गुरुवार, 24 जनवरी 2013

स्वयं के पक्ष में ...

जब सब निष्ठाएं संदिग्ध हो गई हैं 
मैं किसी को भी अपना विश्वास कैसे सौंप सकता हूँ !

मुझे मेरे पास रहने दो 
मैं अभी किसी पर भी 
विश्वास नहीं कर पाता-
न ही ईश्वर 
न समय 
न समाज 

मैं स्वयं को 
अपने मूल स्वभाव में 
बचा लेना चाहता हूँ

आप यदि कहना चाहेंतो कह सकते हैं कि
यही मेरी आध्यात्मिकता है 

मैं डरता हूँ कि
हर विश्वास 
मुझे बेवकूफ बना सकता है 
और हर अविश्वास असामाजिक ...

दुनिया-घर


मैं पूरी दुनिया को अपने घर में बदल देना चाहता हूँ
आत्मीयता के एक सुखद पर्यावरण के रूप में
दुनिया में अपनी साझी उपस्थिति के साझे संविधान के साथ
प्रक्रिया और परिणति की असहमति के बावजूद
अतीत के संवेदना-पुरुषों की तरह
एक वृहत्तर स्व की खोज में

अपनी अस्मिता  की खोज की यात्रा के साथ
अपने आखिरी गंतव्य के पल में
समां जाना चाहता हूँ मैं
अफ्रीका के उस आदि-मानव के कुल में
चूमते हुए दुनिया की सारी बन्दर-प्रजाति को
आगे और आगे सभी स्तन-पाइयों और
बहु-कोशकीय दुनिया को पर करता हुआ
समां जन चाहता हूँ उस आदिम अकेली बीज कोशिका में
जिसके हम सब ही वंश-विस्तार हैं

मैं जानता हूँ कि परमाणुओं के गुण-धर्म ,पसन्द-नापसन्द
रूचि-अरुचि और स्वभाव से ही हुई है
अचेतन भौतिक पदार्थों से सचेतन जीवन-जगत की रचना और यह कि
सक्रिय व्यवहार ही
इस सृष्टि का रचनात्मक मूल है

मैं मानव-जाति के सबसे प्यारे बच्चों के
उन सुन्दर सपनों को फिर से साकार देखना चाहता हूँ
जैसा कि भारत में दो माओं के पुत्र पौराणिक कृष्ण नें
वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में तो
अरब में अनाथ बच्चे मुहम्मद नें
सारी  दुनिया को एक ही कबीले के रूप में बदल देने के लिए देखा था
जैसा देखा था ईसा मसीह नें
सारी दुनिया के पवित्रतम शिशु के रूप में
मैं सारी  मानव-जाति को अपने ही अस्तित्व के विस्तार के रूप में
अपने ही अभिन्न परिवार के रूप में पुनः पाना और जीना चाहता हूँ

मुझे संकीर्णताएँ अश्लील लगती है
और खण्डित अस्मिताएँ पागलपन
मेरी दृष्टि में दुनिया के सारे क्षुद्रताजीवी मुर्ख हैं
मैं जानता हूँ
पाना और जीना भी चाहता हूँ-दुनिया मेरा घर !

दुनिया-घर


मैं पूरी दुनिया को अपने घर में बदल देना चाहता हूँ
आत्मीयता के एक सुखद पर्यावरण के रूप में
दुनिया में अपनी साझी उपस्थिति के साझे संविधान के साथ
प्रक्रिया और परिणति की असहमति के बावजूद
अतीत के संवेदना-पुरुषों की तरह
एक वृहत्तर स्व की खोज में

अपनी अस्मिता  की खोज की यात्रा के साथ
अपने आखिरी गंतव्य के पल में
समां जाना चाहता हूँ मैं
अफ्रीका के उस आदि-मानव के कुल में
चूमते हुए दुनिया की सारी बन्दर-प्रजाति को
आगे और आगे सभी स्तन-पाइयों और
बहु-कोशकीय दुनिया को पर करता हुआ
समां जन चाहता हूँ उस आदिम अकेली बीज कोशिका में
जिसके हम सब ही वंश-विस्तार हैं

मैं जानता हूँ कि परमाणुओं के गुण-धर्म ,पसन्द-नापसन्द
रूचि-अरुचि और स्वभाव से ही हुई है
अचेतन भौतिक पदार्थों से सचेतन जीवन-जगत की रचना और यह कि
सक्रिय व्यवहार ही
इस सृष्टि का रचनात्मक मूल है

मैं मानव-जाति के सबसे प्यारे बच्चों के
उन सुन्दर सपनों को फिर से साकार देखना चाहता हूँ
जैसा कि भारत में दो माओं के पुत्र पौराणिक कृष्ण नें
वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में तो
अरब में अनाथ बच्चे मुहम्मद नें
सारी  दुनिया को एक ही कबीले के रूप में बदल देने के लिए देखा था
जैसा देखा था ईसा मसीह नें
सारी दुनिया के पवित्रतम शिशु के रूप में
मैं सारी  मानव-जाति को अपने ही अस्तित्व के विस्तार के रूप में
अपने ही अभिन्न परिवार के रूप में पुनः पाना और जीना चाहता हूँ

मुझे संकीर्णताएँ अश्लील लगती है
और खण्डित अस्मिताएँ पागलपन
मेरी दृष्टि में दुनिया के सारे क्षुद्रताजीवी मुर्ख हैं
मैं जानता हूँ
पाना और जीना भी चाहता हूँ-दुनिया मेरा घर !