश्वर की अवधारणात्मक शुद्धता और उसमें शामिल मानव-व्यवहार के हिस्से को साफ़-साफ़ अलगाने का निर्णय लेना ही  होगा | ताकि हम तय कर सकें कि प्रभाव और दुष्प्रभाव अवधारणा की कमियों के कारण है कि संगठनों और उसके नेतृत्व के चलते !
             मुझे यह भी  लगता है कि ईश्वर और मनुष्य के रिश्ते पर विचार करते समय प्रकृति की पूर्ण अस्मिता को न जी पाने की उसकी अपूर्णता -जो उसे पूर्ण होने के लिए सामाजिकता की ओर ले जाती है ;उसे भी ध्यान में रखना होगा | भेड़िए ,हाथी मधुमक्खी एवं चींटी आदि प्रजातियों की तरह मनुष्य भी एक सामाजिक प्राणी है | इतिहास के जंगली चुनौतियों वाले दौर में जब चारों ओर शिकारी ,संकट और मृत्यु की संभावना ही विचरती होगी -बहुत से संकटों का सामना तो अतीत का मनुष्य समूह में ही कर पाया होगा , जैसे सुरक्षा में तैनात कुछ लोगों के जागने की कीमत पर कुछ लोगों को सोने दिया जाता है | इस तरह सामजिकता का जैविक आधार सामूहिकता में सुरक्षा की खोज का अचेतन भी है |
            मेरा यह भी मानना है कि सामाजिक प्राणियों में पूर्णता की मनोवैज्ञानिक खोज व्यक्ति स्तर पर संभव ही नहीं है | वह अपने से बाहर के वृहत्तर से जुड़ कर ही पूर्णता का अहसास जी सकता है | क्योंकि मनुष्य भी एक समूहजीवी प्राणी ही है इसलिए लाखों वर्षों के क्रम-विकास में इसका प्रजातीय व्यक्तित्व वैयक्तिक स्तर पर अपूर्णता जीने वाला ही है | इस दृष्टि से देखें तो अस्तित्व और अस्मिता का वृहत्तर अमूर्तन उसके अचेतन मनोवैज्ञानिक बनावट का एक हिस्सा और जरुरत  है | इसी मनोभूमि को जीते हुए वह अपनी  प्रजाति के द्वारा निर्धारित विश्वासों के प्रति अपनी आस्था और विशवास को  प्रकट करता रहता  है | तात्पर्य यह है कि अधिकांश सांस्कृतिक विशवास अलग-अलग प्रजातियों के द्वारा अतीत से लेकर आज तक अपने सामूहिक विवेक के सापेक्ष निर्धारित किए गए  सत्य हैं | यहाँ प्रवृत्यात्मक रूप से ईश्वर की जगह समुदाय, संप्रदाय और समाज को भी रखा जा सकता है –इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि वह इनमें से क्या जी रहा है और क्यों ? महत्वपूर्ण बात यह है कि वह अपनी शून्यता अथवा एकाकी निरर्थकता को किसी न किसी अवधारणा के माध्यम से प्रजाति की सम्पूर्णता के प्रति अपने समर्पण से भरेगा | इसके अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक धरातल पर ईश्वर माता और पिता के संरक्षक भूमिका और उनके अभिभावकत्व का भी दार्शनिक प्रत्यायन है –वयस्क होने पर भी जीवन में माता-पिता की अनुपस्थितियों के क्षण के माता-पिता की तरह भी ईश्वर हमारे वृहत्तर भाव-अस्तित्व का एक हिस्सा है |
