बुधवार, 30 अप्रैल 2025

एक योगी-संन्यासी का आत्मसत्य!

 एक योगी-संन्यासी का आत्मसत्य!

मेरे हठधर्मी विवेक की जड़ता को समझो
मैं एक सुचिंतित - सुनियोजित पाठ की तरह हूं
भांति-भांति के परस्पर विरोधी और प्रतिस्पर्धी
उलझनों के बीच
जोखिमपूर्ण अवसरों और चुनौतीपूर्ण बाधाओं के बीच
बहुत मुश्किल से बनाया गया एक कंटकाकीर्ण पथ जैसा हूं!
समय के बहाव और तेज धार की कटान से भयभीत
अपने होने के लिए जूझता हुआ एक हठीला घर जैसा हूं

मैं एक आत्मार्पित मूर्ख हूं
सांसारिक दृष्टि में
जिसने बसाए जाने के बावजूद
सुखपूर्वक बसने के तमाम अवसरों से इन्कार किया
अपना बार -बार उजड़ना स्वीकार किया
स्वैच्छिक निर्वासन जिया
छोड़ अपना घर स्वयं को बार-बार बेघर किया
कुछ इस तरह कि मेरी उपलब्धियां
पाते जाने में नहीं अपितु छोड़ते और गंवाते जाने के रूप में ही
गणनीय हैं !

कुल मिलाकर यह कहूं कि मैं एक अभिशापित धूर्त हूं
जिसने दूसरों को सुखी रखनें की नाकाम कोशिश में
स्वयं को ही बार -बार छला है
मैं जब बचकर भाग सकता था
जानबूझकर ठहरना चुना और अभागा हुआ
अपनी ही संवेदनशीलता कीअंतर्दाही आग में जलते हुए
खुश रहने के लिए जीते-जी अपना जिंदा मरना चुना!
     
००

@रामप्रकाश कुशवाहा
08/02/2025