शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

संस्कृतियों का वैश्विक संघर्ष और सभ्यता का पुन:पाठ

सृजन-संवाद
संपादक-ब्रजेश
इ -६४ ,साऊथ सिटी ,लखनऊ



          विकास और इतिहास की पृष्ठभूमि सम्बन्धी भिन्नता के कारण ,भिन्न-भिन्न जीवन-पद्धति और मानव-व्यवहार को प्रस्तावित करती हुर्इ विश्व की हर संस्कृति जीवन जीने का एक भिन्न (सामूहिक) पाठ प्रस्तुत करती है । जीवन शैली की भिन्नता जहां एक ओर संस्कृति विशेष की विशिष्टता का आधार बनती है ; वहीं अलग भौगोलिक अंचल और सामुदायिक मूल की सांस्कृतिक आदिमताएं मानव-विश्व को अलग-अलग समुदायों में भी बांटती हैं ।  दूसरी ओर सांस्कृतिक एकता अलग-अलग नस्लों के लोगों को एक सामाजिक-सांस्कृतिक र्इकार्इ के रूप में पुनसर्ंयोजित भी करती हैं । इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण ही एक मानव-विश्व के निर्माण की दृष्टि से संस्कृतियों को सकारात्मक और नकारात्मक दोहरी प्रकार्यात्मक भूमिका में देखा जा सकता है । अपने प्रभावितों और अनुयायियों की संख्या अथवा जनसंख्यात्मक विस्तार तथा मानव-व्यवहार के प्रतिमानीकरण की दृषिट से देखने पर हर सांस्कृतिक समुदाय एक भिन्न ऐतिहासिक संक्रमण-यात्रा है ।  इस दृषिट से सारी संस्कृतियां मानव-व्यवहार के आदर्श प्रतिमान की खोज एवं प्रभाव का परिणाम हैं । वे जीवन-पद्धति का सरलीकरण करती हैं ; एक सामान्य एवं सर्वमान्य चरित्र-सृषिट को प्रस्तावित करती हैं  और मनोवैज्ञानिक शब्दावली में कहें तो वे समुदाय-विशेष के सभी सदस्यों को एक समान प्रत्यक्षीकरण हेतु ऐसे प्रभावी एवं मार्मिक व्यकितत्वों की कथात्मक पुनर्पस्तुति करती हैं , जो विभिन्न अवसरों पर उनके संवेदनात्मक व्यवहार को एक पद्धति दे सके ।
            सही अथोर्ंं में संस्कृति मनुष्य की परम्रागत व्यवहार-पद्धति ही है । एक ऐसा व्यवहार जो उसके निजी विवेक से कम लेकिन उसे उत्तराधिकार में मिले सामाजिक व्यवहार से अधिक संचालित और सम्बनिधत होता है । इसप्रकार कहीं न कहीं हर संस्कृति वर्तमान मानवीय विवेक का शैक्षणिक अतीतीकरण ही है अथवा दूसरे रूप में वह अतीत की स्मृतियों और मानवीय विवेक का वर्तमानीकरण है । इसप्रकार संस्कृति उत्तराधिकार में मिली हुर्इ सभ्यता है । यह अनुभव और अबादतों के रूप में बचा हुआ पिछली पीढ़ी का वर्तमान है । हमारी अलग सामाजिक-सांस्कृतिक आदतें ही हमारी सभ्यता का अलग प्रारूप रचती हैं । हमारी सभ्यता का मूल उत्स हमारी अचेतन ऐतिहासिक-सामाजिक ग्रनिथयों में है । हम मूलत: अतीतजीवी हैं । हमारा वर्तमान भी अतीत की पद्धतिगत उपसिथति हैं । हम जब नया इतिहास बना रहे होते हैं तब भी मानव-इतिहास की पुरानी आदतों को ही दुहरा रहे होते हैं । हमारा स्वयं को बदल पाना इतना आसान नहीं होगा । कर्इ बार हम पुन: उसी दुनिया में अपने पड़ोसियों द्वारा खींच लिए जाते हैं जिसे अपनी दृषिट मेंं पूरी तरह व्यर्थ जानकर छोड़नें की तैयारी कर रहे होते हैं हम । कर्इ बार न बदल पाने के कारण तकनीकी और यानित्रक भी होते हैं । उदाहरण के लिए भाषा-सम्प्रेषण के लिए एक अलग संसार ही रचती है । यह संसार एक काल-निरपेक्ष उपसिथति का होता है । भाषा कायान्तरण और कालान्तरण दोनों का ही माध्यम है । भाषा की यह प्रकृति ही मानवीय स्मृति और साहित्य दोनो को ही अपरिवर्तनीय बना देती है । सिद्धान्तत: वह अपनी साहितियक स्मृति को तो नहीं बदल सकता ,लेकिन समझ बदल सकता है ।
       सांस्कृतिक प्रभाव के कारण ही हमारी सभ्यता का एक बड़ा हिस्सा सुदूर अतीत के मनुष्यों के अनुभवों ,विचारो और कल्पनाओं पर आधारित और उससे सामूहिक अचेतन प्रभावों के रूप में सम्बधित है।  अतीत के अविस्मरणीय मनुष्य और उनकी भोली अवधारणाएं अब भी हमारे मानसिक पर्यावरण का निर्माण करती हुर्इ वर्तमान का व्यवहार रच रही हैं । अतीत आज भी हमारी सामूहिक और सांंस्कृतिक आदतों के रूप में जिन्दा है । वह हमारी व्यवस्था-परिकल्पना को प्रभावित करने वाला सामूहिक अचेतन बन गया है ।
        दरअसल ,सामूहिक मानवीय अनुभव एवं निर्णय भी संज्ञान के स्तर पर एक बार घटित हो जाने के बाद ,प्रकृति की तरह ही मानव-जीवन की नियति के निर्धारक बन जाते हैं । वे मनुष्य की सामूहिक स्मृति के माध्यम से रुचि के नियामक बन जाते हैं । उन जातीय ग्रनिथयों ,मनोवृत्तियों एवं आदतों का निर्माण करते हैं ; जिन्हें सामूहिक अचेतन ही कहा जा सकता है । इनसे प्रेरित और प्रभावित होकर मानव-जीवन के मानसिक, सामाजिक,सांस्कृतिक ,राजनीतिक और आर्थिक आयाम अन्तत जैविक पर्यावरण में भी बदल जाते हैं । एक समय के बाद सामाजिक स्वीकृतियां ,व्यवहार और कार्य मनुष्य के विचार को ही पर्यावरण में बदल देते हैं । आदिकाल की जंगलों से भरी धरती का वर्तमान में बागों और खेतों में बदल जाना ,कृषि-कार्य करने के मनुष्य के मनुष्य के विचार का ही दीर्घकालीन परिणाम है ,जिसने वानस्पतिक पर्यावरण का पूरी तरह रूपान्तरण कर दिया है ।
            मानव-सभ्यता के निरन्तर जटिल से जटिलतर होते जा रहे विकास-क्रम नें मानव-जीवन के पर्यावरण में मानवीय सृषिट को भी शामिल कर दिया है । मनुष्य जाति द्वारा अर्जित ज्ञान-विज्ञान ,निर्मित भव्य भवन ,सड़कें ,विधुत-व्यवस्था, कारखानें ,बांध ,पुल ,शिक्षा-व्यवस्था, ग्रन्थ, साहित्य, संगीत, फिल्में ,टी.वी., नगर , मुद्रा और राज्य- वयवस्था आदि सभी मानव-निर्मित पर्यावरण ही हैं । आदिम मनुष्य नें जब प्राकृतिक गुफाओं की तलाश छोड़कर पहली बार घर बनाया होगा  या एसिकमों नें ध्रुवीय भालू का अनुसरण करते हुए इग्लू के पूर्व रूप का निर्माण किया होगा या फिर किसी मृत पशु के चर्म में घुसकर बर्फीली हवाओं को पछाड़ा होगा तो उसका यह कार्य पर्यावरण निर्माण की दिशा में ही बढ़ा हुआ कदम था । आज भी जब अपराध-नियन्त्रण के लिए वह कोर्इ नया कानून बनाता है तो उसके इस प्रयास में भी अपने पर्यावरण (सामाजिक) को ही बेहतर बनाने की सामूहिक इच्छा छिपी रहती है । इस दीर्घकालीन विकास-क्रम में गम्भीर अवरोध तब उत्पन्न हुए ,जब संस्कृति को अतीत के मानवीय सृजन के रूप में न देखकर उसे जातीय और धार्मिक जड़ता यानि अपरिवर्तनीय श्रेष्ठता एवं पूर्णता के रूप में देखा जाने लगा ।
