बुधवार, 16 नवंबर 2016

अर्थशास्त्र










कुछ कहते हैं कि यह देश चल रहा ईश्वर के भरोसे
मैं कहता हूँ कि नहीं अब भी इसे चला रही करोड़ों परिवार संस्थाएं
उसी के ही जिम्मे है घर में जन्में मानसिक विकलांगों
एवं पागलों का भी भरण-पोषण
वही पालती है देश में जन्में बेरोजगारों को
घर ,खेत संपत्ति बेचकर भी करती रहती है बीमारों का इलाज
कि अब भी बूढ़ों के लिए परिवार ही अंतिम शरणालय है
न कि हमारी 'रकारें ...
अब भी बहुत से गाँव अँधेरे में डूबे हुए हैं
अब भी बहुत सी बस्तियों में सड़कें पहुंचना नहीं चाहती
अब भी बहुत से लोग अपनी जेब पर हाथ रखे शांति से मर जाना पसंद करते हैं
मंहगे अस्पतालों में इलाज के लिए जाने के स्थान पर
अब भी अभिभावक मरीज इलाज में मरते हुए घर को बचाने के लिए
बिना किसी को बताए निकाल भागते हैं घर के एकांत की ओर
अब भी 'रकारों को मालूम नहीं है कि
परिवार संस्था के बजट में शामिल रहता है
घर के उन सारे निकम्मों और निठल्लों का भोजन
जिनका पंजीकरण 'रकार के किसी भी रजिस्टर में नहीं रहता
'रकारों को अब भी नहीं मालूम कि
दिखाती हुई आय के बावजूद भी गरीब हो सकता है किसी घर का मुखिया
कि अमीरी सिर्फ रुपयों के आने से ही नहीं बल्कि
रुपयों के जाने से भी तय होनी चाहिए
तय होनी चाहिए अभिभावक आयकरदाता के दायित्वों
और उस परिवार के सदस्यों की संख्या के आधार पर भी
सड़क ,बिजली ,पानी ,दवाएं और शिक्षा न दे पाने वाली 'रकारे
मानती और जानती ही नहीं कि भारत में
परिवारों की ही होती है आय व्यक्ति की नहीं
और आय और व्यय के निर्धारण में
इन सांस्कृतिक -सामाजिक जमीनी सच्चाइयों को भी शामिल करना चाहिए
न कि लागू करना चाहिए पश्चिम का व्यक्तिवादी अर्थशास्त्र !
अब तक की अपनी सारी जानकारी ,समझदारी
प्राप्त शिक्षाओं और अर्जित उपाधियों के आधार पर
पूरी ईमानदारी और देशभक्ति के साथ
जनहित में मैं यह सत्यापित करता हूँ कि
अभी भी हमारा लोकतान्त्रिक शासन-तंत्र
जगह-जगह अनुपस्थित है और अनभि्ज्ञ है अपनें ही तमाम दायित्वों से
अभी हमारी 'रकारों को तो ठीक से 'रकार भी होना नहीं आया ....
न ही वहां उपस्थित होना आया जहाँ उन्हें उपस्थित होना ही चाहिए
( न ही नेताओं को ठीक से नेता होना भी !)
('रकारों से क्षमा याचना सहित )