          अपनी इस ईश्वर विषय पर विशेष रूप से केन्द्रित  पुस्तक  “मैंने अपना ईश्वर बदल दिया है “ का धृष्टता और चुनौतीपूर्ण नाम रखते हुए दूसरों की तरह मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है ; लेकिन यह प्रश्न उठ सकता है कि  ईश्वर जो लगभग सारी मानवजाति को ही समान रूप से अपने-अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त है उसे यदि मैं न मानने का दावा नहीं कर रहा हूँ तो फिर उसे बदलने की जरुरत ही क्यों आ पड़ी ! इस सत्य को देखते हुए कि भारत जैसे सांस्कृतिक देश में ईश्वर की अवधारणा और विश्वास तो बहुत बड़ी जनसँख्या की आजीविका का भी आधार है | यदि मेरी तरह दूसरे भी अपने-अपने ईश्वर की अवधारणा को  बदलने लगे तो एक बहुत बड़ी जनसँख्या को विस्थापित होना पड़ सकता है | अस्तित्व से लेकर अर्थ-व्यापार तक आस्था एक गंभीर प्रश्न है और थोडा भी परिवर्तन बड़े मानवीय और पर्यावरणीय प्रभावों को जन्म दे सकता है | 
              मैं जानता हूँ कि सबसे पहले लोगों को इस बात से ही आपत्ति होने लगेगी कि ईश्वर के होने और न होने पर तो बहस हो सकती है ; यदि ईश्वर सच ही उसी रूप में हुआ , जिस रूप में माना जाता है तो मनुष्य उसे बदलने की सोच भी कैसे सकता है ? यदि ऐसे किसी ईश्वर से हमें आपत्ति भी होगी तो हम सिर्फ उनसे स्वयं को बदलने का अनुरोध ही कर पाएंगे | यदि वास्तव में कोई ईश्वर नहीं हुआ तभी हमें ईश्वर के नाम पर मनुष्य जाति जो कुछ भी जी रहा है उसे बदलने और न मानने का अधिकार होगा | आस्तिकों के लिए इस तरह भी सोच सकते हैं कि एक स्थिति यह भी हो सकती है कि यदि थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि ईश्वर तो हैं लेकिन हम ही भटक गए हैं तो अपने विचारों को सुधारने की जरूरत होगी | क्योंकि मानव-जाति ईश्वर का होना मानने वालों और होना न मानने वालों के बीच बंटी है | इसे देखते हुए ही मैंने भी ईश्वर के होने और न होने दोनों ही सत्य को अपने विचारणीय लक्ष्य से बाहर कर दिया है |दूसरे शब्दों में मेरा लक्ष्य उन सार्थक मानवीय सत्यों को ही काव्यंकित करने का रहा है ,जिनका होना वर्त्तमान और भावी मानव-जाति के अस्तित्व के लिए मुझे सार्थक और प्रासंगिक लगा |दूसरे शब्दों में मैंने नकारात्मक भूमिका वाले आध्यात्मिक चिंतन को हानिकारक और भटकाव मानकर उनसे दूर रहने का प्रयास किया है |
                  उदहारण के लिए ईश्वरवादी चिंतन में सबसे अधिक हानिकारक बात मुझे सब कुछ ईश्वर के नाम पर छोड़ देने वालों की उस नकारात्मक मानसिक स्थिति से लगी जिससे पूर्ण समर्थन की मानसिकता को जीने वाले लोग सब कुछ ईश्वर पर छोड़कर अपने लिए निर्धारित कर्तव्यों से भी विमुख हो जाते हैं |इससे उनका आत्मरक्षक प्रतिरोध ख़त्म हो जाता है और वे उस मनोवैज्ञानिक सुरक्षातंत्र को जीने की स्थिति में नहीं रहते जिससे ईश्वर की अवधारणा ही कलंकित होती है | यह आध्यात्म का इतना खतरनाक प्रभाव है कि इसी सत्य को साधने-जीने के प्रयास में धर्मजीवी भारतीयों को हजार वर्ष की गुलामी दूसरे समुदायों की अधीनता के रूप में लिख गयी ;संभवत: यह सजा भारतीयों को कई हजार वर्षों तक अपनी जनसँख्या को सम्पूर्ण समर्पण का मादक दर्शन पिलाने के कारण ही मिली थी | इससे कम से कम संघर्ष की मानसिकता और चेतना वाला समाज निर्मित हुआ | इससे यह देश आनुवांशिक शासकों का स्वर्ग बन गया | राजा के पुत्र राजा होते रहे और मंत्री के पुत्र मंत्री ,सैनिक के पुत्र सैनिक होते रहे और किसान के पुत्र किसान | इससे कम से कम विरोध वाले पूरक समाज की रचना हुई | पीढ़ियों को व्यवस्था-निर्माण पर कम से कम सोचना पड़ा और कई-कई पीढ़ियाँ मजे-मजे उत्सव मानती हुई जीती रहीं | सबसे पहले तो ईश्वर की अवधारणा और उसपर मनुष्य की मानसिक निर्भरता को कम करने के लिए इस रिश्ते को बदलने की जरुरत इस लिए भी है कि जैसे ही हम अपने विवेक को दूसरों के हाथ में पूरी तरह सौंप देते है ,सैद्धांतिक गुलामी की शुरुआत तो उसी क्षण हो जाती  है |
                   यह समाज-मनोवैज्ञानिक प्रश्न उठाया जा सकता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उसका ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण-भाव का लाभ अंतत: उसके समाज और समुदाय को ही मिलता है | इस सत्य के औचित्य को सिर्फ तभी स्वीकार किया जा सकता है जब नेतृत्व सजग और योग्य हो | अयोग्य नेतृत्व के समय यही निष्ठा ही नकारात्मक हो जाती है |या आत्मघाती हो सकती है और ऐसा करने वाले किसी भी जाति और धर्म के अनुयायियों की स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है | इसलिए जो ऐसा सोचते हैं कि पुरखों नें जो-जो और जैसा कुछ कह रखा है उसे पूरी ईमानदारी से अक्षरशः न मानना ईश्वर की अवहेलना है तो ऐसा मानने वालों को मैं मूर्ख ही मानता हूँ | सच कहा जाए तो ईश्वर की अवधारणा का यही नकारात्मक दुरुपयोग ही बदलाव की आवश्यकता का प्रमुख आधार है | दूसरी बात यह है कि भारतीयों की एक बड़ी जनसंख्या को निष्क्रिय और निरर्थक बनाने में इस विचारधारा की महत्वपूर्ण भूमिका है | हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम जैसे ही अपने हिस्से का कोई कार्य ईश्वर के नाम पर छोड़ देते हैं प्रकारांतर से उस कार्य को करने का दायित्व अपने ही समाज के दूसरे लोगों को सौंप देते हैं | जिस समाज में ऐसा करने वाले बहुत से लोग हो जाएँगे वहां कुछ नया करने और बनाने की संभावना ही समाप्त हो जाएगी | उनकी निष्क्रियता से नेतृत्व पर भी काम का बोझ बढ़ेगा और एक दिन ऐसे अनुयायी असफल जनसँख्या में बदल जाएँगे |
           इन्हीं आधुनिक दृष्टिकोणों को ध्यान में रखते हुए ईश्वर की अवधारणा के सभी पक्षों को सतर्कतापूर्वक छानबीन करने की जरुरत है | क्योंकि हमारे विश्वासों -अविश्वासों से ईश्वर जैसी जनसंख्यात्मक अवधारणा का कुछ नहीं बनता और बिगड़ता लेकिन हमारा भूत,भविष्य और वर्तमान सभी कुछ खतरे में पड जाता है |

ईश्वर पर सोचते हुए और ईश्वर की शिकायत करते समय हम इस तथ्य की अनदेखी करते हैं कि एक प्रभावी प्रत्यय के रूप में साहित्य का ईश्वर और इतिहास का ईश्वर ,आदर्श का ईश्वर और व्यवहार का ईश्वर ,भविष्य का ईश्वर और अतीत का ईश्वर एक ही लोक और काल से जुड़े होने के बावजूद एक नहीं है | परंपरागत ईश्वरवादी ईश्वर को सृष्टि की उदभावक एवं परिचालक शक्ति के रूप में अतीत एवं वर्तमान से देखते हैं ,जबकि जरूरत उसके अधिक से अधिक भविष्य में निवेश की है | वह उदात्त जीवनबोध और ब्रह्माण्डव्यापी अस्मिताबोध के लक्ष्य के रूप में अब भी हमारे जीवन के लिए उपयोगी और प्रासंगिक हो सकता है | वस्तुतः लेखकीय कल्पना एवं आकांक्षाओं के रूप में ही सही ,साहित्य और भविष्य हमारी सृजनशीलता के वर्त्तमान भावी आयामों एवं योजनाओं से संबन्धित होते हैं ,जबकि नियतिवाद के प्रमुख आधार - घटित इतिहास का सम्बन्ध, आदर्शों से अधिक अस्तित्व से जुड़े स्वार्थों और संगठित महत्वाकांक्षाओं से भी होता है | इतिहास में मानव-जाति अनेक बार आदर्शों और नैतिकताओं से परे सामूहिक या संगठनात्मक रूप से अनेक अप्रिय एवं आपराधिक घटनाओं को कारित-सृजित करती दिखती है |
सब कुछ ईश्वर की इच्छा से संचालित और उसके अधीन मानने वाले आध्यात्मवादी और सब कुछ भौतिक परिस्थितियों के समीकरण का परिणाम मानने वाले मार्क्सवादी दोनों ही समान रूप से मानव-जाति के विवेक और निर्णय की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करते | जबकि हम जानते हैं कि मानव-जाति की घटिया आदतें प्रायः उसके अस्तित्व की सुविधाओं और स्वार्थों-हितों से संचालित रही हैं | मेरी दृष्टि में इतिहास मानव-चरित को ही अधिक ईमानदारी से व्यक्त करता है आदर्श जीने के उसके संकल्पों और आदर्शों को कम ,जो कि साहित्य का क्षेत्र है | साहित्य का ईश्वर ही शिव या कल्याणकारी है ,क्योंकि वह हमारी उदात्त मनोभूमि के साथ हमर आचरण और व्यवहार में उतरता है | हमारे जीवन और समय का हिस्सा बनता है | एक सामूहिक सांस्कृतिक पाठ के रूप में एक बड़ी जनसँख्या या जन-समुदाय को जीवन-व्यवहार का एकल प्रारूप सौंपता है | कुछ-कुछ संगीत की तरह जो एक साथ सभी के मस्तिष्क में एक समान लय का संचरण करता है | इससे एक समानताधर्मी समाज निर्मित होता है|
इसके विपरीत इतिहास के कटु -आपराधिक अनुभवों पर आधारित एक नियतिवादी ईश्वर वस्तुतः इस तथ्य को स्वीकार करना ही है कि जो कुछ भी घटा है उस सारे से ईश्वर की सहमति रही है | वह सब ईश्वर की संलिप्तता और समर्थन से ही घटित हुआ है या कि इस सब में मानव जाति प्रत्यक्ष रूप में सिर्फ कार्य करती हुई दिखाई मात्र पड़ती है ; जबकि वास्तविक कर्ता अदृश्य शक्ति ईश्वर ही हैं !(मानों )
नियतिवादी सारे उत्थान और पतन का श्रेय ईश्वर को देते हुए मानव-समूहों और संगठनों की प्रभावी भूमिका पर संगठनों की सामूहिक सक्रियता किस प्रकार शताब्दियों के लिए मानव-भविष्य की वांछित दिशा को भटका देती है ,इस सत्य पर चुप्पी लगा जाते हैं | जबकि हम जानते हैं कि हमारे आदर्शबोध और नैतिक नियम अज्ञात भविष्य का सामना करते समय भी हमारी प्रजाति के लिए किसी टीम के नियमों की तरह हीकितने महत्वपूर्ण हैं | स्वस्थ सांस्कृतिक आदर्श हमारे अस्तित्व में सहायक हमारे वर्त्तमान और भावी व्यवहार के लिए संविधान की तरह हैं | क्योंकि साहित्य हमारी शुभ एवं सद इच्छाओं एवं कामनाओं की अभिव्यक्ति है | इसलिए मैं मानता हूँ कि हमारे साहित्य एवं आदर्शों के अवधारणात्मक उदात्त (ईश्वर!) की सार्थक भूमिका अब भी बची हुई है जबकि मानव-मन की दुर्बलताओं की नग्न अभिव्यक्ति करने वाला स्वार्थों एवं हितों पर आधारित इतिहास का नियतिवादी ईश्वर अवश्य ही आपराधिक होने से त्याज्य,कालातीत और संदिग्ध हो चूका है |