          किसी सांस्कृतिक समुदाय में प्रचारित चरित्र-विशेष की कथात्मक प्रस्तुति ( चाहे वह मिथकीय हो या धार्मिक ) ही पीढ़ी दर पीढ़ी सांस्कृतिक उत्तरजीविता को सम्भव बनाती है । आइन्स्टीन की यह अवधारणा कि काल  भी एक आयाम है और यह दुनिया है ही नहीं बलिक निरन्तर हो भी रही है तथा असितत्ववादियों की दृषिट में जीवन का गुजरते क्षणों में निरन्तर होना की तरह संस्कृति-विशेष भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच सूचनाओं ,कथाओं और विष्वासों के हस्तान्तरण के साथ समुदाय विशेष के सदस्यों के बीच बनी रहती है । इसप्रकार सांस्कृतिक नैरन्तर्य समाज में निरन्तर चलने वाले उस प्रशिक्षण का परिणाम है ,जो संस्कृति विशेष का सदस्य अभिभावक के रूप में अपनी सन्तान को देता है । फ्रायड के दमित अचेतन से अलग यह वह अचेतन संक्रमण है जो व्यकित को उसके बचपन में ही उसके अपरिपक्व और अप्रशिक्षित मसितष्क को प्रशिक्षण के रूप में सौंप दिया गया होता है । इस तरह संस्कृति-निर्माण एक जातीय सामाजिक परियोजना की तरह निरन्तर चलते रहने वाली प्रक्रिया है । इसलिए संस्कृति का उत्तर-आधुनिक पाठ यहीं से आरम्भ होता है कि संस्कृतिकरण ,समकालीन मानव-जाति में चलने वाली अतीतीकरण की प्रक्रिया है। वह एक समान स्मृतियों वाले मनुष्य का वंशानुक्रमिक पुनरूत्पादन है । वह विशेष प्रकार का सूचनात्मक या मसितष्कीय उत्तराधिकार है ।
            मानव-जाति की वैशिवक एकता के विरुद्ध संस्कृति की वर्तमान विरोधी भूमिका को देखते हुए सांस्कृतिक अचेतन से मुक्त एक आधुनिक वैज्ञानिक मनुष्य का निर्माण ,उत्तर-आधुनिक वैशिवक संस्कृति के निर्माण की दिशा में पहता साभ्यतिक कदम होगा । वर्तमान मनुष्य के विवेक के अतीतीकरण की सामाजिक प्रक्रिया को रोकने के लिए एक वैज्ञानिक जेहाद की जरूरत है । वैज्ञानिक जेहाद से मेरा तात्पर्य वैज्ञानिक विचारों और विश्वासों की निर्णायक स्वीकार्यता से है । वैज्ञानिक सूचनाओं नें अनेक प्राचीन विश्वासों की सत्यता पर गम्भीर एवं तथ्यसम्मत प्रश्नचिहन लगाए हैं । उन प्रश्नों एवं तथ्यों से नर्इ पीढ़ी के मनुष्य को वंचित करना यानि आधुनिक सूचनाओं से अपरिचित रखकर नर्इ पीढ़ी का एकल अतीतीकरण करने वाली साम्प्रदायिक शिक्षा को सांस्कृतिक अपराध के रूप में देखे जाने की जरूरत है । दुर्भाग्य से कर्इ देशों की राजनीति सत्ता और शासन सम्बन्धी स्वाथोंं के कारण आधुनिक युग के नवजन्में शिशु का मानसिक या बौद्धिक बधियाकरण यानि उसके कृत्रिम अतीतीकरण पर मौन धारण किए हुए हैं ।      
          सांस्कृतिक अतीतीकरण जिस सामूहिक अवचेतन का निर्माण करता है ,वह सामाजिक प्रशिक्षण की इतनी जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया का परिणाम है कि है कि उसे सिर्फ किसी सम्प्रदाय या संस्कृति-विशेष के अनुयायी के विचार के रूप में ही चिहिनत नहीं किया जा सकता । सांस्कृतिक अतीत एक सर्वग्रासी अचेतन की तरह हमारी सभी संस्थाओं से सम्बनिधत मानवीय व्यवहारों को संचालित-परिचालित कर रहा है । यहा तक कि आदिम कबीलार्इ युग का सांस्कृतिक अचेतन आज भी हमारी राजनैतिक -सामाजिक शकित-परिकल्पना का प्रमुख आधार है । हमारे सभी सामाजिक-आर्थिक राजनैतिक व्यवहार इस दृषिट से अतीतीकरण के शिकार है कि उनके पीछे आदिम मानव जाति के असुरक्षा-बोध ,भय एवं वे सुरक्षात्मक आक्रामकताएं छिपी हुर्इ हैं । उनका वर्तमान में कोर्इ औचित्य नहीं होते हुए भी हम इसलिए उन्हें जिए जा रहे हैं कि हम सांस्कृतिक आदतों के कारण भिन्न तरह से जी ही नहीं सकते । हम नए विश्व को बनाने में इसलिए विफल हैं कि हम नए ढंग से जीने के अयोग्य हैं । हमारेे सत्ता-संघर्ष, पूंजी निर्माण और सामाजिक संगठनजीविता के मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि में आज भी एक असुरक्षित और आक्रामक शिकारी मनुष्य छिपा हुआ है । इसलिए सांस्कृतिक अतीतीकरण से मुकित की सजगता ही मानव-सभ्यता के विकास की भावी दिशा हो सकती है । वैज्ञानिक युग नें वर्तमान सभ्यता को समझने की जो विश्लेषण धर्मी वैचारिक  दृषिट दी है , उसका पर्याप्त बौद्धिक विनिवेश हमारी सभ्यता की विवेकपूर्ण समीक्षा और पुनर्रचना में नहीं हो रहा है । हम आज भी स्ांस्कृतियों पर विचार करते हुए, प्राय: संस्कृति-विशेष में प्रचलित मिथकों ,मानव-व्यवहार के अलग सांस्कृतिक प्रतिमानों  यानि रूढि़यों और रीति-रिवाजों आदि की अनुकरणात्मक जड़ता से आगे संस्कृति-विमर्श को नहीं ले जा पाते । हमारी साभ्यतिक समस्याओं का प्रमुख आधार सांस्कृतिक अचेतन ही है ।
          वैशिवक स्तर पर देखने पर मृत्यु-बोध की भिन्नता के कारण जीवन और जगत-बोध के भी दो भिन्न रूप सामने आते है। पशिचम के पास द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी विकासपरक  इतिहास-चेतना है तो पूरब के पास हर युग के मनुष्य के विवेक को अपने युग की साभ्यतिक विकृतियों और इतिहास-चेतना से बाहर निकलने की मनोवैज्ञानिक दार्शनिक प्रविधि है । पशिचम उपलबिधपरक लौकिक स्मृतियों का संरक्षक है तो पूरब मूल्य-परक चारित्रिक स्मृतियों का । पशिचम के लिए अतीत भी एक वस्तुनिष्ठ उपसिथत यथार्थ रहा है । उसके लिए मृत्यु का मतलब सम्पूर्ण विलुपित नहीं ,बलिक एक कब्र में बदल जाना है ,जबकि पूरब के लिए अतीत एक राख से अधिक महत्वपूर्ण कभी नहीं रहा । जबकि पशिचम नें अतीत के संरक्षण के लिए ममी और पिरामिडों की रचना की , पूरब ने स्मृति संरक्षण के लिए मिथक-निर्माण की प्रकि्रया अपनार्इ । पशिचम की सजग स्मृति-संरक्षणवादी ऐतिहासिक चेतना से अलग ,विसर्जन और विस्मृतिवादी पूरब अपनी जातीय स्मृति के निर्माण के लिए चयनधर्मी ही रहा है । उसकी व्यापक उपेक्षा और विस्मरण-नीति के पीछे जन-सामान्य के प्रतिरोध का सामाजिक मनोविज्ञान भी देखा जा सकता है । उसने सर्वोत्तम और पसन्द चरित्रोंं को मिथकों में बदलकर उन्हें धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संरक्षण देकर जहां उसें जीवित मानसिक उपसिथति में बदल कर भिन्न स्मृति प्रकि्रया का परिचय दिया है। इसके अतिरिक्त सामान्यत: पूरब की सारी सांस्कृतिक-धार्मिक प्रविधियां मनुष्य को अपने सभ्यतागत समय से बाहर निकालने की रही है । उसकी सबसे बड़ी विश्ेाषता निरन्तर मानव-जाति के आदिम और निर्विकार चित्त की खोज को एक सांस्कृतिक लक्ष्य का आयाम देना है । पूरब निरन्तर ही अपने समय की सभ्यता का अतिक्रमण और उससे निष्क्रमण का आवाहन करता है । वह चित्त के स्तर पर वर्तमान जीवी है ,अपने वर्तमान चित्त की खोज होने के कारण एक सीमा से अधिक पूर्व में घटित घठनाएं एवं ऐतिहासिक स्मृतियां उसके लिए एक अनावश्यक उत्पाद है ;जबकि पशिचम अपनी ऐतिहासिक स्मृति के सापेक्ष संभावित वर्तमान की तलाश करता रहा है।  इसके स्थान पर पूरब अपनी ऐतिहासिक स्मृतियों को मिथक में बदल देना अधिक पसन्द करता रहा है । एक दृषिट से यह ऐतिहासिक स्मृति में से चारित्रिक स्तर पर महत्वपूर्ण प्रभावशीलता का चयन कहा जा सकता है ।
