रविवार, 8 दिसंबर 2013

जीना,जानना और जाना

तेजी से बदलते समय नें बहुत से पर्यावरण लुप्त कर दिए हैं .तेजी से बदता हुआ शहरीकरण सिर्फ किसान पेशे पर ही चोट नहीं कर रहा है बल्कि  किसान संवेदना और मूल्यों को भी तेजी से उजाड़ रहा है .प्रकृति से मानव-जीवन के रिश्ते आज लगभग काल्पनिक होने के कगार पर पहुँच गए हैं .उत्पादन के स्थायी संसाधनों नें कभी मानवीय रिश्तों को जो स्थायित्व दिया था ,वह प्रतिपल परिवर्तित आर्थिक समय में असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है ,सच तो यह है कि लोग धीरे-धीरे जीना भूला रहे हैं ..लोगों के पास एक-दुसरे को जीने के लिए समय नहीं है .
               आज हर किसी को कहीं न कहीं जाना है ,यह जाना इतना भयंकर है कि हममें से अधिकांश व्यक्ति अपने भविष्य-निर्माण एव,भावी की  यात्रा में है . हममे  से अधिकांश व्यक्ति विस्थापन के लिए अभिशप्त है .वह निरंतर उजाड़ रहा है .निरंतर उजड़ते हुए विस्थापन की  गतिकी उसके सरे रिश्तों को औपचारिक बना रही है .आज हर व्यक्ति तेजी से भाग रहा है और हर व्यक्ति को कहीं न कहीं जाना है .इस तरह उसका जाना ही उसका जीना बन गया हैं .वह एक गतिशील अनुभव में है और स्थायी रिश्तों के निर्वाह के लिए उसके पास मानसिक समय नहीं है .स्थायी रिश्ते उसकी गति में अवरोध उत्पन्न करते हैं .असुविधाएं उत्पन्न करते हैं .उसका यह जाना प्रकृति से कृत्रिमता की और जाना है .वह स्वाभाविक से अस्वाभाविक हो रहा है .नैसर्गिक से कृत्रिम हो रहा है .वह एक छाया सृष्टि में जी रहा है .वह एक आभासी बनावटी दुनिया का नागरिक है .वह एक मानसिक व्यवस्था की उपज शहर में रहता है .
          शहरी जीवन की कृत्रिमता और यांत्रिकता उसे अर्थतंत्र के एक अमानवीय लोक में ले जाती है .यह दुनिया बौद्धिक क्रूरताओं और वर्जनाओं कि दुनिया है .यह दुनिया उसे असहज और विक्षिप्त कराती है ..जिस दुनिया को वह सिर्फ जानता है और जिसे सिर्फ जानना है .क्योंकि जानना ही उसका लक्ष्य है और वह सिर्फ जानंने की और ही जाता है -सिर्फ जानना ही उसका जाना और उसका जीना बन गया है .