जीवन के साथ मृत्यु और अन्धकार का अचेतन भय हमें अपने पूर्वजों से ही मिला है .हम अपनी सुरक्षा की चिंता के साथ डरते और सावधान रहते हैं .यह भय हमें आगामी खतरों के प्रति भी सावधान करता है .हमारे पूर्वज जंगलों में अधिक असुरक्षित परिस्थितियों में रहे थे .प्रकृति उनके लिए सिर्फ मित्रवत ही नहीं थी .वह शत्रुवत भी थी .हमारा डरना उन्हीं पूर्वजों से विरासत में मिला है .हमारे दुह्स्वप्न भी उसी श्रंखला की जीवन-प्रक्रियाएं हैं .प्रायः सभी संस्कृतियों में नकारात्मकता को अलौकिक शक्तियों से जोड़ा गया है .पश्चिम में शैतान और भारत में असुर शक्तियों की परिकक्पना ऐसी ही हैं .बाद में अधिक व्यवस्थित समाज होनें पर भारत में असुरक्षा चिंता कम हो गयी .असुर भारतीयों की दार्शनिक चिंता और चिंतन से बाहर हो गए .सांख्य दर्शन के प्रभाव स्वरूप गीता में अधोपतन की जिम्मेदारी स्वयं व्यक्ति पर ही डाल दी गयी -आत्मा आप ही अपना मित्र है और शत्रु है -के रूप में .विश्व को त्रिगुणात्मक माना गया -इस तरह तामसी गुण के आधार पर आसुरी शक्तियां आसुरी प्रवृत्तियां हो गयीं .स्पष्ट है कि इस समय तक मानवेतर प्रकृति से चुनौतियां कम हो गयीं थीं .बड़ी बस्तियां और नगरों का विकास होने से तथा अस्त्र-शास्त्रों का विकास हो जाने से जंगल मनुष्य के लिए अधिक भयप्रद नहीं रह गए थे .उसे अस्तित्वगत चुनौतियां मानवीय जगत के भीतर से ही मिलनी शुरू हो गयी थीं .सुरक्षित रहने के लिए अधिक शक्तिशाली होना जरुरी हो गया था .व्यायाम से शक्तिवृद्धि करना इस दौर की प्रमुख आवश्यकताएं थीं ,पहले तीरों के विकास नें और फिर बंदूकों के विकास नें बलशाली होने को अनावश्यक बना दिया .अब कम शक्तिशाली व्यक्ति भी किसी की हत्या कर सकता था .
भारत के सांस्कृतिक इतिहास में इस्लाम-पूर्व का लम्बा समय व्यवस्थित सामाजिक व्यवस्था का रहा है .चुनौतियां इतनी कम रही हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी राजघराने आनुवंशिक रूप से बने रहे .एक आनुवंशिक स्थिर समाज सामनें आया .समाज तात्कालिक विधि-निषेधों से नहीं बल्कि परम्पराओं से संचालित होने लगा .भारत में जाति-प्रथा के सर्वस्वीकृत होने का भी यही समय है .इसी समय कोई सांसारिक चुनौती न होने के कारण एक और राजतंत्र तो दूसरी ओर एकल ईश्वर का प्रभुत्व सर्वमान्य हो गया .भारत की उर्वर प्रकृति नें यहाँ के जीवन को इतना आश्वस्त किया कि शैतान या असुर -चिंतन भारतीय संस्कृति और धर्म-चिंतन से बहार ही निकल गया . इस्लामी आक्रमणकारियों के आने पर यहाँ के राजाओं के स्थान पर बादशाह प्रतिष्ठित हो गए और भारतीय चिंतन में इस्लाम के शैतान इबलीस की भी प्रविष्टि भारतीय धर्म और दर्शन में देखने को नहीं मिलती .व्यवस्था न बदलने और प्रजा का संरचनात्मक जीवनस्तर और स्वरूप वही रहने से उसका ईश्वर भी नहीं भी नहीं बदला .