         अपनी भिन्न सांस्कृतिक अवधारणाओं और सामूहिक अचेतन के कारण पशिचम और पूरब की सभ्यताएं दो भिन्न मानवीय पर्यावरण का निर्माण करती हंै । इसीलिए किसी नर्इ व्यवस्था की खोज का प्र्रश्न पूरब और पशिचम के भिन्न सांस्कृतिक रुचियों के प्रश्न से भी टकराता है । मानव-जाति के असितत्त्व और विकास की लम्बी यात्रा में पूरब और पशिचम के मानव-समूहों के अलग-अलग विशिष्ट ऐतिहासिक अवदान सामने आए हैं । इस यात्रा में एक वैज्ञानिक युग और सभ्यता की ओर   विश्व-इतिहास को ले जाने में पशिचम ने युगान्तरकारी सफलता पार्इ है । उसने मानव-जीवन को और बेहतर,सुखी,सुरक्षित और संरक्षित बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका  का निर्वाह किया है । ऐसे में  पशिचमी सभ्यता को अपना आदर्श और आधुनिकता का पर्याय मानकर पूरब का भी पशिचमीकृत होते जाना स्वाभाविक ही है । ऐसे में कुछ ही समय पूर्व के औपनिवेशिक अतीत से अपमानित पूरब की सभ्यता और संंस्कृति का भी कोर्इ आधुनिक और वैशिवक विमर्श  हो सकता  है- इसकी प्रस्तावना मात्र से ही प्रतिगाामिता के कर्इ आरोप लग जाने का भी खतरा है ।
         दरअसल, पूर्वनिर्मित विचारधाराएं भी  बनी-बनार्इ सड़कों की तरह ही होती है । तिरछी या घुमावदार होने पर भी मनुष्य उसे ही मानक दूरी के रूप में मापता रहता है । दूसरे षब्दों में अच्छी बनी सड़कों से ही यात्रा करना अधिक सुविधाजनक समझता है । पूरब अभी भी प्रामाणिक और औचित्यपूर्ण विचारधारा के रूप में कोर्इ नर्इ अच्छी सड़क नहीं बना सका है ! उसे मानव-सभ्यता के विकास में अपने भीतर के श्रेष्ठ को योगदान के लिए अभी भी विश्लेषित और प्रमाणित करना है । अपनी सतत वैज्ञानिक उपलबिधयों के कारण  वर्तमान में आधुनिक मानव-सभ्यता के वैशिवक विमर्श के केन्द्र में पशिचम ही है । यधपि पशिचम ने स्वयं को बार-बार परिभाषित और व्याख्यायित किया है ;लेकिन वह निर्णायक प्रयास के स्तर तक ऐसा करने ंमे इसलिए असमर्थ रहा है कि उसने एक तो पूरब को विचार योग्य ही नहीं समझा या पूरब को विमर्श में शामिल करना स्वयं ही अपने औपनिवेशिक विस्तार और वर्चस्व के स्वर्णिम अतीत को अपमानित करना होता ।
         वैज्ञानिक विकास से समृद्ध दो अविस्मरणीय शताबिदयों के बीत जाने के बाद भी अधिक बेहतर व्यवस्था की खोज में लगी मानव-जाति के लिए सभ्यता और संस्कृति एक संवेदनषील मुददा बना हुआ है । ऐसे में किसी नर्इ और बेहतर सभ्यता ,व्यवस्था और संस्कृति-निर्माण की सृजनात्मक संभावनाओं की वैकलिपक दिशाएं कम ही होंगी । पहला विकल्प यह हो सकता है कि पशिचम को ही और बेहतर बनाकर उसे सार्वभौम कर दिया जाय । दूसरा यह कि पूरब और पषिचम दोनों के प्राच्य और वर्तमान से उपयोगी सृजन-सूत्रों की तलाश की जाय । तीसरा विकल्प पूरब की सभ्यता को आधार बनाकर पशिचम का पूर्वी संस्करण तैयार करने का है । वर्तमान के वैशिवक और भूमंडलीकरण-दौर में अलग-अलग कारकों से प्रेरित होकर ये सारी प्रकि्रयाएं स्वत:स्फूर्त ढंग से एक साथ चल रही हैं। ऐसे में 'किया जाय से मेरा आशय सजग बौद्धिक चुनाव से ही है । इसलिए वर्तमान बौद्धिक युग में और विकसित एवं निर्दोष सभ्यता की दिषा में प्राथमिक आवष्यकता तो यही होगी कि हम अपने अचेतन स्वीकारों की पुनर्समीक्षा कर उसे जहां सचेतन औचित्य प्रदान करें ; वहीं एक संवादी और समावेशी वैशिवक सभ्यता के लिए अपने अराजक एवं विरोधी विश्वासों को वैज्ञानिक-तार्किक आधारों पर कोर्इ अधतन एवं सर्वमान्य व्यवस्था दें । इसके लिए इस सिद्धान्त को मान्यता देनी ही होगी कि मनुष्यकृत वर्तमान व्यवस्था और उसका पर्यावरण उसके अतीत की बौद्धिक सक्रियताओं एवं कार्यात्मक हस्तक्षेप का परिणाम है ।  इसलिए भविष्य की बेहतर व्यवस्था की खोज तब तक संभव नहीं है जब तक हम उसके अतीत और वर्तमान की बौद्धिक आदतों को समझ न लें । अलग-अलग साभ्यतिक चित्त एवं आदतों की खोज ही हमें उनके भिन्न सामूहिक अचेतन के उस अन्धी सुरंग में ले जाती है , जिन्हें बन्द किए बिना मानवता का भविष्य बार-बार भटक कर उसकी ओर ही मुड़ जाने के लिए अभिशप्त है ।
           दरअसल सामूहिक मानवीय निर्णय भी एक बार घटित हो जाने के बाद ,प्रकृति की तरह ही मानव-जीवन की नियति के निर्धारक बन जाते हैं । वे मनुष्य की सामूहिक स्मृति के माध्यम से रुचि के नियामक बन जाते हैं । उन जातीय ग्रनिथयों ,मनोवृत्ति एवं आदतों का निर्माण करते है। जिन्हें सामूहिक अचेतन ही कहा जा सकता है । इनसे प्रेरित और प्रभावित होकर मानव जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक आयाम अन्तत: जैविक पर्यावरण में बदल जाते हैं । एक समय के बाद सामाजिक स्वीकृतियां व्यवहार और कार्य मनुश्य के विचार को ही पर्यावरण में बदल देते हैं । आदि-काल की जंगलों से भरी धरती का वर्तमान में बागों और खेतों में बदल जाना कृषि-कार्य करने के मनुष्य के विचार का ही दीर्घकालीन परिणाम है ,जिसने वानस्पतिक पर्यावरण का पूरी तरह रूपान्तरण कर दिया है । मानव-सभ्यता के निरन्तर जटिल से जटिलतर होते जा रहे विकासक्रम नें मानव-जीवन के पर्यावरण में मानवीय सृषिट को भी शामिल कर दिया है । मनुष्य जाति द्वारा अर्जित ज्ञान-विज्ञान ,निर्मित भव्य भवन,सड़के,विधुत व्यवस्था ,कारखानें ,बांध,पुल, शिक्षा-व्यवस्था ,ग्रन्थ, साहित्य ,संगीत ,फिल्में , टी.वी. नगर और राज्य-व्यवस्था आदि सभी मानव-निर्मित पर्यावरण ही हैं । आदिम मनुष्य नें जब प्राकृतिक गुफाओं की तलाश छोड़कर पहली बार घर बनाया होगा या एसिकमों नें ध्रुवीय भालू का अनुकरण करते हुए इग्लू के पूर्व रूप का निर्माण किया होगा या फिर किसी मृत पशु के चर्म में घुसकर बर्फीली हवाओं को पछाड़ा होगा तो उसका यह कार्य पर्यावरण निर्माण की दिशा में ही बढ़ा हुआ कदम था और आज भी अपराध-नियन्त्रण के लिए जब वह नया कानून बनाता है तो उसके इस प्रयास में भी अपने पर्यावरण (सामाजिक) को ही और बेहतर बनाने की सामूहिक इच्छा छिपी रहती है । इस दीर्घकालीन विकासक्रम में गम्भीर अवरोध तब उत्पन्न हुए जब संंस्कृति को मानवीय सृजन के रूप में न देखकर उसे जातीय और धार्मिक जड़ता और अपरिवर्तनीयता से जोेड़ दिया गया ।
