शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

आदमीजात से ....

श्रेष्ठता एक अपराधपूर्ण स्वांग है
और हास्यास्पद भी
जो एक अच्छे-भले आदमी को जोकर बना देती है ...
कैसे कि -लाल मुंह वाला बन्दर
काले मुंह वाले बन्दर से श्रेष्ठ कैसे हुआ !
यद्यपि माना कि लाल मुंह वाला बन्दर
अपने गोरेपन के कारण
सवर्ण कहा जा सकता है
लेकिन वह काले बन्दर के अपने होने के वजूद को
कमतर कैसे कर सकता है ?
माना कि बंदरों में भी हम
बबर शेर की तर्ज पर बबर बन्दर हैं
और हम बर्बर भी कम नहीं ......
यह भी हम आदिकाल से ही
स्वांगपूर्ण रहे हैं
मरे हुए खालों में छिपकर
हमारे पुरखों नें अपनी जान बचायी है
लेकिन आज की तारीख में भी
जिन जातियों के नाम हिंसक पशुओं के नाम पर हैं
यानि कि वे बबर बन्दर जो सिंह होने का स्वांग करते रहे हैं
उन्हें अब शर्म आना ही चाहिए
क्योंकि जातीय स्वांग को सच मानते हुए वे
कुछ अन्य बबर बंदरों के
भेंड़ और बकरी होने की अफवाह फैलाते आ रहे हैं|
रामप्रकाश कुशवाहा
(30 जनवरी 2002 की लिखी एक कविता -डायरी के पृष्ठों से)

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

जातिदंश का इलाज

कल जातीय अभिमान की शिकार एक अपमानित छात्रा अपने अनुभव सुनाते समय भावुक होकर रो पड़ी | मैं उसकी अधिक वैचारिक सहायता नहीं कर सका | सांत्वना में जो थोडा-बहुत बोल सका वह कुछ इसप्रकार था कि भारत में जन्म लेने के कारण हम सभी जाति-प्रथा का सामना करने के लिए अभिशप्त हैं | यद्यपि जातिप्रथा की उत्पत्ति के भी ठोस ऐतिहासिक कारण थे |साइबेरिया के हिम-क्षेत्र से लेकर सहारा के रेगिस्तान तक के समुदायों का भारत में अलग-अलग समय में स्थानान्तरण और प्रवास हुआ है | इसलिए ये सभी मिलकर एक जाति में नहीं बदल पाए और अलग-अलग जाति के रूप में बचे रह गए |लेकिन ये मानव जाति के बचपन से जुडी मान्यताएं हैं |इसे लेकर हमें बिलकुल लज्जित नहीं होना चाहिए | इस सम्बन्ध में मैंने उन्हें अपना गोपनीय नुस्खा उन्हें बताया | जिसे सुनकर छात्राएं बहुत प्रसन्न हुईं | दरअसल जब मुझसे कोई जातिवादी पूर्वाग्रही मिलता है तो मैं उसे पिछले ज़माने का जोकर और मूर्ख मानकर उससे अपनी सापेक्ष श्रेष्ठता के लिए प्रसन्न होने लगता हूँ | उसे बेचारा और बौद्धिक दिवालिएपन का शिकार होने के कारण दयनीय भी मानता हूँ कि उस बेचारे के पास बड़प्पन का कोई निजी आधार नहीं होगा | जिसके कारण वह अतीत के काल्पनिक यूटोपिया में छिपा और घुसा हुआ एक मिथ्या श्रेष्ठता -जीवी व्यक्ति बनकर रह गया है | अपनी वर्त्तमान सच्चाइयों के विरुद्ध उसे मैं एक कुंठित व्यक्ति समझता हूँ | मैंने छात्राओं से कहा कि वे भी यदि उचित समझें तो ऐसे व्यक्तियों को, समय के विरुद्ध एक अश्लील झूठी मूर्ख और घटिया उपस्थिति के रूप में देखकर उससे अपनी तुलनात्मक श्रेष्ठता के लिए प्रसन्न हो सकती हैं -उसके समानांतर जब वह उन्हें अपने से छोटा समझकर खुश हो रहा हो उनके पास भी ऐसे व्यक्तियों को छोटा समझने और खुश होने के पर्याप्त वैज्ञानिक आधार हैं |

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

प्रेम और विवाह

प्रेम कोई कार्य नहीं कि उसे किया जाय ,वह तो एक मनो -रासायनिक घटना है | फिर जबरदस्ती प्रेम करने में पिटने और दूसरी ओर से नापसंद किए जाने का व्यावहारिक खतरा भी है | हम जिस दुनिया में रहते हैं उसमें सामाजिक रूप में प्रेम प्रायः सापेक्ष ही दिखता है निरपेक्ष नहीं | इसी आधार पर सम-विषम प्रेम की कल्पना की गयी है | इसी तरह विवाह भी सृजनशील और संघर्षमय जीवन का आरम्भ है |विवाह का सुख एक सहवर्ती या साथ-साथ की गयी यात्रा के सुख जैसा ही हो सकता है | जिसमें चलने , थकने और जोखिम उठाने तक के लिए तैयार रहना चाहिए | सिर्फ संबंधों का वर्त्तमान ही नहीं बल्कि उनकी स्मृतिजीविता भी वैवाहिक जीवन के स्थायित्व का आधार है |.उसमें वर्त्तमान के साथ -साथ संबंधों के इतिहास को भी जिया जाता है | सिर्फ ऐन्द्रिय या अतिरेकपूर्ण सुखवादी जल्दी ही अवसाद और मोहभंग के शिकार हो सकते हैं तथा तलाक के भी