ऐसा लगता है कि भारतीय नेतृत्व वोट बैंक की राजनीति के कारण सिर्फ जनसंख्या -विस्फोट की प्रतीक्षा करता रहता है। मानव -संसाधन की दृष्टि से जनसंख्या का बेतहाशा उत्पादन है तो एक बड़ी जनसंख्या का असफल और अयोग्य होना स्वाभाविक ही है। बाजारवादी व्यवस्था में बिकने की दृष्टि से अयोग्य यानि कि मूल्यहीन जनसँख्या के पुनर्वास के लिए भी बड़ी परियोजनाएं चाहिए। इसके लिए किसी बड़े विरोध यानि क्रांति की प्रतीक्षा करना भी एक मूर्खता ही है। इसलिए कि क्रान्ति के बाद भी व्यवस्था की सृजनशीलता और की जरुरत पड़ेगी । व्यक्ति की निर्बाध सृजनशीलता को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से तो पूंजीवादी व्यवस्था ही सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए कि वह व्यक्ति को असीमित पूंजी के सृजन का अवसर और अधिकार देती है। इस दृष्टि से वह व्यक्ति की प्रतिभा को सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार देने वाली व्यवस्था है। ऐसे में अयोग्य एवं असफल जनसँख्या के जीवनाधिकार के लिए आंशिक साम्यवाद की परिकल्पना करनी होगी। ऐसी जनसंख्या के लिए समानांतर रूप से सुरक्षित क्षेत्र एवं तंत्र की रचना करनी होगी।
मेरा सुझाव है कि गांवों में हर ग्राम-पंचायत में कुछ ऐसी भूमि होनी चाहिए जो सरकारी हो और जिसपर सामूहिक खेती किया जा सके। ग्राम-पंचायत के अधीन कुछ ऐसे उत्पादन और दुकाने होनी चाहिए जिस पर गांव के अयोग्य लोगों को रोजगार मिल सक. . . कुछ आश्रय -केंद्र और भण्डारे ऐसे होने चाहिए जहाँ ऐसी नालायक जनसंख्या निःशुल्क भोजन पा सके। इस तरह हमें मिलीजुली व्यवस्था के बारे में सोचना चाहिए।
गांवों में बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास खेत हैं और वे खेती नहीं करते या फिर वे खेती की स्थिति में ही नहीं हैं। उनके पास इसलिए खेत हैं क्योंकि उनके पुरखों के पास थे। बहुत से लोग खेत बेचते भी रहते हैं। जैसे दूसरे लोग खेत खरीदते रहते हैं ,वैसे ही सरकारें भी तो खरीद सकती हैं। यह दूसरा दौर इसलिए जरूरी है कि पिछली सरकारों नें भूमिहीनों को ग्राम सभा के चरागाह तक आबंटित कर दिए हैं। ऐसे में गांवों में सामूहिक भूमि बची ही नहीं है। ऐसे में सरकारें कानून बनाकर भूमि अपहरण करने के स्थान पर भूमि- क्रय भी तो कर सकती हैं। ऐसा करना मानवीय सहायता और न्यूनतम सुरक्षा के लिए आवश्यक है। अन्यथा यह भी सच है कि अधिक संरक्षण लोगों को नकारा भी बनाता है। सरकारी योजनाएं जिस तरह समय - असमय कार्यान्वित होती हैं ,वह कई बार समाज के आर्थिक पर्यावरण को बिगाड़ भी देता है। मनरेगा की योजनाएं कई बार उस बहुमूल्य समय में कार्यान्वित की गयी हैं जब किसानो को मजदूरों की विशेष जरुरत थी। ऐसी विषमता एवं विसंगति से बचा जाना चाहिए। क्योंकि गलत समय की गयी शासकीय सहायता शासन को ही खलनायक की भूमिका में ल देती हैं। ऐसी सहायताएं पूरक समय सारणी में संपन्न होनी चाहिए।
मेरा सुझाव है कि गांवों में हर ग्राम-पंचायत में कुछ ऐसी भूमि होनी चाहिए जो सरकारी हो और जिसपर सामूहिक खेती किया जा सके। ग्राम-पंचायत के अधीन कुछ ऐसे उत्पादन और दुकाने होनी चाहिए जिस पर गांव के अयोग्य लोगों को रोजगार मिल सक. . . कुछ आश्रय -केंद्र और भण्डारे ऐसे होने चाहिए जहाँ ऐसी नालायक जनसंख्या निःशुल्क भोजन पा सके। इस तरह हमें मिलीजुली व्यवस्था के बारे में सोचना चाहिए।
गांवों में बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास खेत हैं और वे खेती नहीं करते या फिर वे खेती की स्थिति में ही नहीं हैं। उनके पास इसलिए खेत हैं क्योंकि उनके पुरखों के पास थे। बहुत से लोग खेत बेचते भी रहते हैं। जैसे दूसरे लोग खेत खरीदते रहते हैं ,वैसे ही सरकारें भी तो खरीद सकती हैं। यह दूसरा दौर इसलिए जरूरी है कि पिछली सरकारों नें भूमिहीनों को ग्राम सभा के चरागाह तक आबंटित कर दिए हैं। ऐसे में गांवों में सामूहिक भूमि बची ही नहीं है। ऐसे में सरकारें कानून बनाकर भूमि अपहरण करने के स्थान पर भूमि- क्रय भी तो कर सकती हैं। ऐसा करना मानवीय सहायता और न्यूनतम सुरक्षा के लिए आवश्यक है। अन्यथा यह भी सच है कि अधिक संरक्षण लोगों को नकारा भी बनाता है। सरकारी योजनाएं जिस तरह समय - असमय कार्यान्वित होती हैं ,वह कई बार समाज के आर्थिक पर्यावरण को बिगाड़ भी देता है। मनरेगा की योजनाएं कई बार उस बहुमूल्य समय में कार्यान्वित की गयी हैं जब किसानो को मजदूरों की विशेष जरुरत थी। ऐसी विषमता एवं विसंगति से बचा जाना चाहिए। क्योंकि गलत समय की गयी शासकीय सहायता शासन को ही खलनायक की भूमिका में ल देती हैं। ऐसी सहायताएं पूरक समय सारणी में संपन्न होनी चाहिए।