            एक ऐसे समय में जब पशिचम नें पूरब को न सिर्फ संक्रमित ,आक्र्रान्त और परिवर्तित किया है , बलिक पूरब में पशिचम कें संक्र्रमण के प्रतिरोध में उत्पन्न रूढि़वादी प्रतिसांस्कृतिक उभार को भी प्रतिक्रि्रयात्मक ढंग से उत्तेजित किया है । विशुद्ध पूरब को दूषित और विकृत कर उसे अन्तर्जीवी या फिर आक्रामक और प्रतिहिंसात्मक बना दिया है । कुछ वैसे ही जैसे किसी वायरस से संक्र्रमित होने पर मानव-शरीर ''एण्टी-बाडी का निर्माण करने लगता है - इस विमर्श का उददेश्य पशिचम की शकित-संरचना  के उस आदिम कबीलार्इ अचेतन के प्रति पशिचम को भी सावधान करना है ,जिससे उसके द्वारा निर्मित और विकसित आज तक की सभी व्यवस्थाएं निकल नहीं पार्इ हैं । इन व्यवस्थाओं में उसके द्वारा निर्मित आधुनिकतम राष्æ अमेरिका ,साम्यवादी अवधारणा का इतिहासित प्रतीक सोवियत रूस और संयुक्त राष्æ संघ जैसी संस्थाएं भी हैं। इस विमर्श की आधारभूत स्थापना यह है कि पशिचम और पूर्व की सभ्यताओं के वर्तमान व्यवहार और प्रवृत्यात्मक  विषेशताओं के अन्तर को ,उनके भिन्न सामूहिक अचेतन को उनके पूर्वजों के द्वारा विकसित र्इश्वर की भिन्न अवधारणाओं से समझा जा सकता है । इस विमर्श की दूसरी महत्त्वपूर्ण स्थापना यह है कि पशिचम के व्यवस्था की शकित-संरचना उसके र्इश्वर की चारित्रिक परिकल्पना के अनुरूप ही न सिर्फ अधिनायकवादी है ,बलिक वह वैसी ही शकित-संरचना के अनुरूप बार-बार राजनीतिक व्यवस्था, की खोज करती है । यह विमर्श उनके लिए भी उपयोगी हो सकता है जो पशिचम के सामूहिक अचेतन से अनभिज्ञ रहते हुए, उसे एक सार्वकालिक और सार्वभौमिक आदर्श मानकर ,उसे पूरब के सामूहिक अचेतन को समझे बिना ही पूरब की धरती पर पशिचम की अवधारणाओं को अविकल रूप से किसी उपनिवेश की तरह घटित और मूर्त देखना चाहते हैं। चाहे वह पशिचम का साम्यवाद या वैशिवक नेतृत्व के दावेदार अमेरिका का तथाकथित सफल पूंजीवाद ही क्यों न हो ।
          पशिचम की सभ्यता-चाहे वह लोकतन्त्र ही क्यों न हों ,आज भी व्यवहार के धरातल पर सामान्य मनुूष्य के अधिकारों के अन्तत: निरस्तीकरण और अपहरण पर ही आधारित है । आज भी पशिचम की सभ्यता अपने द्वारा विकसित सबसे आदर्श व्यवस्था लोकतन्त्र में भी सबसे सही मनुष्य के रूप में तात्कालिक राजनीतिक र्इश्वर की खोज कर रही है । यह कि पशिचम की राजनीतिक शकित की परिकल्पना में आज भी वही आदिम कबीलार्इ र्इश्वर छिपा हुआ है ,जिसने सददाम हुसैन की तरह एडम को अपने आदेश की अवहेलना कर वर्जित फल चखने के अपराध में धरती पर अपदस्थ कर दिया था । जो आज भी उतना ही असहिष्णु है -मानव निर्मित राजनीतिक व्यवस्था के माध्यम से पुनर्जीवित होकर । जिसने कभी भी वैचारिक चुनौती देकर शैतान को सभ्य और नैतिक होने के लिए प्रेरित नहीं किया । जो स्वयं उस युग के मनुष्यों की खोज है जब भारत में असामान्य मनोरोगी राक्षस और पशिचम में शैतान से प्रेरित माने जाते थे । जो उन्नीसवीं शताब्दी में मनुष्य द्वारा निर्मित दैत्याकार मशीनों की तरह ही दैत्याकार यानित्रक व्यवस्था के रूप में पुन: जीवित हो उठा था । जिससे जुड़े मानव-विश्वासों को माक्र्स नें मानव-जाति के लिए अफीम के समान मानते हुए भी अपने भीतर के उसके अचेतन मनोवैज्ञानिक प्रभावों का अतिक्रमण करने की वैचारिक सफलता नहीं प्राप्त की , क्योंकि पशिचम के अधिनायकवादी निरंकुश,असहिष्णु और एडम विरोधी र्इश्वर की तरह उसका पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही उसके जातीय आदिम अचेतन का ही दार्शनिक विस्तार है । पशिचम का सामूहिक अचेतन शैतान के रूप में निरन्तर अपने किसी अदृश्य शत्रु की खोज के लिए विवश करती है । शैतान के कुटिल चालों से संत्रस्त र्इश्वर और उसकी सृषिट की तरह पशिचम जिस अवधारणा की उपज है ,वह बुद्ध के अशेष करुणा के मर्म तक पहुंच ही नहीं सकता है। सच तो यही है कि शैतान की ओर से होने की आशंका  के साथ ही यीशु को क्रूस पर चढ़ा दिया गया था । मुहम्मद साहब के विरोध का कारण भी उनके शैतान की ओर से होने की आशंका ही थी । आश्चर्य की बात यही है कि यहूदी ,र्इसार्इ और इस्लाम तीनों धमोर्ं को मानने वाले समाज नें शैतान के रूप में शत्रु की खोज जारी रखी । यही कारण है कि पशिचम एक आशंकित सभ्यता का निर्माण करता है तथा अनैतिक कूटनीति और शकित-आधारित हत्याओं  का नैतिक समर्थन और भव्यीकरण भी। ऐसे ही विश्लेषणों के कारण अप्रिय लगते हुए भी इस लेख में इस तथ्य की ओर भी संकेत करना पड़ा है कि अपनी सारी वैचारिक स्थापनाओं के बावजूद माक्र्स प्रणीत साम्यवाद की सांस्कृतिक सीमा यह है कि वह पशिचम के एकेश्वरवादी-अधिनायकवादी आदिम-कबीलार्इ सांस्कृतिक अचेतन की न सिर्फ परम्परा में है ,बलिक उसका लाेंकतानित्रक राजनीतिक आधुनिक संस्करण है । उसके द्वारा विकसित व्यवस्थाओं के वर्तमान व्यवहार में भी कबीलार्इ आक्रामकता और असभ्यता के अचेतन प्रेरक-बिन्दु देखे जा सकते हे। भारत के एकमात्र निर्णायक और विशुद्ध क्रानितकारी आन्दोलन नक्सलवाद में भी पशिचम के कबीलार्इ अचेतन का ही पूरब में वैचारिक उपनिवेश देखा जा सकता है ।
          मेरी दृषिट में आज के पशिचम की सभी राजनीतिक व्यवस्थाएं पषिचम के अधिनायकवाादी असहिष्णु र्इश्वरीय सामूहिक अचेतन का अतिक्रमण नहीं करती ,बलिक उसके राजनीतिक व्यवहार को मानकीकृत करती हैं । इसके विपरीत पूरब का साभ्यतिक अचेतन बहुलतावादी और उदार है । पूरब की हिन्दू और बौद्ध जैसी दोनों महत्वपूर्ण गैर-राजनीतिक सभ्यताएं मानव-जीवन के स्थायित्व के लिए सांस्कृतिक और सामाजिक सत्ता और व्यवस्था-प्रविधियों की खोज करती रही हैं । अपने अविश्वास के जातीय मनोविज्ञान एवं संस्कृति के कारण पशिचम जहां शकित आधारित राजनीतिक सत्ता को पसन्द करता रहा है वहीं पूरब का प्रयास राज्य-व्यवस्था को एक सांस्कृतिक-सामाजिक उपसिथति के रूप में विकसित करने का रहा है । यहीं कारण है कि पूरब के सभी महान आदर्श और प्रेरक चरित्र चाहे वह राम ,कृष्ण महावीर बुद्ध हों या गांधी सभी राजनीतिक सत्ता के परित्याग के मिथक का ही साभ्यतिक भव्यीकरण प्रमाणित करते हैं । प्राचीन समय से ही पूरब की सामाजिक और सांस्कृतिक मानव-सम्बन्धों की संरचना राजनीतिक