यद्यपि असुरक्षाएं अब भी बनी हुई हैं .यदि मनुष्य जीनेटिक और आनुवंशिक रूप से ही अपराधी है तो भी समाज के भीतर से भी आतंरिक चुनौतियां और असुरक्षाएं बनी रहेगीं.यहं तक कि साम्यवादी व्यवस्था में भी प्रेम-हिंसा और यौन हिंसा बनी रह सकती है .व्यक्तिगत रूचि-अरुचि पसंद-नापसंद का प्रश्न बना ही रहेगा -लोग अपमानित होने पर प्रतिहिंसक भी हो सकते हैं -यह संभावना बनी रहेगी ..जर जोरू और जमीन के मुहावरे के अनुसार तो धन की विषमता के बाद यौन-सम्बन्ध मानव-मानव के बीच विवाद का दूसरा प्रमुख कारण है .तीसरा कारण भूमि है .राहुल सांकृत्यायन नें अपने यूटोपिया परक उपन्यास 'बाईसवीं सदी ' में निजी संपत्ति के समाप्त होते ही विश्व को अपराध-मुक्त मान लिया है .यह सच है कि दांपत्य के निजी करण या विवाह-संस्था के उदय का कारण निजी संपत्ति और पूंजीवादी व्यवस्था में उत्तराधिकार का प्रश्न ही है .इस तरह यौन-हिंसा की समाप्ति भी मनुष्य जाति को बिना वस्त्र और धन से हीन किए बिना संभव नहीं है .ऐसा करना पुनः जंगली जीवन की और लौटना ही होगा .
भारत के सांस्कृतिक इतिहास में इस्लाम-पूर्व का लम्बा समय व्यवस्थित सामाजिक व्यवस्था का रहा है .चुनौतियां इतनी कम रही हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी राजघराने आनुवंशिक रूप से बने रहे .एक आनुवंशिक स्थिर समाज सामनें आया .समाज तात्कालिक विधि-निषेधों से नहीं बल्कि परम्पराओं से संचालित होने लगा .भारत में जाति-प्रथा के सर्वस्वीकृत होने का भी यही समय है .इसी समय कोई सांसारिक चुनौती न होने के कारण एक और राजतंत्र तो दूसरी ओर एकल ईश्वर का प्रभुत्व सर्वमान्य हो गया .भारत की उर्वर प्रकृति नें यहाँ के जीवन को इतना आश्वस्त किया कि शैतान या असुर -चिंतन भारतीय संस्कृति और धर्म-चिंतन से बहार ही निकल गया . इस्लामी आक्रमणकारियों के आने पर यहाँ के राजाओं के स्थान पर बादशाह प्रतिष्ठित हो गए और भारतीय चिंतन में इस्लाम के शैतान इबलीस की भी प्रविष्टि भारतीय धर्म और दर्शन में देखने को नहीं मिलती .व्यवस्था न बदलने और प्रजा का संरचनात्मक जीवनस्तर और स्वरूप वही रहने से उसका ईश्वर भी नहीं भी नहीं बदला .
यद्यपि असुरक्षाएं अब भी बनी हुई हैं .यदि मनुष्य जीनेटिक और आनुवंशिक रूप से ही अपराधी है तो भी समाज के भीतर से भी आतंरिक चुनौतियां और असुरक्षाएं बनी रहेगीं.यहं तक कि साम्यवादी व्यवस्था में भी प्रेम-हिंसा और यौन हिंसा बनी रह सकती है .व्यक्तिगत रूचि-अरुचि पसंद-नापसंद का प्रश्न बना ही रहेगा -लोग अपमानित होने पर प्रतिहिंसक भी हो सकते हैं -यह संभावना बनी रहेगी ..जर जोरू और जमीन के मुहावरे के अनुसार तो धन की विषमता के बाद यौन-सम्बन्ध मानव-मानव के बीच विवाद का दूसरा प्रमुख कारण है .तीसरा कारण भूमि है .राहुल सांकृत्यायन नें अपने यूटोपिया परक उपन्यास 'बाईसवीं सदी ' में निजी संपत्ति के समाप्त होते ही विश्व को अपराध-मुक्त मान लिया है .यह सच है कि दांपत्य के निजी करण या विवाह-संस्था के उदय का कारण निजी संपत्ति और पूंजीवादी व्यवस्था में उत्तराधिकार का प्रश्न ही है .इस तरह यौन-हिंसा की समाप्ति भी मनुष्य जाति को बिना वस्त्र और धन से हीन किए बिना संभव नहीं है .ऐसा करना पुनः जंगली जीवन की और लौटना ही होगा .