सत्ता के निषेध और विकेन्æीकरण पर ही आधारित रही है । विशेषकर भारत की उपजाऊ भौगोलिक समृद्धि ने उसके नागरिकों को प्राचीन काल से ही अभावजन्य प्रतिक्रियावादी और आर्थिक धरातल पर अपहरणधर्मी होने से बचाए रखा । संभवत: इसीलिए अपने लम्बे इतिहास में इसनें पशिचमी अर्थों में राजनीतिक सत्ता की खोज और स्थापना कभी नहीं की । केवल उन क्षणों को छोड़कर जिसमें काबुल-कन्धार ने रामायण और महाभारत काल में कैकेयी और गान्धारी के माध्यम से भारतीय राजघरानों में अपनी प्रत्यक्ष हस्तक्षेपकारी उपसिथति नहीं दर्ज करार्इ थी। यह अकारण नहीं है कि ये दोनों भारतीय संस्कृति को दूर तक प्रभावित करने वाले महाकाव्य पूरब और पशिचम के जीवन-मूल्य और व्यवस्था दृषिट के द्वन्द्वात्मक अन्तर्संघर्ष को भी अत्यन्त तीव्रता और प्रामाणिकता से प्रस्तुत करते हैं । इसी संघर्ष के पश्चात भारतीय समाज अपने सांस्कृतिक मूल्यों और नैतिक आदशोर्ं का निर्णायक चयन करता है ।
      भारत अपने पशिचमी प्रभाव में जिस प्रकार शकित पर आधारित राजनीतिक समाज में बदलता जा रहा है ,वह न सिर्फ भारतीय नहीं है ,बलिक सभ्यताओं के वैषम्य के कारण भारत के सामाजिक पर्यावरण में कर्इ नर्इ उत्तर-आधुनिक यानि अभूतपूर्व विकृतियों की भी सृषिट कर रहा है । इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या है भारत में पशिचमी ढंग के पेशेवर यानि कार्य एवं मूल्यांकन आधारित राजनीतिक समर्थन-तंत्र का विकसित न होना । राजनीतिक दल और उनका नेतृत्त्व गैर-राजनीतिक प्रविधियों का प्रयोग करते हुए सत्ता में बने रहना जान गए हैं । लेकिन अभी कुछ ही समय पूर्व बिहार राज्य के चुनाव-परिणामों ने संकेत कर दिया है कि देर से सही भारत बाजार के नियमों से संचालित पेशेवर राजनीति की ओर बढ़ रहा है । यहां बाजार षब्द का प्रयोग मैंने विशेष अभिप्राय से ही किया है । लोभ जनित क्रूरताओं के बावजूद बाजार सामान्यतया एक र्इमानदार मूल्य संसूचक व्यवस्था भी है। यदि उसे बाजारेतर विशेषज्ञता द्वारा दूषित या दुष्प्रभावित न किया गया हो । धर्म, जाति ,कुल और परिवारवादी संगठनों से अपâत भारतीय राजनीति एक स्वस्थ सभ्यता की दिशा में गम्भीर चिन्ता का विषय है ।
          इस चिन्ता के बावजूद पशिचम की व्यवस्था-परिकल्पना और क्रानित सम्बन्धी अनेक वैचारिक स्थापनाएं पूरब के मानवीय सांस्कृतिक-साभ्यतिक अचेतन के अनुरूप मैं नहीं पाता। अपनी विनम्रतापूमर्ण असहमति के साथ मैं ऐसा मानता हूं कि पूरब को एक स्वाभिमानी और मौलिक सभ्यता के रूप में बने रहने के लिए ही नहीं बलिक एक शान्त,विमर्शपूर्ण और मानवीय सभ्यता की संभावनाओं की तलाश में अपनी आधुनिकता ,वैज्ञानिक औचित्य ,वैशिष्टय तथा उपयोगिता के वास्तविक आधारों की खोज करनी ही चाहिए । उससे पशिचम राज्य और राजनीति को सामाजिक सत्ता के रूप में विकसित करने की सांस्कृतिक प्रविधि एवं मानवीय चरित्र प्राप्त कर सकता है । पशिचम की तनाव,बल-प्रयोग,अविश्वास और हिंसक कार्य-संस्कृति से बाहर निकालने में पूरब की सभ्यता के अनुभवों का मनोवैज्ञानिक विनिवेश हो सकता है । पूरब को अपनी विषेशताओं से पषिचम को परिचित कराना चाहिए न कि पशिचम के समाज के राजनीतिक सत्ता में रूपान्तरण की अवधारणा को बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार कर लेना चाहिए ।
           अलग-अलग सभ्यताओं के र्इश्वर और उसके चरित्रीकरण-प्रतीकीकरण की भिन्न अवधारणाओं को उनके अलग और विशिष्ट सामूहिक अचेतन के प्रभावशाली प्रमाण के रूप में देखना उचित होगा । ऐसा करने के पर्याप्त साभ्यतिक साक्ष्य है। यह एक तथ्य है कि विगत सामुदायिक विश्वास एक भावी और आदर्श वैशिवक समाज की रचना में बाधक हैं । अवधारणाओं की अराजकता ने जिस बहुसांस्कृतिक और बहुराष्æीय विश्व का निर्माण किया है , एक विकसित और सभ्य मानव-सभ्यता के लिए उसका संरक्षण किया जाना चाहिए या विसर्जन । जबकि एक सीमा के बाद ये विविधताएं किसी स्वतन्त्र आविष्कार की तरह मानव-विश्व को रंगारंग और बहुवैकलिपक भी बनाती है । जबकि आस्वाद आधारित सभी उत्पाद -मिठार्इ और संगीत से लेकर सांस्कृतिक-सामाजिक व्यवहार तक सभी मनुष्य की सृजनशीलता के ही विविध आयाम हैं । उन सभी के लिए जो इस धरती को छोड़कर अन्तरिक्ष की उड़ान नहीं भर सकते इसी बूढ़ी धरती में ही अपनी सृजनष्ीलता के आयामो और अवसरों की खोज करनी होगी। उदाहरण के लिए हर नया खेल एक नए आनन्दपूर्ण व्यवहार पद्धति की भी खोज करता है । चाहे वह कि्रकेट ,फुटबाल या टेनिस ही क्यों न हो अपनी व्यापक लोकप्रियता और सामाजिक स्वीकृति के बाद सांस्कृतिक बन ही जाता है । कर्इ रीति-रिवाज सीमित या व्यापक रूप से उत्सवधर्मी मानवीय पर्यावरण का निर्माण करने के कारण स्थानीय और हास्यास्पद होने के बावजूद समुदाय विशेष के लिए महत्वपूर्ण आनन्द प्रदायी भूमिका में होते हैं ।  इसलिए ''सोशल और 'कल्चरल इंजीनियरिंग भी मानव-सभ्यता के विकास और आधुनिकीकरण के दो क्षेत्र हो सकते हैं । इसलिए उसे संवेदनशीलता से हटाकर सृजनशीलता के दायरे में लाना ही मानव-सभ्यता के भविष्य के लिए हितकर होगा । सभ्यता और संस्कृति पर किसी वैशिवक आधुनिक विमर्श के लिए यह भी विचार का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र हो सकता है।
         गांधी की आंखों से न भी देखें तो भी राजनीतिक सत्ता का भव्यीकरण एक पशिचमी नजरिया है जो मनोवैज्ञानिक दृषिट से न सिर्फ लोकतन्त्र की समानता की अवधारणा की मूल-भावना के विपरीत है ,बलिक वह अपनी प्रतिक्रिया में असामान्य मनोवैज्ञानिक चुनौतियां देने वाला और आपराधिक रूप से उकसाने वाला भी है । मैं भारत और अमेरिका में हुए आक्रमणों को ऐसी ही असामान्य मनोवैज्ञानिक उत्तेजना का परिणाम मानता हूं। गांधी की हत्या के पीछे भी उनकी नीतियों का कम, उनके महात्मार्इ विशिष्टतावाद की प्रतिक्रिया में उपजी चुनौतियों का अधिक हाथ रहा होगा । असितत्व और व्यकितत्व के भव्यीकरण और बढ़ते सार्वजनिक प्रभाव के साथ वह व्यकित अपनी प्रभावशीलता के औचित्य और अनौचित्य के प्रति जवाबदेह होता जाता है ।  
         जीवन का विसंस्कृतिकरण करने वाले या संस्कृति-विशेष को एकमात्र आदर्श करने वाले जीवन के ऐसे तथाकथित शुद्धतावादी प्रयासोें के पीछे मनुष्य को यन्त्र मानने वाली वह मशीनी अवधारणा भी छिपी है ,जो अठारहवी-उन्नीसवीं शताब्दी के आविष्कारों तथा दैत्याकार यन्त्रों की अतिमानवीय शकितयों से चमत्कृत और मुग्ध होकर मनुष्य को भी एक स्वचालित जैविक यन्त्र-विशेष ही मान बैठा । मुझे तो प्रथम और द्वितीय विश्व-युद्ध तथा आज की आतंकवादी बर्बरता में भी अठारहवीं सदी की नवीन वैज्ञानिक आविष्कारों से चमत्कृत युगीन चेतना का यन्त्रवादी अचेतन ही छिपा दिखता है। जबकि आज के परमाणु युग का जीव-विज्ञान जीन की संरचना में विभिन्न रसायनों के बन्ध के रूप में भौतिक पदाथोर्ं के भी जीवन के उदभव और असितत्व के महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखे जाने का आग्रह कर रहा है। अठारहवीं शताब्दी के यानित्रक भौतिकवाद से प्रेरित जीवनबोध को जैविक भौतिकवाद की ओर ले जाने की जरूरत है । यह सांस्कृतिक-बोध मुझे अब भी असाहितियक नहीं लगता कि प्रकृति का जैव-यानित्रक उत्पाद ही सही फिर भी जीवन अपनी भौतिक सामान्यता में भी एक असामान्य विलक्षण चमत्कार है-जो प्रकृति और ब्रहमाण्ड के अरबों-खरबों विरल संयोगों के बाद संभव हुआ है । उसे मध्ययुगीन आध्यातिमक सम्मान यदि नहीं दे सकते तब भी उसे आतिमक सम्मान तो दिया ही जाना चाहिए-इस ऐतिहासिक अनुभव और वैचारिक चेतावनी के साथ कि तथ्यपरक विश्वास रहे हों या काल्पनिक अन्ध-विश्वास दोनों ने ही हजारों वर्षो तक मनुष्य जाति की जिज्ञासा वृतित को स्थगित रखनें में प्रगति-विरोधी सफलता पार्इ है ।
          इसीप्रकार एक नर्इ मानव-सभ्यता की खोज में पूरब की सभ्यता और संस्कृति के आधुनिकतावादी विमर्श  के लिए भिन्न मानव-व्यवस्था ,परिकल्पना और वैशिष्टय के कर्इ और बिन्दु रेखंकित किए जा सकते हैं । सभ्यतागत भिन्नता और उनकी भिन्न प्रेरक अवधारणाओं के तुलनात्मक विश्लेषण से यह तथ्य सामने आता है कि अपने सजग इतिहास-बोध की परम्परा के कारण पशिचम जहां समय को रचता है ; या यह कहें कि समय को रचते हुए जीता है तो पूरब हर मनुष्य को अपने आदिम निर्विकार मन की खोज के लिए प्रेरित करता रहा है । यहीं एक और तथ्य सामने आता है कि एक सीमा के बाद हर सभ्यता अपने मनुष्यों को साभ्यतिक यन्त्र में बदलती जाती है । पूरब की सांस्कृतिक प्रकि्रया मनुष्य को पीढ़ी-दर-पीढ़ी साभ्यतिक यानित्रकता, लौकिक स्मृतियों के पूर्वापर प्रभाव नियति या जड़ता से बाहर निकालकर विशुद्ध विवेक की ओर मोड़ने की रही है । जीवन-बोध को निरन्तर अधतन बनाए रखने का प्रयास शवों को तुरन्त जलाकर उसका तुरन्त विलोपन कर दिए जाने में भी देखी जा सकती है । प्रकृति मृत को सड़ाकर खाद में बदल देना चाहती है ,जबकि स्मृतिजीवी होने के कारण मनुष्य अपनी सारी स्मृतियों को अनन्तकाल के लिए संरक्षित करना चाहता है । पशिचम की इतिहास चेतना इसी मानवीय स्मृतिजीविता का परिणाम है । यही स्मृतिजीविता ही उसे कब्र-निर्माण के लिए प्रेरित करती है । वह मानव शरीर को नहीं बचा सकता तो वह उसकी कब्र को ही बचा लेना चाहता है । इसप्रकार वह स्मृति की अमरता की खोज करता है जबकि पूरब की सारी सराहना लौकिक स्मृति से बाहर निकले चित्त के लिए ही रही है । इसे ही वह मोक्ष कहता रहा है ।
         इसीलिए मैंं इस विमर्श का आरम्भ यहां से करना चाहूंगा कि वैशिवक धरातल पर मानव-जाति के सांस्कृतिक इतिहास का विश्लेषण करने पर यह तथ्य सामने आता है कि वर्तमान में आदिम विश्वासों के रूप में मानव-जाति के पास दो र्इश्वर है । एक पशिचम का विधि-निषेधों के प्रति अति-संवेदनशील नैतिक किन्तु असहिष्णु र्इश्वर ; दूसरा र्इश्वर के होने न होने की परवाह न करने वाला , मानव के विशुद्ध चित्त की खोज करने वाले धर्म का आविष्कारक मनुष्य जो अपनी पवित्रता और दिव्यता से र्इश्वर की अवधारणा को ही अप्रतिषिठत कर उसे धरती पर उतारने में विश्वास करता है । जिसके धर्म का आरम्भ ही राजनीतिक शकित के परित्याग से होता है । इसे स्पष्ट करते हुए मैं कहूं तो दुख से मुकित के लिए सिद्धार्थ के राज्य-त्याग को मैं सामाजिक और सांस्कृतिक शकित ( संघ ) की खोज के रूप में लेता हूं । राज्य-त्याग का वर्तमान भारत में दूसरा महत्त्वपूर्ण लोकप्रिय आदर्शवादी चरित्र राम का है,,जिन्हें भारत में एकल दाम्पत्य का मैं प्रवर्तक मानता हूं । जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी से लेकर उन्नीसवी शताब्दी के पूर्वाद्र्ध तक सकि्रय और जीवित मो.क.गांधी तक मानव-अपमान पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था का नैतिक बहिष्कार करते दीखते हैं । इसी आधार पर मैं पूरब की संस्कृति और धर्म को मानव-असितत्त्व की दिव्यता का सम्मान करने वाली संस्कृति मानता हूं । बौद्ध और जैन धर्म के बाहर भी पूरब का र्इश्वर एक विकेन्द्रीकृत र्इश्वर है। तातिवक दृषिट से वह मनुष्य की र्इश्वरता और दिव्यता को स्वीकार कर र्इश्वर की व्यकितवादी शकित-संरचना उपसिथति और असितत्व की सभी धारणाओं को शून्य करता है । इतना शून्य कि वह एक नैतिक और शिष्ट-पवित्र मनुष्य के रूप में भी देखा जा सकता है ।
          पूरब की र्इश्वर सम्बन्धी अनेक अवधारणाएं जीवन की आश्चर्यजनक विविधता और चमत्कारिक उपसिथति को समेटने के प्रयास में र्इश्वरीय सत्ता के विकेन्द्रीकरण का बोध और संकल्पना देती हैं ;जबकि पशिचम का र्इश्वर अवधारणा के समाज-मनोवैज्ञानिक प्रभावों के धरातल पर राजनीतिक सत्ता के केन्द्रीकरण को प्रोत्साहित करता है । यही कारण है कि इस व्यवस्था का प्रतिरोध निर्मित करने के लिए कार्ल माक्र्स को सर्वहारा के अधिनायकत्व की परिकल्पना करनी पड़ती है । इसप्रकार पूरब की मुकित का अधतन यूटोपिया साम्यवाद भी शकित-संरचना के पशिचमी अचेतन से बाहर नहीं निकल पाया और निरन्तर बल-प्रयोग के द्वारा स्वयं को जीवित रखने का प्रयास करता हुआ जल्दी ही थक गया । पशिचम की व्यवस्था-संरचना और परिकल्पना का दोष और सीमा दोनों ही यही है कि वह बार-बार अपने र्इश्वर की आदिम अवधारणा की राजनीतिक पुनर्रचना करने लगता है। अमेरिकी राष्æपति इसका उदाहरण है फ्रांस भी इसका अपवाद नहीं है ,इंग्लैण्ड का प्रधानमन्त्री भी प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने निर्वाचित सहयोगियों की  इच्छा के निरस्तीकरण और उपेक्षा की वैधानिक षकित पा लेता है। कहने के लिए वह जनता के प्रति जवाबदेह होता है ,संचार-माध्यमों द्वारा निर्मित जनमत से प्रभावित हो सकता है ; लेकिन सच्चार्इ यही है कि एक बार निर्वाचित होने के बाद वह प्रभावित होने के लिए बाघ्य नहीं है । व्यवस्था के शकित-संरचना से सम्बनिधत सभी का सामूहिक अचेतन एक होने के कारण जनता भी उसके ऐसे निरंकुश व्यवहार को स्वीकार करती रहती है । दूसरे शब्दों में वह अचेतन रूप से सहमत होती चलती है । इसीलिए मुझे लगता है कि पशिचमी सभ्यता जब तक अपने सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक अचेतन का समुचित विश्लेषण नहीं करती तब तक वह नेपालियन ,हिटलर और स्टालिन ,निक्सन और बुश पैदा करती रहेगी । उसका लोकतन्त्र भी सामान्य  जन की इच्छाओं के निरस्तीकरण से प्राप्त व्यवस्था-प्रभु की खोज करता है । आज का भारत पशिचमी र्इश्वर की अवधारणा से संक्रमित शत्रु राष्æों के कूटनीतिक विद्वेष और घात करने वाले चालों से संत्रस्त है ।
           पषिचम के र्इश्वर को जिसे मैं पशिचम के सांस्कृतिक अचेतन का आदिम सामूहिक प्रतीक मानता हूं । उसमें यीषु मसीह के प्रतिरोधपूर्ण हस्तक्ष्ेाप की सही समाज-मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या स्वयं पशिचम ने ही नहीं की है । एक ऐसा भावुक युवक जोे अपनेे जीवनकाल में ही अपनी मां के पति यूसुफ का पुत्र नहीं माना जाता है -अपने जीवन को एक ऐसे दिव्य पिता की खोज में समर्पित कर देता है ,जिसके पुत्र सारी दुनिया और सभी देश-काल के सभी मनुष्य हैं । र्इसार्इ धर्म का योग दान यह है कि जैविक पिता सम्बन्धी कबीलार्इ  अवधारणा का विरोध करता है । यहूदी धर्म की मूल परम्परा ही नस्लीय और रक्त-शुद्धता पर आधारित ,हजारों वर्ष लम्बी  वंशानुगत यात्रा में एक जातीय परिवार की रही है । उनके जन्म को देवदूतों से जोड़ने वाला प्रसंग जितना  उन्हें महिमा-मंडित करता है ,उनके जन्म से ही विशिष्ट होने के बोध का व्यकितगत और सामाजिक पोषण करता है । दूसरी ओर बार-बार उनके पिता के बारे में पूछे जाने को जिसे र्इसार्इ परम्परा प्राय: आध्यातिमक प्रश्न के रूप में ही लेती है उसकी तत्कालीन यहूदी मनोवृतित की परिचायक व्यंग्यात्मक प्रश्न के रूप में सामाजिक व्याख्या भी की जा सकती है । जिसका काव्यात्मक उत्तर देकर यीशु अपनी प्रतिष्ठा बचाने का प्रयास करते रहे और अन्तत: तत्कालीन यहूदियों के शुद्धतावादी प्रतिरोध एवं षडयन्त्र के शिकार हो गए । जैविक पिता की अनिवार्यता तथा यहूदियों की कुटुम्बीय जाति की अवधारणा का अतिक्रमण करते हुए यीशु स्वयं को अपने दिव्य पिता का पुत्र घोषित कर सारी मानव-जाति के एक ही उदगम की ओर जो ध्यान आकर्षित करते हैं , उनकी उपलबिधयां प्लेटो और अरस्तू की तरह भले ही बुद्धिवादी नहीं रही होंं लेकिन पशिचमी समाज के लिए वे युगान्तरकारी संस्कृति-वैज्ञानिक अवश्य प्रमाणित हुए । उनके दिव्य पिता का पुत्र होने की अवधारणा प्रसिद्ध भारतीय अवधारणा 'वसुधैव कुटुम्बकमके समानान्तर ही प्राचीन काल का क्रानितकारी वैशिवक प्रयास है ।
         इन दृषिटयों को लेकर मैं जब पशिचम की ओर देखता हूं तो आम धारणा के विपरीत यीशु और मुहम्मद दोनों ही मुझे पषिचम में पूरब की राजनीतिक शकित विरोधी सामाजिक-सांस्कृतिक-नैतिक शकितवादी चेतना के ही विस्तार लगते हैं । दोनों ही एडम ओर र्इव की थोड़ी भी चूक को बर्दास्त न करने वाले पषिचम के असहिश्णु अधिनायकवादी र्इश्वर को मानवीय बनाते हैं । मानव-जाति के सम्पूर्ण इतिहास में दोनों ही अभूतपूर्व यतीम (पितृविहीन,अनाथ) न सिर्फ दिव्य और सार्वभौम पिता की खोज करते हैं बलिक आदिम कबीलार्इ अवधारणा के गुस्सैल-असहिश्णु र्इश्वर का पिता और पुत्र के मानवीय सम्बन्धों में पुनर्संस्कार करते हैं । जैसे आज का भारत गांधी को गोली मारकर उनकी विचारधारा से दूर हट गया है ,मुझे बार-बार लगता है कि यीशु को क्रूस पर चढ़ाकर और मुहम्मद साहब की मृत्यु के पष्चात पशिचम भी अपने प्रर्वतकों की पीड़ा और विचारधारा को समझने में असफल रहा है । पशिचम बार-बार अपने व्यवस्था-निर्माण की सभी शैलियों में ,अपने आदिम-कबीलार्इ अधिनायकवादी र्इश्वर की ही खोज करते हुए दमन ,निरसित तथा सामान्य मनुष्य के अधिकारों का अपहरण करने वाली व्यवस्था-परिकल्पना की ओर बार-बार लौट आता है । इस लौटने को सिकन्दर,नेपोलियन,हिटलर,स्टालिन ,सददाम हुसैन,लादेन और जार्ज बुश आदि कर्इ आवर्ती रूपों में देखा जा सकता है । पशिचम इस अचेतन से बाहर निकलकर राजनीतिक शकित आधारित व्यवस्था से बाहर किसी सामाजिक-सांस्कृतिक शकित आधारित मानव-विश्व और व्यवस्था की खोज कर ही नहीं सका है । विभाजित स्वामित्व (र्इश्वर और शैतान ) की अचेतन अवधारणा नें उसे क्रमश: काल्पनिक शत्रु के षडयन्त्रों के प्रति शक्की ,कूटनीतिक ,सह-असितत्व विरोधी ,कुचक्री ,असहिष्णु और हिंसक बना दिया है । अपने इस अचेतन से मुकित का संघर्ष और प्रयास स्वय पशिचम को ही करना होगा । उसे लौटना ही होगा यीशु और मुहम्मद जैसे अपने दिव्य पिता के दिव्य पुत्रों की मानव करुणा वाले पवित्र संस्कृति-पूर्वजों की ओर। इतना ही नहीं ,एक ही सामूहिक अचेतन के उत्तराधिकारी पशिचमी पूंजीवाद और साम्यवाद प्रवर्तक कार्ल माक्र्स के भी राजनीतिक साम्यवादी व्यवस्था को पूरब के सामाजिक-सांस्कृतिक-विकेन्द्रीकृत र्इश्वर वाले सामूहिक अचेतन के अनुरूप-मानव-सम्मान पर आधारित ,विकेन्द्रीकृत किन्तु आत्मानुशासित ,अहिंसक, और शान्त मानवीय व्यवस्था की खोज करनी ही होगी ।  
        पूरब -विषेशकर भारत की आध्यातिमक अवधारणाओं का मूल सूत्र उसकी भाषा-वैज्ञानिक चेतना के विकास में छिपा हुआ है । उसका ब्रहम, सिथतिप्रज्ञता  और शून्य वस्तुत : सभ्यताजन्य विकृतियों से अप्रभावित मनुष्य के विशुद्ध चित्त की खोज ही है । यह चित्त जो सर्वकालिक आदिम है और अधतन भी । इस चित्त की खोज उस रेफरी की उपसिथति की तरह महत्वपूर्ण है ,जो किसी खेल के हिंसा में बदल जाने के पूर्व ही चेतावनी की सीटी बजाकर उसे रोक सकता है । पशिचम का र्इश्वर नितान्त अवधारणापरक है जबकि  पूरब का र्इश्वर अवधारणा से अधिक सांस्कृतिक और प्रतीकात्मक है । पूरब के लिए ऐतिहासिक स्मृतियों को जीना जीवन-प्रकि्रया की आवृतित और अनावश्यक को जीना है । उसके लिए ऐतिहासिक स्मृतियों को जीना ही अहंकार और मोह-युक्त मन को जीना है -अफीम है । इसके विपरीत पशिचम के  र्इश्वर की व्यापित कम है । वह तात्तिवक और दार्शनिक कम लेकिन सामाजिक और मानवीय अधिक है । वह सृषिट के निर्माता तथा अच्छार्इ और बुरार्इ के प्रतीकों का सरलीकृत रूप है।  वह अपनी अवधारणा में ही सर्वशकितमान नहीं है । वह और उसकी बनार्इ दुनिया , उसके समानान्तर की र्इष्यालु रूहानी उपसिथति शैतान के कायोर्ं एवं मानव-विरोधी षडयन्त्रपूर्ण प्रयासों से संत्रस्त है । उसका एकेश्वरवाद भी दरअसल आषिंक एवं विभाजित एकेश्वरवाद है ; क्योंकि उसकी अवधारणा में सृषिट की सारी शकितयां ( शैतान के सह-असितत्त्व के कारण निरीह एवं संत्रस्त किन्तु सिर्फ मानव-विश्व का निर्माता होने की सीमा तक ही आंशिक सर्वशकितमान) एक अच्छे एवं पवित्र (जिन्न!) गाड ,खुदा या यहोवा तथा (बुरे जिन्न ) शैतान या इबलीस में विभाजित हैं। दरअसल वह प्रभावशाली शासक-सत्ता और शासक बनने क लिए निरन्तर षडयन्त्ररत शत्रु-सत्ता का ही आदिम रूपक है। मानव समाज में व्याप्त अच्छाइयों और बुराइयों का ही सृषिट की विराटता के समकक्ष निर्मित चारित्रिक प्रतिरूप । इस प्रकार अवधारणा के स्तर पर वह जन-सामान्य के लिए उपयोगी है ही नहीं । क्योंकि उसकी अवधारणा एक राजनीतिक संस्कृति का ही निर्माण कर सकती है और अपने समाज-मनोवैज्ञानिक प्रभावों में वह सिर्फ एक सैन्यीकृत समाज और संस्कृति का ही प्रेरक और निर्माता हो सकता है ।
           यह एक संयोग नही है कि पशिचम के प्राय: सभी प्रसिद्ध धर्मप्रवर्तक जैविक परिवार की आदिम कबीलार्इ अवधारणा को न सिर्फ गहरी चोट पहुंचाकर उसे ध्वस्त करते हैं और सम्पूर्ण मानव-जाति के एक परिवार होने का सन्देश देते हैं। (सिर्फ मूसा को छोड़कर , जो अपने कुल की अपमानित असिमता के प्रतिकार के प्रयास में विश्व के सबसे बड़े पारिवारिक धर्म (यहूदी) से कभी बाहर नहीं निकल पाये )। लौकिक या संकीर्ण परिवार के प्रति उनका (यीशु और मुहम्मद का ) दार्शनिक निषेेेध अकारण ही नहीं है । ऐसा करने के पीछे उनके निजी जीवन के अनुभवों का ठोस मनोवैज्ञानिक आधार भी था । मनोवैज्ञानिक दृषिट से पितृ-विहीनता की यही मानसिक आवृतित इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब में भी देखी जा सकती है तथा कुछ परिवर्तन के साथ रामायण और महाभारत के नायक राम और कृष्ण में भी। मुहम्मद साहब के पिता अब्दुल्लाह की मृत्यु तो उनके जन्म से पहले ही हो चुकी थी । कृष्ण की तरह , जिन्होने अपनी मां देवकी का दूध नहीं पिया बलिक यशोदा का पिया तथा उनका विकास ही एक सर्वप्रिय सार्वजनिक शिशु के रूप में हुआ-मुहम्मद साहब नें भी अरब की प्रथा के अनुसार अपने चाचा की दासी सुवैबा तथा किराए की दार्इ हलीमा का दूध पिया । सन्तानोत्पतित के लिए अयोग्य दसरथ के यहां राम का जन्म ही विशिष्ट एवं दिव्य शिशु होने की अवधारणा के साथ हुआ । मध्ययुगीन सन्त कवि कबीर के भी जन्म की मानवीय-मनोवैज्ञानिक परिसिथतियां इसीप्रकार की हैं । अपने वास्तविक जैविक पिता के जीवित स्नेह और मानवीय संरक्षण से वंचित इन सभी शिशुओं ने मानव-जाति की सांस्कृतिक संरचना को बहुत दूर तक प्रभावित किया। ये सभी किसी दिव्य सत्ता के प्रतिनिधि या अवतार हैं या नहीं लेकिन मेरी दृशिट में महान और महत्वपूर्ण सामाजिक प्रभाव वाले ऐसे संस्कृति-वैज्ञानिक हैं जिन्होनें मानव-जाति के इतिहास में रागात्मक सम्बन्धों की पारिवारिक और कबीलार्इ संरचना को तोडा । उसका अतिक्रमण किया और मानव-जीवन को रागात्मक सम्बन्ध के धरातल पर सम्पूर्ण प्रकृति के साथ अन्तर्सन्दर्भित करते हुए पुनर्परिभाषित किया । यह धर्म का वह समाज- मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य है जिसका सम्बन्ध र्इश्वर की दार्शनिक अवधारणा से कम ,लेकिन मानव-जाति के सम्पूर्ण असितत्व से अधिक है । मानव-जाति के असितत्व के सम्पूर्ण इतिहास में परमाणु और हाइड्रोजन बम के आविष्कार और विस्फोट की तरह ये नैतिकता और आत्मीयता के बड़े संवेदनात्मक विस्फोट हैं । हिन्दुओं में जीवन पर्यन्त के लिए एकल दाम्पत्य-सम्बन्ध की सामाजिक प्रथा का सम्बन्ध तीन पतिनयों वाले पिता दसरथ के पुत्र राम के एकल दाम्पत्य से है ।
        स्वयं र्इसाइयत में भी बौद्ध-धर्म की वैशिवक उपसिथति के परिदृश्य में भी पूरब की सांस्कृतिक सत्ता का पशिचम मेें स्थापित होता हुआ उपनिवेश देखा जा सकता है । लेकिन पशिचम की त्रासदी यह है कि र्इसार्इ-विश्व संगठित होते ही एक बार फिर ' ओल्ड टेस्टामेंट मेें व्यक्त सृषिट के उदभव सम्बन्धी अवधारणाओं की ओर मुड गया। इससे आगे चलकर पशिचम का नवजागरण और अधिक संघर्ष और चुनौती-पूर्ण हो गया । बाद का सारा र्इसार्इ धर्म स्वयं र्इसा मसीह द्वारा नहीं बलिक उनकी शहादत को प्रचारित और भव्यीकृत करने वाले उनके भावुक अनपढ़ और अन्धविश्वासी अनुयायियोंं द्वारा रचा गया । उदाहरण के लिए आदम के पाप के फल को चखने और यीषु के बहे हुए रक्त के बीच सम्बन्ध स्थापित करने वाली भावुक धार्मिक अपील के लिए स्वयं यीशु को तो जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता । सृषिट के मात्र छह दिन में रचना सम्बन्धी धारणा का भी यीशु से क्या सम्बन्ध हो सकता है ! इसीलिए मेरा मानना ह कि यीशु मसीह पूरब की संस्कृति और चेतना के ऐसे प्रतिनिधि हैं , जिनकी पशिचम नें हत्या कर दी ,दूसरी हत्या पशिचमीकृत भारत के अचेतन धार्मिक अनुयायी नें गांधी की बीसवीं शताब्दी में की जिसे मैं इस्लाम की प्रतिक्रिया में भारतीय सभ्यता के पषिचम से संक्रमण की स्वााभाविक एवं ऐतिहासिक प्रतिनिर्मित में उपजे -सांस्कृतिक दृषिट से मुसिलमीकृत हिन्दू के हाथों हुर्इ मानता हूं । इस्लाम के सांस्कृतिक प्रतिरोध में निर्मित हिन्दू जिसका जन्म ही शरीर में बनने वाले प्रतिजैव की तरह प्रति- इस्लामी है । इस संक्रमित इस्लामीकृत हिन्दू का सांस्कृतिक अचेतन भी मैं पूरब के विकेन्æीकृत शकित-संरचना तथा  र्इश्वर की अवधारणा सम्बन्धी अचेतन के अनुरूप भारतीय नहीं मानता ।
            वस्तुत: पूरब लम्बे समय तक सामुदायिक-सांस्कृतिक सत्ताओं को ही जीने का आदी रहा है.....


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         एक नयी व्यवस्था को पानें की दिशा में भविष्य-चिंतन परिकल्पना,योजना और यूटोपिया के रूप में हो सकता है । खतरा यह है कि अधिकांश यूटोपिया अपनें निर्माण के समय की वास्तविकताओं की प्रतिकि्रया में ही जन्म लेते हैं । लेकिन उनके अनुयायी और प्रशंसक उन्हें सार्वभौम मान लेते हैं । इस समझ के अभाव में किसी यूटोपिया या विचारधारा के पाश्र्व-दुष्प्रभाव का चिन्तन नहीं हो पाता । इस तरह हर परिकल्पनात्मक विचारधारा एवं यूटोपिया में
मनवीय प्र्यावरण के विनाश के कुछ खतरे हो सकते हैं ।